हवा सी बेचैन युवतियां ‘दलित स्त्रीवाद की कविताएं’

 बेनजीर


रजनी तिलक को मै क्रांतिकारी कवयित्री के रूप में देखती हूँ. .इनकी कविताओं में जो बेबाक अभिव्यक्ति का स्वर  है , वह अद्भुत है. पदचाप कविता संग्रह में ‘औरत औरत में अन्तर है’ ‘भ्रूण हत्या ‘, जैसी कविताओं ने दलित स्त्रियों के लिए समाज में एक मशाल जलाने का काम किया या यूं  कहें  कि रजनी मिलक अपने समय और समाज को चुनौती देने वाली एक महत्वपूर्ण कवयित्री हैं . कवयित्री रजनी तिलक को क्रान्तिकारी मानने का सबसे बड़ी वजह यह भी है कि यह सिर्फ कवयित्री तक ही सीमित नहीं है बल्कि स्त्रीमुक्ति आन्दोलन की नेता भी हैं,  छात्र जीवन में ही ये दलित आन्दोलन एवं स्त्रीमुक्ति आन्दोलन के साथ शामिल हो गयी और महिलाओं के विरुद्ध  भेदभाव के खिलाफ संघर्ष करती रही हैं . इसका पूरा पूरा प्रभाव हमें इनकी कविता 1984 की लपटें, भंगिन, अर्धांगिनी जैसी कविताओं में देखने को मिलता है. ये उस दौर की  कविताएं है, जब इनका झुकाव महिला आन्दोलन की तरफ हो रहा था. आज अगर दलित साहित्य में स्त्रियां अपनी जगह बना पाई हैं तो उसमें रजनी तिलक का सबसे अहम भूमिका है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि रजनी तिलक खुद ‘‘हवा सी बेचैन यूवतियां’ कविता संग्रह की भूमिका में लिखती है ‘‘मेरा पहला कविता संग्रह ‘पदचाप’ 2000 में तब आया, जब दलित साहित्य मुख्य धारा में अपनी जगह बना रहा था और साहित्य जगत में हिन्दी दलित साहित्य को लेकर काफी हलचल थी. संवाद और बहस की तीखी झड़पे चल रही थी. दलित साहित्य की इस बहस में पुरूष साहित्यकार ही सक्रिय थे महिला दलित साहित्यकार पर्दे के पीछे थी।(पृ. 9) ’’1 दूसरा कविता संग्रह ‘हवा सी बेचैन युवतियां’ तक आते-आते अब दलित साहित्य स्थापित हो चुका है.

 रजनी तिलक अपनी कविताओं में दलित  स्त्रीवाद की बुनियाद रखते हुए  पूरे हिन्दी दलित साहित्य को ही चुनौती देती हैं .  इनकी यही विशेषता इन्हें अन्य स्त्रीवादी कवयित्रियों या लेखकों से अलग और विशेष बनाती है. ‘आदिपुरूष’ नामक कविता में लिखती है कि ‘‘ कथित दलित साहित्यकारों/तुम्हारी ओछी  नजर में/स्त्री का सुन्दर होना/उसका ‘मैरिट’/सुन्दर न होना उसका ‘डीमैरिट’! सवर्णों की नजर में/वे ही है मैरिट वाले/तुम हो डीमैरिट!, मैरिट का मैरिट का पहाड़ा उनका जैसा/वैसा ही तुम्हारा, फिर/ तुम्हारा विचार नया क्या? कौन सा सामाजिक न्याय कौन सा वाद तुम्हारा? जरा सोचकर बताओं’’(पृ.15)2 । कवयित्री केवल दलित स्त्रियों की ही समस्याओं को ही नहीं देखती बल्कि अन्य स्त्रियों को भी शामिल करती है. सवर्ण स्त्रियों की तरह दलित स्त्रियां भी किस तरह से पितृसत्ता का दंश झेलती है. क्योंकि समाज में हर औरत एक तरह से दलित ही है. जिसके कारण स्त्री समाज में दोयम दर्जे की नागरिक मानी जाती है. समाज में कोई भी स्त्री चाहे वह किसी भी धर्म जाति की क्यों न हो वह किसी न किसी रूप में पितृसत्ता को झेलती ही है. बात यहाँ  दलित स्त्रियों की है दलित स्त्री अन्य स्त्रियों की अपेक्षा दोहरा ही नहीं बल्कि तिहरे शोषण की शिकार है. एक साक्षात्कार में प्रसिद्ध चिंतक आलोचक डा. मैनेज़र पाण्डेय कहा भी है कि ‘‘ स्त्री के रूप में दलित स्त्री का शोषण और मजदूर के रूप में दलित स्त्री का शोषण, तिहरे शोषण का शिकार भी दलित स्त्री होती है. दूसरे वर्णों और वर्गों के पुरूषों की तरह दलित भी अपने घर- परिवार में स्त्री के साथ लगभग वैसा ही व्यवहार करता है, जैसा दूसरे वर्णो-जातियों के लोग अपनी स्त्रियों के साथ करते है। ’’3

