महिमाश्री की कवितायें

महिमाश्री

महिमाश्री डा. बाबा साहब आम्बेडकर विश्वविद्यालय , दिल्ली से शोध कर रही हैं.   संपर्क :mahima.rani@gmail.com .

तुम स्त्री हो ….

सावधान रहो, सतर्क रहो
किस-किस से ?
कब-कब,कहाँ-कहाँ ?
हमेशा रहो !,हरदम रहो
जागते हुए भी,सोते हुए भी
क्या कहा !
ख्वाब देखती हो ?उड़ना चाहती हो ?
क़तर डालो पंखो को अभी के अभी
ओफ्फ तुम मुस्कुराती हो !
अरे  तुम तो खिलखिलाती भी हो ?
बंद करो आँखों में काजल भरना
हिरणी सी कुलाचे भर भँवरों संग गुंजन करना
यही तो दोष तुम्हारा  है
शोक गीत गाओ !
भूल गयी तुम स्त्री हो !
किसी भी उम्र की हो क्या फर्क पड़ता है
आदम की भूख उम्र नहीं देखती
ना ही  देखती है देश, धर्म और जात
बस सूंघती है
मादा गंध!

 इस बार नहीं
एक दिन तुमने कहा था
मैं सुंदर हूँ
मेरे गेसू काली घटाओं की तरह हैं
मेरे दो नैन जैसे मद के प्याले
चौक कर शर्मायी, कुछ पल को घबरायी
फिर मुग्ध हो गयी अपने आप पर
पर जल्द ही उबर गयी तुम्हारे वागविलास से
फंसना नहीं है मुझे
तुम्हारे जाल में

सदियों से सजती ,संवरती रही
तुम्हारे मीठे बोल पर
डूबती- उतराती रही पायल की छन- छन में
झुमके , कंगन , नथुनी ,बिंदी के चमचम में

भूल गयी
प्रकृति के विराट सौन्दर्य को
वंचित हो गयी
मानव जीवन के उच्चतम सोपानों से
और
तुमने छक के पीया
जम के जिया
जीवन के आयामों को
पर इस बार नहीं
भरमाओ मत !
देवता बनने का स्वाँग बंद करो !
साथ चलना है , चलो
देहरी सिर्फ मेरे लिए
हरगिज नहीं..

 चेतावनी

सुनो !
क्या कहती हैं
माताएं , बहने , सखी सहेलियाँ, जीवन-संगिनिया
वक्त बदल चुका है
सुनना , समझना और विमर्श कंरना

सीख लो
स्वामित्व के अहंकार से
बाहर निकलो
सहचर बनो
सहयात्री बनो
नहीं तो ?
हाशिये पे अब
तुम होगे
हमारे पाँव जमीं पर हैं
और  इरादे मजबूत
सोच लो

कैसे करुँ मैं प्रेम ?

बताओ तो भला कैसे करुँ मैं प्रेम  ?
रोज ललनाएं मारी जाती हैं गर्भ में
कहीं चढ़ जाती हैं दहेज की वेदी पर
कभी छली जाती हैं प्रेमपाश में
या फिर रखी जाती हैं कई लक्ष्मण रेखाओं के घेरे में
और पाती हैं कई हिदायतें
रावण आयेगा, बलात ले जाएगा
बताओ तो भला कैसे करुँ मैं प्रेम
धधकता है हृदय क्रोध से
जलता है मन आवेश से
कैसे उगाऊँ दिल में कोमल एहसासों के बीज

जहाँ सीता हर रोज अग्नि-परीक्षा  देती है
अहिल्या पथरायी प्रतीक्षारत है न्याय के लिए
जहाँ एक ना पर तेजाब से
झुलसा दिये जाते हैं सारे अरमान
बताओ तो भला कैसे करु मैं प्रेम ?

 तुम सब ऐसे क्यों हो ?


क्या किया है तुमने
तुम्हें थोडा सा भी आभास है क्या?
मुठ्ठियों में भीच कर बैठे  हैं हम
अपनी ज़िन्दगी के किरर्चें
हसीं चेहरे के साथ
लहुलूहान कर दिया हमारी  आत्मा
तुम सब ऐसे क्यों हों ?
हम प्रेम भी करें तुम्हारे कहने पर
उठे ,बैठे , खाए ,सोये , घूमे तुम्हारे चाहने पर
नहीं तो मिटा डालोगे ?
क्यों हो तुम सब ऐसे ?
हैवानियत की अभी कितनी हदें बाकी है
बताना तो जरा ?
मुखौटे डाले भागते हुए
या जेल के सलाखों के पीछे ही सही
जहाँ  एक दिन पहुँचना ही है तुम्हें
टटोलना कभी अपने  आपको
तुम इंसान हो क्या ?
समाज हा हा हा
हंसी आती है
हाँ यही समाज हैं न
जो तुम्हें सिखाता है “तुम मर्द हो “
मर्द रोते नहीं है
हाय रे
तुम और तुम्हारा समाज !
फूलों पर तेज़ाब डाल दम दिखाते हो

तुम्हें क्या लगा था ?
हम जख्मी चेहरे के साथ गुमनाम कहीं मर जायेंगें
या ख़ुदकुशी कर विदा हो जायेंगे
गलत थे तुम
धिक्कार है हम पर अगर ऐसा सोचा भी
अभी तो दिखाना है  इस समाज को आईना
हमारा जख्मी जिस्म तुम्हारे सभ्य समाज के
बदसूरत सोच की तस्वीर है
जब तक तुम्हारी सोच बदलती नहीं
तब तक अपने जख्मी आत्मा का परचम लहराते रहेंगें

ताकि सनद रहें
जमाना बेवजह सभ्य होने  का दम तो ना भरे !

(तेजाब पीडिता उन सभी बहनों के जज्बे को समर्पित, जो सर उठा के जीने के लिए संघर्षरत हैं। )

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles