स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
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संसद और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण. संविधान संशोधन विधेयक ‘पेश’ तो कर दिया गया है लेकिन हम ‘पास’ कभी नहीं होने देंगे. हम (मर्द) जो हजारों सालों से हुकूमत करते रहे हैं, क्या इतना भी नहीं जानते-समझते कि सत्ता में 33 प्रतिशत आरक्षण का अर्थ (अनर्थ) क्या है ? जब हमने अपने प्रधानमन्त्री को ही एक शब्द तक बोलने नहीं दिया तो कानून मन्त्री हैं क्या चीज ? अपने आपको समझते क्या हैं ? ऐसे ही बिल पास करवा लेंगे और चाँदी की तश्तरी में रखकर देश का राजपाट ‘बालकटी’ या ‘परकटी’ औरतों को सौंपे देंगे ?’1 हम अच्छी तरह जानते हैं कि बिल पास हो गया तो सैकड़ों साल तक देश में ‘पेटीकोट’ सरकार राज करेगी…हाँ ! पेटीकोट सरकार. सत्ता के लिए कांग्रेस, भाजपा, जनता दल, सीपीएम, सीपीआई, समता वगैरह की ममता छोड़-छाड़ अपनी ‘महिला पार्टी’ बना लेंगी तो ? आज के दिन, है किसी भी ‘मर्द’ पार्टी के पास 33 प्रतिशत संसद सदस्य ? ‘महिला पार्टी’ नहीं बनाएँगी या बना पाएँगी तो अपनी-अपनी पार्टी के ‘मर्द’ नेताओं की नाक में दम तो कर ही देंगी ना. आप नहीं जानते इन्हें. महिलाओं के मुद्दे पर फौरन एकजुट हो जाएँगी. तब कौन भुगतेगा इन (अ) बलाओं से ? बिना सोचे-समझे कह दिया, ‘‘महिलाओं सम्बन्धी विधेयक पास हो या न हो, उसकी मुझे रत्ती-भर भी चिन्ता नहीं है.’’2 बिल पास होने के बाद तो ‘तेरह दिन’ क्या एक मिनट के लिए भी आपको कोई प्रधानमन्त्री नहीं बनने देगी. ‘रत्ती भर भी चिन्ता नहीं है’ तो क्यों छपवाए थे ‘घोषणा-पत्र’ ? क्यों दिए थे ‘आरक्षण के आश्वासन’ ? क्यों ?
हमें मत बताओ कि ‘इस बारे में हर व्यक्ति के दो चेहरे हैं’3, पहला- वोट बटोरने के लिए झूठे घोषणा-पत्र छपवानेवाला, औरतों को बराबरी का अधिकार देने के आदर्श बघारनेवाला, समता-समानता- सामाजिक न्याय की नौटंकी करनेवाला और दूसरा औरतों को सिर्फ अपने पाँव की जूती समझनेवाला. अब यह कहने का कोई फायदा नहीं ‘हमें देखना है कि आरक्षण में कितना प्रतिशत दिया जाना चाहिए.’4 पहले क्यों नहीं सोचा-समझा कि इसके कितने ‘भयंकर परिणाम’ होंगे ? अब समझ में आ रहा है ‘सामाजिक बदलाव के लिए सब्र और सबकी सहमति अनिवार्य है.’ क्या आसमान टूट रहा था जो बिल पेश करते समय एक बार पूछा तक नहीं और चल दिए देश का राज सिंहासन सँभलवाने. पहले सलाह की होती तो शायद ये ‘सिंहवाहिनियाँ’ 10-15 प्रतिशत पर मान भी जातीं लेकिन…अब कैसे मनाओगे ? यह तो शुक्र करो कि उस दिन हमने संसद में शोर-शराबा कर-करवा के टाल दिया वरना आपने तो कर दिया था ‘सत्ता का श्राद्ध’. कटवा दी होतीं गर्दनें सरेआम समाज में. पता नहीं कैसे इन ‘देवियों’ के चक्कर में भूल गए कि भाई-भतीजे, बेटे-पोते बालिग हो चुके हैं ! आपको घर-परिवार-देश का मुखिया इसलिए थोड़े ही बनाया-बनवाया था कि आप हमारे ही भविष्य में आग लगा-लगवा देंगे. मत भूलो कि हम मुखिया को जब चाहे हटा भी सकते हैं. अगर आप सचमुच इतने ही ‘उदार सहृदय और प्रगतिशील, हैं या होना चाहते हैं तो ‘‘ऐसे सुधारवादी (स्त्री या दलित पक्षधर) पितृसत्तात्मक को गोली मार दी जाएगी.’’5
