आज के विविध संदर्भों में हमारे सामने कैसी चुनौतियां हैं और इनसे कैसे निबटा जा सकता है?
देश की आजादी, बोलने की आजादी, राजनीतिक आजादी, पत्रकारिता की आजादी सब पर हमले हो रहे हैं. मै मानती हूं कि आज लगभग ढाई साल से जो समय है वह एक अघोषित इमरजेंसी का स्वरूप ले चुका है. गैर लोकशाही और गैर जम्हूरियत का बोलबाला है, लोगों के खिलाफ तंत्र का इस्तेमाल किया जा रहा है. आज जो खतरनाक ढ़ंग से हमारे विश्वविद्यालयों में छात्रों को प्रताड़ित किया जा रहा है, वह इतिहास में नरेंद मोदी का एक गैरजिम्मेदार और काला समय माना जायेगा. विश्वविद्यालयों और केन्द्रीय शिक्षण संस्थाओं में आजाद ख्याल वाले, दलित-बहुजन सोच वाले नौजवानों पर हमला किया जा रहा है. वो नहीं चाहते कि इस देश में आजाद सोच वाले नौजवान पैदा हों. जिस तरह से रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या हुई और हैदराबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जेएनयू, एफटीआईआई में जो-जो हो रहा है, वह एक प्रभुत्वकारी ब्राह्मणवादी रणनीति है. जो हिन्दू राष्ट्रवाद (जिसे मैं हिन्दू प्रभुतावाद मानती हूं – यहां हमें राष्ट्रवाद का नाम ही नहीं देना चाहिए) मेजोटेरियन (बहुसंख्यकवाद) का एक प्रतीक है.
आपको नहीं लगता कि जैसे गुजरात में आप सब लगभग 15 सालों से संघर्ष कर रही हैं, फिर भी उनकी सरकार लगातार बनी हुई है, अर्थात मेजोरिटी इनके साथ लगातार खड़े होती दिख रही है. ठीक ऐसा ही अभी केंद्र में भी दिख रहा है कि तमाम लड़ाईयां लोग लड़ रहे हैं, लेकिन वे लड़ाईयां हार जाई जा रही है. जैसे हैदराबाद में अप्पाराव बने हुए हैं, एफटीआईआई में गजेन्द्र चौहान बने हुए हैं, यह है क्या आखिर?
अभी वे लोग केंद्र में भी शासन कर रहे हैं. उनके पास बहुमत की एक सरकार है. लेकिन अगर जीत-हार की बात करें, तो आपको दिल्ली और बिहार के चुनाव भी देखने होंगे. इस सरकार को आये हुए ढाई साल हुए हैं मगर इस ढाई साल में कितना नुकसान हुआ है, ये आपको तौलना (आकलन करना) पड़ेगा. जहां पर उनका शासन है, उनकी सत्ता है, वे गलत इस्तेमाल कर रहे हैं. इतने तीखे विरोध के बावजूद वे विरोध को प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं तो ये हमारी हार नहीं है, बल्कि उनकी तरफ से लोकशाही को ठुकराने का प्रयास है, इसको ऐसे सोचना चाहिए. अगर अप्पाराव बर्ख़ास्त हो चुके थे तो उनको वापस जाकर लाया गया. पता नहीं वहां एक अजीब तरह की राजनीति चल रही है-आज भी राधिका और रोहित राजू वेमुला (रोहित वेमुला के मां, भाई_ से सवाल किया जा रहा है कि वे दलित हैं कि नहीं . जिलाधिकारी, राष्ट्रीय अनूसूचित जाति आयोग को हलफ़नामा देता है कि वे लोग दलित हैं. फिर 10 दिन भी नहीं होता कि जिलाधिकारी दोबारा जांच करता है कि ये दलित हैं कि नहीं. यह केंद्र सरकार का हावी होना और अनैतिक दवाब है.
जब व्यवस्था जिद्दी हो जाय तो लोकतंत्र में ऐसी कौन सा कारवाई होगी कि जनता की आवाज सुनी जा सकेगी, जनता के अनुरूप व्यवस्था से काम करवाया जा सकेगा. अंततः आप 15 सालों से लड़ाई लड़ रही हैं और परिणाम नकारात्मक आता जा रहा है?
आप नकारात्मक परिणाम नही कह सकते हैं. 137 लोगों को हमलोगों ने उम्रकैद की सजा दिलवाई है. आप ये कैसे मान सकते हैं कि यह असफलता है. हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र एक अलग रास्ते पर जाती है और संवैधानिक लोकतंत्र की अलग. हमारे संसदीय लोकतंत्र में ऐसे प्रावधान होते कि जो लोग इस तरह के कामों को अंजाम देते हैं, वे 10 सालों तक चुनाव नही लड़ सकते हैं तो ये लोग आज संसदीय लोकतंत्र में नही होते. हमारी जम्हूरियत और लोकशाही में एक व्यापक बदलाव की जरूरत है, पहली बार दंगो को लेकर 137 लोगों को उम्रकैद की सजा हुई है तो आप यह कैसे कह सकते हैं कि ये असफल लड़ाई है. हमे यह याद दिलाना पड़ेगा कि नरोदा पाटिया का फैसला अगर 2012 में आया है तो उसे साजिश मानी गयी थी, माया कोडनानी और बाबू बजरंगी को सजा भी हुई थी और आज भी जाकिया जाफ़री का मुक़दमा हाईकोर्ट में पेंडिंग है. जजमेंट अच्छे भी आते हैं और बुरे भी आते हैं. अगर दलित, पिछड़ों के मामले देखें तो बहुत सारे जजमेंट इनके ख़िलाफ गया है तो क्या इसका मतलब ये है कि बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा बनाया गया संविधान गलत है. क्या आप ऐसा कहेंगे? सवाल है कि हमारे समाज में वे लोग आज भी सत्ता के उच्च पदों पर आसीन हैं, जो जातिवादी और सांप्रदायिक मनोवृति के लोग है. सबसे पहले हमें यहां बदलने की जरूरत है.
यह तो स्वाभाविक है कि संविधान के द्वारा ही हम अपने अधिकारों को हासिल कर सकते हैं और यह एक बड़ा हथियार है. बाबा साहेब डा. आंबेडकर ने जनता को सशक्त करने की जो रणनीति बनाई थी म स्टेट को मजबूत करने की, वो हमारे पक्ष में जाता है. तब भी सवाल यह बनता है कि जो संसदीय राजनीति है, वह जनपक्षी नहीं होगी, तो उसका नुकसान होगा. जैसे हम गुलबर्गा सोसायटी वाले जजमेंट के साथ हम देख रहे हैं कि गुजरात में पिछले 15 सालों से न्यायपालिका का चेहरा बदला है, तो न्यायपालिका में जो लोग बैठे हैं वो तय करेंगे न्याय को तो न्याय का स्वरूप बदल जायेगा. मनुस्मृति की वैचारिकता वाले अगर न्यायपालिका में बैठे हैं, तो ये वैसे ही न्याय के साथ आयेंगे. मूलतः ये खतरा है सिर्फ संवैधानिक लड़ाई लड़ने का ….
यह सवाल जो संसदीय राजनीति में है, आप उनसे जरूर पूछियेगा कि संवैधानिक मूल्यों का सवाल आप कब चुनाव में लायेंगे. जब ये सवाल लाये जायेंगे, जब ये सवाल पत्रकार सही ढ़ंग से करेंगे तब जाकर ये हमारे लोकतंत्र को और मजबूती प्रदान करेंगे.
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क्या आप डरती नहीं हैं?
डर किसको नहीं है. हम भी इंसान ही है. हम जरूर डरते हैं मगर हम डर का शिकार नहीं बन जाते. हम डर को सामूहिक कार्रवाई में बदल देते हैं और जोर से संघर्ष करना समझते हैं. डर तो सबको है. हमारे लिए, हमारे परिवार के लिए, सबके लिए. और वो चाहते भी हैं कि हमारे ऊपर इस तरह का हमला हो. मगर मैं मानती हूं कि हमारी सुरक्षा जनता में है, आवाम में है.
लेकिन पूरे दक्षिण एशिया में, दुनियाभर में यह खतरा देखा जा रहा है. आप जैसे जो लोग काम कर रहे हैं, उनपर लगातार हमले हो रहे हैं तो….
देखिये यह दौर बहुत चुनौती भरा है. मैंने कई बार कहा है कि ये चुनौती देनेवाला दौर है, खतरे भी बहुत हैं, आज हमें यह मानना पड़ेगा कि आर एस एस जैसी फासीवादी ताकतें संवैधानिक पदों पर बैठकर हमारे ऊपर हावी हैं. तो यह जाहिर है कि इसका मूल्य किसी न किसी को तो चुकाना ही है. प्रतिरोध होगा, होना ही है आज न तो कल तो हमले भी बढ़ेंगे
कुछ ऐसी घटनाएं शेयर करना चाहेंगी जब आपको लगा हो कि कोई सुनियोजित हमला किया गया है जब आप किसी सभा को संबोधित कर रही थी या जनसंपर्क में थीं
हैदराबाद विश्विद्यालय में, उस्मानिया विश्विद्यालय में, गुजरात उच्चन्यायलय में कोर्ट के अन्दर आदि कई जगह. जब मैं हरेन पांड्या के पिता विठ्ठलभाई पांड्या से मिलने जा रही थी, जिन्होंने सीधे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी. उनका मानना था कि उनके बेटे का क़त्ल उन्हीं (मोदी जी ) के हाथों से हुई है और जब मैं उनके घर छायाबेन और विठ्ठलभाई पांड्या को मिलने उनके घर जाती थी, तो बराबर मुझे ये सब झेलना पड़ता था, मेरे ऊपर हमले होते थे. जस्टिस वर्मा ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में इसको रिकॉर्ड भी किया है. ये खतरे शुरू से हैं और आज ये बढ़ भी गये हैं , क्योंकि वे ताकतें अभी केंद्र के ऊपर हावी है.
आगे क्या रणनीति है या आगे आप क्या करने वाली हैं?
मुझे लगता है कि सबसे जरूरी और ठोस रणनीति है राजनीतिक विपक्षी दल और राजनीतिक प्रतिरोधी शक्तियों को जागृत करना. हम अपना काम कर रहे हैं और ये काम बहुत अहम है. लेकिन जब तक राजनीतिक रूप से ये काम नहीं होगा तब तक हम उनको चुनावी शिकस्त नहीं दे सकते हैं, उनको सत्ता से विस्थापित नहीं कर सकते है. सबसे पहले हमें यह लगता है कि हमारी जो सबसे बड़ी चुनौती है वह है राजनीतिक विपक्षी दलों को एकत्रित करते हुए लामबंद करना. हमारे लिए एकरेखीय बायनरी (linear binary) एक ही होनी चाहिए: जो संविधान मानने वाली ताकतें हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी ताकतें, जो संविधान को नहीं मानतीं हैं. मैं कुछ दिनों पहले गोविन्दाचार्य के बयान के तरफ धयान दिलाना चाहूंगी, उन्होंने साफ-साफ कहा है कि हां, हम संविधान को बदलेंगे, अगर भारतीय संसद को इसकी जरूरत पडी. मैं मानती हूं कि बाबा साहेब को मानने वाली देश की जो जनता है, वह यह आसानी से नहीं होने देगी.
एक बात पूछना चाहूंगा तीस्ता कि जब आपकी आर्थिक नाकेबंदी हो जायेगी- आप जैसे लोगों की भी और आपकी भी, तो एक संघर्ष का प्रारूप क्या होगा? जैसे देखा जा रहा है कि वाम दलों में भी पूर्णकालिक कार्यकर्ता मिलने मुश्किल हो रहे हैं. धीरे-धीरे कार्यकर्त्ता मिलने बंद हो जाते हैं. तो इसका क्या प्रारूप होगा?
मैं आपके माध्यम से बताना चाहूंगी कि अभी जो हमारा FCRA को रद्द किया गया, बैंक खाते हमारे फ्रीज हुए जनवरी 2014 से, तो ये कोई नई बात नहीं है. 2014 से गुजरात पुलिस ने हमारे FCRA खाते को फ्रीज़ करके रखा है और हमरा जो संगठन है, चाहे वह सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस हो या सबरंग, कभी सिर्फ विदेशी चंदों पर निर्भर नहीं था. हमें चंदे, अंशदान देने वाले भारतीय नागरिक भी हैं. वो आज भी है. ये कैम्पेन, जो हमारे खिलाफ चलाया जा रहा है वो इसलिए चलाया जा रहा है कि उनको डराया जाय कि आप इनके साथ जुडो मत और इनको चंदे मत दो. फिलहाल हमारा काम जारी है और हम फिलहाल उम्मीद करते हैं कि घरेलू चंदे से हमारा काम चलता रहेगा.
दलित-मुस्लिम एकता की बात कर रही हैं आप, पर सवाल है कि यह एकता किसके बरक्स होगी, क्योंकि शेष बच जाता है ओ बी सी समाज और ब्राह्मण समाज
एकजूट होना, संवैधानिक उसूलों पर तो सब के लिए जरूरी है, बहुजन, महिला, ब्राह्मण, ठाकुर, दलित और मुसलमान. दलित और मुसलमान के बारे में मैंने एक खास जिक्र उत्तरप्रदेश चुनाव को लेकर इसलिए किया है कि अक्सर कौमी/सांप्रदायिक हिंसा के पीछे यह बात आती है. दलित का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ. अगर मुज़फ्फरनगर देखें तो वहां मुसलमान लड़के द्वारा दलित नौजवान महिला की छेड़खानी का मामला बनाया गया था. अगर सामाजिक स्तर पर एकजूट होकर हम यह कह सकते कि हम सामाजिक मुद्दों पर साथ में खड़े रहेंगे, नाइंसाफी के खिलाफ- छूत-अछूत की राजनीति के खिलाफ़; संविधानिक उसूलोंको सामने रखते हुए, तो हो सकता है, संभव है कि हिंसा भड़काने का काम जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बार-बार करता है, वह असफल रहे. हाल में हमने खबर पढी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक राकेश सिन्हा उत्तरप्रदेश के बारे में इस प्रचार में जोर लगाने वाले हैं कि दलित-मुसलमान कभी दोस्त नहीं बन सकते क्यों?
पूरी बातचीत सुनें:
आपको क्या ऐसा नहीं महसूस होता कि संघ के प्रभाव को चुनौती देने के लिए सबसे कारगर मुद्दे जाति के सवालों से बनते हैं और ब्राह्मणवादी संस्कृति पर स्थाई प्रहार ही संघ के वर्णाश्रमवादी हिन्दू राष्ट्रवाद का समाधान है?
अगर हम यह सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जंग/संघर्ष नहीं छेड़ेंगे तो संघ को हराना मुश्किल है. कहानी शुरू होती है एकलव्य से और आज तक सिलसिला जारी है. मैं जब इतिहास पढ़ती हूं या शिक्षकों के साथ बैठती हूं तो सावित्रीबाई फुले के योगदान– लड़कियों के लिए खोली गई पहली पाठशाला-भीड़ेवाडा पुणे में, इस ख्याल के साथ किहर जाति और धर्म की लड़कियां एक साथ एक कक्षा में पढ़ेंगी, महत्वपूर्ण दिखती हैं. क्या तीस्ता सीतलवाड़ को यह एहसास नहीं होने चाहिए कि स्त्री के शिक्षण को लेकर ब्राह्मणवाद क्या सोचता है? जब सावित्रीबाई फूले– जो हमारे महाराष्ट्र में क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फूले मानी जाती है, और जिनका जन्मदिन 3 जनवरी को हम शिक्षक दिवस मानते हैं, तथा जोतिबा फूले का बहिष्कार हुआ तो साथ देने वाले पुणे शहर के उस्मान शेख थे, जिनकी बहन फातिमा शेख सावित्रीबाई फूले के स्कूल में उनके साथ पहली शिक्षिका बनी. यह है हमारा इतिहास.
यह साक्षात्कार संक्षिप्त तौर पर हिन्दी अंग्रेजी में फॉरवर्ड प्रेस में पढ़ा जा सकता है.