खुफिया अभियानों की गुमनाम साथी : घरेलू दायरे से क्रांतिकारी अभियान तक

निवेदिता


निवेदिता पेशे से पत्रकार हैं. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में  सक्रिय . स्त्रीकाल की संपादक मंडल सदस्य . सम्पर्क : niveditashakeel@gamail.com

पटना से बाहर निकलते ही मेरे पंख उग आते हैं. हम जब घर से निकले तेज धूप फैली थी .सड़क के दोनों किनारे सुर्ख फूलों वाले घने दरख्त दमक रहे थे. पुरानी ईटों की उदास इमारतें थीं जिनकी मेहराबों के  नीचे लोग  सुस्ता रहे थे . सुनहरा दिन इस कदर दिल फरेब था कि कब हम बेगूसराय पहुँच गए पता नहीं चला. .. परवेज अख्तर और हम,नर्म -नर्म धीमी तहज़ीब , हमारे साथ बातों का खजाना .पुराने दिनों की हंसी और अतीत के चेहरे. मैं सुन रही थी और भीग रही थी..वे संघर्ष के दिन थे .. उनके पिता बड़े शायर थे .समीउल्लाखां.शमीम मुजफ्फ़रपुरी के नाम से शायरी करते  थे . कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे. देश के बड़े शायरों का अड्डा उनके घर जमता था.उनके अब्बा और जानिसार अख्तर अच्छे दोस्त थे.

यह उन दिनों की बात थी जब कम्युनिस्ट पार्टी पर पावंदी थी. पार्टी में रहने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया  था .उनकी अम्मा सोगरा बेग़म  13 साल की थी जब ब्याह दी गयी थीं .बुर्के के बाहर की  दुनिया  देखी नहीं थीं . बाहर भी  निकलती  तो शौहर के कुर्ते का  कोर थामें  रहतीं .जब अब्बा गिरफ्तार हो गए  तो  घर की माली हालात बिगड़  गयी . बच्चे भूख से तड़प रहे  थे . वही  दिन  था  जब अम्मा  ने  फैसला किया  कि उन्हें अपने बच्चों को  देखना  होगा  और परिवार  चलाना होगा .उन्होंने बुर्के में आग लगा  दी और घर  के बाहर निकल गयी मैं ये किस्सा  सुन  रही  थी और चकित  थी की धर्म परायण और पर्दे में रहने  वाली औरत ने जब  ये  फैसला किया  होगा  तो उन्हें कितनी हिम्मत  की  जरुरत पड़ी  होगी .अम्मा को  मैंने काफी करीब  से  जाना  है.
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हमलोगों ने  उन्हें हमेशा एक  मजबूत औरत  की  तरह  पाया  पर  नहीं जानती  थी  कि  यहाँ तक पहुँचने के  लिए  उन्हें कितने कठिन रास्तों का सामना करना पड़ा .वे घर से निकली और जेलर से मिली और कहा उन्हें अपने पति से मिलना है . पहले तो जेल प्रशासन इस  बात के  लिए  तैयार नहीं  था.  अब्बा राजनीतिक कैदी थे . पर  वे  अड़ गयीं  और कहा ये  हमारा अधिकार  है,  जेलर को फिर  इजाजत देनी  पड़ी . जेल  में अब्बा  ने  बताया कि कौन साथी बाहर  मिलेंगे और  कहाँ मिलेंगे . उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी पर कड़ा  पहरा  था . पार्टी  के अधिकांश लोग भूमिगत थे . उन्हें पुलिस से छिपकर संगठन का  काम  करना  होता  था . अम्मा पार्टी के लोगों से  मिली.पार्टी की मदद करने  लगीं. प्रशासन हैरान था  की  इस  कड़ी पावंदी के बाबजूद लोगों   तक कम्युनिस्टों का  संदेश किस  तरह  पहुँच जाता  है .

मैं नहीं  जानती  की  मुझे ये  किस्सा  बयान करना  चाहिए  या  नहीं.  ये परवेज अख्तर और  उनके परिवार का खूबसूरत अतीत है पर  मुझे  लगा ये बातें दुनिया  को  जाननी   चाहिए. दुनिया को  जानना चाहिए कि आज जहाँ हमसब  हैं  उस  समाज  को  बनाने में कितने  लोगों ने  अपना  जीवन लगाया .एक औरत का  संघर्ष,  जिसने अपने  परिवार को और  समाज को दिया. वैसी तमाम गुमनाम  औरतों  का  इतिहास  लिखा  जाना  चाहिए. मुझे याद है  की एकबार पटना में आयोजित एक गोष्ठी में  जानी -मानी चिंतक प्रभा खेतान ने कहा  था ..हम स्त्रियों के पास इसके  सिवा चारा  ही  क्या है! हम अपने आप  को  उघाड़  कर ही यथा स्थिति के  खिलाफ विद्रोह कर पाती हैं . हमारा अपना  अंतरग अनुभव ही  हमारा पहला अस्त्र है जो  आगे  जाकर अपनी प्रमाणिकता के जरिये इतिहास बनता  है .मैं जानती हूँ  कि हमसब के जीवनमें ऐसी अनगिनत महिलाएं हैं जिन्होंने समाज बदलने में भूमिका निभाई  पर उनकी  भूमिका को  रेखांकित नहीं  किया  गया .

