स्त्री मुक्ति आंदोलन : कहाँ पहुँचे

कुसुम त्रिपाठी

स्त्रीवादी आलोचक.  एक दर्जन से अधिक किताबें
प्रकाशित हैं , जिनमें ‘ औरत इतिहास रचा है तुमने’,’  स्त्री संघर्ष  के सौ
वर्ष ‘ आदि चर्चित हैं. संपर्क: kusumtripathi@ymail.com

भारतीय स्त्री मुक्ति आन्दोलन अपने विकास के दौरान जहाँ बहुत सारे सामाजिक, धार्मिक रूढ़ियों, जड़ताओं कुप्रथाओं और पाखण्डों से मुक्त हुई है, वही उसके सामने वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नई चुनौतियाँ भी उत्पन्न हुई है . जो परम्परागत कुरीतियों से अधिक घातक सिद्ध हो रही हैं. भारतमें भूमण्डलीकरण के कारण भी बहुत-सी नई समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं. नए रूप में स्त्री देह व्यापार, भ्रूण-हत्या, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, घरेलू हिंसा, कुपोषण, हिंसा-अपराध, हत्या-आत्महत्या, विस्थापन, निरक्षरता, साम्प्रदायिकता, महिलाओं का वस्तुकरण, परिवार का बिखरना जैसी अनेक भयावह स्थितियाँ सामने खड़ी हैं. साथ ही बहुत-सी पुरानी परम्पराएँ कुप्रथाएँ भी आज तक कायम हैं जो स्त्री सशक्तिकरण में अवरोधक हैं. साथ ही गरीबी, जातिवाद, कुपोषण, सम्प्रदायवाद, पारिवारिक विघटन, हिंसा, कुपोषण, स्वास्थ्य की असुविधाओं का अभाव आदि है जो जेंडर विभेद के कारण समाज में मौजूद है. यह एक चिंताजनक बात है कि जब एक ओर तमाम महिला संगठनों, महिला स्वयंसेवी संस्थाओं की संख्या बढ़ रही है, तब हम देख रहे हैं उसी के साथ-साथ महिलाओं के साथ शोषण व अत्याचार भी बढ़ रहा है. चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, रोज प्रचार माध्यमों में स्त्रियों पर हिंसा की कोई-न-कोई ताजी खबर जरूर रहती है. महिला आन्दोलनों से जुड़ी कार्यकर्ताओं के बीच, महिला बुद्धिजीवियों के सामने यह एक जटिल प्रश्न है कि स्त्री मुक्ति आन्दोलन की दिशा कौन-सी होनी चाहिए? क्या करने से महिलाओं की पीड़ा और समस्याएँ कम हो जायेंगी ? आज स्त्री मुक्ति आन्दोलन के सामने कई चुनौतियाँ हैं. लेकिन इस पर सोचने के पहले हमें अपना इतिहास परखकर देखना जरूरी है.


महिला आन्दोलन की चुनौतियाँ

१९४७  के बाद का दशक महिलाओं के लिए विशेष महत्त्व का रहा. नए-नए महिला प्रश्न उभरे, योजनाएँ बनी, संघर्ष व मुद्दे निकले. कई कल्याणकारी योजनाएँ बनाई गई. 70 और 80 के दशक में वामपंथी आन्दोलन चले. इसी समय  स्वायत्त स्त्री मुक्ति आन्दोलन उभरा, इस आन्दोलन ने हर प्रकार के धर्मतंत्र (हेरार्की) का विरोध किया. पितृसत्ता की चुनौती दी. जहाँ भी पितृसत्तात्मक मूल्य नजर आए, स्वायत्त महिला आन्दोलन ने उसका विरोध किया. स्वायत्त स्त्री आन्दोलन ने एक प्रकार की चुप्पी को तोड़ा. साथ ही साथ विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं की महिलाएँ-महिला प्रश्न पर एक साथ आई. चाहे वे गांधीवादी हों, वामपंथी हों, समाजवादी हों या माओवादी हों. सभी महिला मुक्ति से जुड़े सवालों पर एक साथ दिखाई दिए. इस आन्दोलन ने बलात्कार के खिलाफ, कानून बदलवाए, दहेज का कानून बदलवाया, तथा स्त्री धन की परिभाषा बदली, पारिवारिक हिंसा का (४९८ ए) कानून पास करवाया, गर्भजल परीक्षण व लिंग परीक्षण पर रोक लगवाई, परित्यक्ता आन्दोलन, बार गर्ल्स पर पाबन्दी, घरेलू हिंसा 2005 का कानून बनवाया . विश्वस्तर पर नेटवर्किंग स्थापित की. न्यूजलेटर, पत्रिकाएँ निकाली गई. समाज में महिलाएँ जागरूक होने लगी. अपने हक के प्रति महिलाएँ एकजुट होने लगी. हर अखबार व पत्रिकाओं में महिला कॉलम लिखे जा रहे थे.  शहरों से गांवों तक स्त्री मुक्ति आन्दोलन फैलने लगा, सत्ताधारी वर्ग ने इस आन्दोलन पर ठण्डा पानी फेरने की चाल चली. अब राजनैतिक दलों ने महिला आन्दोलनों के नेतृत्व को जीतने का प्रचलन शुरू किया. स्वयंसेवी संस्थाओं (एन. जी. ओ.) चाहे सरकारी हो या विदेश पूँजीवादी, उन्होंने महिला संगठनों को आंशिक मदद देना शुरू किया.

विश्वविद्यालयों में स्त्री अध्ययन केन्द्र शुरू किये गये. लड़ाकू महिला कार्यकर्ता आलीशान दफ्तरों में बैठकर सिर्फ संशोधन, रिसर्च व मार्गदर्शन का कार्य करने लगीं, वह भी सुबह ग्यारह से पाँच बजे तक ऑफिस के बंधे-बँधाए समय के अनुसार.इसका नतीजा यह निकला कि शहरी स्त्री आन्दोलन के पास ‘सिद्धान्त’ तो है लेकिन जनता नहीं. आज स्वायत्त स्त्री आन्दोलन आदिवासी मेहनतकश महिलाओं को न संगठित कर पा रही है न दिशा दे पा रही लेकिन देश की परिस्थिति आज दिन प्रति दिन ऐसी होती जा रही है कि वे स्वायत्त नारीवादी आन्दोलन से बाहर निकलकर संघर्ष कर रही हैं. चाहे उत्तर-पूर्व की महिलाएँ हों या कश्मीर की, खैरलांजी की हो सिंगूर की हो या नन्दीग्राम की पूँजीपतियों के खिलाफ आन्दोलन हो या टाटा व एस्सार के खिलाफ वामपंथी महिलाओं का संगठन हो, वे सभी जन-आन्दोलन खड़ा कर नेतृत्वकारी भूमिका निभा रही हैं. ‘महिला’ यह एक सजातीय (होमोजनस) गट नहीं है. इसमें भी किसान महिला, मध्यमवर्गीय कामकाजी महिला, दलित आदिवासी अल्पसंख्यक, हर जाति, धर्म, समुदाय वगैरह से आती है. शोषक वर्ग की महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न भी होता है, लेकिन आम तौर पर वे अपने हालात को बदलने के लिए मेहनतकश महिलाओं के साथ नहीं आती. विभिन्न तबके की महिलाओं के विशेष समस्याओं पर ध्यान देने से महिला आन्दोलन और व्यापक बन सकता है. आज महिला किसानों  की आत्महत्या तथा पुरुष किसानों की आत्महत्या का सवाल, विस्थापना, बेरोजगारी महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण सवाल है. पितृसत्तात्मक पहलुओं पर ही हमें अल्पवर्गीय, जातीय प्रश्नों पर ध्यान देना जरूरी है. महिलाओं को अलग से संगठित करते हुए हमें अन्य स्त्री-पुरुष को मिलकर एक साथ आन्दोलन करना होगा.पर जैसा कि उमा चक्रवर्ती का कहना है, “भारत में स्वतंत्र महिला प्रश्नों पर आधारित आन्दोलनों का न होना वामपंथ की असफलता के कारण है.



वामपंथ सामाजिक संबंधों की समझ विकसित नहीं कर पाया, उन्हें जोड़ नहीं पाया.” आप माओ का उद्धरण ले लो.  माओ ने कहा था, “जेंडर अंतर्विरोध आपस में एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं.” आप सिर्फ वर्ग संघर्ष को ही पूरी तरह से वैध संघर्ष मानते हो. पितृसत्तात्मक संबंधों पर तभी प्रश्न उठाये जा सकते हैं, जब आपके पास एक ऐसा आन्दोलन हो जिसमें जाति, वर्ग और जेंडर को एक साथ समझा जाए. आज स्थिति यह है कि जातिवाले एक आन्दोलन करते हैं, वर्गवाले दूसरा और जेंडरवाले कोई और आन्दोलन करते हैं. कोई एक दूसरे का साथ नहीं देता. स्त्रीवादी आन्दोलन स्वयं में आगे नहीं बढ़ सकता, यह अकेले कभी-भी पितृसत्ता पर जीत हासिल नहीं कर सकता. स्त्रीवादियों की रुचि पितृसत्ता को सिर्फ सहयोग देने में नहीं है…. हमारा विश्वास समानता में है, समाज में कोई भी हाशिए पर नहीं होना चाहिए. प्रत्येक को केन्द्र में होना चाहिए प्रत्येक को समान नागरिक होना चाहिए. भारत में महिलाएँ हर तरह के आन्दोलन में हैं .नर्मदा आन्दोलन में, पर्यावरण आन्दोलन में, पोस्को में हैं, हर जगह हैं, पर उनको मुख्य महिला प्रश्नों के प्रति संवेदनशील नहीं बताया गया है. उन्हें इस बारे में बताया ही नहीं गया. (उमा चक्रवर्ती, समयांतर फरवरी, २०१४ वर्ष ४५ अंक -५ पृ. ८३) .स्वतंत्रता के बाद यह जरूर हुआ है कि आर्थिक मंत्रों पर महिलाओं को स्थान मिला है. पर वास्तव में यह बढ़ती महँगाई का परिणाम है. एक के खर्च से अब घर नहीं चलता इसलिए स्त्रियों को भी नौकरी करनी पड़ी. एक जमाने में लड़कियों को पढ़ने के लिए बाहर नहीं भेजा जाता था, पर अब उन्हें भी भेजा जाता है. ताकि जिस घर में शादी करके जाय, उस घर में दहेज के साथ-साथ हर महीने उनकी आय भी परिवार के काम आ सके.

आर्थिक परिदृश्य  में महिलाओं के श्रम और दक्षता की मौजूदगी लैंगिक सम्बन्धों में परिवर्तन के कारण नहीं, बल्कि आर्थिक कारणों से जुड़ी हुई है.आज औरतें अपनी स्वायत्तता की लड़ाई लड़ रही है.जाति और समुदाय की सीमाओं में अपने पिता और परिवार के नियंत्रण में है, अपने समाज की सीमाओं में हैं, तब तक तो ठीक है, लेकिन जैसे ही वे इन सीमाओं को तोड़कर इससे बाहर आना चाहती हैं अक्सर दमन और हिंसा की शिकार होने लगती हैं.जब महिलाओं में व्यक्ति होने का भाव उत्पन्न होता है, तो समझने लगती हैं कि इस नाते उनके भी कुछ अधिकार भी हैं, जिन पर वे दावेदारी कर सकती हैं.आज बहस इस बात पर नहीं कि लड़की इंजीनियर बनना चाहती है या डॉक्टर, पर जैसे ही वह अपनी शादी का निर्णय अपनी जाति या समुदाय से बाहर करने का स्वयं निर्णय करती है तो हिंसा की शिकार होती है. खासकर जब विवाह अपने से निचली जाति में हो, तो समस्या और भी विकट हो जाती है. खाप  पंचायतें ऐसे युगल प्रेमियों को आये दिन मृत्युदण्ड से लेकर हुक्का-पानी बन्द कर जाति से निष्कासित करते हैं. कभी गांव छोड़कर जाने का फरमान जारी करते हैं. इन खाप  पंचायतों को राजनेता का समर्थन मिलता है.हरियाणा के भूतपूर्व मुख्यमंत्री खुलेआम कहते हैं, ‘खाप पंचायतें भारतीय संस्कृति की रक्षा कर रही हैं ।’ उमा चक्रवर्ती का कहना है, ‘दुखद बात है कि वामपंथ जाति और जेंडर के वर्ग के साथ संबंध को कभी समझा ही नहीं. उनके लिए वर्ग ही एक मुद्दा है. हमारे देश में जाति और वर्ग मिलकर ही वर्ग बनाते हैं. हमारे सामाजिक ढाँचे में श्रम कुछ जातियों के हिस्से में आता जब कि साधन कुछ जातियों में. महज वर्ग की सोच जाति और वर्ग को अलग-अलग बनाए रखती हैं और जेंडर इस  संरचना को बनाये रखने में मदद करता है.

जब तक महिलाएं स्वयं की और अपनी सेक्सुअलिटी को परिवार, समाज और समुदाय के नियंत्रण में रखेंगी तब तक यह व्यवस्था ऐसे ही चलती रहेगी.‘ (उमा चक्रवर्ती, स्त्रियों की स्वायत्तता का सवाल लेख, समयांतर, फरवरी, २०१४ वर्ष ४५, अंक ८५). धार्मिक कट्टरपंथियों का विरोध करना आज जरूरी हो गया है. आज दक्षिण पंथी संगठन धर्म के नाम पर अपने समुदाय को संगठित करके अल्पसंख्यकों पर हमले कर रहे हैं. राज्य यंत्रणा में भी जातिवादी व सम्प्रदायवादी धब्बा लग गया है. खैरलांजी हत्याकाण्ड के बाद जिस प्रकार दलित समाज के लोग खौल उठे थे और जिस प्रकार दलित महिलाएँ न केवल रास्ते पर आई बल्कि आन्दोलन का नेतृत्व भी किया, इससे दिखता है कि महिला की जागरूकता व संवेदना किस दिशा में है, जरूरत है सही नेतृत्व की.
भूमण्डलीकरण को पूरी तरह ठुकराने की जरूरत है.आज विश्व का एक खेमा ऐसा है जो भूमण्डलीकरण को एक मानवीय चेहरा का नारा लगा रहा है, लेकिन भूमण्डलीकरण को हमें पूरी तरह चुनौती देकर एक वैकल्पिक विकास प्रणाली को खड़े करने की जरूरत है. जहाँ मेहनतकश किसान-मजदूर और देश के साधारण लोगों के हित में विकास हो. भूमण्डलीकरण से महिलाओं की बेरोजगारी, यौन शोषण, अश्लील संस्कृति, वेश्यावृत्ति इत्यादि बढ़ रहे हैं. भूमण्डलीकरण से विस्थापना होने के कारण महिलाओं का पारिवारिक जीवन और सुरक्षा मुश्किल में पड़ गयी है. इसलिए स्त्रीमुक्ति आन्दोलन को इसका विश्लेषण करना होगा, इस पर फोकस करना पड़ेगा.  90 के दशक में सोवियत रूस के खात्मे के बाद तथा धीरे-धीरे पूर्वी यूरोप में समाजवाद के अन्त के साथ ही, विश्व पटल पर अमेरिका का एकमात्र साम्राज्य स्थापित हो गया. इन देशों में लिंग के आधार पर औरतों के साथ कभी भेदभाव नहीं किया गया.