‘हवा सी बेचैन युवतियां राजनी तिलक की की पैतीस कविताओं का कविता संग्रह है. लेकिन मैं इस कविता संग्रह की कुछ विशेष कविताओं को दलित स्त्रीवादी कविता के रूप में देखती हूं,  जैसे भंगिन, बलात्कार, कहूं क्या, कौन नाच रहा है, दलित की बेटी, अनकही कहानियां, योनि है क्या औरत?,रजनी तिलक की इन कविताओं में दलित स्त्री की संवेदना और उनके विभिन्न स्वरूपों को जिस तरह से अभिव्यक्त किया है उन सब की अलग अलग मार्मिक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है. सारी उम्र गरीबी में जीवन जीने वाली और सड़को के कचड़े साफ करने वाली ऐसी बूढ़ी औरत के बारे में कवियित्री लिखती है कि वह कितने आत्मविश्वास धैर्य सहनशीलता, मेहनत के साथ अपने रोजमर्रा के काम को करती है जैसे ‘‘हमारी बस्ती में/काली सी बुढ़िया/हर रोज बिना रूके आंधी हो या तुफान/ रविवार हो या तीज त्यौहार/सुबह होते ही/हाथ में बाल्टी झाड़ू थामें/आती है।…..वो सहनशीलता धैर की मूर्ति/सत्तर बरस की मैया/ धैर्य इनका टूटता नहीं मेेहनत को आत्मसात किया/ उम्र कोई बाधा नहीं/ धिक्कार की बात है/लोग इन्हें /भंगिन कहकर पुकारतें है.’’(पृ.62-63)4 ‘दलित की बेटी’ ऐसे दलित औरत की कथा है जो कि सत्ता में अपना पैर जमा चुकि है जिसके सर पर पुरी तरह देश की रक्षा का भार है. उसके क्या क्या दायित्व है देश और समाज के प्रति वह और ऐसा क्या कर सकती है समाज की ऐसी सशक्त औरत के बारे में भी कवयित्री कहती है ‘‘ प्रिय/ दलित की बेटी/ उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री/ भावी प्रधानमंत्री पद की दावेदार/ वहन जी सु़श्री मायावती/तुम सोते से जागी/ अच्छा लगा/ सत्ता के गलियारे में/अपमानित हुई/ बुरा लगा।…….जाति-पाति से इपर उठ गयी / तुम्हारा कद बढ़ गया, और तुम्हारा वर्ग भी बदल गया /परन्तु तुम्हारी सामाजिक हकीकतें वहीं की वहीं रहीं !दलित की बेटी. तुम सत्ता की हवा का रूख/मोड़ सकती थी / इतिहास बदल सकती थी.

आगे कवयित्री कहती है कि ‘‘प्रधानमंत्री  बनो परन्तु भुलना मत/उन दलित की बेटियों को जो करोड़ो- करोड़ो है. वे दूर गावों में / शहर की फैक्टिरियों में/विश्वविद्यालयों /दफ्तर अस्पतालों में/श्रम के पसीने से लथपथ है/ सड़क बुहारती है/बिन बिजली/ रात के अंधेरे में/बिन पानी/ क़च्ची कालोनी/ मलिन बस्तियों की झुंग्गियों / अपने जने बच्चों को / पुलिस की ठोकरो से बचाती हड्डियों के ढाचे पर अपना जिस्म को ढोती…. सत्ता बदल ही नहीं तुम इतिहास बदल सकती हो/ तुम सत्ता का रूख बदल सकती हो।(पृ.50-51)5. ‘योनि है क्या औरत’ कविता में कवयित्री ने समाज में उन स्त्रियों के सन्दर्भ में कहा है जो कि जो न शिक्षित है न रोजगाररत  वह पुरूषों की नजर में केवल योनि है. इनका शरीर ही सब कुछ है इसके एलावा वह और कुछ भी नहीं इसकी भावना, इच्छाएं आजादी, महत्वाकांक्षा इन सब चीजों की इस दुनिया में कोई जगह नहीं है. इसलिए कवयित्री कहती है कि ‘‘हर स्त्री मर्द के लिए /एक योनि…./एक जोड़ी स्तन…./लरजतें होठ है ! सब हमारे व्यक्तिगत है!../ हमारा शरीर हमारा है/ हमारी भावनाऐं, हमारी आज़ादी इच्छाएं/……. हम कहां है इस दुनिया में भारत के नक्शें पर भिनभिनातीमक्ख्यिों सी? हुनर नहीं शिक्षा नहीं/रात के अंधेरे में डूबी हुई आंखें हैं/निराशा में डूबे मां बाप/सुबह सवेरे दुधमुहो को भेजते है सड़को पर/बटोरती है /लोहा रद्दी, कूड़ा/बुहारती/बुहारती/सड़क गली ,चौबारा !/तुमने हमसे कहा / क्या हुआ अगर/तुम्हारे पास स्किल नहीं /शिक्षा नहीं पैसे  की विरासत नहीं /अस्तित्व नहीं ,अभिजात नहीं वर्ण शंकर देवदासी हो/कोल्हाटी की बार गर्ल या नौटंकी की बेड़िनी/एक योनि तुम्हारी भी है/ तुम इसे जमी बना लो…..’’।(पृ.81-83)6


  पूरे दलित समाज को लेकर बाबा साहब डाॅ भीमराव अम्बेडकर ने जो संघर्ष किया और सावित्री बाई फूले, जिन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए , चाहे दलित स्त्री हो उच्च जाति की हो उसके लिए जो महत्वपुर्ण प्रयास किया,  इसको भी आधार बनाकर कवयित्री ने ‘अनकही कहानियां’ कविता लिखी . कह सकते है इस कविता  में पूरे दलित समाज और दलित स्त्रियों के उत्थान किस प्रकार से हुआ और क्या प्रयास किये जा सकते है इसकी पूरी पड़ताल देखने को मिलती है. जैसे ‘‘सुनाना चाहती हूं/ अनकही अनसमझी/ठुकराई गई/धारा से छिटकी/बेज़ार औरतों की कहानियां/लड़ रही है हमेशा से/ जाति के खिलाफ समाज से/राज्यसत्ता से अपने पारिवारिक द्वंद्व और पितृसत्ता से. हमें नकारा समाज ने / रहने को मजबूर किया /शहरो कस्बों गावों से बाहर /खने को दिया सड़ा मांस/दुत्कार अपमान तिरस्कार !…..हम गुलामो से भी बदतर अछूत थे/ हमारी नेता सावित्री बाई फूले/भारत की पहली टीचर, जिसने न केवल हमें पढा़या/ उंची जात को भी पढ़या/ हमारे नेता डाॅ अम्बेडकर जिसने सड़क पर लड़कर/हमें पानी पीने का अधिकार दिलाया/भारत में लोकतंत्र हेतु संविधान बनाया/ संविधान ने हमें बराबरी दिलायी परन्तु समाज ने हमें अछूत रखा ।(56-57)‘‘7  समाज में व्याप्त जाति, वर्ग लिंग के आधार पर जो असमानता है इस पर भी कवयित्री ने  उठाया है . कौन नाच रहा है. कविता में कवयित्री का कहना है कि 7 वा राष्ट्रीय अधिवेशन/स्त्री अधिकारों का रेला मेला….



