स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
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न्याधाशीशों ने फिर से अपनी मर्दवादी जुबान खोली. खबर है कि गुजरात के जज महोदय ने गुलबर्ग सोसायटी में हुए हत्याकांड, आगजनी और बलात्कार पर अपना न्याय देते हुए कहा कि ‘आगजनी और हत्याकांड के बीच बलात्कार नहीं हो सकता है.’ उन्हीं जज साहब ने अभियुक्तों से यह भी कहा कि हम आपके चेहरे पर मुस्कान देखना चाहते हैं.’जजसाहबों का मर्दवादी मिजाज न्याय नहीं है, ऐसे अनेक निर्णय हैं, जिनमें वे बलात्कार पर निर्णय देते हुए खासे कवित्वपूर्ण हो जाते रहे हैं. इसके पहले भी भंवरी देवी बलात्कार काण्ड में निर्णय देते हुए जज साहब ने कहा था कि ‘ जो पुरुष किसी नीची जाति की महिला का जूठा नहीं खा सकता वह उसका बलात्कार कैसे कर सकता है?’ यह विचित्र देश है. कल ही नायक का तमगा लिए सलमान खान साहब ने भी बलात्कार के दर्द की तुलना अपने काम के थकान से पैदा दर्द से करते पाये गये. यह एक मानसिकता है. न्यायालयों की इसी सोच और भाषा पर स्त्रीवादी ऐडवोकेट अरविंद जैन ने काफी विस्तार से लिखा था कभी, काफी चर्चित लेख. स्त्रीकाल के पाठकों के लिए उसे धारवाहिक प्रकाशित कर रहे हैं हम. आज तीसरी क़िस्त…
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यौन हिंसा और न्याय की मर्दवादी भाषा : पहली क़िस्त
20वीं सदी के आरम्भ से लेकर अब तक अदालत, कानून और न्याय की भाषा-परिभाषा मूलत: स्त्री के प्रति अविश्वास, घृणा और अपमान से उपजी भाषा है. ”बलात्कार के मामलों में, सिर्फ बलात्कृत स्त्री के आरोपों पर किसी भी व्यक्ति (पुरुष) को सजा सुनाना बेहद असुरक्षित (‘क्वाइट अनसेफ) होगा.13 असुरक्षित ही नहीं बल्कि एक कदम आगे बढ़ न्यायमूर्ति ने चेतावनी दी, ”बिना अन्य प्रमाणों के सिर्फ उसके बयान के आधार पर सजा देना अत्यन्त खतरनाक होगा. 14 तीन साल बाद एक अन्य न्यायमूर्ति ने ऐलान किया, बिना अन्य प्रमाणों के सिर्फ स्त्री के बयान पर विश्वास करना, प्रत्यक्ष रूप से बहुत असुरक्षित (नोटोरियसली वेरी अनसेफ) होगा.15 इसलिए स्त्री की गवाही को अन्य स्वतंत्र साक्ष्यों से जोडक़र देखना अनिवार्य है.16 और ”अन्य प्रमाणों की अनुपस्थिति में, सिर्फ तथाकथित बलात्कार की शिकार स्त्री के बयान के आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराना उपयुक्त नहीं.17
उपरोक्त फैसलों के कुछ साल बाद एक न्यायमूर्ति ने थोड़ा संशोधन करते हुए कहा, ”बलात्कार के मामलों में अन्य प्रमाण अनिवार्य नहीं. अदालत को अधिकार है कि वह बिना अन्य प्रमाणों के लडक़ी का साक्ष्य स्वीकार कर सकती है. लेकिन इसे स्वीकारने में धीमा रहना चाहिए. अदालत द्वारा उसकी गवाही (साक्ष्य) को बहुत ध्यान से देखना अनिवार्य है.18 दूसरे न्यायमूर्ति ने लिखा है, ”दस वर्षीया बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में कानून के लिए यह जरूरी नहीं कि अन्य स्वतंत्र प्रमाण उपलब्ध हों. हाँ, किसी औरत द्वारा बलात्कार का आरोप लगाना एकदम भिन्न स्थिति है और किसी बच्ची द्वारा यह कहना कि अमुक व्यक्ति दोषी है–भिन्न स्थिति है.19 परन्तु तीसरे न्यायमूर्ति का विचार था, ”बलात्कार के मामले में सिर्फ लडक़ी के साक्ष्य को काफी न मानना ही एक अच्छा नियम है.20 क्योंकि ”यह नियम कि बलात्कार की शिकार स्त्री का साक्ष्य मानने के लिए अन्य प्रमाण अनिवार्य हैं.
दरअसल बुद्धिमत्ता का नियम (रूल ऑफ प्रूडेंस) है. 21 इसके बिना ”अभियुक्त को सजा देने के लिए, इसे उचित आधार के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए.22 कुल मिलाकर नतीजा वही है कि ‘सिर्फ स्त्री की गवाही के आधार पर सजा देना उचित नहीं. स्त्री के बयान पर विश्वास करना ‘खतरनाक’ है. बलात्कार के अन्य प्रमाण, सबूत और गवाह अनिवार्य हैं. बीसवीं सदी के पचास साल तक न्यायमूर्ति, बलात्कार की शिकार स्त्री से स्वतंत्र साक्ष्य की माँग करते रहे और न्याय की भाषा ‘बेहद असुरक्षित’ से ‘बेहद खतरनाकहोती गई. 1950 में लाहौर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने पुनर्विचार करने के बाद स्पष्ट किया, ”अन्य प्रमाणों को देखने का नियम सह-अपराधियों के लिए बनाया गया है और बलात्कार की शिकार स्त्री सह-अपराधी नहीं, बल्कि अपराध से पीडि़त स्त्री है. इसलिए बलात्कार के मामलों में पीडि़ता के साक्ष्य मानने के लिए अन्य प्रमाण हमेशा अनिवार्य नहीं हैं. ऐसे मामलों में याद रखनेवाली बात यह है कि क्या सिर्फ उस (स्त्री) के बयान के आधार पर सजा देना सुरक्षित है ? यह हर मुकदमे की स्थितियों पर निर्भर करता है.23 लेकिन उसी समय नागपुर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने विरोध में स्थापना दी, ”यद्यपि कानूनन यह मानने योग्य है, लेकिन बिना अन्य प्रमाणों के अभियुक्त को सजा देना खतरनाक है. यह नियम समान रूप से जरूरी है, चाहे पीडि़ता वयस्क महिला हो या सात वर्षीया कन्या. व्यवहार में यह नियम मजबूत नियम है कि बिना अन्य प्रमाणों के बच्ची की गवाही न मानी जाए. हालाँकि भारतीय कानून में यह नियम बुद्धिमत्ता का नियम है–कानून का नहीं.24 यह स्थापना देते हुए विद्वान न्यायमूर्तियों ने कुछ वर्ष पूर्व सुनाए अपने ही फैसले को निरस्त कर दिया. कानूनी नियम न होते हुए भी यह नियम न्यायमूर्तियों की ‘बुद्धिमत्ता का नियम’ बना रहा. बना हुआ है। कौन कहे–क्यों ? सवाल करो भी तो जवाब कौन देगा ?
खैर…आजादी के बाद, भारतीय गणतंत्र की सर्वोच्च अदालत ने लाहौर उच्च न्यायालय के 1950 वाले फैसले की तर्ज पर दोहराया, ”यह नियम, जो फैसलों के अनुसार कानूनी नियम बन गया है, इसका अर्थ यह नहीं है कि सजा के लिए अन्य प्रमाण अनिवार्य हैं. लेकिन बुद्धिमत्ता के लिए अन्य प्रमाणों का होना जरूरी है, सवाल यह है कि बुद्धिमत्ता का यह नियम हमेशा याद रहना चाहिए. व्यवहार में ऐसा कोई नियम नहीं है कि हर मुकदमे में, सजा देने से पहले अन्य प्रमाणों को देखना अनिवार्य हो.25 सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने ‘बुद्धिमत्ता के नियम’ को भी ‘कानून का नियमÓ घोषित कर दिया। इस निर्णय का प्रभाव यह हुआ कि सभी उच्च न्यायालयों को इसे मानना पड़ेगा. कुछ उच्च न्यायालयों के न्यायमूर्तियों ने इस फैसले को मानते हुए निर्णय सुनाए. लेकिन…कुछ न्यायमूर्ति ‘बुद्धिमत्ता के नियम’ के अनुसार ही न्याय करते रहे. पटना उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति ने सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्णय के बावजूद कहा, ”बलात्कार के मामले में, वयस्क महिला के मुकदमे में अन्य प्रमाण अनिवार्य ही नहीं हैं, बल्कि स्वतंत्र स्रोतों से भी होने चाहिए.26
बलात्कार नहीं, ‘शान्तिपूर्ण मामला’