यहाँ महिलाओं को पुरुषों के बराबर स्वतंत्रता, समानता और बौद्धिकता के अवसर मिले. ऐसे अवसर आज तक किसी पूँजीवादी व्यवस्था में नहीं मिले हैं. इन समाजवादी देशों ने स्त्री के श्रम का इस्तेमाल कभी भी मुनाफा कमाने के लिए नहीं किया. पर आज भूमण्डलीकरण के बाद, औरतें साम्राज्यवाद के शिकंजे में बुरी तरह फँसी हुई हैं और साम्राज्यवादी देशों का चरित्र भयानक है. यह ‘लेट कैपिटलिज्म’ (वृद्धि पूंजीवाद) का जमाना है. यहाँ पूंजीवाद सर्वव्यापी है क्योंकि वैश्विक बाजारों, बहुराष्ट्रीय निगमों, विश्व बैंकों और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष संस्थाओं के जरिये  उसने अखिल मण्डल पर अपना प्रभुत्व और वर्चस्व कायम कर लिया है. पूँजीवाद सर्वशक्तिमान है क्योंकि उसके पास संपूर्ण विश्व को वश में करनेवाली पूँजी की शक्ति के साथ-साथ समूची दुनिया को नष्ट कर डालने में समर्थ शस्त्रास्त्रों से युक्त सैनिक भी हैं. इस (उत्तर आधुनिक युग  के पिछले २० वर्षों में अर्थव्यवस्था ही बदल दी. आज उदारवाद, निजीकरण और बाजारवाद ने सारे रिश्ते ही बदल दिये हैं. नैतिकता, विवेक, सामाजिक मूल्य जैसी बातें बकवास हो गई. आज पैसा कमाने की होड़ लगी हुई है. पूँजीवाद ने मुक्त बाजार, खुली प्रतियोगिता, माँग और पूर्ति के नियम को बढ़ावा दिया, उन्होंने औरत को भी बाजार के हवाले कर दिया. इसका कारण सुधीश पचौरी के शब्दों में  ‘७० के बाद औरत का सबलीकरण बढ़ा. आन्दोलन बढ़े. इससे खतरा था. जब औरत अपने बारे में राजनीतिक विमर्श करने लगी  तब इस संस्कृति ने उसका रूप बदलना शुरू किया.अगर औरतें यौन-स्वतंत्रता करने जा रही हैं और दुनिया की सत्ता लेने जा रही हैं तो उन्हें मर्दों की तरह देह की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए. डिस्को ऐसी ही कला-विधा बना. आदर्श स्त्री-देह को नंगा कर दिया गया… स्त्री संस्कृति में दो प्रकार की चीजें एक हुई. एक स्त्री देह को वस्तु की तरह देखती थी, दूसरी उस पर हिंसा की थी. सारे अश्लीलता कानून इस बिना पर चलते हैं कि आप उस अश्लीलता की उपेक्षा करे.

समाज में नग्नता या अश्लीलता की बहसें विज्ञापनों में, सुन्दरता के पार्न में शामिल होने से स्त्री होते हुए भी नुकसान के बारे में नहीं बताती. नाओमी वुल्फ कहती हैं कि ब्युटी मिथ ने औरत की आजादी को मोड़कर उसके चेहरे और देह में बदल कर औरत को ब्युटी मिथक शुरू होता है. कॉस्मेटिक आते हैं, कपड़े-लत्ते, फैशन उसकी पहचान के नाम से आती हैं. ब्युटी मिथ ने औरत को झूठे चयनशीलता दी है. मैं कैसे लगाती हूँ ? का भाव दिया है. (सुधीश पचौरी, हंस, मार्च २००१, वर्ष १५ अंक -८, एक अधखुला लक्षण पृ. १०५) आज स्त्री मुक्ति आन्दोलन से आई स्त्री स्वतंत्रता को पूँजीवाद ने स्त्री के स्वतंत्र निर्णय लेने के विश्वास को स्वतंत्र उपभोक्ता में बदल दिया है. उपभोक्तावादी संस्कृति ने औरत को महज एक प्रोडक्ट (वस्तु) के रूप में पेश कर रहा है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण आपको विज्ञापनों में नजर आएगा. ट्रक हो या टायर, कार हो या पेट्रोल, हर एक विज्ञापन में आपको अर्धनग्न कपड़ों में औरतों के जिस्म का प्रयोग बेहद सेक्सी तरीके से किया जाता है. यानी सामान बेचने के लिए उत्पादक ग्राहकों को लुभाने के लिए औरत के शरीर को समाज के रूप में प्रस्तुत करते हैं.भूमण्डलीकरण ने पूरे विश्व की महिलाओं का वस्तुकरण कर दिया है. बोल्ड और ब्युटिफूल के नाम पर पेज थ्री से रौनक बनती औरतें शायद यह समझ ही नहीं पाती कि उनके कम पोशाक भारी-भरकम मेकअप, हाथ में महँगी शराब की बोतलों का अर्थ स्वतंत्रता, समानता नहीं है. आज मीडिया द्वारा औरतों का सबसे ज्यादा वस्तुकरण कर बेइज्जत किया जा रहा है.आज बड़ी फिल्म अभिनेत्रियाँ  मॉडल, ऊँचे ओहदों पर आसीन औरतें जो पढ़ी-लिखी हैं वे भी अंग-प्रदर्शन कर रही हैं और उसी को अपनी पहचान बना ली है. सौंदर्य प्रसाधनों, ड्रेस डिजाइनरों, हेयर स्टाइलों की गूथ-गूँ में फँसी आज की औरत जो ऊपर से तो स्वतंत्र दिखती है, पर उसके जीवन में झांककर देखा जाये तो वह पितृसत्तात्मक ढाँचे में फँसी नजर आएगी.

आज का बाजारवाद स्त्री-पुरुष दोनों के उपभोक्ता के रूप में देख रहा है.आज दोनों ही बिकाऊ समझे जा रहे हैं. स्त्रीवाद ने पुरुषों को कभी भी ‘भोग’ की वस्तु नहीं माना पर अब चूँकि औरतें भी पढ़-लिख गई है, उनके पास भी सामान खरीदने की ताकत आ गई है, इसलिए औरतों को लुभाने के लिए विज्ञापनों में पुरुषों के कपड़े उतरवाये जा रहे हैं, वह भी फेयर एण्ड लवली लगा रहा है. आज पुरुषों को भी उपभोक्तावाद के हवाले किया जा रहा है. साम्राज्यवादी ताकतों ने हमारे देश में सामंतवादी ताकतों के साथ गठजोड़ कर लिया है, जिसका परिणाम यह निकला कि एक ओर औरत को उपभोग की वस्तु बनाया जा रहा है, जिससे औरत मात्र शरीर के रूप में भोग की वस्तु बन गई है, तो दूसरी ओर सामंती ताकतों को मजबूत करके खाफ पंचायतों द्वारा तो कभी अन्य कट्टरपंथी धार्मिक संगठनों द्वारा महिलाओं को मोबाइल फोन न रखने, जीन्स पैंट न पहनने, स्कार्फ द्वारा मुँह ढँकने, बुरखा  पहनने का फरमान जारी किया जा रहा है. आज कितनी ही लड़कियाँ स्कूटर पर मुँह ढँककर बैठी रहती हैं, ताकि उन्हें कोई पहचान ना ले. इससे लड़कों को ही फायदा होगा. पहचान छुपाकर उनके साथ अवैध संबंध बनाते हैं और किसी को पता भी नहीं चलता. स्त्रीवाद को ‘फ्री सेक्स’ के रूप में प्रतिष्ठित किया जा रहा है. स्त्रीवाद ने जेंडर विभेद के खिलाफ संघर्ष किया है. जिसे राजसत्ता भी स्वीकार करती है, पर समाज इसे तोड़ रहा है, पिछले वर्ष ‘बेशर्म मोर्चा’ एन. जी. ओ. ने निकाला. छोटे-छोटे अर्धनग्न कपड़ों में लड़कियाँ छोटे कपड़े पहनने की इजाजत समाज से माँग रही थी. जब कि भारत में आज भी दहेज, बलात्कार, यौनिक हिंसा, घरेलू हिंसा, शिक्षा जैसे अनेक सवाल खड़े हैं.



