निर्णायक मंडल ( 2016) के सदस्य :
अर्चना वर्मा, सुधा अरोड़ा, अरविंद जैन, सुजाता पारमिता, हेमलता माहिश्वर, परिमला आंबेकर
यह सम्मान हर वर्ष स्त्रीवादी वैचारिकी की किताब को स्त्रीकाल के द्वारा, स्त्रीवादी न्यायविद अरविंद जैन के आर्थिक सहयोग से दिया जाता है.
वरिष्ठ लेखिका और विचारक विमल थोराट अनिता भारती को शाल ओढाकर सम्मानित करते हुए |
‘सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान’ के लिये अनिता भारती की किताब ‘समकालीन नारीवाद : दलित स्त्री का प्रतिरोध” का चुनाव करते समय हमे यह अहसास था कि हिन्दी का स्त्री-विमर्श रचनात्मक तौर पर जितना समृद्ध है, सैद्धान्तिकी के लिहाज से उतना नहीं। स्त्री-काल हाशियागत समुदाय के रूप में समूचे स्त्री-विमर्श को अपने भीतर समेटता है लेकिन हाशिये के उस तरफ़ भी अति-हाशियागत समूह के प्रतिनिधि के रूप में लेखिका का दलित-विमर्श का अभ्यन्तर-अंग होना भी इस चुनाव में विशेष महत्त्व रखता था। तो चुनाव में हमारी एक प्राथमिकता तो वैचारिकी से जुड़ी थी और दूसरी प्राथमिकता यह थी कि उसे अपने समाज की अन्तरंग उपज होना चाहिये। अनीता भारती की यह किताब दोनो कसौटियों पर खरी उतरी.
अनिता भारती का मानना है कि “समाज परिवर्तन में साहित्य की अपनी अमिट भूमिका है। साहित्य समाज में व्याप्त कुरीतियों, पुरातन मान्यताओं से लड़ना सिखाता है। यदि साहित्य की भूमिका समाज की सकारात्मक सोच बनाने की न होकर नकारात्मक होने लगे तो उसका दहन कर दिया जाना चाहिए।…आज दलित लेखकों और दलित साहित्य को चिंतन मनन करके फैसला करना है कि मूल्य, सिद्धांतों के साथ समझौता किसी भी हद पर नहीं किया जा सकता। दलित साहित्य को दलित आंदोलन को तोड़ने वाले जातिवादी असमानता मूलक, लिंगभेद पर आधारित पितृसत्तात्मक और ब्राह्मणवादी तत्वों से संघर्ष कर अपनी स्वतंत्र और प्रगतिशील राह बनानी होगी।”
मानपत्र और चेक देते हुए हंस के संपादक संजय सहाय, लेखिका नूर जहीर |
कफ़न और गोदान पर विचार करते हुए वे साहित्यिक मूल्यांकन में केवल प्रतिक्रयामूलक रूख से ऊपर उठकर एक तटस्थ दृष्टि और सम्यक् सन्तुलन का परिचय देती हैं। थेरी-गाथा में वे नारी-मुक्ति के स्वर के इतिहास की निशानदेही करती हैं, ‘कफ़न’ और ‘गोदान’ के सन्दर्भ में दलित आलोचना द्वारा उठाये गये विवादों की भी समीक्षा करती हैँ व रचना को समग्रतापूर्वक देखने की वकालत करती हैं। थेरी गाथा और कफ़न पर विचार करते हुए वे इसको कोरा साहित्यिक विवाद नहीं रहने देतीं बल्कि वस्तुतः धर्मवीर और दलित-विमर्श के अन्य सिद्ध-प्रसिद्ध और स्थापित नामों की स्त्री-विरोधी अवधारणाओं के साथ लोहा लेती हैँ। डॉ. धर्मवीर की स्त्री विरोधी, अम्बेडकर बुद्ध विरोधी वैचारिकी के खिलाफ अपनी टिप्पणी करते हुए वे दलित पत्र-पत्रिकाओं के इस रुख पर चिन्ता प्रकट करती हैँ कि वे दलित समाज का मुख-पत्र होने के दावे के बावजूद धर्मवीर की ऐसी सोच पर कोई हस्तक्षेप या कोई टिप्पणी नहीं करती हैं।
सम्मान के बाद |
अपने संकल्प को व्यावहारिक जामा पहनाने के लिये एक तरफ़ उचित आक्रोश, धारदार तर्क और प्रखर प्रतिवाद के साथ दलित-विमर्श के मैदान में स्त्री-पक्ष से मोर्चा खोलती हैँ, “ वे कहती हैँ ” हमारे दलित साथियों की राय है कि दलित समाज में दलित महिला पुरुष दोनों की एक सी स्थिति है अर्थात दोनों ही गुलाम है इसलिए पहले हमें सामूहिक होकर जाति मुक्ति की लडाई लडनी है जब हमें जाति से मुक्ति मिल जाएंगे तब हम दलित महिलाओं के लिए लड लेगे। परन्तु एक दलित एक्टिविस्ट होने के नाते मेरा हमेशा यह मानना रहा है कि हमें एक साथ सामूहिक लडाई के साथ दलित स्त्री अधिकारों की लडाई भी साथ-साथ ही लडनी पडेगी। लेकिन हमारे पुरुष साथियों को यह बात बिल्कुल गले नही उतर रही है। ” … “ जैसे ही स्त्री अपनी अस्मिता की बात करती है धर्मवीर जैसे ब्राह्मणवादी सकीर्ण विचारधारा वाले लोगों के पैरो तले जमीन खिसकने लगती है। उन्हें अपने अधिकार छीनने का भय सताने लगता है। उन्हे लगता है कि अगर नारी हमारे बराबर आ गई तो हमारा हुक्म कौन मानेगा? वे अपना गुलाम किसको बनायेंगे। इसलिए वे मनु की तरह ही स्त्री को घर में रखने की हामी है और वे बिल्कुल मनु महाराज की तरह औरतों का गठन चाहते है।” दूसरी तरफ़ वे स्त्री-विमर्श के मोर्चे पर सवर्ण स्त्री के साथ और साझेदारी की विडम्बनाओं पर दृढ़तापूर्वक सोदाहरण उँगली उठाती है। छिनाल-प्रकरण में अपनी भागीदारी की बात करते हुए वे याद करती हैं, – “पर मेरे मन के अंदर कुछ सवाल मुझे व्यथित कर रहे थे। सवाल यही थे कि क्या दलित स्त्रियों की अस्मिता किसी गैर-दलित स्त्री की अस्मिता से कम होती है? जब एक सवर्ण लेखिका पर हमला हुआ तो सारी लेखक बिरादरी इकट्ठी हो गई , पर जब दलित लेखिकाओं पर हमले हो रहे है तो सब चुप्पी मार कर बैठे रहे? दलित महिलाएं हमेशा समाज में अन्य महिलाओं के साथ जुडकर उनके मुद्दों के साथ सहानुभूति व बहनापा दिखाती रही है परन्तु दलित महिलाओं अपने मुद्दों के साथ हमेशा अकेली खडी दिखाई और लडती नजर आती है।
दलित स्त्री लेखन की दो पीढियां |
अनिता भारती के व्यक्तित्व का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष उनका ऐक्टिविज़्म है। यह उनके चिन्तक व्यक्तित्व के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसकी वजह से उनके चिन्तन को एक निजी अनुभव की धार मलती है, एक ठोस आधार मिलता है और वह हमारे अपने जमीनी यथार्थ से जुड़ता है। उनका ऐक्टिविज़्म छात्र-जीवन के साथ शुरू हुआ जिसके विषय में वे बताती हैँ कि – ” लडकियां इन छात्र संगठनों में अपने अस्तित्व के होने के अहसास की एक मृग मरीचिका में जी रही होती है,…हर साल नयी-नयी लडकियों के तरह-तरह के छात्र-संगठनों में जुडने के बाबजूद बाद में उनकी किसी भी तरह के आंदोलनों में चाहे वे महिला आंदोलन हो, अथवा जनआंदोलन या फिर सामाजिक व दलित आंदोलन, इन सबमें उनकी संख्या के हिसाब से हिस्सेदारी नही दिखती।”
सावित्रीबाई फुले वैचारिकी सम्मान के लिए स्मृतिचिह्न अशोक स्तम्भ के साथ लेखिका |
तबका उनका यह अनुभव बाद के जीवन तक भी उनके साथ आता है और अपनी भूमिका तय करने में उनकी मदद करता है – ” मेरे अपने जीवन में लिए गए मेरे फैसले ही मेरे जीवन की पोलिटिक्स को स्पष्ट करते है… हमारे जैसे लोग जो सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन जीते हुए समाज बदलाव का कार्य करना चाहते है उनके फैसले अपने साथ-साथ बाकी समाज को भी कही ना कही गहराई से प्रभावित और प्रेरित करते हैं।
स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श के बीच की खाली जगह को भरने वाली अनुभवसम्मत एवं प्रामाणिक वैचारिकी के सृजन के लिये उनकी किताब पुरस्कार के लिये चुनी गयी। मैं निर्णायक मण्डल की ओर से उनको बधाई देती हूँ।