इसके बाद करीब तीन दशकों तक बलात्कार की शिकार स्त्री से ‘बुद्धिमत्ता का नियम’ प्राय: ‘अन्य प्रमाण’ माँगता ही रहा. आहत, अपमानित और पीडि़त हजारों स्त्रियों की चीखें कानून की किताबों में बन्द पड़ी हैं. न्याय की नजर में उसका चीखना…चिल्लाना…शोर मचाना सिर्फ झूठ के ऊतक (‘टिशू ऑफ लाइज’) हैं. ये सब औरतें ‘भंयकर रूप से झूठी थीं और उनकी गवाही ‘झूठ और असम्भावनाओं से भरी पड़ी हैं. उनके शरीर पर कोई ‘चोट’ का निशान नहीं था. ‘यौन झिल्ली पहले से ही फटी’ हुई थी। ‘सम्भोग की आदी’ थीं और ‘कथित सम्भोग एक शान्तिपूर्ण मामला’ था. उन्होंने खुद ‘पूर्ण रूप से हवस शान्त करने’ की सहमति दी थी. मत भूलो कि ‘सम्भोग और बलात्कार में दुनिया भर का भेद है. इन पर ‘विश्वास करना ‘खतरनाक’ है. ”इन महिलाओं की तुलना सभ्य और प्रतिष्ठित समाज की महिलाओं से नहीं की जा सकती। ये महिलाएँ नीच काम में शामिल थीं और उनका चरित्र सन्दिग्ध है.27 1972 में प्रमिला कुमारी रावत के साथ तीन व्यक्तियों ने बलात्कार किया. उस समय प्रमिला गर्भवती थी. अदालत ने अपने निर्णय28 में कहा कि प्रमिला ‘रखैल’ थी, सम्भोग की आदी थी, उसने कोई चीख-पुकार नहीं मचाई, बलात्कार के बावजूद गर्भपात चार-पाँच दिन बाद हुआ. (अत:) लगता है, इन परिस्थितियों में जो कुछ हुआ, उसकी मर्जी या सहमति से हुआ या फिर उसमें पति (प्रेमी) की भी मिलीभगत थी. परिणामस्वरूप तीनों अभियुक्तों को बाइज्जत बरी किया जाता है. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री पी.एन. भगवती और मुर्तजा फजल ने सेशन और हाई कोर्ट के फैसलों को रद्द करते हुए इसे ‘सीरियस मिसकैरिज ऑफ जस्टिस’ माना था. विद्वान न्यायमूर्तियों के अनुसार बलात्कार के कारण प्रमिला का गर्भपात नहीं बल्कि निर्दोष अभियुक्तों को सजा सुनाने के कारण, न्याय का गर्भपात हुआ था.
एक अन्य मामले29 में सर्वोच्च न्यायालय ने देव समाज स्कूल अम्बाला की 9वीं कक्षा की छात्रा सतनाम कौर के साथ बलात्कार के चार अभियुक्तों को रिहा करते हुए कहा था कि लडक़ी सम्भोग की आदी थी और उसकी यौन झिल्ली पहले से भंग थी. इसी प्रकार महादेव व रहीम बेग बनाम राज्य 30 में एक बारह वर्षीय लडक़ी की दो अभियुक्तों ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी. न्यायालय ने उन्हें इस आधार पर बरी कर दिया, ”लँगोट पर मिले वीर्य के धब्बे अनिवार्य रूप से बलात्कार सिद्ध नहीं करते और उनके लिंगों पर भी किसी प्रकार के चोट के निशान नहीं हैं. प्रश्न यह है कि शादीशुदा या सम्भोग की अनुभवी महिलाओं के साथ हुए बलात्कार को अपराध न मानना कहाँ तक उचित है ? 1978 में मथुरा बलात्कार कांड में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री जसवन्त सिंह, पी. एस. कैलाशम और ए.डी. कौशल का फैसला31 न्याय की भाषा का ‘सर्वश्रेष्ठ’ नमूना कहा जा सकता है. पुलिस स्टेशन में पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार के इस मामले में न्यायमूर्तियों का (विवादास्पद) निर्णय था कि ‘प्रश्नगत सम्भोग बलात्कार प्रमाणित नहीं होता और अपीलार्थी गणपत के खिलाफ अपराध का कोई मामला नहीं बनता. मान लो मथुरा ‘झूठी’ थी और गणपत ने उसके साथ सहमति से सम्भोग किया था इसलिए बलात्कार का अपराध नहीं बनता और उसे कोई सजा नहीं दी जा सकती. परन्तु यह भी तो सच है कि गणपत ने पुलिस स्टेशन में सम्भोग किया. चूँकि सहमति से सम्भोग अपराध नहीं है तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि कोई भी पुलिस या अन्य सरकारी अधिकारी दफ्तरों में खुलेआम सहमति से सम्भोग कर सकते हैं ? क्या पुलिस स्टेशन को ‘वेश्यालय’ की तरह इस्तेमाल करना कोई अपराध नहीं है और उपरोक्त निर्णय ‘लाइसेंस’ नहीं ?
मथुरा केस में सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णय के विरुद्ध महिलाओं द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर विरोध और आन्दोलनों के परिणामस्वरूप 1983 में बलात्कार सम्बन्धी प्रावधानों में संशोधन करना पड़ा. कानून के संशोधन के बावजूद ‘गहरे गड्ढे मौजूद हैं और न्यायिक दृष्टिकोण से भी कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुआ लगता. मथुरा के बाद सुमन से लेकर भँवरीबाई बलात्कार कांड तक में हुए निर्णय इसका प्रमाण हैं. न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर के शब्दों में इसका कारण यह है कि ”नारी शरीर और पवित्रता को लेकर कोई सन्तोषजनक राष्ट्रीय योजना नहीं है.32 कहना न होगा कि इसके बाद न्याय की भाषा में जो बदलाव दिखाई भी देता है, वह अगर-मगर, किन्तु-परन्तु और लेकिन के मर्दवादी मुहावरों में ही उलझा हुआ है. भँवरीबाई केस में अभियुक्तों को रिहा करते हुए सत्र न्यायाधीश ‘ब्राह्मण जाति’ की श्रेष्ठता से लेकर ‘भारतीय संस्कृति’ की महानता तक का गुणगान करते हैं. उच्च जाति के भद्र पुरुष नीच जाति की स्त्रियों से बलात्कार करेंगे. न्यायाधीश को लगता है कि यह आरोप ‘सन्देह से परे तक सिद्ध’ नहीं हो पाया. कैसे हो सकता है? स्त्री के विरुद्ध लगातार बढ़ती हिंसा के प्रश्न पर गहरी चिन्ता या चिन्ता के बावजूद ‘न्याय का लक्ष्य’ अपराधियों की बाइज्जत रिहाई या सजा कम करना ही रहा है. बढ़ते अपराधों और घटती सजाओं के आँकड़ों को प्रतिशत की पद्धति में सिद्ध करना बेकार है.
जले पर नमक छिडक़ता पुरुष वर्चस्व
1983 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने एक अन्य मामले का निर्णय लिखते हुए कहा, ”इस समय जरूरत है कि कानून को इस प्रकार बनाया और ढाला जाए कि यह और अधिक संवेदनशील और जवाबदेह बनकर समय की माँग पूरी कर सके और इस मूलभूत समस्या का समाधान भी कि क्या, कब और किस हद तक बलात्कार की शिकार स्त्री की गवाही को सच मानने के लिए अन्य प्रमाण/साक्ष्य अनिवार्य हैं. भारतीय स्त्रियों के लिए इस समस्या का विशेष महत्त्व है क्योंकि प्राय: उनका शोषण भी होता रहा है और उन्हें समान न्याय से वंचित भी किया जा रहा है। इस समस्या पर भारतीय स्त्रियों की साठ करोड़ उत्सुक आँखें केन्द्रित हैं.33 स्त्री के विरुद्ध हिंसा के आँकड़ों को देखते और न्यायशास्त्र की पुनर्समीक्षा की जरूरत महसूस करते हुए न्यायमूर्तियों ने बलात्कार की शिकार महिला से अन्य प्रमाण माँगनेवाले नियमों को ‘जले पर नमक छिडक़ना कहते हुए कहा, ”बलात्कार की शिकार लडक़ी या महिला की गवाही को शंका, अविश्वास और सन्देह के चश्मे से ही क्यों देखा जाए ? ऐसा करना पुरुष-प्रधान समाज के वर्चस्व के आरोपों को सही ठहराना होगा. भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और नैतिक स्थितियों का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्तियों ने कहा कि कोई भी स्त्री अपनी और परिवार की प्रतिष्ठा, लाज, शर्म और बदनामी के खतरे नहीं उठाना चाहती. निर्दोष होते हुए भी वह हमेशा भयभीत ही रहती है. वह तो सच कहने से भी डरती है–झूठ कैसे कहेगी? और क्यों कहेगी ? लेकिन ‘वयस्क महिला’ के बारे में ‘बुद्धिमत्ता के नियम’को बचाते हुए कहा कि ‘वयस्क महिला’ अगर सम्भोग की स्थिति में पकड़ी जाती है और अपने को बचाने के लिए ऐसे आरोप लगाने की सम्भावना दिखाई देती है तो उससे अन्य प्रमाण माँगे जा सकते हैं.
ध्यान से पढऩे-देखने के बाद लगता है कि यही सब तो 1952 में भी कहा गया था इसमें नई बात क्या है ?
अन्तत: दस-बारह साल की दो बच्चियों के साथ बलात्कार के प्रयास के इस उपरोक्त मुकदमे में न्यायमूर्तियों ने कहा, ”अभियुक्त ने जो अपराध किया, उसको बहुत ही गम्भीर रूप से लेना जरूरी है. लेकिन ”हाईकोर्ट द्वारा सजा के बाद (बेचारे की) नौकरी छूट गई है। घटना सात साल पहले घटी थी. अब साढ़े छह साल बाद अभियुक्त को दोबारा जेल भेजना पड़ेगा. समाज में भी अभी तक बहुत बेइज्जती और अपमान सहना पड़ा होगा…सब बातों को देखते हुए हमें लगता है कि अगर सजा ढाई साल से घटाकर सवा साल कर दी जाए तो ‘न्याय का लक्ष्य’ पूरा हो जाएगा.देखा ! मर्द के साथ कितनी जल्दी हमदर्दी पैदा हुई मर्दों को.
‘वर्दीवाला गुंडा’ और ‘जवान लडक़ी’
सुमन बलात्कार कांड (1989) में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों द्वारा हरियाणा के पुलिसवालों की सजा दस साल से घटाकर पाँच साल की गई थी.34 कारण–’लडक़ी सन्दिग्ध चरित्र’ की है. पुलिस पक्ष की ओर से मुकदमे की पैरवी मानवाधिकारों के चैम्पियन गोविन्द मुखौटी ने की. जब अखबारों और पत्रिकाओं में इस निर्णय की आलोचना हुई तो मुखौटी को सार्वजनिक रूप से माफी माँगते हुए पी.यू.डी.आर. की अध्यक्ष की कुर्सी ने इस्तीफा देना पड़ा था. पुनर्विचार याचिका में न्यायमूर्तियों ने अपना फैसला तो नहीं बदला, हाँ, इतना स्पष्टीकरण जरूर दिया कि हमारे पूर्व फैसले का आधार लडक़ी का चरित्रहीन होना नहीं, बल्कि रिपोर्ट पाँच दिन बाद करवाना है. पुनर्विचार के बाद निर्णय में कहा गया है, ”हम यह कहना चाहते हैं कि यह अदालत स्त्री गरिमा और सम्मान की रक्षा में किसी से कम नहीं है.35 पुलिस हिरासत में बलात्कार के अपराध के लिए कम-से-कम दस साल जेल का प्रावधान होते हुए, सुमन-केस में पाँच साल की सजा क्यों ? सजा कम करने की ‘विशेष परिस्थिति’ क्या थी ? क्या सिर्फ रपट लिखवाने में पाँच दिन देरी की वजह से, पाँच साल सजा कम करना उचित है ? हरपाल सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश 36 में तो रपट दस दिन बाद लिखवाई गई थी और देरी को उचित मानते हुए माननीय न्यायाधीशों ने कहा था, ”जवान लडक़ी के साथ बलात्कार होने पर, इस तरह की देरी स्वाभाविक है. सुमन-केस में तो रपट लिखने वाला भी वही पुलिस स्टेशन है, जहाँ के सिपाहियों ने उसके साथ बलात्कार किया था और क्या सुमन ‘जवान लडक़ी’ नहीं थी ? यहाँ विचारणीय है कि न्याय की भाषा में ‘जवान लडक़ी’ पर विशेष जोर दिया है. यानी ‘वयस्क महिला’ हो तो देरी उचित नहीं.