क्या आपको नहीं पता कि महिला आरक्षण बिल या विधेयक यदि पास होता है तो संसद में महिलाओं का प्रतिशत बढ़ जाएगा और महिलाएँ उल्टे-सीधे बिल संसद में पुरुषों के विरुद्ध पास करवाने मे सफल हो जाएँगी…और न जाने कितने ‘पुरुषों को इन विधेयकों के माध्यम से जेल में चक्की पीसनी पड़ेगी.’6 भ्रूण हत्या से लेकर सती तक के सारे कानूनी हथियार, जिनके बलबूते पर हम आज तक न्याय (का नाटक) करते रहे हैं- रद्दी की टोकरी में फेंक दिए जाएँगे. ‘‘सत्ता में आते ही उन्होंने दहेज की बड़ी-बड़ी राशियों की सुविधा और उनके लिए घरेलू हत्याओं और बलात्कारों का सुख छीन लिया, वैसे कानून बना दिए या उनके सख्ती से पालन पर जोर दिया, तो हम न घर के रहेंगे, न घाट के…’’7 यह सिर्फ मेरे जैसे सिरिफरे दिमाग में उपजी बेबुनियाद आशंका या डर नहीं है, बल्कि सामान्य नागरिक से लेकर देश के महान बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, सम्पादकों और नेताओं तक की मूल्यवान राय है. हम चाहते हैं कि ‘‘स्त्रियों को आरक्षण दीजिए लेकिन संसद में नहीं, नौकरियों में’’8 हम तो यहाँ तक कह रहे हैं कि ‘‘यह प्रतिनिधित्व एक-तिहाई क्यों, 50 प्रतिशत तक मिलना चाहिए, क्योंकि स्त्रियों की जनसंख्या कुल जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत है. ‘किन्तु’ संविधान संशोधन इसका बहुत अच्छा तरीका नहीं है. इसका ‘सही रास्ता’ है स्त्रियों को विभिन्न कार्यक्षेत्रों में सेवाओं और पदों में समुचित प्रतिनिधित्व देकर ‘इतना सक्षम’ बनाया जाए कि स्त्रियाँ प्राचीन समाज-व्यवस्था की गुलामी को छोड़कर स्वयं आगे बढ़ें और राजनीति में ‘खुलकर’ हिस्सा लेने लगें.’’9
हमें मालूम है कि बिल पेश करना आपकी राजनीतिक मजबूरी है/थी. आपने बिल पेश नहीं किया होता, तो अगले चुनाव में दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ (महिला विरोधी, सती समर्थक) इसे आगामी चुनाव का मुख्य मुद्दा बनातीं और सब कालिख आपके चेहरे पर पोतते. (प्रफुल्ल बिडवई, टाइम्स आॅफ इंडिया, 6 जून, 1997) बिल पेश करना अगर आपकी मजबूरी थी/है तो इसे पास न होने देना भी हमारी मजबूरी है. किसके कितने चेहरे हैं- हम-आप सब सदियों से जानते-पहचानते हैं. आप कहते रहिए कि पिछड़ी औरतों के लिए हमारी माँग ‘इस समय सिर्फ फूट डालने की नीयत से उठाई जा रही है’. हम भी दरअसल कहाँ चाहते हैं कि हमारे घरों की सती-सावित्रियाँ चूल्हा-चैका छोड़कर राजधानी आ पहुँचें. हमने कभी ऐसी माँग की भी नहीं लेकिन अगर आप राजपाट उ (माँओं) या सुष (माँओं) को सँभलवाना ही चाहते हो, तो फिर हमारी बहनें, बहू-बेटियाँ (अनपढ़, गँवार मूर्ख) भी ‘बालकटियों’ के बराबर में आकर बैठेंगी- और देखते हैं कि कौन रोकता है ? सत्ता सँभालने का ठेका क्या सिर्फ पढ़े-लिखों ने ही ले रखा है ? सच पूछो तो इस ‘राष्ट्रीय बहस’ में हम ये सारे तर्क (कुतर्क) दे भी इसीलिए रहे हैं कि औरतों के साथ सदियों से किए ‘पाप का प्रायश्चित’ ही करना है और राजनीति से संन्यास लेकर घर बैठना है तो फिर लगे हाथ हम भी कर ही लें गंगा स्नान. आपको अकेले सारा पुण्य और आपकी औरतों को सत्ता-सुख थोड़े ही कमाने देंगे. सत्ता की शतरंज खेलना हम भी सीख गए हैं.
हाँ ! यह सच है कि हमें ‘औरतों के राजनीतिक वर्चस्व से अपनी जमीन खिसकती नजर आ रही है’ और ‘राजनीति में अचानक इतना बड़ा बदलाव बर्दाश्त करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हो पाए हैं.’10 पर हमें यह भी मालूम है कि ‘यह उत्तर आधुनिक स्त्रीलिंगी विमर्श विदेशी षड्यन्त्र (नहीं) है’ न ही ‘विकास का एक ऐतिहासिक चरण.’11 हमें लगता है कि यह सिर्फ ‘उच्च वर्ग का सत्ता पर नियन्त्रण बनाए रखने का खेल है’12 जो हम कभी जीतने नहीं देंगे. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बावजूद हमने तो शाहबानो को गुजारा भत्ता तक लेने नहीं दिया. रातों-रात नया कानून बनवा दिया कि नहीं ? सत्ता में तिहाई हिस्सा देने के सवाल पर तो हम पता नहीं क्या कुछ कर देंगे. अगर अब भी ‘अधिकांश भारतीय महिलाओं को महसूस होता है कि राजनीतिक शक्ति पाने के सपने साकार होने का सही समय आ गया है’13 तो वे देखती रहें सपने और देती रहें ‘सड़कों पर निकलने’ की धमकियाँ. हमारी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है ? हमारे ‘केन्द्र को देर-सबेर तोड़ना’14 इतना आसान नहीं है. ये सब योद्धा ‘जो समर्थन दिखा रहे हैं उनका पुरुषत्व भी इस ‘क्रान्तिकारी’ साबित हो सकनेवाले फैसले को असानी से नहीं पचा पा रहा है.’15 पचाएगा भी कैसे ? समर्थन करनेवाले दलों में औरतों की स्थिति क्या है ? हम सब अच्छी तरह जानते हैं. हर एक के दलदल मंे धधकते ‘तन्दूर’ तैयार हैं. जिन्होंने अब तक एक भी स्त्री या दलित को अपने दल की निर्णायक समिति (वर्किंग कमेटी, पोलित ब्यूरो) के योग्य नहीं समझा वही सबसे ज्यादा शोर मचा रहे हैं. चिल्लाते रहो कि ‘कल औरतों का होगा’16 लेकिन यह मत भूलो कि ‘आज सिर्फ हमारा रहेगा.’. कल की कल देखेंगे.
क्या कहा आपने कि ‘विरोध करनेवालों के असली चेहरे सामने आ गए हैं.’ जी ! विरोध ही हमारा असली चेहरा है. आपकी तरह नहीं कि कहें कुछ और करें कुछ और ही. समर्थन के लिए ‘अटल’ रहनेवाले नेताओं के असली चेहरे देखने हैं तो उनकी युवा साध्वियों के चेहरे देखो, ‘राजपूतों’ के चेहरे देखो और ‘मातृशक्ति’ का पाठ पढ़ो. मत उठाओ यह सवाल कि ‘‘पिछड़े वर्ग की, मुस्लिम समाज की या अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाएँ क्या महिलाओं में नहीं आतीं ? इनके लिए अलग से आरक्षण क्यों ? पिछड़ी महिलाओं की वकालत करनेवाले क्या आरक्षण में भी आरक्षण चाहते हैं ? जो लोग शहरी महिलाओं की बजाए पिछड़ी महिलाओं के इतने ही हिमायती हैं, उन्होंने अब तक उनके लिए क्यों नहीं सोचा ? क्या इससे पहले उन्हें पिछड़ी महिलाओं की उन्नति का ख्याल नहीं आया ?’’17 खैर…सुनना ही चाहते हो तो हमारे सवाल भी सुनो. महिलाओं के लिए आरक्षण क्यों ? क्या वे भारतीय नागरिक नहीं हैं ? संविधान में स्त्री-पुरुष को बराबर के अधिकार हैं जो आरक्षण ही क्यों, धन, हिम्मत, हौसला, बाहुबल, बुद्धि अनुभव और राजयोग हो तो लड़ो और आ जाओ संसद में. बन जाओ प्रधानमन्त्री (इन्दिरा गाँधी) कौन रोकता है ? हमें अगर ‘उन्नति का ख्याल’ पहले नहीं आया था तो आपको भी कहाँ इन ‘शोषित स्त्रियों की चिन्ता सता रही थी.’ हम तो दलित, उत्पीड़ित, अनपढ़, गँवार, बेवकूफ थे अब तक, परन्तु आप तो सदियों से सुशिक्षित, सुसंस्कृत, महाज्ञानी, विद्वान और राजा-महाराजा थे मान्यवर ! आपने क्यों नहीं सोचा ‘अर्धांगिनी’ के बारे में ? नजर उठा कर देखो तो पता लगेगा कि अब तक अधिकांश महिला राजनेता विधवा, तलाकशुदा या चिरकुंआरियाँ क्यों हैं ?
आप भी तो अब तक ‘सेक्सी संन्यासिनों’, स्वतन्त्र, शिक्षित और स्वावलम्बी मुक्त स्त्रियों या समाज सेविकाओं के सहारे सिंहासन पर कब्जा जमाए बैठे रहे हो. इससे पहले आपने भी कब सोचा था कि औरतें- वस्तु, भोग्या, गूँगी गुड़िया या खेती नहीं हैं ?पूरी ईमानदारी से सच पूछना चाहते हो तो आप आज भी ऐसा कुछ नहीं मानते ! सिर्फ राजनीति कर रहे हो- वोटों की राजनीति, सवर्णों की राजनीति, शिक्षित शहरियों की राजनीति. सत्ता पर दुबारा कब्जे की यह नई चाल है आपकी और कुछ नहीं. मंडल के बाद सवर्णों के हाथों से राज सिंहासन खिसकता जा रहा है. आपको डर लग रहा है हमारी मायावतियों और फूलन देवियों से. वे आपकी किसी आरक्षण स्कीम के अन्तर्गत यहाँ तक नहीं आईं. हम और हमारी बहू-बेटियाँ तो बिना आरक्षण के भी यहाँ तक आ गई हैं. आप ही और आपकी राजदुलारियाँ हमें आगे बढ़ने से अब रोक नहीं सकते. हम फिर कहते हैं कि धर्म, जाति, वर्ग वगैरह-वगैरह के झगड़ों को और मत बढ़ाओ. औरतें फिर औरतें हैं- हमारी हों या आपकी. हम सब मर्द हैं तो मर्दों की तरह बात करें- औरतों को बीच में न लाएँ तो बेहतर होगा. सत्ता में तिहाई हिस्सा इन्हें दे देंगे तो सारी सम्पत्ति, शिक्षा, समाज, संविधान और संसद से लेकर स्वर्ग तक हमें सब कुछ छोड़ना पड़ेगा. छोड़कर कहाँ जाएँगे? सोचो, वरना बेमौत मार दिए जाओगे. समझो स्त्रियों का सत्ता-विमर्श वरना…ये ‘दुर्गाएँ’ हम सबका सत्यानाश कर देंगी.
हम मानते हैं- स्वीकारते हैं कि ‘‘पंचायती राज के प्रयोग के बाद हमें वास्तव में यह खतरा है कि औरतों को एक बार सत्ता-शक्ति मिल गई तो वे लम्बे समय तक हमारे हाथों में खेलती कठपुतलियाँ नहीं रहेंगी.’’18 संसद में आने के बाद ये सारी की सारी ‘लक्ष्मीबाइयाँ’ पार्टी की राजनीति छोड़, महिलाओं की राजनीति करेंगी. संसद, विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, प्रेस, समाज, शिक्षा, स्वास्थ्य और उद्योग में सब जगह एक-आध औरत को प्रतीकात्मक रूप से कुर्सी देकर देश स्वतन्त्रता की स्वर्ण जयन्ती मना ही रहा है ना ! 45 साल तक सुप्रीम कोर्ट में एक भी महिला न्यायाधीश नहीं आई तो क्या ‘न्याय’ नहीं हो रहा था और फातिमा बीवी को ले आने से कौन सा लम्बा-चैड़ा फर्क पड़ गया ? सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गाँधी, जयललिता से लेकर मायावती तक के राज में महिलाओं के कल्याण की कितनी क्रान्तिकारी परियोजनाएँ बनीं ? अब तक संसद (सत्ता) में आई महिलाओं ने महिलाओं के हित में क्या इतिहास रचा- कुछ बताओ तो ? एक तरफ आम भारतीय औरतों की हालत दिन-प्रति-दिन बदतर होती जा रही है और दूसरी तरफ जयललिताओं के घर में लूट का माल भरा पड़ा है. इसलिए हम बार-बार कह रहे हैं कि सामाजिक न्याय, महिला, मुक्ति अधिकार और बराबरी की बात मत करो. सारा चक्कर कुर्सी का है हुजूर ! कुर्सी का. इनके आने के बाद क्या हवाले, घोटाले, भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी खत्म हो जाएगी ? और ज्यादा होगी. आप नहीं जानते ये रिजर्व बैंक में जमा सारे सोने के गहने बनवा कर घर ले जाएँगी- देश को पता भी नहीं चलेगा. आप आरोप लगा-लगवा रहे हैं कि हम ‘‘अपने मृत्युदंड के वारंट पर दस्तखत नहीं करना चाहते हैं.’’19 कैसे और क्यों कर दें ब्लैक वारंट पर दस्तखत ?
आप जानते/जानती हैं कि हमने प्रधानमन्त्री से मिलकर ‘‘इस विधेयक का टालने का अनुरोध ही नहीं किया, दबाव भी डाला !’’20 तो क्या हुआ ? अनुरोध और दबाव ही नहीं हम इससे आगे जा सकते हैं और जाएँगे. ‘‘पिछड़े वर्ग के लिए संविधान में आरक्षण की कोई व्यवस्था (ही) नहीं है.’’21 कहने से काम नहीं चलेगा. पहले यह व्यवस्था कीजिए…करिए संविधान में संशोधन. फिर महिला आरक्षण पर बात करेंगे. गाँव में हमारी औरतों को पीने का पानी नहीं है, खाने को रोटी नहीं है, तन ढँकने को कपड़ा नहीं है और आप बिना किसी सलाह या बहस के राजपाट लुटाने पर तुले हैं. असुरक्षा की राजनीति में ‘जैंडर जस्टिस’ की बातें उछालने का कोई लाभ नहीं.22 मन्त्रीमंडल में ‘चार और भिक्षुणियाँ’ छोड़ भले ही चालीस शामिल कर लो, लेकिन याद रखना बुद्ध ने कहा था कि ‘‘स्त्रियों को संघ में स्थान दिया गया तो वह ज्यादा दिन टिक नहीं पाएगा.’’23 आप वरिष्ठ और सम्माननीय हैं श्रीमन ! लेकिन आपका यह सुझाव कि ‘‘पिछड़े वर्ग की औरतों को प्रतिनिधित्व देना चाहते हो तो सभी राजनीतिक दल स्वेच्छा से उन्हें चुनावी टिकट दे दें, कानूनी आरक्षण देने से देश एक सदी पीछे चला जाएगा,’’24 विवेकसम्मत, न्यायसंगत नहीं है. अगर ऐसा ही है तो यह सुझाव सिर्फ पिछड़ी औरतों के लिए ही क्यों हो ? सबके लिए कर-करवा दो- हमें कोई एतराज नहीं. असहमति के लिए क्षमा चाहते हैं. लगता है कि काफी कुछ उल्टा-सीधा कह दिया हमने. लेकिन संक्षेप में, अन्त में इतना और बता दें कि अगर अगले सत्र में बिल पास करवाने के लिए ह्निप जारी किया-करवाया तो हमें सारे देश को सच बताना पड़ेगा कि यह सब हंगामा, शोर-शराबा, विरोध, प्रदर्शन, गाली-गलौच और नारी विरोधी रुख आपके ही कहने पर करना पड़ रहा है. अभी बस इतना ही काफी है. जोर से बोलो, ‘देश के मर्दो एक होओ.’ जय हिन्द.
सन्दर्भ सूची
1. 16 मई, 1997 को संसद में विधेयक पर बहस के दौरान जनता दल के कार्यकारी अध्यक्ष शरद यादव का बयान.
2. उपरोक्त बहस के दौरान भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी की टिप्पणी.
3. प्रधानमन्त्री श्री इन्द्रकुमार गुजराल का दूरदर्शन पर साक्षात्कार और टाइम्स आॅफ इंडिया में रिपोर्ट.
4. टाइम्स आॅफ इंडिया में रिपोर्ट.
5. हंस, फरवरी, 1997 में ‘स्त्री-विमर्श: सत्ता और समर्पण’ लेख, अरविन्द जैन, पृ. 71
6. दैनिक हिन्दुस्तान, 17 जून, 1997 में रमेश डौरिया की पाठकीय प्रतिक्रिया.
7. हंस, अप्रैल, 1997 में सुप्रसिद्ध लेखक-सम्पादक श्री राजेन्द्र यादव द्वारा सम्पादकीय ‘सिंहासन खाली करो कि…’ पृ. 7
8. दूसरा शनिवार, 8 मार्च, 1997 में प्रसिद्ध लोहियावादी विचारक श्री मस्तराम कपूर का लेख, पृ. 10-11
9. वही.
10. ‘नारी संवाद’ मार्च, 1997, सम्पादकीय, पृ. 3
11. ‘कोड़े में बदलती करुणा’, सुधीश पचैरी, हंस, जून, 1997, पृ. 41
12. ‘विमेन बिल: इलीट प्लाय टू परपिचुयेट कंट्रोल’, सैयद शहाबुद्दीन, पाॅयनियर, 22 अक्टूबर, 1996
13. ‘पोलिटिकल पैट्रीआर्की: रिजर्वेशन अबाऊट पावर फाॅर विमेन’, ललिता पाणिकर, टाइम्स आॅफ इंडिया, 25 मई, 1997
14. ‘नई स्त्री और बिफरा हुआ मर्दवाद’ सुधीश पचैरी, जनसत्ता, 29 मई, 1997
15. ‘महिला आरक्षण के बहाने नए यथार्थ पर एक नजर’, विष्णु नागर, हिन्दुस्तान, 27 मई, 1997
16. ‘मूव ओवर, मिस्टर यादव यू आर इन माई सीट’, विद्या सुब्रामनियम, टाइम्स आॅफ इंडिया, 27 मई, 1997
17. सम्पादकीय, हिन्दुस्तान, 19 मई, 1997
18. ‘द सेकेंड क्लास सेक्स’, टाइम्स आॅफ इंडिया, सम्पादकीय, 19 मई, 1997
19. माया, 15 जून, 1997, पृ. 84
20. वही, श्रीमती मधु दंडवते की टिप्पणी, पृ. 84
21. वही, गीता मुखर्जी का बयान, पृ. 86
22. फ्रंट लाइन, जैंडर इश्यू, पृ. 113-115, 13 जून, 1997
23. दूसरा शनिवार, जून, 1997, सम्पादकीय ‘चार और भिक्षुणियाँ’, पृ. 3
24. फ्रंड लाइन में ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद का लेख, 27 जून, 1997, पृ. 94-95.