कुमारी ज्योति गुप्ता भारत रत्न डा.अम्बेडकर विश्वविद्यालय ,दिल्ली में हिन्दी विभाग में शोधरत हैं सम्पर्क: jyotigupta1999@rediffmail.com
‘‘हम न भूलेंगे, हम हैं भारतवासी’’ यह हर प्रवासी रचनाकार की पहचान है. मैं इस चर्चा को इस तरह शुरु करना चाहती हूँ कि आखिर प्रवासी साहित्य है क्या ? इस पर विचार करने की जरुरत क्यों है? क्या भारत से बाहर रहकर भारतीय भाषा में लिखने वाले भारतीय लेखक कहलाएँगे या कि जिस देश में वे रह रहे हैं वहीं के. प्रवासी साहित्य का नाम लेते ही वे लेखक/लेखिका सामने आ जाते हैं जो अपनी मातृभूमि, जन्मभूमि छोड़कर परदेश में निवास कर रहे हैं और अपनी भाषा में प्रवास की सामाजिक सांस्कृतिक, आर्थिक राजनीतिक, भौगोलिक स्थितियों का चित्रण कर रहे हैं. यह उनकी निजी अनुभूति से उपजा साहित्य है जो भारत की सोच से उतना ही जुड़ा है जितना कि बाहर से. प्रवासी मनुष्य विषमताओं और संघर्ष को देखकर प्रवासी हिन्दी लेखक के हृदय में जो दर्द उत्पन्न होता है और उसे अभिव्यक्त करने के लिए वह जिन विधाओं को माध्यम बनाता है वही प्रवासी साहित्य है.
प्रवासी एक तरह से वे हैं जो अपनी जड़ों से कटकर भी अपने भीतर की गहराईयों में नई शक्ति, नई संवेदना और नई चेतना विकसित करते हैं. यह चेतना अपने मूल्यबोध को बचाए रखने की है. अपने अस्तित्व को बचाए रखने की है. आर्थिक, सामाजिक सुख स्त्रोतों से भरपूर होने के बावजूद ऐसा क्या है जो उन्हें उस प्रवास में रास नहीं आता. प्रवासी लेखक जिन्दगी के भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में लिप्त होते हुए भी उसे पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाते, उनके अन्दर एक बेचैनी है प्रवास के मानसिक संताप को न झेल पाने की. इतिहास साक्षी है कि वहाँ रह रहे साहित्यकारों को जिन दो प्रमुख मोर्चों पर कुचला गया वह है अर्थ और अस्मिता. अर्थ की समस्या तो सुलझ गई पर वहाँ हर साहित्यकार आज अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है. सुषम बेदी ऐसी ही लेखिका है.
अद्भुत प्रतिभाओं को किसी पहचान की जरुरत नहीं होती क्योंकि वे जहां खड़े हो जाये वहीं अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेते हैं. ऐसी ही अद्भुत प्रतिभा की धनी हिन्दी प्रवासी लेखिका सुषम बेदी हैं. जिन्होंने अपने कथा साहित्य के जरिये न केवल प्रवासी नारी को चित्रित किया बल्कि प्रवास में रहते हुए तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करने वाली स्त्रिीयों की रोजमर्रा की जिन्दगी से हमें रु-ब-रु कराया. आज साहित्य सृजन प्रवासियों के जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है. भिन्न-भिन्न देशों में रचा जा रहा प्रवासी साहित्य भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के अन्तर्गत अपने तौर पर विलक्षण है. परन्तु इनमें कुछ विषेशताएँ एक जैसी है. जैसे – नस्लवाद, सांस्कृतिक तनाव, रिश्तों की सार्थकता और बेगानापन आदि. हर प्रवासी साहित्यकार इन बुनियादी समस्याओं को हर रोज किसी न किसी स्तर पर झेलने के लिए अभिशप्त है इसी की बेबाक अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में देखने को मिलती है. क्योंकि लेखन एक ऐसा जरिया है जो हर तरह के मानसिक संताप से लेखक को मुक्त करता है. रेखा मैत्र की एक पंक्ति हैः-
‘मिटने के डर से
उंगलियाँ कहाँ थमती है.
उन्हें रौशनाई मयस्सर न हो.
तो भी वे लिखती हैं,
लिखना उनकी फितरत है.’
अतः जब तक लिखने और लिखते रहने का हौसला जिन्दा हो, किसी की भी ‘लेखकीय मौत’ नहीं हो सकती. प्रवासी साहित्यकार इसी अर्थ में अपनी मूल्यवत्ता को बचाये रखने में सफल रहे हैं और कविता, कहानी, उपन्यास के पात्रो द्वारा अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे हैं. सुशम बेदी ने कथा साहित्य के माध्यम से प्रवासी हिन्दी साहित्य में नारी की स्थिति का यथार्थ जीवन का चित्रण किया है साथ ही तात्कालीन समस्याओं, चुनौतियों, मध्यवर्गीय संस्कारों तथा पुरुष शोषण की शिकार स्त्री के जीवन के विभिन्न पहलुओं से पाठकों को रु-ब-रु करवाया है.
‘हवन’ (1989) सुशम बेदी द्वारा लिखा गया पहला उपन्यास है जिसमें अमेरिका में प्रवासियों के जिन्दगी का यथार्थ दर्शाते हुए वहां के चकाचैंध में अपने जीवन का हवन कर देने वाले व्यक्तियों की मनः स्थिति का बेजोड़ आकलन प्रस्तुत किया गया है. इस उपन्याय में मिस्टर बत्रा का वर्णन है जो विदेश में प्रवास कर रही गुड्डों को जरिया बनाकर वहां पहुँचाना चाहते हैं. इसमें डाॅ0 जुनेजा जैसे लोगों का जिक्र भी आया है जो विदेश में नये आये लोगों की मदद तो करते हैं परन्तु साथ ही सब वसूल भी लेते हैं. राधिका जैसी दोहरी संस्कृति की शिकार लड़की की दुखद गाथा भी है जो विदेशी चमक-दमक में इतनी खो जाती है कि अन्त में बलात्कार का शिकार हो जाती है. पश्चिमी संस्कृति की रंगरलियों में उपन्यास के पात्र अपना सब कुछ गँवा देते हैं. लेखिका ने इसी ओर इशारा किया है कि भारतीय मूल्यबोध, भारतीय संस्कार मानवीय मूल्यों का निर्माण करते हैं न कि संस्कारों का हवन.
‘लौटना’ (1992) एक स्त्री की अस्मिता की खोज की कथा है. एक नए परिवेश में अपने अस्तित्व को कायम रखते हुए अस्मिता की तलाश करने वाली स्त्री की संघर्ष का चित्रण है जो बसने और लौटने की उधेड़-बुन में फंसी नयी राह की खोज करती है. बसना नायिका मीरा की जरुरत है और लौटना उसका भारतीय संस्कार. अपनी भूमि, अपनी मिट्टी और अपनी जड़ों की ओर. यही है अपनी अस्तित्व को कायम रखने की जद्दोजहद. मीरा शरीर से परदेश में है लेकिन मन से अपने देश में और अपने इसी अस्तित्व के लिए वह पूरे उपन्यास में संघर्ष करती दिखाई गई है. मीरा की स्थिति प्रवासी लेखिका डाॅ0 अंजना संधीर के शब्दों से व्यक्त कर सकते हैंः-
‘ख्याल उसका हरेक लम्हा मन में रहता है
वो शम्मा बनके मेरी अंजुमन में रहता है
मैं तेरे पास हूँ, परदेश में हूँ, खुश भी हूँ
मगर ख्याल तो हर दम वतन में रहता है.’
‘कतरा दर कतरा’ (1994) उपन्यास है शिक्षा में असफल युवक की जो पिता की उम्मीद पर खरा न उतरने के कारण हीन भावना का शिकार हो जाता है और कहीं न कहीं मानसिक स्तर पर विक्छिपत हो जाता है. प्रकारान्तर से यह उपन्यास भी नायिका शशि की यातना को भी दर्शाती है. क्योंकि पितृसत्ता की शिकार शशि का जीवन ही कतरा दर कतरा रिसता है वह पागल तो नहीं होती पर अपने जीवन का हर कतरा भाई और बेटे को संभालने में ही व्यतीत कर देती है. शशि पारिवारिक, सामाजिक तनाव से उत्पन्न खोखलेपन को झेलने के लिए अभिशप्त है लेकिन परिस्थितियों के आगे हार नहीं मानती.
‘इतर’ (1998) मात्र उपन्यास ही नहीं, बल्कि एक चेतावनी भी है, उन लोगों के लिए जो जिन्दगी में उन्नति के लिए चमत्कार को एक मात्र साधन मानते हैं और बाबाओं के जाल में ऐसा फसते हैं कि निकलना नामुनकिन सा हो जाता है. इसमें लेखिका ने धर्म और आस्था के नाम पर लोगों के विश्वास के साथ खेलने वाले सन्तों और महात्माओं का भंडाफोड़ किया है.
‘गाथा अमरबेल की’ (1999) नारी मन की तह को परत दर परत उधेड़ता है जिससे कुछ चुभते हुए प्रश्न सामने आते हैं जो स्त्री अस्तित्व और अस्मिता से जुड़े हैं. ‘नवाभूम की रस कथा’ (2002) उपन्यास एक प्रेम कथा है आदित्य और केतकी की. इसे पढ़कर ऐसा लगता है कि प्रेम सिर्फ खोने का नहीं बल्कि पाने का नाम है. यह वियोग में कराहती स्त्री की विरहगाथा न होकर नवाभूम पर बसे दो पराभूमियों के प्यार की खोज की और इसके जरिये अपनी पहचान की है. अपने अस्तित्व और अस्मिता को बनाने की है.
‘मोरचे’ (2006) उपन्यास है एक स्त्री के शोषण की. इसकी नायिका तनु घिरी है कितने ही मोरचों से और इनसे जुझती हुई संघर्ष करती है. वह नये विकल्प की खोज करती है और स्त्री के लिए बनी बनाई चौखट को लांघने का फैसला लेती है. पति-परिवार से आगे जाकर अपने लिए उस व्यक्ति को चुनती है जो सचमुच उसके लायक है.तनु का निर्णय स्त्री के लिए निर्धारित तयशुदा मानदण्डों के खिलाफ जाकर निजी खुशियों के लिए लिया गया है जो उसकी पहचान से जुड़ा हुआ है. इस प्रकार हमने देखा कि सुषम बेदी ने अपने पात्रों के माध्यम से प्रवासी स्त्री की द्वन्द्वपूर्ण मानसिक स्थिति का चित्रण किया है, जो सम्पूर्ण भारतीय प्रवासी जिन्दगी की चिन्ता का कारण बनती जा रही है. साथ ही हमने देखा कि पश्चिमी संस्कृति को अपनाने के कारण जो सांस्कृतिक संकट उत्पन्न हो रहे हैं उसमें उनके पात्र कैसे खुद के लिए नया रास्ता तलाशते हैं कुछ अपने को होम करते हैं, तो कुछ अस्तित्व के लिए संघर्ष करते है. लेखिका स्वयं भी मानती हैं कि हर व्यक्ति छह-सात अस्मिताओं को लेकर चलता है, हर पहचान बहुत महत्वपूर्ण है जिसे बचाये रखने के लिए जान की बाजी लगा देनी चाहिए
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लेखिका का उपन्यास संसार हम देखें तो साफ पता चलता है कि यह वह समय था जब स्त्रियाँ परम्परा, पूँजी और पहचान का आत्मसंघर्ष झेल रही थी. तत्कालीन परिस्थितियों और उदारीकरण के दौर में सुषम बेदी के पात्र न केवल संघर्ष करती हैं बल्कि अपने होने को भी दर्ज करती हैं. इन परिस्थितियों में अपने अस्तित्व को बचाये रखने का बीड़ा एक भारतीय लेखक/लेखिका ही उठा सकता है क्योंकि आज भी उनमें वही संस्कार, मूल्यबोध जीवित हैं, जो इन्सान को सही अर्थों में इन्सानियत का पाठ पढ़ाता है. यह एक हिन्दी लेखिका की स्त्री शक्ति ही है जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता के सहारे परिवार, परिवेश , समाज को एक तार में बांधकर रखती है चाहे वह यहाँ भारत में हो या भारत से बाहर उस प्रवास स्थान पर.