एक और मामले में पुलिसकर्मी चन्द्रप्रकाश केवलचन्द्र जैन द्वारा बलात्कार के अपराध में सत्र न्यायाधीश ने पाँच साल कैद की सजा सुनाई. अपील में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों (ए.एम. अहमदी और फातिमा बीवी) ने कहा, ”सजा के सवाल पर हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि जब कोई वर्दीवाला किसी जवान लडक़ी के साथ ऐसा गम्भीर अपराध करता है तो उसके साथ सहानुभूति या दया की कोई गुंजाइश नहीं. ऐसे मामलों में सजा उदाहरणीय होनी चाहिए.37 यहाँ भी सजा के प्रश्न पर न्यायमूर्ति सख्ती का पाठ पढ़ाते हैं, लेकिन… ‘जवान लडक़ी’ के साथ बलात्कार होने पर सजा सख्त होनी चाहिए का दूसरा अर्थ, क्या यह नहीं कि वयस्क महिला के मामलों में सजा ‘नरम’ भी हो सकती है ? हालाँकि ‘जवान लडक़ी’ के मामलों में भी कठोरतम (अधिकतम) सजा कहाँ सुनाई जाती है ? हर बार सजा कम करने के लिए, कोई-न-कोई ‘विशेष परिस्थिति’ मौजूद रहती है. सात दशक पहले न्यायमूर्ति सीधे-सीधे कहते थे, ”जहाँ साक्ष्यों से मालूम हो कि बलात्कृत लडक़ी ‘अक्षत योनि’ या ‘पवित्र’नहीं है, वहाँ सात साल कठोर कारावास की सजा बहुत सख्त सजा है.38 अब, वही बात काफी ‘घुमावदार भाषा में कहने लगे हैं।
नारी अस्मिता और गरिमा पर न्याय की चिन्ता
न्यायमूर्ति पुरुष हो या स्त्री, न्याय की भाषा तो अक्सर वही रहती है, जो अब तक रची-गढ़ी गई है. पन्नालाल केस में न्यायमूर्ति सुनन्दा भंडारे और अनिल देव सिंह के निर्णय के अलावा भी अनेक उदाहरण हैं उपरोक्त खंडपीठ के निर्णय पुरुष न्यायमूर्तियों द्वारा लिये गए हैं. यही नहीं, बलात्कार के एक और केस में दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति सुश्री उषा मेहरा ने अपने निर्णय के आरम्भ में गम्भीरतापूर्वक लिखा, ”हमारे समाज में नारी अस्मिता के प्रति सम्मान घटता जा रहा है और बलात्कार के मामले बढ़ते जा रहे हैं. हालाँकि ऐसे अपराध बीमार दिमाग के व्यक्तियों द्वारा किए जाते हैं, लेकिन, चूँकि यह मुद्दा सार्वजनिक जीवन में सौम्यता और नैतिकता से जुड़ा है और स्त्रीत्व की गरिमा को छूता है, इसलिए अपराधियों के साथ सख्ती से निपटना चाहिए.39 लेकिन अन्तत: अभियुक्त को बाइज्जत रिहा कर दिया. जन्म प्रमाणपत्र उपलब्ध नहीं. डॉक्टर की रिपोर्ट महज राय है. स्कूल प्रमाण पत्र पर विश्वास नहीं किया जा सकता और लडक़ी पहले से ही ‘सम्भोग की आदी’ है 29 मई, 1975 के इस मुकदमे की अपील का निर्णय 14 जुलाई, 1992 को (लगभग सत्रह साल बाद) हुआ। न्यायाधीश अय्यर के शब्दों में ‘वट ए पिटी’. स्त्री के विरुद्ध हिंसा के जलते सवालों पर (महिला) न्यायमूर्ति द्वारा मानवीय सरोकारों से लैस, संवेदना के शब्द सचमुच सराहनीय हैं. लेकिन मौलिक अभिव्यक्ति न होने के कारण, पेचीदा कानूनी प्रावधान और न्याय के चक्रव्यूह में ही फँसी रह जाती है. दो साल पहले सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने भी तो यही कहा था, ”यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में स्त्रीत्व का सम्मान घटता जा रहा है और छेड़छाड़ और बलात्कार के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं…सार्वजनिक जीवन में सौम्यता और नैतिकता का विकास और रक्षा केवल तभी की जा सकती है, जब अदालतें सामाजिक नियमों का उल्लंघन करनेवालों के साथ सख्ती से पेश आए.40 बलात्कार के अपराधियों को बीमार, विकृत और विक्षिप्त मानसिकता के व्यक्ति घोषित करते, अपने निर्णय बताए-गिनाए जा सकते हैं.