दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोधरत सिनेमा में गहरी रुचि. समकालीन जनमत में फ़िल्मों की समीक्षाएँ प्रकाशित. संपर्क : dkmr1989@gmail.com
‘भारतीय सिनेमा का अधिकांश जो सर के बल उल्टा खड़ा है, उसे जो फिल्मकार अपने सिनेमा से पैर के बल सीधा खड़े करने में लगे हैं उनमें से एक मराठी फिल्मकार नागराज मंजुले भी हैं.’ तो शायद मैं इसमें अतिशयोक्ति नहीं पाता. नागराज के यहाँ ‘प्रेम’ इस बार भी एक सम्भावना है. पिछली दफा ‘फंड्री’ में ‘जब्या’ को प्रेम के ‘वंचित स्वप्न के चारागाह’ में उसकी सामाजिक, आर्थिक हैसियत और सदियों से उसके हिस्से टांक दिए गए काम की बेड़ियों ने चौकड़ी मारने से रोक दिया था. जिसकी खीज के फलस्वरूप उसने जो पत्थर उठाकर पूरी नफ़रत के साथ हम पर चलाया था उसकी तासीर हम अपने-अपने माथों में अब तक महसूस कर रहे हैं. इस बार ‘सैराट’ के माध्यम से नागराज ने हमें निर्वात में ले जाकर पटक दिया है जहाँ दिलों में उठती हूक, कंठ में अवरुद्ध आक्रोश, आँखों की पुतलियों में अटके आंसुओं के कतरों और मन में ‘इन्सां समाजों की दुश्मन इस दुनिया को फूंक’ देने की ‘प्यासा’ के गुरुदत्त की सी बेचैनी के सिवा कुछ नहीं रह जाता.
अगर नागराज की इस बात को याद किया जाये जिसमें वे कहते हैं कि ‘बॉलीवुड मुझे सिखाता है कि क्या नहीं करना चाहिए.’ उनकी इस बात को ध्यान में रखकर यदि ‘ट्रेजिक लव स्टोरीज’ पर बनी फिल्मों की पड़ताल की जाये तो इन फिल्मों की सीमाएं तुरंत स्पष्ट हो जायेंगी. ‘सैराट’ को मीडिया द्वारा ‘क़यामत से क़यामत तक’ और ‘एक दूजे के लिए’ जैसी फिल्मों को ‘ट्रिब्यूट’ बताया जा रहा है, हालाँकि नागराज ने ऐसी किसी बात से इंकार किया है. लेकिन हम इन फिल्मों को बतौर उदाहरण इस्तेमाल कर सकते हैं कि इनसे ‘सैराट’ कैसे अलग है. बॉलीवुड का ‘पॉपुलर सिनेमा’ अपनी सुविधाओं से परे नहीं जाता, वह पहले एक लकीर खींचता है फिर उस पर चलता है. उससे इतर कैमरा नहीं घुमाया जाता. अगर आप ऊपर दोनों फिल्मों को देखें तो पायेंगे कि वह दो परिवारों, उनके बीच के रिश्तों, षडयंत्रों और इन सब से पैदा हुए वायवीय सा ट्रेजिक वातावरण के कुछ शॉट्स तक महदूद रह जाती हैं. ‘सैराट’ का सेट किसी ‘सेट डिजायनर’ द्वारा जरुरत भर की मांग से तैयार नहीं किया गया. ‘सैराट’ का सेट हमारी-आपकी जिन्दगी है जिसे नागराज ने ‘मराठियों के रोजमर्रे का हिस्सा’ बताया है. जिसमें कैमरा को जल्दबाजी नहीं है. कैमरा इत्मीनान से ‘पर्श्या’ (आकाश ठोसर) को ‘आर्ची’ ( रिंकू राजगुरू ) के घर के सामने लगे हैंडपंप से दूसरों की बाल्टियाँ भरने के बहाने ‘आर्ची’ की एक झलक पाने की उसकी व्यग्रता को कैद करता है फिर क्रिकेट खेल के बीच में ही अम्पायर ‘बिली बोवडेन’ बने एक लड़के की माँ द्वारा छड़ी से उसकी पिटाई करने वाले दृश्य को पकड़ता है. इन दोनों दृश्यों को भारतीय समाज के प्रमाणिक दृश्य होने से इंकार नहीं किया जा सकता. कैमरे का यह इत्मीनानपन दर्शकों को अभ्यस्त बनाता चला जाता है और फिर किसी ऊँची पहाड़ी में ले जाकर जैसे धक्का दे देता है जिसका जादू हम फिल्म के बिलकुल अंत में देखते हैं.
‘सैराट’ में नागराज मंजुले एक नितांत नई सिनेमाई भाषा से दर्शकों का तआरुफ़ करवाते हैं जो अपने अन्दर गूढ़ अर्थों को छुपाये हुए है. जो इसकी सिनेमाई भाषा, इसकी सांकेतिकता, इसके विषय के चयन के पीछे की राजनीति को नहीं समझेंगे, वे कभी नहीं जान पायेंगे कि ‘सैराट’ एक नए तरह के भारतीय सिनेमा की धमक है जो अपने स्वरुप में वैश्विक दर्शक वर्ग को प्रभावित करने की ताकत रखता है, वे कभी नहीं जान पायेंगे कि ‘सैराट’ को फिल्म का कथानक, फिल्म को बनाने का तरीका और दर्शकों से उसका जुड़ाव इसे किस पायेदान पर खड़ा करता है.
सैराट का गीत
मुझे आश्चर्य होता है जो ‘सैराट’ में प्रेम की पृष्ठिभूमि को दर्शकों को गुदगुदाने का महज एक जरिया भर मानते हैं या तो उनके पास बॉलीवुड की तथाकथित मुख्यधारा की प्रेम-कहानियों वाली फिल्मों से अलग एकदम देशज कलेवर को पहचान पाने की नजर नहीं बची या फिर वे भी किसी खास राजनीतिक चालबाजी से प्रेरित होकर फतवे सुना रहे हैं. हमें भूलना नहीं चाहिए कि नागराज मंजुले महाराष्ट्र के एक दलित परिवार से आते हैं और उनके जीवन में फुले-अम्बेडकर के विचारों के असर से इनकार नहीं किया जा सकता, जिनके बारे में उन्हें उनके तमाम साक्षात्कारों में बोलते हुए सुना जा सकता है. क्या यह अनायास है कि उन्होंने फिल्म के कथानक को एक दलित लड़के और सवर्ण लड़की के प्रेम को केंद्र-बिंदु बनाया है? मैं केंद्र-बिंदु इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जब इस केंद्र-बिंदु से सूत्र पकड़कर कहानी आगे बढती है तो वहां प्रेम में होने वाले द्वंद्वों की तीव्रता और नारकीय जिंदगियों के पथरीले यथार्थ का बड़ी बेहरमी से दर्शकों का वाबस्ता होता है, जिस पर मैं बाद में आऊंगा.
खून की श्रेष्ठता की झूठी बुनियाद पर खड़ी भारतीय समाज की जाति व्यवस्था को कैसे ध्वस्त किया जाये यह शाश्वत सवाल अपने पूरे तीखेपन के साथ आज भी दरपेश है. जाति-व्यवस्था के उन्मूलन पर बात करते हुए कभी डॉ. अम्बेडकर ने अपने लंबे भाषण जो बाद में ‘एनहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ नाम से छपा, जिसमें उन्होंने जाति-उन्मूलन के लिए अंतर्जातीय विवाहों पर भरोसा जताया था. अपेक्षाकृत लम्बा उद्धरण है लेकिन उसे यहाँ फिर याद करना जरुरी है, “रक्त के एकीकरण से ही आपसी भाईचारे की भावना पैदा की जा सकती है, और जब तक बंधुत्व की यह भावना नहीं होगी, सम्बन्धी होने, जुड़े होने की भावना सर्वोपरि नहीं होगी तब तक जाति द्वारा पैदा की गई अलगाव की भावना, भिन्न होने की भावना समाप्त नहीं होगी. अन्य धर्मों की अपेक्षा, हिन्दुओं के सामाजिक जीवन में तो अंतर्जातीय विवाह अत्यधिक महत्वपूर्ण व प्रभावशाली सिद्ध होंगे. क्योंकि जिस समाज में अन्य संयोजन-सूत्र अथवा सहयोग के आधार उपलब्ध होते हैं उनमें विवाह एक साधारण घटना मात्र होते हैं. परन्तु जहाँ समाज अन्दर से नारंगी की भांति विभक्त हो, वहीँ उसे जोड़ने के लिए नारंगी के छिलके की भांति विवाह-बंधन आवश्यक है. अतः अंतर्जातीय विवाह ही रोग का सही उपचार है, अन्य और कोई इलाज इस जाति-प्रथा की कुरीति को दूर करने की क्षमता नहीं रखता.”
पुनर्जागरण काल के सुधार आंदोलनों से लेकर तमाम राजनीतिक आंदोलनों के बावजूद एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था को बना पाने में हम बुरी तरह विफल हुए हैं जहाँ हम अंतर्जातीय विवाहों को सहज सफल बना पाते. तो रास्ता क्या है? मैंने ऊपर कहा कि नागराज के यहाँ प्रेम अब भी एक सम्भावना है, ‘द हिन्दू’ में नम्रता जोशी के साथ साक्षात्कार में नागराज मंजुले एक जगह कहते हैं, “प्रेम एकमात्र सम्भावना है. प्रेम ही उन हथकड़ियों को तोड़ सकता है जिनसे हम बंधे हुए हैं. मैं यह बात कहने वाला अकेला नहीं हूँ; प्रत्येक कवि, हर संत ने अपने साहित्य में यही बात की है. मराठी कवि कुसुमाग्रज ने तो यहाँ तक कहा है कि अकेले प्रेम ही वह सम्भावना है जो संसार को एक खूबसूरत अस्तित्व दे सकता है.” ये प्रेम विवाह ही हैं जो ज्यादा से ज्यादा अंतरजातीय विवाहों के लिए जमीन तैयार करेंगे. आज ये जो प्रेमी जोड़ों को मार दिया जा रहा है, ये जो खाप पंचायतें बनाई जा रहीं हैं, ये जो ऑनर किलिंग की जा रही हैं. इन सबका सम्बन्ध उच्च जाति और निम्न जाति के भेद को बनाए रखने के लिए है क्योंकि जाति की जो व्यवस्था है वह कुछ समुदायों के लिए विशेषाधिकार, साधन-सम्पन्नता, भोग-विलास और श्रेष्ठता बोध को बनाए/बचाए रखने की व्यवस्था है जिसे वह छोड़ना नहीं चाहता.
यह जानना बहुत दिलचस्प होगा कि अब तक सम्मान के नाम पर जितनी हत्याएं प्रेमी जोड़ों की हुई हैं उनमें से कितने सजातीय हैं? शायद यह दूर की कौड़ी लगे क्योंकि अलग-अलग जातियों, उनमें भी ज्यादातर सवर्ण और दलित जोड़ों की सम्मान के नाम पर होने वाली हत्याओं के आंकड़े ही सबसे ज्यादा सामने आते हैं. फिल्म में एक सबका बहुत ही जाना-पहचाना सा दृश्य है. वैलेंटाईन डे है, ‘आर्ची और पर्श्या’ एक-दूसरे को विश करके स्कूटी से पार्क के सामने से गुजर रहे हैं और वे कुछ पुलिसवालों के साथ गले में भगवा गमछा डाले हुए लोगों द्वारा प्रेमी-जोड़ों को पीटते और उनको सार्वजनिक रूप से अपमानित करते हुए देखते हैं. क्या यह दृश्य अनायास है? या संस्कृति की रक्षा के नाम पर जो इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ऐसे संगठनों, समूहों, पार्टियों की राजनीति है उसे अब तक ‘आर्ची और पर्श्या’ की कहानी से पूरी तरह तादात्म्य बना चुके दर्शकों के सामने बेनकाब कर देने वाला है? यहाँ यह जोड़ना जरुरी है कि फिल्म ‘ऑनर किलिंग’ से ज्यादा ‘पितृसत्ता’ की क्रूरताओं से मुख़ातिब है. ‘ऑनर किलिंग’ जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता का अंग होते हुए दण्डित करने की एक तात्कालिक कार्यवाही है लेकिन ‘पितृसत्ता’ आपका अंत तक पीछा नहीं छोड़ती जिसकी कई परते हैं. जिसे फिल्म के अंत में उसकी सम्पूर्ण क्रूरता में देखने से पहले हम दो छोटे दृश्यों में देखते हैं. पहला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सामाजिक रूप बिल्कुल निचले पायेदान पर खड़े दलितों की पंचायत ने ‘पर्श्या’ के बाप को बिरादरी बाहर कर दिया है. जिसके चलते उसे अपनी बेटी की शादी करने में मुश्किलातों का सामना करना पड़ रहा है. वह तथाकथित अपने बेटे की गलती की सजा पंचायत के सामने खुद को थप्पड़ मार कर देता है.
यह जातिगत आधार पर विभक्त समाज की विडंबना है कि एक तरफ अछूत कहकर कुछ जातियों को पद-दालित बनाया गया और दूसरी तरफ परम्परा व रीतियों के नाम पर उन्हें समाज व्यवस्था का चौकीदार भी बना दिया गया. दूसरा दृश्य है जब ‘आर्ची’ के मोबाइल में रात में उसकी कलीग का कॉल आता है और ‘पर्श्या’ के मन में शक पैदा होता है. वह उसका मोबाइल चेक करता है. सिनेमा हॉल में आर्ची को उसके बॉस के साथ बात करते हुए देखता है, शक और गहराता है, वह इस विषय में उससे बात करना चाहता है और आक्रोश में रेस्तरां में सबके सामने ‘आर्ची’ को थप्पड़ मार देता है. यह समझना बेहद जरुरी है की जो ‘आर्ची’ शुरू में बेहद साहसी नजर आती है और वह अपने प्रेम के लिए सबसे टकरा जाने की हिम्मत रखती है अंत में सामाजिक रूप से कोई हैसियत न रखने के बावजूद ‘पर्श्या’ महज पुरुष होने के चलते अपना यह विशेषाधिकार समझता है कि वह ‘आर्ची’ पर सिर्फ शक के चलते हाथ उठा देने का अधिकार रखता है. ‘आर्ची’ के साहसीपन को हमें दो स्तरों में समझना होगा एक तो निर्देशक के नजरिये से, जिसमें वो एक पुरुष निर्मित संसार के स्टीरियोटाइप से उकता गया है, उसके सामने स्त्रीवाद का वह ज्वलंत प्रश्न है कि सवर्ण और दलित होने के बावजूद एक स्त्री, एक स्त्री है. जिसे स्त्रीवाद की भाषा में कहा जाता है कि एक स्त्री ‘डबल प्रोलेतेरियत’ है. जहाँ उसका शोषण ‘परिवार, संपत्ति और राज्य’ के स्तरों में हो रहा है. जिसके सामाजिक आयामों को समझते हुए वह एक स्त्री को अपनी फिल्म में वह रूप देता है जहाँ वह एक निर्णायक भूमिका में सामने आती है. वह एक बहनापे से प्रेरित होकर दलित स्त्री को ‘माँ’ कहकर संबोधित करती है, एक दलित स्त्री के हाथ से उसी निश्छलता के साथ पानी लेकर पीती है,
वह एक दलित अध्यापक को अपने भाई द्वारा थप्पड़ मारे जाने पर विक्षुब्ध होती है, वह अपने सामाजिक-आर्थिक रूप से शक्तिशाली पिता द्वारा अपने प्रेमी और उसके दोस्तों को गलत ढंग से फंसाये जाने का पूरी ताकत से विरोध करती है, वह अपने प्रेमी और उसके दोस्तों को पिटते हुए देखकर उनके बचाव में खुद कूद पड़ती है. लेकिन दूसरी चीज वह है कि उसे सिर्फ उतनी ही स्वतंत्रता मिली हुई है जितनी उसके परिवार की मर्यादाएं उसे इजाजत देती हैं, उसके पार जाने पर उसका परिवार उसकी जान लेने में भी कोई मुरौव्वत नहीं करता. नागराज मंजुले के यहाँ जो सबसे खास बात है कि वह एक प्रेम कहानी को सिर्फ ‘प्रेम अँधा होता है जाति-पाति नही देखता’ वाले वायवीय अंदाज में सामने नहीं लाते. ऊपर जो इशारा किया गया है कि वहां प्रेम में होने वाले द्वंद्वों की तीव्रता और नारकीय जिंदगियों के पथरीले यथार्थ का बड़ी बेरहमी से दर्शकों का वाबस्ता होता है, बहुत सचेतन ढंग से वे ऐसे दृश्य रचते हैं जब ‘आर्ची’ और ‘पर्श्या’ भागकर हैदराबाद आते हैं और एक ठेले में खाने के बाद पानी पीना होता है तो ‘आर्ची’ उस ठेले का पानी नहीं पी पाती जिसे ‘पर्श्या’ बहुत सहजता के साथ पी जाता है ‘पर्श्या’ को ‘आर्ची’ के लिए एक बोतल वाला पानी लेना पड़ता है. दूसरा दृश्य जिसमें झुग्गियों में बने सार्वजनिक शौचालयों का प्रयोग करना पड़ता है जिसमें एक संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखने वाली लड़की के लिए जाना मुश्किल होता है. एक दृश्य में ‘आर्ची’ को देखकर ऐसा लगता है जैसे वह प्रेम की खातिर अपनी सुख की जिन्दगी छोड़कर जिस नारकीय जीवन में रहने को अभिशप्त हो गई है, इस जिन्दगी को जीते हुए वह अपनी अभ्यस्त जिन्दगी के चलते गहरे द्वंद्व में है जिसे वह ‘पर्श्या’ से बांटते हुए कहती है.‘मुझे सच-मुच नहीं पता मैं क्या करूँ, घर में अकेले-अकेले बैठे-बैठे मुझे बुरे-बुरे ख्याल आते रहते हैं.’ कई बार आभास होता है जैसे ‘आर्ची’ को प्रेम में अपने लिए गए निर्णय के लिए दुःख है और वह अपने सुविधा-संपन्न, सहूलियत की जिंदगी में वापस लौट जाना चाहती है.
उस दृश्य को भुलाया नहीं जा सकता, जिसे संभवतः मैं फिल्म का सबसे अर्थवान और कलात्मक दृश्य मानता हूँ, जहाँ ‘आर्ची’ एक झुग्गी के सामने बैठी है और उसकी नजर के साथ-साथ कैमरा भी उठता है और दर्शकों के सामने विस्तीर्ण में फैली टीन की क्षत वाली झुग्गियां आती हैं. यह दरअसल ‘प्रेम’ के बाद की चीज है ठीक ‘डिक्लास’ होने जैसी स्थिति. हमारे ऐशो-आराम, सुख-सुविधा सम्पन्न जिन्दगी से इतर एक यह दुनिया भी है. जिसे ‘आर्ची’के साथ-साथ थिएटर में बैठा खाता-पीता मध्यवर्ग भी देख रहा है. ये दृश्य दर-असल दो दुनियाओं, दो संस्कारों के दृश्य हैं जहाँ जिन्दगी की रंगीनियत और स्याह पक्षों की बहुत गहरी लकीर खिंची हुई है जिसे मानवता के हक़ में मिटाना ही होगा. चूँकि फिल्म का अंत ‘ट्रैजिक’ है. अब सवाल यह है कि ‘ट्रैजडी’ को समझा कैसे जाये? ‘ट्रैजडी’ दरअसल दो तरह से अपना असर छोड़ती हैं, पहला जब किसी भी कला विधि में नायक-नायिका की संवादहीनता के चलते एक-दूसरे के बारे में बना ली गईं खतरनाक अवधारणाएं, जिनके बारे में दर्शक जानता है कि ये सच्चाई नहीं है, दूसरा, जब