एक कविता पाब्लो नेरुदा के लिए

मंजरी श्रीवास्तव

युवा कवयित्री मंजरी श्रीवास्तव की एक लम्बी कविता ‘एक बार फिर नाचो न इजाडोरा’ बहुचर्चित रही है
संपर्क : ई मेल-manj.sriv@gmail.com

12 जुलाई 1904 को पाब्लो नेरुदा का जन्म हुआ था. पाब्लो को समर्पित मंजरी श्रीवास्तव की कविता ‘पाब्लो नेरुदा के लिए’, आइये पढ़ते हैं पाब्लो को याद करते हुए 

पृथ्वी के एक छोर पर खड़े होकर
तुमने फैलाई
अपनी अपरिमित, असीमित बाँहें
और समेट लिया अपनी बाँहों में ‘इस्ला नेग्रा’, ‘मेम्यार’ के अंचल से लेकर
पूरा विश्व
पूरी पृथ्वी
पृथ्वी को अपनी बाँहों में समेटकर चूमते हुए
तुमने लिखीं
बीस प्रेम कविताएँ
और लिखा
निराशा का एक गीत
बीस वर्ष की अपनी बाली उमर में

आज की रात भी
उतनी ही प्रासंगिक हैं
तुम्हारी लिखी
सबसे उदास कविताएँ
जो तब की रातों की जान हुआ करती थीं
नेरुदा

शुरू हुईं तुम्हारी कविताएँ
एक तन में
किसी एकाकीपन में नहीं
किसी अन्य के तन में
चाँदनी की एक त्वरा में
पृथ्वी के प्रचुर चुम्बनों में
तुमने गाए गीत
वीर्य के रहस्यमय प्रथम स्खलन के निमित्त
उस मुक्त क्षण में
जो मौन था तब.
तुमने उकेरी रक्त और प्रणय से अपनी कविताएँ
प्यार किया जननेन्द्रियों के उलझाव से
और खिला दिया कठोर भूमि में एक गुलाब
जिसके लिए लड़ना पड़ा आग और ओस को
और इस तरह समर्थ हुए तुम गाते रहने में.

तुमने मुक्त कर डाला प्रेम को वर्जनाओं से
देह की वर्जनाओं को तोड़ते हुए
तुमने रचा काव्य सर्जना का वह रूप
जो काम- भावना का पर्याय था.

पाब्लो नेरुदा

तुम्हें नहीं पसंद आईं कभी
रूह की तरह पाक-साफ कविताएँ
तुमने तोड़ डालीं कविताओं की ‘वर्जीनिटी’
और लगा दिए साहित्य के पन्नों पर
खून के धब्बे
कविताओं का ‘हाइमेन’ विनष्ट कर
तुमने कर डाली सौंदर्यशास्त्र की व्याख्या
एक ऐसे नए रूप में
जिसे आज भी देख लेने भर से
तेज हो जाती है खून की रफ़्तार
रगों में
तुमने कविताओं पर लगा दिए दाग़
जूठन के
खर-पतवार के
धूल-धक्कड़ के
और कल-कारखाने की कालिख कलौंछ के
और इन ‘कुरूप’ कविताओं को
लोकल से ग्लोबल बनाकर
समेटा इस कुरूपता के सौंदर्यशास्त्र को
अपनी बाँहों में
पश्चिमी से पूर्वी गोलार्द्ध तक
और बन गए विश्वकवि

तुमने पैदा किये खून में शब्द
और शब्द से ही दिया खून को खून
और जिन्दगी को जिन्दगी
आज भी हमारे रगों के खून में जिन्दा है
तुम्हारे खून की गरमाहट
नेरुदा

अभी तक बचाकर रखी है तुमने
अपनी प्रेम कविताओं में
प्रेम के मुहाने पर
आँसुओं के लिए थोड़ी-सी जगह
और प्रेम की कब्र भरने के लिए
अपर्याप्त मिट्टी
प्रेम के स्याह गड्ढों को पाटने के काम आ रही है
आज भी
आँसुओं से गीली वह मिट्टी

किसी ने देखा और तुम्हें बतलाया
समय का खेल देखना
तुम्हारी जिन्दगीयों  के प्रहर
मौन के ताश के पत्ते
छाया और उसका उद्देश्य
और तुम्हें बतलाया
की क्या खेलो
ताकि हारते जाओ
और तुम हारते रहे अपनों से
जो नहीं जानते थे
कि
तुम लड़े रोशनी के बीच उनके अंधेरों से

तुमने पैदा किया शब्द को
रक्त में
पाला स्याह तन में
स्पंदन दिया अपनी थरथराती उँगलियों से
और उड़ाया अपने काँपते रसीले होंठों से
यही शब्द और सामान्य जन की वाणी
दोनों मिलकर बने तुम्हारी कविता
तुमने किया
अपनी उन अनजान कविताओं से रूखे स्नेह से प्यार
सिर्फ इसलिए
क्योंकि
तुम्हें लगता था
कि
तुम्हारा सारा दुर्भाग्य इस कारण था
कि एक बार उसने छितरा दिए थे तुम पर
अपने केश
और ढँका था तुम्हें
अपनी छाया में.
अपने इस रूखेपन को दूर करने के लिए
तुमने माँगा था
पृथ्वी से, अपनी नियति से
वह मौन
जो कम-से-कम तुम्हारा अपना तो था.

न सह सके तुम मौन का विशाल बोझ
धारण करते ही मौन
काँप उठे तुम
बेध गई तुम्हें तेज हवा
और उड़ गया फाख्ते के साथ तुम्हारा हृदय
ढह गया मौन का प्राचीर
पर
यकीन है मुझे
जीवित हो अब भी तुम कल की राख में
और अगर हो गए हो मृत
तो भी जन्म लोगे
कल की राख से.

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ISSN 2394-093X
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