समाज में उपभोक्तावादी संस्कृति ने महिलाओं पर हिंसा को और बढ़ावा दिया. मैगी संस्कृति जो आई – दो मिनट में तैयार, उस संस्कृति ने इन्स्टेंट रातो-रात अमीर बनने के सपने दहेज के भयानक रूप में सामने आए. गाड़ी, बंगला, फ्रीज, टी. वी., महँगे फर्नीचर, गहने सभी उपभोग की वस्तुएँ दहेज में माँगे जाने लगी.. दहेज न मिलने पर औरतों को जलाकर मार डालना. नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार २०१२ में ८,२३३ दहेज हत्याएँ हुई. हर एक घण्टे में दहेज के कारण एक महिला की मौत होती है. दहेज के कारण लोग बेटियाँ नहीं पैदा करना चाहते. इसलिए भ्रूण हत्या जैसी बर्बरता समाज में दिन-दहाड़े अपनाई जा रही है.आज १००० प्रति पुरुष पर ९४० स्त्रियों का अनुपात है. पितृसत्ता पर के अन्तर्गत औरत पर नियंत्रण रखने के लिए अनेक प्रकार की हिंसा का इस्तेमाल किया जा रहा है और इन्हें प्रायः जायज ठहराया जाता है. बेटे को कुलदीपक कहना.पति को स्वामी, पत्नी को दासी, घर के अन्दर ही पति-पत्नी के बीच मालिकाना रिश्तों को बदलना होगा. सत्ता के साथ हिंसा जुड़ी हुई है. परिवार में प्रेम की जगह हिंसा है, बराबरी की जगह मालकियत है.औरतों को समाज में तुच्छ समझा जाता है, उसकी औकात न के बराबर है. औरत का समाज में कोई मूल्य नहीं है. आये दिन एकल औरतों के साथ समाज में हिंसा की जाती है, उन्हें डायन कहकर नंगा घुमाने से लेकर पत्थर से मार डालने तक की घटनाएँ होती हैं. सर्वेक्षण करने पर पता चला कि वे औरतें जो एकल हैं, आत्मसम्मान से अपने बल पर समाज में जीना चाहती हैं, किसी वर्चस्वशाली पुरुष या ओझाओं के सामने नहीं झुकती. उन्हें ही ‘डायन’ घोषित कर मार दिया जाता है.

तेजाब फेंकने की घटना में लगातार वृद्धि हो रही है. अधिकतर तेजाब फेंकने की घटना में एकतरफा प्यार शामिल है. लड़के ने लड़की के सामने प्यार या विवाह का प्रस्ताव रखा. लड़की ने ‘ना’ कहा तो लड़के ने तेजाब फेंका. पुरुष का अहंकार आहत होता है. एक ‘तुच्छ’ सी लड़की भला लड़के  को ‘ना’ कैसे कह सकती है क्योंकि समाज में लड़की को स्वतंत्र निर्णय लेने का हक नहीं दिया है और यदि कोई लड़की स्वतंत्र निर्णय ले लेती है तो पुरुष उसे सह नहीं पाता. तू मेरी नहीं तो किसी और की भी नहीं हो सकती. क्योंकि लड़की तो एक ‘सामान’ है. लड़की उपभोग की वस्तु है. घरेलू हिंसा के अनेक रूप हैं. नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर वर्ष एक लाख केस घरेलू हिंसा के दर्ज होते है. हर नौ मिनट एक औरत घरेलू हिंसा की शिकार होती है. इस संदर्भ में सुधा अरोड़ा का कहना है, ‘घरेलू हिंसा पर खूब बात की जाती रही है. हर देश में हिंसा के सालाना आँकड़े मौजूद हैं पर मारपीटवाली हिंसा से कहीं ज्यादा लगभग शत-प्रतिशत स्त्रियाँ जिस भावनात्मक हिंसा या अनचिङ्घी मानसिक प्रताड़ना का शिकार होती हैं, इसके आँकड़ें कहाँ मिलेंगे, जब पीड़िता खुद इसे पहचान नहीं पा रही है. आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, नौकरीपेशा लड़कियाँ इस तरह आत्महत्या नहीं करती. भावनात्मक शोषण से निपटने के लिए पहले लैंगिक वर्चस्व और लैंगिक शोषण की पहचान करनी होगी जिसकी नींव पर यह समाज बाहर से दिखती खुशहाली पर टिका हुआ है जब कि स्त्री संबंधी सही समस्याओं की जड़ लैंगिक वर्चस्व है.’ (सुधा अरोड़ा, कथादेश, वर्ष ३३, अंक-१ मार्च २०१४ विमर्श से परे : स्त्री और पुरुष पृ. ५६) गरीबी के कारण औरतें व बच्चियाँ देह-व्यापार में घसीटी जा रही है.