पाठक, श्रोता या दर्शक सम्बंधित पात्रों से अपना तादात्म्य बना ले, उनका अप्रत्याशित अंत; ये दोनों तरह की ‘ट्रैजडियां’ दर्शकों पर गहरा असर छोड़ती हैं. इस बहाने मैं बहुत संक्षेप में ‘नीरज घेवन’ की ‘मसान’ को याद करना चाहता हूँ. इस फिल्म में भी एक सवर्ण लड़की और दलित लड़के के प्रेम का पहलू है, यहाँ निर्देशक लड़की की किसी सड़क दुर्घटना में मृत्यु दिखाकर एक समझौता करते हुए प्रतीत होते हैं इसलिए फिल्म की ‘ट्रैजडी’ अपनी पूरी सघनता में असर नहीं छोड़ पाती. लेकिन जैसा की ऊपर कहा गया है कि ‘सैराट’ में कैमरा दर्शकों को अभ्यस्त बनाता चला जाता है. याद कीजिये वे दृश्य जब एक बच्चे के साथ, किसी निर्माणाधीन इमारत में फ़्लैट देख रहे ‘आर्ची’ और ‘पर्श्या’,
अपनी माँ से मोबाइल से बात करती हुई ‘आर्ची,’ घर से आये उसके भाई और अन्य लोगों के हाथों माँ द्वारा भिजवाये बच्चे के लिए कपड़े, मिठाइयाँ, गहने देख रही ‘आर्ची’, मेहमानों को चाय दे रहे ‘पर्श्या’ को देखकर उनकी जिंदगी एक सामान्य ढर्रे में शुरू होने की दर्शक कल्पना कर लेता है लेकिन फिर जैसे ‘आर्ची’ और ‘पर्श्या’ की अप्रत्याशित हत्या दर्शको के बीच सन्नाटा भर देती है जिसे बच्चे के पैरों से बनते खून से सने पदचिन्ह और बिना साउंड का दृश्य और गाढ़ा बना देता है जिसे थिएटर हॉल में बैठा हर दर्शक गहराई तक महसूस करता है. अजय-अतुल के संगीत के जिक्र के बिना फिल्म पर बात अधूरी होगी. संगीत फिल्म का कुछ इसतरह हिस्सा बन गया है कि वह प्रेम में पड़े दो युवाओं के अन्दर से स्वतःस्फूर्त ढंग से फूट कर बहने वाली सिम्फनियाँ लगती हैं, जिसके असर और महत्व पर पूरी सम्पूर्णता में अलग से लिखे जाने की जरुरत है. जो ‘सैराट’ में सिर्फ गीत-संगीत होने के चलते व्यावसायिक होने के लक्षण देख रहे हैं उन्हें सिर्फ नागराज के पक्ष को ध्यान में रखना चाहिए कि, ‘ये गाने और संगीत सिर्फ आंतरिक भावनाओं को व्यक्त करने के लिए बैकग्राउंड में इस्तेमाल किये गए हैं.’ प्रेम के दृश्यों में स्लोमोशन व सिम्फनी और सुधाकर रेड्डी के जिग-जैग और लॉन्ग कैमरा शॉट्स वाली सिनेमैटोग्राफी फिल्म को बिना सेट के जो भव्यता दे देती है वह अकल्पनीय है. अंत में यह जो व्यावसायिक, लोकप्रिय और यथार्थपरकता के बीच बहुत झीनी सी अनसुलझी रेखाएं हैं उन्हें हम जितनी जल्दी सुलझा लें तो शायद हम भारतीय सिनेमा के उस पहलू का जो एक साथ लोकप्रिय भी है, व्यवसाय भी कर रहा है और यथार्थपरक भी है, कहीं ज्यादा खुलकर स्वागत कर पायेंगे.