आपबीती लिखने वाली सजग रिंकी/हां नाचने आयी,  क्योंकि/वे कुछ मुक्ति चाहती थी/नारी मुक्ति के महासमुन्द्र में/अपनी मुक्ति ढूँढने  आयी थी/सवाल यह है कि कौन नाच रही है? जाति? वर्ग? लिंग?(पृ.29-30)’’8
‘बलात्कार’ रजनी तिलक की ऐसी कविता है , जिसमें निर्भया कांड को आधार बनाकर बेजोड़ सम्भावना की अभिव्यक्ति हुई है . जिस तरह से दामिनी के बलात्कार पर पूरा भारत अन्याय का प्रतिरोध करने सड़को पर निकल पड़ा, भयभीत लड़कियां भी साहसपूर्वक लड़कियों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ लड़ने के लिए तत्पर हो गयी.  कवयित्री को पूरा यकीन है पूरी सिविल सोसायटी और मीडिया हमारे साथ है.  दामिनी जैसे और जितने भी बलात्कार हुए है उन बलात्कारियों को सजा जरूर मिलेगी. ‘‘ दामिनी के बलात्कार पर/ थर्रा गयी पूरी दिल्ली/कांप उठा पूरा भारत/शर्मसार हुई पूरी मानवता/अन्याय का प्रतिरोध करने/निकल पड़ा युवको का हुजूम/भयभीत लड़कियां निर्भय हो/उतर आई सड़को पर……खैरलांजी भंवरी और दामिनी/ हर दलित की बेटी के बलात्करी को/बहुत मंहगी  पड़ेगी अब ये मस्ती….अब वह दिन दूर नही, तब /तुम सड़को पे  मारे जाओगे…जनता ही मुम्हें सजा देगी….मीड़िया सिविल सोसायटी क्या खड़े रहो हमारे साथ भी?/मथुरा, खैरलांजी,भवरी/दामिनी के बलात्कारियों/को सजा दिलवाओगे न ?(21-23)’’9 हम जानते है दलित स्त्री और सवर्ण स्त्रियों को लेकर साहित्य के केन्द्र में जो मुख्य सवाल है जैसे दलित स्त्रीवाद क्या है ? दलित स्त्रीवाद और सवर्ण स्त्रीवाद के विचारधारा में मुख्य अन्तर क्या है ? दलित स्त्रीवाद के स्त्रीमुक्ति के सवाल सवर्ण स्त्रीवाद के स्त्री मुक्ति से किस प्रकार भिन्न है ? रजनी तिलक जैसी स्त्रीवादी कवयित्री दलित स्त्रीवाद की प्रक्रिया को बखूबी महसूस कर रहीं है और इस बहस को आगे बढ़ाने में पूरी तरह से लगी हुई है.

आज समाज में लगभग हर स्त्री की समस्याएं एक जैसी ही है. ओमप्रकाश बाल्मीकि ने ठीक ही कहा है कि ‘‘स्त्री दलितो में भी दलित है.’’ राजेन्द्र यादव भी कुछ इसी तरह की बात करते है कि वर्णव्यवस्था चूकि शुद्रों और स्त्रियों के साथ एक सा सुलूक करता है इसलिए स्त्रियों को दलित मानना चाहिए. रजनी तिलक ऐसी कवयित्री है जो सिर्फ अपने को दलित स्त्रियों तक ही सीमित नहीं रखती है,  बल्कि इस कविता संग्रह में कुछ कविताएं ऐसी भी है जो कि भारत में रह रही अन्य स्त्रियों की भी व्यथा को व्यक्त करती है और ये स्त्रियां भी पितृसत्ता को चुनौती देती हैं जैसे- ‘जीरो हुं’ कविता स्त्रियों में आत्मविश्वास पैदा करने वाली एक महत्वपूर्ण कविता है ‘‘स्त्री हू/जीरो हूं/हर बार प्लस होती हूं/बनती हूं प्यार का दरिया/आशाओं का क्षितिज/समा लेती हूं सारी कुंठाएं सारी निराशाऐं !…. जीरो हूं…..स्त्री हुं पर कर सकती हूं/ वो सब/जो असम्भव है….मैं जीरों हूँ जारों से संख्या में बदलती हूं और अपना स्थान रखती हू….’’(पृ.12-13)।10 इसी प्रकार से कवयित्री ‘हिंसा मुक्त’ कविता में स्त्रियों की मुक्त अभिलाषा को अभिव्यक्त करती है और कहती है कि ‘‘एकल हूं /मै आज़ाद इंसा की तरह/सम्पूर्ण  जीवन चाहती हूं/ कंठामुक्त मर्द दर्प से दूर/प्यार में प्रतिबद्वता/रिश्ते में उष्मा चाहती हुं’’(पृ14)।11 कही पर कवयित्री लड़कियों पर आये दिन हो रहे शोषण और बलात्कार के प्रति कुछ इस प्रकार से सचेत करती है इसको ‘ए लड़की’ कविता में लिखती है कि ‘‘ऐ लड़की/ अंधेरे में आंख फाड़कर चल/बलात्करी/ घूम रहे हैं अंधेरे में’’’ ‘एकल मां’ कविता में कुछ अलग तरह से सम्पूर्ण पितृसत्ता के प्रति कवयित्री सचेत करती है ‘‘तुम एकल मां की बेटियों/निरखों….संभलो…जमाने को समझो/स्त्रीवाद नहीं है ‘मात्र’ ‘स्त्री’ होने में/वह उत्पीड़न-पीड़ा अकेलेपन की/दीवारों को तोड़कर कहा जायेगा/पितृसत्ता की ताकत को भेदेगा’’(पृ.47-49) ।12