ये गुमनाम औरतें हैं और इन पर लिखना इतिहास  को नए  सिरे से  देखना  है. अम्मा सोगरा बेगम और  उन
तमाम औरतों पर लिखा  जाना  चाहिए,  जिसने समाज से लोहा  लिया, जिसनें एक बेहतर समाज के सपने देखें और अपने बच्चों को  अच्छा इन्सान बनाया .मुफलिसी और  गरीबी उनकी हिम्मत को तोड़ नहीं  पायी.  .अम्मा मामूली  पढ़ी-लिखी  थीं. उन्होंने बच्चों के साथ खुद  पढ़ना -लिखना शुरू  किया. उर्दू ,हिंदी सीखा. मैंने उन्हें जब भी  देखा उनके  हाथों  में कोई  न कोई किताब  होती थी.  हमारे जीवन के आस -पास इतनी सारी कहानियां बिखरी पड़ी रहती हैं. हम सहेज नहीं पाते. अगर परवेज अख्तर के साथ ये  सफर नहीं होता  तो  शायद ये कहानी मेरे  पास  नहीं आती .अब्बा की गिरफ्तारी के बाद  उनके  घर पर  पुलिस का  पहरा  रहता था. ख़ुफ़िया पुलिस  अम्मा की गतिविधियों  पर नज़र रखती  थी.कम्युनिस्ट  पार्टी के लोग बड़ी संख्या में नजरबन्द थे. पार्टी का काम  रुके नहीं इसलिए यह जिम्मा अम्मा को दिया गया. अम्मा जानती थी उनपर पुलिस का पहरा  है इसलिए संगठन के  पर्चा बाँटने का  जिम्मा परवेज अख्तर के  बड़े  भाई नसीम  अख्तर  को  दिया  गया
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उनकी  उम्र उस समय  काफी  कम  थी वे अपने  कुर्ते के  भीतर पर्चा छिपा कर लोगों  तक  पहुंचाते थे . पुलिस काफी  परेशान थी  कौन है  जो पर्चा बाँट रहा  है  और एक  दिन  भैया पकडे  गए. पुलिस  उन्हें  जेल ले  गयी . अम्मा   को  खबर मिली  तो वो जेल पहुँच गयी और  प्रशासन से भिड गयीं. उन्होंने कहा  कि  उनका  बेटा नाबालिग है  और पर्चा किसने दिया उन्हें  नहीं  मालूम  और  कानून इस नाबालिग  बच्चे  को  गिरफ्तार नहीं कर  सकता .मैं किस्सा  सुन  रही  थी  और अतीत मेरे सामने था. सोगरा  बेगम जो  हम  सब की अम्मा  थीं अम्मा  से  मेरा  अक्सर मिलना होता  था. एक  खुशदिल औरत जिनके चेहरे की झुर्रियां गवाह  थी,  उन्होंने जिन्दगी के  थपेड़े झेले हैं .समीउल्ला खां जेल से बाहर आये  तो  जिन्दगी कुछ  पटरी पर  आयी. उन्होंने रेलवे में नौकरी कर  ली .घर फिर  शायरों और अफसानानिगार से  गुलज़ार होने  लगा  पर  दुःख ने अभी उनका  पीछा नहीं छोड़ा था सिर्फ  49 साल की उम्र में समीउल्ला खां का  निधन हो  गया और परिवार फिर मुश्किलों से  घिर गया. बच्चे सभी  पढ़ रहे थे . उन दिनों परवेज अख्तर के पिता अपना बेकरी चलाते  थे. अम्मा ने तय  किया की परिवार चलाने  के  लिए  अब वे  बेकरी  चलाएंगी . पूंजी नहीं  थी  इसलिए काम के  लिए मजदूरों को नहीं  रख सकती  थी .

बेकरी से बने सामान बच्चे सायकिल पर  लेकर बेचते थे. परवेज अख्तर हर  रोज सायकिल पर बेकरी का सामान लेकर मीलो चलते  थे .आज  मुझे  लगता  है  कि  इस  परिवार  ने  जो संघर्ष किया  शायद यही  वजह  है कि कला , कविता , साहित्य के  प्रति इनका इतना गहरा  अनुराग है . दुनिया आज  इस  परिवार को  मुहब्बत से देखती  है  . उम्मीद से  देखती है .  पर लोग  ये  नहीं  जानते की  उन सबके  बनने  में उनकी माँ की  कड़ी मेहनत है . जिसने उन्हें जीवन  दृष्टि दी जिन्होंने मनुष्यता में यकीन करना सिखाया ..हम अब बेगुसराय पहुँचने वाले थे .सूरज डूब रहा था .दरख्त झुक कर बेलों पर छ गए थे .बहार ने शहद की  स्याह मक्खियों   को अपने जानिब बुला लिया . आम के मंजर की  खुशबू औरदरख्तों से  गिरते पराग और  चिडियों की  चहचाहट सुकून  में  खो गए .सारीकायनात मुहब्बत में  गिरफ्तार हो गयी ……

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