पितृसत्ता से आगे जहाँ और भी है

राहुल सिंह

युवा आलोचक, हिन्दी साहित्य का  प्राध्यापक
संपर्क : alochakrahul@gmail.com

इस समय प्रचलित विमर्शों की गर थोड़ी जानकारी हो तो निश्चित तौर पर आप स्त्री विमर्श से परिचित होंगे. हिन्दी में प्रचलित स्त्री विमर्श की एक बड़ी सीमा उसका ‘एकायामी’ होना है. ‘एकायामी’ होने से आशय यह कि वह ज्यादातर मौकों पर पितृसत्तात्मक प्रवृतियों को निशाने पर रखती है. पितृसत्तात्मक सोच से उपजी मानसिकता ही हिन्दी में प्रचलित स्त्री विमर्श का स्थायी निशाना है. स्त्री विरोधी संस्थागत चेष्टायें या सरकारों द्वारा लिये गये नीतिगत निर्णयों को कायदे से स्त्री विमर्श की प्रचलित समझदारी में शामिल करने की कवायद इक्की-दुक्की कहीं दिखती हो तो बात अलग है, पर वह हिन्दी में प्रचलित स्त्री विमर्श का स्थायी हिस्सा नहीं बन सका है. वह पितृसत्ता की अजपा-जाप में ही लीन है. इस बीच छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार समेत देश के अनेक हिस्सों में स्त्रियों की बच्चेदानी निकाले जाने की सरकारी योजनाओं के मूल में स्त्रियों के साथ जिस अमानवीय तरीके से पेश आया जा रहा है, उसको लेकर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है. मोमबत्ती की रोशनी में या फर्श पर लिटाकर उनका आॅपरेशन कर दिया जा रहा है. आॅपरेशन के बाद उनकी सेहत के मद्देनजर बुनियादी सुविधाओं तक का खयाल नहीं रखा जा रहा है. बच्चेदानी निकालना ‘टार्गेट’ पूरा करने का मामला भर बन कर रह गया है. इस बीच होनेवाली मौतों का भी कायदे से कोई सही आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. अगर ऐसा लग रहा हो कि यह सब पिछड़े और आदिवासी बहुल इलाकों में घटित हो रहा है तो आप बहुत बड़ी गलती पर हैं. हर वह स्त्री जो बच्चे को जन्म देने में सक्षम है, इससे मिलती-जुलती हिंसा के निशाने पर है. कोख और मातृत्व दोनों निशाने पर है.

यदि आपके घर में कोई स्त्री गर्भाधान की प्रक्रिया से गुजर रही है तो क्या आप उसकी जाँच और चिकित्सा के लिए किसी सरकारी अस्पताल में जा रहे हैं या प्राइवेट नर्सिंग होम में ? जिनकी जेब में थोड़ा भी पैसा है, वे निजी अस्पतालों का रुख कर रहे हैं. सरकारी अस्पतालों के डाॅक्टर भी अपने घर में नर्सिंग होम चला रहे हैं और भीड़ से बचने और इत्मीनान से देखे जाने के नाम पर घर आने की सलाह दे रहे हैं. सरकारी अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन निजी अस्पतालों की ओर जाने का सबसे बड़ा प्रेरक है. अपने प्रबंधन, अनुशासन, आधारभूत संरचना और साफ-सफाई के कारण पहली निगाह में सरकारी अस्पतालों की तुलना में बेहतर दिखनेवाले यह निजी अस्पताल और नर्सिंग होम भले ज्यादा बेहतर जान पड़ते हों, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं. बड़े शहरों के बड़े अस्पतालों को छोड़ दें तो छोटे शहरों के निजी अस्पतालों में यह एक आम प्रवृति है , कि वे अल्ट्रा साउंड से लेकर अनेक तरह की जाँच बाहर के लैब से कराना पसंद करते हैं. सोचने की बात यह है कि इतने निवेश के बाद भी ऐसे निजी अस्पताल खुद अल्ट्रासाउंड जैसी जाँच से जान छुड़ाना क्यों चाहते हैं ? इसके लिए आपको अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ना होगा, जिसमें कहीं एक ‘स्टार’ दर्ज होगा, ठीक वैसा ही जैसी किसी बीमा की पाॅलिसी में दर्ज रहता है, जिसकी ओर आपका ध्यान नुकसान होने पर जाता है. फुटनोट पर लिखा होता है कि ‘दिस रिपोर्ट इज नाॅट वेलिड फाॅर मेडिको-लीगल पर्पस’. दरअसल यही वह नुक्ता है जो एक साथ आपकी जेब और स्त्री की कोख पर हमला करता है.