एन. सी. आर. की रिपोर्ट के अनुसार ४० हजार करोड़ रुपये का वेश्या व्यापार है, एक करोड़ वेश्याएँ भारत में हैं जिसमें पाँच लाख बच्चियाँ हैं. आज भारत बच्चियों के देह व्यापार का विश्व बाजार में सबसे बड़ा अड्डा है. एन. सी. आर. के अनुसार बच्चियों पर हिंसा के २०१२ में ३८,१७२ केस दर्ज हुए हैं. उपभोक्तावादी संस्कृति ने बलात्कार को बढ़ावा दिया. यूज एण्ड थ्रो की संस्कृति ने बलात्कार करो और मार दो को जन्म दिया.  सड़कों पर जा रही लड़कियों पर ब्लैड मैन द्वारा उनके मुँह पर हमला, सड़कों पर औरतों पर हमला, काम के स्थान पर छेड़छाड़, सेक्स दुरिज्य को बढ़ावा, बाल-वेश्या में वृद्धि, बच्चियों के सौंदर्य प्रतियोगिताएँ करवाकर उनका बचपन खत्म करना, बच्चियाँ चमक-दमक की दुनिया में बड़ों जैसा व्यवहार करने लगती हैं. मनोवैज्ञानिकों ने इसे इतना ही खतरनाक माना है जितना कम उम्र में माँ बनना.  इंटरनेट पर साइबर क्राइम में सबसे ज्यादा बच्चे हैं. बच्चों का सेक्स गेम के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. अश्लीलता बढ़ रही है. आज जज से लेकर धार्मिक गुरु से पत्रकार तक सभी जेल में हैं कारण बलात्कार का केस. उपभोक्तावादी संस्कृति कितनी भयानक है कि एन. सी. आर. की रिपोर्ट के अनुसार ९७% बलात्कारी परिवार के सदस्य या रिश्तेदार होते हैं. मात्र ३% बाहरी. आए दिन सगे नाना, दादा, मामा, चाचा, सगे भाई द्वारा बलात्कार की घटनाएँ घटती रहती है. समाज के सभ्य संस्कृति के इतिहास में हमने कभी भी समाज में औरतों के साथ इतना जुल्म नहीं देखा जितना आज. आज औरत मात्र शरीर बनकर रह गई है. माँ-बहनों के आँचल में प्यार या स्वर्ग नहीं दिखाई देता. छह महीने की बच्ची से लेकर पचहत्तर वर्ष की बुढ़ियाँ तक से बलात्कार की घटनाओं के केस पुलिस स्टेशन पर दर्ज होते हैं. कहीं-न-कहीं माताएँ पितृसत्ता की जंजीर तोड़ने में असमर्थ रही.

उत्तर-आधुनिक युग की औरतों को उपकरणों के कारण कुछ आजाद क्षण अमाप मिले. जैसे वाशिंग मशीन आने से औरत गृहणी के ढाँचे से मुक्त न हो पाई पर वाशिंग मशीन उसे एक आजादी की जगह खाली समय देती है. इसी तरह मिक्सी है जो उसे खटने से बचाती है. आज बीस साल की लड़की ज्यादा व्यक्तिवादी है, वह आसानी से संबंधों में नहीं बँधती, कैरियर का मतलब स्वाधीनता है. एक कैरियर अनेक रास्ते खोलता है.  परिवार के बाहर भी आप कुछ सोच सकते हैं. यह सिर्फ आर्थिक आजादी नहीं है. आज साइबर स्पेस में एक और छवि बन रही है जो इंटरनेट चतुर और कुशल औरत की है. आज बहुत से वीमेन्स वेबसाइट्स हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि औरतों को थोड़ा जगह और आर्थिक सत्ता मिली है. साइबर स्पेस की आदी बेरोक है. इतिहास में पहली बार औरत अपने विचारों को बिना किसी बंधन या भय से कह सकती है.यह एक प्रकार का १९२८ में कल्पित वर्जीनिया वुल्फ का अपना कमरा है. साइबर स्पेस ऐसा ही नितांत निजी स्पेस है. विकासशील देश में इंटरनेट की सुविधा से औरतों को लाभ हो रहा है. ऑनलाईन औरत का चेहरा नया चेहरा है जिसे नई अर्थव्यवस्था से बनाया है. इंटरनेट पर लिंगभेद खत्म हो जाता है. इसने जाति-धर्म, सम्प्रदाय, पिता-पति सबसे मुक्ति दिलाई.ऑनलाईन औरत को हर वक्त उसकी ‘जगह’ नहीं बताई जाती.अंततः वह अपनी सास, माता-पिता की जासूसी से परे हैं. जब तक औरत न बताना चाहे कोई उसकी लिंग स्थिति और अवस्था के बारे में नहीं जान सकता.आज स्त्री मुक्ति आन्दोलन के सामने आनेवाली चुनौतियाँ हैं. हमें राज्य व्यवस्था को समझना होगा,

महिला आन्दोलन की राजनैतिक दिशा की जरूरत है.  आज समूचे देश में तमाम एन. जी. ओ. व स्वयंसेवी संस्थाएँ महिलाओं को अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में सलाह देने के लिए दफ्तर खोलकर बैठी हैं लेकिन जब तक परिवार में स्त्री-पुरुष का बराबरी का समीकरण  नहीं बदलेगा, पितृसत्ता व वर्गीय शोषण को हम उठाकर नहीं फेकेंगे, तब तक हम पेन किलर जैसे तत्कालीन राहत ही औरत को देते रहेंगे. आज आम महिला का दुश्मन कौन है – क्या उसका मजदूर पति ही पितृसत्ता का प्रतीक है ? पितृसत्ता को कायम रखने के लिए राज्यव्यवस्था, पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, सामंतवाद की क्या भूमिरा रही है ? क्या इस राज्यव्यवस्था के साथ समझौता करके, इसी का हिस्सा बनकर इसी सूत्र की आर्थिक सहायता लेकर क्या साधारण मेहनतकश महिलाओं का जीवन बेहतर बन सकेगा ? क्या पुलिस, जज, मंत्री इत्यादि इस शोषणकारी व्यवस्था के अंग नहीं हैं ? २१ वीं सदी को न केवल यूनेस्को ने बल्कि भारत की सरकार, चिंतकों, बुद्धिजीवियों ने भी महिलाओं का शताब्दी बताया है.पर जैसा कि कलॉडिया वॉन वर्कर्हीफ कहती है, ‘गृहिणी चौबीस घंटे, जीवनभर की, मुफ्त की नौकर है जिसकी नकेल पति के हाथों में है बल्कि उसका सब कुछ पति के हाथों में उसकी यौनिकता, प्रजनन शक्ति, उसकी मानसिकता भावनाएँ. यह एक ही समय में घरेलू दासी और बंधुआ मजदूर दोनों हैं जो अपने पति और बच्चों की हर जरूरत पूरी करने के लिए मजबूर है, जिसने उसके प्रति प्यार दिखाना भी शामिल है. चाहे उसे महसूस हो या न हो. यहाँ औरत प्यार की खातिर काम करती है और प्यार करना भी एक काम बन गया है.

परिस्थितिवश हमेशा असहनीय नहीं होती है लेकिन यह बताना मुश्किल होता है कि कब असहनीय हो जाएँगी. औरत जो कुछ भी श्रम करती है उससे फायदा मिलना चाहिए और वह मुफ्त भी होना चाहिए जैसे कि हवा, जिस पर जीते हैं. यह सिर्फ बच्चा पैदा करने और पालने के संदर्भ में नहीं है बल्कि छोटे छोटे घरेलू काम और मजदूरी के काम पर भी लागू होती है. सहयोगियों को भावनात्मक सहयोग व देखभाल देना, दोस्ती, झुक जाना, दूसरों के आदेश पर रहना, उसके घावों पर मरहम लगाना, यौन रूप से इस्तेमाल होना, हर बिखरी चीज को संवारना, जिम्मेदारी का अहसास तथा त्यागी, किफायती होना, महत्वाकांक्षी न होना, दूसरों की खातिर आत्मत्याग करना, सभी बातों को सहन कर लेना और मददगार होना, अपने आपको पीछे हटा लेना, सक्रिय रूप से हर संकट का हल निकालना, एक सैनिक की तरह सहनशक्ति और अनुशासन रखना ये सब मिलकर औरत की कार्यक्षमता बनाते हैं.” (क्लॉडिया वॉन वर्कहॉफ, द पोलेटेरियन इज डैड लाँग लिव द हाउस वाइफ, १९८८, द लॉस्ट कॉ पृ. १०४) इस तरह औरतों के श्रम का मोल नहीं है. सीलिंग आधारित श्रम विभाजन की जरूरत है. श्रम विभाजन को संपूर्ण समाज की एक ढाँचागत समस्या के रूप में देखना चाहिए. जो अब तक ठीक से नहीं हुआ है. स्त्रीवाद की तथा महिला आन्दोलन के राजनीतिक कार्य की चुनौती यही है कि जैविकता के अन्तर पर आधारित असमानता के अन्त की दिशा में काम करें.



स्त्रीमुक्ति आन्दोलन से औरतों में जागरूकता आई. कानून बदलें. आज की स्त्री अपने अधिकार जानती है.आज स्त्रीवाद सिद्धान्तों में अटका है. दर्शन नहीं बन पाया. स्त्री-पुरुष आचारसंहिता बनी पर उसे घर-घर में कैसे लाना, कैसे लागू करना, यह नहीं हुआ.  थेरेपी, उपचार पद्धति की गई जिसमें बीमार ठीक हो जाता है. उसी तरह स्त्रीवाद ने काम किया. पितृसत्ता की जड़ें नहीं हिली. स्त्रीवाद ने काउन्सलिंग पर ध्यान दिया पर हिंसा के प्रति स्त्री-पुरुष संवाद नहीं लिया गया. जन-गण-मन अधिनायक जय हो, में जन की बातें हुई, गण में स्त्रियों को पंचायतों में लाया गया पर ‘मन’ रह गया.  स्त्रीवाद ‘मन’ से जुड़ा है.  स्त्रीवाद’ मात्र स्त्री का नहीं है. मानसिक क्रांति की जरूरत है. पुरुषों में भी स्त्रियों में भी. स्त्रीवाद, मानववाद है. . वह आगे मानववाद है. सिन्दूर, मंगलसूत्र हो या न हो, दोनों बलात्कार से डरती है. औरत रात में अकेली जा सके यह निर्भीकता उसमें नहीं आ पा रही है. औरत भीड़ से नहीं डरती पर उस भीड़ में से कब एकान्त से निकलकर पुरुष बलात्कार कर दे, इसका डर रहता है. बलात्कार से लड़ने के लिए आज भी जूडो कराटे सिखा रहे हैं, स्प्रे बाँटा जा रहा है, पर हम नैतिकता को नहीं बढ़ा रहे है.  मानसिक उत्थान को लेकर स्त्रियों का आन्दोलन कम पड़ गया.

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles