युवा कवयित्री मंजरी श्रीवास्तव की एक लम्बी कविता ‘एक बार फिर नाचो न इजाडोरा’ बहुचर्चित रही है
संपर्क : ई मेल-manj.sriv@gmail.com
एक अज्ञेय और रहस्यमय फ़रिश्ते-सा
नीली आँखों वाला वह ख़ूबसूरत अजनबी
मिल गया मुझे सरेराह किसी समंदर किनारे.
समंदर की लहरों और वाल्टर रूमेल के पियानो की धुनों के साथ
अपनी उँगलियों के स्पर्श से निकलते नैसर्गिक संगीत से झंकृत कर दिया उसने मुझे और
तरंगित कर दिए मेरी मन-वीणा के तार और
उतर गया एक मधुर संगीत-लहरी के साथ मेरे जिस्म में…मेरी रूह में.
हमारी आत्माएं जुड़ गईं एक-दूसरे से किसी रहस्यमयी शक्ति के माध्यम से
हमारी युवा भुजाएं प्रेम के पंखों में तब्दील होने लगीं धीरे-धीरे और
अस्त होते सूर्य की समुद्र पर पड़ती सुनहरी-नारंगी किरणों की पृष्ठभूमि में नाच उठे हम.
मेरे जीने की उमंगों को एक बार फिर भर दिया उसने
पूरे उत्साह और पूरी तन्मयता से
और मेरी भावनाओं को दिए नए आयाम
मेरी कविताओं में रंग भरने लगे
नाच उठी मैं अपने गीतों में अपनी उन मुद्राओं के साथ
जो आकर्षित करती प्रतीत होती हैं
अंतरिक्ष से ऐसी काल्पनिक चीज़ों को
जो हमें जीती-जागती लगने लगती हैं.
दुनियावी चीज़ों की तरह
खेलने लगी मैं
छायाओं और बिम्बों का चमत्कारी खेल
न जाने कितनी ही बार घुली-ढली मैं
अपनी ही देह में.
मैं हवाओं से वे बातें करने लगी थी
जिन्हें सुनने के लिए तड़पता था वह
और मेरे आने से पहले तक शायद सपने में भी नहीं सोचा था उसने इन बातों के बारे में.
ज्यों-ज्यों वह बतलाता जा रहा था जीवन का रहस्य
अपनी अधमुंदी-अधखुली पलकों को झपकते हुए
मेरी भी चिरंतन, उसकी आँखों में झांकती आँखें
टपका रही थीं
एक बिलकुल नए रचे हुए जिस्म की आँखों में झांकते रूह का प्रेम.
मेरी देह में बज उठी बीथोवन की नौवीं सिम्फ़नी और नाच उठी मेरी कविताओं में भविष्य की नर्तकी
लेकिन वह दिन धीरे-धीरे आने लगा था जब मेरे पुकारते रहने पर भी
वह विलीन हो जाता था समंदर की लहरों में
मेरे ही सामने से गुज़र जाता था अक्सर
किसी का हाथ पकडे दौड़ते हुए.
मेरा जिस्म अब ताबूत में तब्दील होने लगा था
जिसमें वही ठोंक रहा था कीलें
मेरे दिल पर पड़नेवाली हर एक चोट
बज रही थी प्रलाप के आख़िरी वाद्य-सी.
कोंते रॉबर्त द मान्तेस (सौंदर्य की महिमा का रसीला बखान करनेवाला कवि) की कविताओं-सरीखी मैं
अब उधेड़ी जा रही थी.
होने लगी थी शिथिल और असहाय
मेरी आँखें आंसुओं की जगह ख़ून बरसाने लगी थीं और मैं तब्दील होती जा रही थी धीरे-धीरे
शहादत की मज़ार में
पल-पल मृत्यु को अपनी आगोश में समेटे
रिसते घावों की एक अंतहीन श्रृंखला लिए
बदलने लगा था मेरा अलौकिक संगीत पीड़ा के प्रलाप में
पीड़ा और कराहों के मरघट में खड़ी मैं
गाने लगी थी मौत का कारुणिक गीत
पढने लगी थी मर्सिया.
उसके सुलगते आलिंगनों और दहकते प्रेम को तृप्त करती रही मैं अपनी आहत आत्मा और देह की पूरी ताकत से.
देती रही उसे
प्यार…प्यार…प्यार…और…और ज़्यादा प्यार.
पर इस क्रम में चलना पड़ा मुझे बर्फ़ की-सी आंच पर
किसी साज़ के तार की तरह बार-बार टूटती रही मैं प्रेम के संगीत-पद के बींचोंबीच.
अपनी इस पीड़ा भरी मनोदशा के दौरान भी
मैं तलाशती रही नई अभिव्यक्तियाँ
ख़ुद को परिभाषित करने के लिए.
प्रेम को लेकर एक बार फिर मैं धोखे में थी.
जिस फ़रिश्ते को मैं जानती थी
वह आकंठ डूबा था…भरा था विनम्रता और मिठास से
पर उसके पास एक गहरी दृष्टि भी थी चाहत और उन्माद से भरी.
वह शब्दों के पार देख सकता था.
संगीत में उन्माद के अर्थ को व्याख्यायित कर सकता था.
एक सनक भरे पागलपन के साथ जब वह बजाता था एक वाद्यंत्र की तरह मुझे
तो मेरी मसें भींगने लगती थीं
रगें निचुड़ने लगती थीं
आत्मा विद्रोह करने लगती थी.
मेरी आँखों की पुतलियाँ कामनाओं से भर जाया करती थीं लबालब
पर ज्योंही छलकने को होती थीं ये कामनाएं
होने लगती थी एक वितृष्णा-सी मुझे उससे.
मुझे पता था कि
उसके प्रेम में मैं जलते हुए कोयलों पर थिरक रही थी
लेकिन उसी एक लम्हे में
चल भी रही थी समुद्र पर
उड़ रही थी हवाओं के पार…आसमान से परे भी
अपनी पूरी पीड़ा और पूरे उल्लास के साथ.
मेरे भीतर अब एक प्रेमिका मरने लगी थी और जन्म ले रहा था एक हत्यारा शैतान
जो रोज़ क़त्ल करता रहता था ख़ुद का ही लम्हा-लम्हा
जैतून के फूलों-से हल्के सफ़ेद प्रेम-पंख
अब सफ़ेद बर्फ़ में तब्दील होने लगे थे
आहिस्ता-आहिस्ता.