निजी अस्पताल बाहर से जाँच कराने के नाम पर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं, उन जाँच घरों में जाकर ना सिर्फ आप ‘कट सिस्टम’ का शिकार हो जाते हैं, बल्कि वहीं आपको जो रिपोर्ट सौंपी जाती है, उसमें ‘सीजर’ की पृष्ठभूमि तैयार कर दी जाती है. सीजेरियन’ की पूरी पृष्ठभूमि निर्मित करने में इन जाँच केन्द्रों की निर्णायक भूमिका हैै. यह अपनी रिपोर्ट में आखिरी वक्त में कुछ संभावित जटिलताओं का संकेत करके ऐसा दबाव बनाने का काम करते हैं. छोटे शहरों में पाँच-सात कायदे के जाँच केन्द्र होते हैं और किसी भी निजी अस्पताल का उनसे अच्छा संबंध होता है कुल मिलाकर इस गिरोहबंदी का शिकार होने के अलावा ज्यादा विकल्प किसी के पास बचता नहीं है. कई निजी अस्पताल और डाॅक्टर तो साफ तौर पर आपको निर्देश भी देते हैं कि फलां जाँच केन्द्र में चले जाइये उनकी रिपोर्ट सटीक और सही होती है. असल में सामान्य प्रसव की तुलना में ‘सीजर’ ज्यादा मुनाफे का सौदा है. मुनाफा किसी भी निजी क्षेत्र का आधारभूत प्रतिज्ञा है. कोख में चीरा लगाकर सबसे ज्यादा पैसा बनाया जा सकता है. सीजर के बाद कम से कम दो दिन तो आप अस्पताल के बिस्तर या कमरे में पड़े रहने को बेबस होते हैं, इस बीच अस्पताल का मीटर किसी चालू टैक्सी की तरह चलता रहता है. घरेलू हिंसा के बाद भारत में स्त्रियाँ सबसे ज्यादा इस चिकित्सिकीय हिंसा की शिकार हैं. अफसोस की बात यह है कि ‘सीजर’ के नाम पर स्त्रियों के साथ की जा रही इस संगठित हिंसा के मूल में ज्यादातर जगहों पर नर्स और ‘लेडी गाइनो’ ही शामिल हैं.


निजी अस्पतालों में एक और चिंताजनक बात यह है कि लोग डाॅक्टर के नाम पर जाते हैं पर वहाँ नियुक्त नर्सें पूरी तरह प्रशिक्षित हों यह कोई जरुरी नहीं है. पर कोख और स्त्री की देह पर जारी यह संगठित हिंसा हिन्दी के स्त्री विमर्श की प्रचलित समझदारी का हिस्सा नहीं है. हिन्दी का स्त्रीसंवेदी धड़ा किसी अपमानजनक संबोधन के प्रति तो महीनों आंदोलित रह सकता है पर सोनी-सोरी के गुप्तांगों पर कंकड़ डाल दिये जाने की घटना पर या उसके चेहरे पर तेजाब फेंक दिये जाने पर आंदोलित नहीं होता है. यह सनी लियोने से अपमानजनक सवाल पूछ लिये जाने पर सोशल मीडिया में अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए तो बढ़-चढ़ कर सामने आता है, पर छत्तीसगढ़ में स्त्रियों की बच्चेदानी निकाले जाने के दौरान हुई मौतों पर भी चुप लगा जाता है. यह मेट्रो, माॅल या डीटीसी पर हुई ‘ईव टीजिंग’ को फेसबुक का स्टेटस बनाना तो पसंद करता है, पर झारखंड की आदिवासी बच्चियों को दिल्ली के घरों में बलात् रखे जाने पर चुप लगा जाता है.छोटानागपुर के आस-पास के इलाकों से पत्तल, दोने, जामुन, आम, कटहल जैसे मौसमी उत्पाद बेचने आये महिलाओं पर ट्रेन और प्लेटफार्म पर होनेवाली बदतमजियों पर चुप रहता है.

पितृसत्ता से इतर भी सत्तायें हैं जो स्त्रियों की देह पर लगातार हमले कर रहा है, जरुरत इस बात की है कि उनकी पहचान करके उनके प्रति एक व्यापक समझदारी निर्मित की जाये. उनिभू (उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण) ने स्त्रियों के लिए अगर मुक्ति की नई राहें खोलीं हैं तो बंधन की नई बेड़ियाँ भी तैयार की हैं. मुक्ति की इन राहों का तो खूब ढोल पीटा जा रहा है पर ‘उनिभू’ से उत्पन्न परिस्थितियों ने स्त्री के लिए नई किस्म की प्रतिकूलतायें भी विकसित की हैं, उनकी पहचान और परख भी आवश्यक है. आखिर तमाम दावों के बावजूद हमारा समय स्त्रियों के प्रति पहले से कहीं ज्यादा हिंसक हुआ है. हिंसा की नई शक्लें हमारे सामने रोज दरपेश हो रही हैं. ऐसे में जरुरत इस बात की है कि स्त्रियों के प्रति हिंसा के यह जो नये मचान बन रहे हैं उसके प्रति एक नई समझदारी विकसित की जाये.

सबलोग जून अंक से 

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles