खैरलांजी के एक दशक के बाद भी बदस्तूर जारी है शोषण….



रजनी तिलक 

(महाराष्ट्र  में 10 वर्ष पूर्व घटित हुए  सबसे  वीभत्स दलित उत्पीडन कांड को  याद करते हुए रजनीतिलक इन 10 सालों में सामाजिक और कानूनी न्याय की तस्वीर रख रही हैं. )


अभी हाल में महाराष्ट्र में मराठाओं  द्वारा भारी धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं,और उनकी मांग है  कि अनुसूचित जातियों की तरह उनका आरक्षण बहाल हो एवं अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम निरस्त हो.
खैरलांजी-कांड के ठीक 10 वर्ष बाद महाराष्ट्र  में मराठाओं  का एकत्र होकर अपनी बुलंद आवाज में सर उठाना अपनी ताकत का इजहार करना मात्र नहीं  है बल्कि देश के संविधान के प्रति यह एक तरह की अवमानना भी है, वह संविधान जिसने  अपने देश के अत्यंत पिछड़े समुदायों, विशेषकर  जो सामाजिक आर्थिक शैक्षणिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ेपन के कारण हाशिये  पर हैं,  के नागरिकों को  मुख्यधारा में लाने के लिए विशेष प्रावधान आरक्षण द्वारा किया. आगे चलकर संविधान के दायरे में ही  उनके विरुद्ध जातीय भेदभावकी रोकथाम हेतु अनुसूचित जाति-जनजाति निवारण अधिनियम लाया गया, जिसका सामाजिक आर्थिक रूप से संपन्न समुदायों द्वारा समय-समय पर विरोध किया जाता रहा है, इस बार मराठाओं ने मुहीम की डोर थामी है.

खैरलांजी-कांड की दसवीं  बरसी  खैरलांजी में  घटित बर्बरता की दास्तान की याद दिलाती है. 29 सितम्बर 2006 में घटित यह  घटना, उत्तर नागपुर से 70 किलोमीटर दूर खैरलांजी गाँव, जिला भंडारा, में उसी  गाँव के लोगों द्वारा अंजाम दी गई. उन दरिंदो ने इंसानियत की सारी सीमायें तोड़ कर अपने जातीय अभिमान के खूंटे गाड दिये- सुरेखा भोतमांगे, एवं उसकी किशोरी बेटी प्रियंका भोतमंगे को गाँव में नंगा करके न केवल घुमाया, बल्कि उनके साथ बलात्कार किया और उनकी योनी में बैलगाड़ी का सरिया घुसेड दिया था. सुरेखा भोतमांगे के दो पुत्रों  को भी  पीट-पीट कर मार डाला और उनके लिंगो को भी कुचल डाला. सामूहिक बलात्कार और सार्वजनिक अपमान तथा हत्या करके इस केस पर लीपा-पोती की गई और पूरा गाँव मूकदर्शक की तरह सबकुछ देखता रहा. गांव के पिछड़ी जाति के 41 पुरुषों ने इस वारदात की  कमान सम्भाली. इस वारदात की जड़ भैयालाल भोतमांगे की 5 एकड़ जमीन थी. खैरलांजी  गाँव में 780 लोग रहते थे, जिसमें  10 घर गोंड आदिवासियों के  एवं 3 परिवार दलितों के थे. भैयालाल के पास उनके पूर्वजो से मिली पांच एकड़ जमीन थी, जिसमें से गाँव की सड़क बनाने के लिए दो एकड़ उनसे ले ली गई थी, बाकी बची जमीन भी दबंगो की आंखो में खटक रही थी. वहीं भैयालाल  की पत्नी सुरेखा भोतमंगे अपनी जमीन के लिए सचेत थी. उसके तीन बच्चो की पढाई-लिखाई भी अच्छी चल रही थी. गाँव के लोगो को  एक दलित परिवार की तरक्की व स्वाभिमान बर्दाश्त  से बाहर था. इस गाँव में पिछड़ी जाति के लोगो में कुनबी, तेली, कलार, लोधी,डिबर व बढ़ई थे. उनमें से 41 लोगों ने घर में घुस कर सुरेखा और उसकी 17 साल की किशोर बेटी से सामूहिक बलात्कार किया व दो बेटों  की सामूहिक हत्या और जातिगत अपमान किया. जाति-वैमनस्य एवं जलन के कारण  यह बर्बर कृत्य किया गया. महीने भर की चुप्पी के बाद एक खोजी पत्रकार ने इस घटना पर अपनी स्टोरी की, तब जाकर यह घटना पूरे  देश के समक्ष उजागर हुई, और अंतरराष्ट्रीय दवाब के चलते सरकार हरकत में आई.

26 सितम्बर 2008 को 41 लोगों में  ३६ लोगो चिन्हित किया गया, उनमें  से भंडारा जिला न्यायलय ने 6 लोगों को मौत की सजा व दो को उम्रकैद की सजा सुनाई. 16 सितम्बर 2008 को इस केस से एसी -एसटी एक्ट हटा दिया गया था.तत्पश्चात  14 जुलाई 2010 को अपील करने के बाद न्यायालय ने 6 लोगों को मौत की सजा को 25 वर्ष की सश्रम कारावास में बदल कर अपराधियों को जीवनभर जीने का तोहफा ईनाम में दे दिया. अब सवाल कई हैं,  मसलन , जब अपराधी दलित होते और पीड़ित समान्य तब भी क्या न्यायविद ऐसा ही फैसला देते! शायद नही. जाति व्यवस्था ने  वर्चस्व  की मानसिकता से न्यायव्यवस्था, कार्यपालिका और विधायिका  किसी को भी अछूता नही रखा है. यहीं कारण है स्वस्थ एवं निष्पक्ष न्याय मिलना दलितों के लिए आज भी चुनौतियों से भरा है.
खैरलांजी के बाद दूसरा चर्चित केस दिल्ली निर्भया का था,जो काफी हद तक समानता लिए हुए था.निर्भया एक पैरा मेडिकल छात्रा थी,जिसके साथ बस ड्राइवर,कंडक्टर और क्लीनर ने सामूहिक बलात्कार किया और  उसकी योनी में सरिये डाल दिए.इस घटना से पूरा देश कांप उठा. मध्यम वर्ग सड़क  पर उतर आया और सरकार पर दबाब बनाया,इस दबाब में बच्चों  पर बने कानून में बदलाव लाने की बहस हुई,आयोग बैठा और नया कानून आया. पूरा मिडिया सक्रिय हो गया. जंतर-मंतर से राष्ट्रपति भवन, इण्डिया गेट, राजपथ तक उनके कैमरे घुमने लगे. अनुभव हुआ कि मीडिया भी जातिवादी मानसिकता से मुक्त नही है.

निर्भया कांड के समानांतर  ही हरियाणा में बलात्कार की घटनाएँ लगातार  घट रही थीं,  एक महीने में दलित बालिकाओं  के साथ 21 बलात्कार के विरुद्ध हरियाणा के विभिन्न जिलों में उठ रही आवाज को किसी मीडिया ने स्थान नहीं दिया, न ही सभ्य समाज ने गम्भीरता दिखाई. बाद में भी दलित -उत्पीडन के  मामले आये , वह मामला चाहे फरीदाबाद में सुनपेड़  में एक परिवार को रातों- रात जला कर मारने के षडयंत्र का था  या रोहतक में एक दलित लड़की  के साथ जाट बिरादरी के कुछ गुंडों द्वारा  दुबारा बलात्कार करने का. अभी हाल में ही कैथल जिले की एक ग्यारहवीं  कक्षा में पढने वाली स्कूली छात्रा को सड़क  चलते अगवा करके सामूहिक बलात्कार का मामला प्रकाश मे आया. बालिका द्वारा शोर मचाने के बाद सम्बन्धित पुलिस स्टेशन में इस  केस को दर्ज कराने जाने पर   केस दर्ज करने की बजाय पीड़ित बच्ची पर दबाब बनाया कि वे  यह  कहें  कि उसके साथ बलात्कार करने वाले केवल दो लोग थे, पीड़ित ने  इंकार करते हुए बताया कि अपराधी चार थे, तो  इस  पर महिला पुलिस ने पीड़ित बच्ची के बाल पकड़ कर पीटा. खैरलांजी की घटना के बाद  भी राज्य की जो भूमिका रही,  वह  पीड़ित को न्याय दिलवाने की कम और अपनी बदनामी छुपाकर अपराधियों से वोट पाने की ललक से ज्यादा प्रेरित थी,  मिलीभगत शायद यही रही कि  हम तुम्हे बचायेंगे तुम हमे बचाओ.

उत्तर प्रदेश, मधयप्रदेश, छतीसगढ़ और राजस्थान के सामंतशाही के प्रभाव में महिलाओं और दलितों का जीवन बदतर होता जा  रहा है. उत्तरप्रदेश में बेशक राजनीतिक प्रतिद्वंदी के रूप में दलित राजनीति खड़ी हो रही है, चार  बार सरकार भी बनाई गई, परन्तु दलित महिलाओं  के बलात्कार और दमन के दाग बदस्तूर जारी हैं. उत्तरप्रदेश के कन्नौज  में सीमा जाटव नाम की लडकी के साथ बलात्कार के बाद उसकी हत्या, दादरी-दनकौर  में एक परिवार को महिलाओं  समेत नंगा करके सड़क  पर घसीटना, बरेली की दो बहनों के साथ बलात्कार के बाद हत्या करके पेड पर लटकाना, आदि घटनाएँ  उत्तरप्रदेश में हुई हैं, जहाँ दावा किया जाता है कि पुलिस प्रशासन में सुधार हुआ है.दक्षिणी भारत के केरल के पेरुम्बुर में कानून की पढाई करने वाली दलित युवती जीशा का पहले बलात्कार किया गया फिर उसे धारदार हथियार से क्रूरतम तरीके से 30 टुकडो में काट कर उसकी अंतड़ियो  तक को बाहर खिंच लिया गया .रोहित वेमुला और डेल्टा मेघवाल की संस्थानिक हत्या मानमर्दन जैसे सैकड़ों  कृत्य प्रशासन के जातिवादी पूर्वाग्रह के जाल में फंसा कर किये गये.   अत्याचारों की इस श्रृंखला  में झझर, गोहाना, मिर्चपुर, भगाना सहित  बिहार के  लक्ष्मणपुर बाथे के इतने वर्षो बाद भी याद करने पर रोंगटे खड़े कर देते  हैं.सुरेखा भोतमांगे, उसकी बेटी प्रियंका भोतमांगे  के साथ उसके दो जवान बेटों  की हत्या करना उनके परिवार को न केवल नष्ट करके जमीन हडपने का षड्यंत्र था बल्कि दलितों के उभरते स्वाभिमान को कुचल कर सबक सिखाना भी इस षड्यंत्र का हिस्सा था,  ताकि  आसपास के गावों  में  लोग देख ले कि सर उठाने पर  उनका हश्र  भी ऐसा हो सकता है.



खैरलांजी की घटना के 10 वर्ष बाद

दलित आंदोलन व मध्यमवर्गीय दलितों की भूमिका को इन सब उत्पीड़नो की नजर से समझा जाये तो  दिखेगा कि खैरलांजी काण्ड के बाद में महाराष्ट्र एवं दिल्ली में कुछ एक  एक्टिविस्ट एवं लेखिकाएं  पहल करके आंदोलन के लिए आगे आये. दलित आंदोलन जिसके नेता पुरुष थे, वे सोचते ही रह गये की क्या एक्शन लें . मुख्यधारा की स्त्रीवादी संगठन की ओर से चुप्पी ही  रही. उत्तर  भारत के लेखक-लेखिका समुदाय, एकाध को छोड़कर, प्राय: चुप ही रहे,  क्योंकि न उनके पास समय था ना उनका दलित जनमानस के साथ जुडाव दिखता है. वे मंचीय स्टेटमेंट देने के लिए आतुर हो सकते हैं,  बशर्ते कोई उन्हें बुला कर मंच प्रदान करे. स्वयं की पहल पर मोर्चे पर उनकी हमेशा चुप्पी ही रहती है.जबकि दलित मध्यम वर्ग को देख कर ही  जनता को आरक्षण के विरुद्ध भड़काया जाता है और शिकार होते है देहातों में गरीब दलित और दलित महिलाएं  एवं बच्चे .दलित आंदोलन के मुखियों  को भी आत्मालोचना करनी चाहिए कि वे  आखिर  क्या चाहते हैं ,किसके साथ खड़ा होना चाहते
है,किसके लिए लड़ रहे है! दलित साहित्यकारों को भी सोचना चाहिए उनके लेखन का प्रयोजन क्या है? क्या मात्र लिखना,छपना और क्या सभ्य समाज में पैठ बनाना ही उनका प्रयोजन है? या आर्थिक,सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से पिछड़े समाज के साथ स्वयं को खड़ा करके उनके जीवन में बदलाव लाने का सेतु बनना भी उनका ध्येय है.

गुजरात में पाटीदारों का उभरता आंदोलन, हरियाणा में जाट आंदोलन और अब महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन अनुसूचित जातियों की तर्ज पर आरक्षण की मांग कर रहा है. जबकि पाटीदार बिजनेस समुदाय है. जाट व मराठा जमीनों के मालिक है. शासन-प्रशासन में ये अपना रसूख  रखते है.  अर्थव्यवस्था में इनका वर्चस्व है और राजनीति में हस्तक्षेप है. ऐसे में अनुसूचित जातियों के साथ ईर्ष्या करना, उन्हें दबाने-सताने से लेकर उनकी महिलाओं  व युवतियों के साथ छेड़छाड़ बलात्कार  व हत्याओं को हथियार की तरह इस्तेमाल करते है. मराठा लोग अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम को चुनौती  की तरह देख रहे है, क्योंकि यह अधिनियम निरकुश जातीय दम्भ पर अंकुश लगाने का कानून है, जो भारतीय संविधान की मूलभावना को अभिव्यक्त करता है,लोकशाही को बरकरार रखने में एक कदम है.अभी  सरकारों की निष्पक्षता  की परीक्षा है कि वे किस और खड़े होते है. यह समय राजनीतिक नैतिकता  की परीक्षा की घड़ी है कि वे किन समुदायों को संरक्षण देंगे.

लेखिका कवयित्री-लेखिका,एक्टिविस्ट-स्त्रीवादी चिंतक है.  

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ISSN 2394-093X
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