 समाज में अधिकांश पुरूषों की नजर एक औरत की क्या छवि होती उसको भी कवयित्री ‘प्यार, औरत’ ‘न जाने कब से’ जैसी कविता में अभिव्यक्त करती है. सोचा था/प्यार की दुनिया/बड़ी हसीन होगी…परन्तु वह निकली एक रसोई और बिस्तर/और आकाओं का हुक्म’’(प्यार पृ.64)13 औरत /एक जिस्म होती है/रात की नीरवता/बंद खामोश कमरे में उपभोग की वस्तु होती है.(औरत पृ.65)14 ‘न जाने कब से’ कविता में कवयित्री स्त्रियों पर जबरन थोपी गयी रूढ़िवादी परम्परा पर चोट करती है। ‘‘ न जाने कब से/मैं रिवाजों की बनियाद में/चिनी जा रही हुं/ परम्परीओं की बेड़ियो में जकड़ी जा रहीं हूं ’’(पृ.75)।15 फिर आगे दृढ़ होकर कवयित्री ‘सांकल’ कविता में कहती है कि ‘‘चार दीवारों की घुटन/घुघट की ओट/सहना ही नारित्व तो/बदलनी चाहिए परिभाषा!/परम्पराओं का पर्याय/ बन चैखट की सांकल/है जीवन सार/ तो बदलना होगा जीवन सार ’’(पृ.66)।16 रजनी तिलक की कविताओं पर कवि और आलोचक प्रो. गोविन्द प्रसाद ने बड़ी ही सटीक टिप्पणी की  है. ‘‘संग्रह की अधिकांश कविताओं की सांसे स्त्री-मन में उठने वाले सहज और चिंताओं से बुनी गयी है। चिंताओं का स्वरूप सुविधाभोगी समाज और दलित-सवर्ण स्त्रियों की आकांक्षा-अभाव के प्रश्नाकुल धागों से रचा गया है. स्त्री और स्त्री के बीच विषमता के कई रंग , कई चेहरे है. मगर ये रंग ये चेहरे घृणा, आक्रोश के अतिरेक की उपज नहीं इसमें ब्राहमणवादी मांसिकता को कोसा नहीं गया है. प्रतिपक्ष के प्रति दर्पभरी ललकार-फटकार भी नहीं है. बल्कि इनके बरअक्स इन कविताओं संवादधर्मिता के कई भावस्तर ज्यादा प्रतीत होते है. आकांक्षा से लेकर उपेक्षा के कई स्तर आकांक्षा का यह स्तर सपने से शुरू होता है।(फ्लैश पेज)’’17 जैसा कि कवयित्री ‘फर्क’ कविता में कहती है ‘‘मौन आंखों के कोर से /चिंगारी बन फूटेगा,/पैदा होगा मुक्तिबोध/जो तुम्हारे मेरे अन्तर को पाटेगा।(पृ.26)’’18

 इस संग्रह की सारी कविताओं में सबसे महत्वपूर्ण कविता ‘हां मै लड़ाकी हूं’ भी है. कवयित्री ने इस कविता को आत्मकथात्मक ढंग लिखा है जिसमें ये बड़े ही गर्व के साथ कहती है कि ‘हां मै लड़ाकी हूं’और छद्म को तोड़ने की बात करती है ‘‘लड़ाकी हूं ‘टाइप्ड’ कर दो/मेरी यही रूप/तुम्हारे छदम को तोड़ेंगे…’’(पृ.37)।19 इस प्रकार से कवयित्री ने स्त्री जीवन की विभिन्न परतो को और भी महत्वपूर्ण कविताओं के माध्यम से खोलती है. इनकी ये कविताएं अर्धांगिनी नहीं पूरा शरीर हूं, सुन्दरता तुम्हारी शान है ,मेरे भाई, वजूद है, तुम्हारी आस्थाओं ने ,कासे कहूं ,वेश्या आदि है. रजनी तिलक एक बहुत बड़ी विशेषता यह भी है कि ये जितने ही बेबाक और मार्मिक ढंग से स्त्रियों की समस्याओं से पाठक वर्ग को रूबरू कराती है ठीक उसी प्रकार से अपने समय और समाज में घटित होने वाली घटनाएं भी इनसे अछूती नहीं है जिसमें देश की संस्कृति एवं राष्ट्रीय एकता का प्रश्न भी शामिल है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1984 में सिक्ख दंगे पर आधारित जिस मार्मिक कविता का सृजन किया है वह कविता है ‘1984’ की लपटें’ इसमें कवयित्री का कहना है कि ‘‘ सिक्ख समाज के साथ/ जो हुआ/वह देखकर मन तड़प उठा /आखों में अभी तक अजीब बेचैनी है/रूक-रूक मुटठी भींचती है/वह नृशंस दृश्य सताते है/हर छड़ आंखों में उभरते है !…..देश संस्कृति, राष्टीय एकता का  नारा/अपने ही घर में हम हुए बेगाने/गुंडों के सामने बेबस’’(पृ.70-71)।20


यकीनन एक कवि या लेखक की साहित्य में उसकी अहमियत इसी वजह से बढ़ जाती है वह अपने समाज में घटित होने वाली घटनाएं और अपने परिवेश तथा परिस्थितियों को बखूबी देखता,परखता और गहराई से महसूस करता है / करती है इसको अपने लेखन में दर्ज करता है/ करती है . कवयित्री रजनी तिलक जहां एक ओर स्त्री की संवेदना, प्यार, इर्ष्या  मनोभावों को अभिव्यक्त करती है वही दुसरी ओर प्रकृति, तकनीकि, सूचन समाज , धर्म संस्कृति रातनीति आदि सभी को अपने साहित्य में समेटती है. कह सकते है कि कवयित्री रजनी तिलक का बहुआयामी व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है. ये समाज में सारे परिवर्तन सिर्फ आज में  देखती जिसमें कोई ठहराव नहीं है और अपनी बात को जिस यथार्थपूर्ण और कलात्मक ढंग से कविता के मर्म में पिरोने का प्रयास करती हैं . इनकी कविताओं में व्यक्तित्व की पड़ताल और मुक्त जीवन जीने जो इच्छा आकांक्षा है, वह पूरी तरह खुलकर बाहर आती है और कही न कहीं भविष्य को बेहतर बनाने का भावी संकेत भी मौज़ूद है.

सन्दर्भ 
 रजनी तिलक  , हवा सी बेचैन युवतियां, दलित स्त्रीवाद की कविताएं स्वराज प्रकाशन 4648/1, 21 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

अनीता भारती,  (अतिथि सं) स्त्रीकाल,(स्त्री का समय और सच) अंक 9 सितम्बर 2013 साक्षात्कार मैनेजर पाण्डेय   

 यह आलेख भारतीय भाषा केंद्र, जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय,  में महात्मा फुले जयंती, 2016,  के अवसर पर प्रो. रामचन्द्र के द्वारा आयोजित कार्यक्रम में पढ़ा गया था. 

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