हिंसा में कोई मर्दानगी नहीं

नसीरुद्दीन

रघुवीर सहाय की कविता ‘औरत की जिंदगी’ की कुछ पंक्तियां हैं- कई कोठरियां थीं कतार में/ उनमें किसी में एक औरत ले जाई गयी/ थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया/ उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा/ उसके बचपन से जवानी तक की कथा… 

तीन लाख 27 हजार 394- महज गिनने के लिए यह कोई संख्या नहीं है. न ही ये निर्जीव हैं. जैसे ही हम इन संख्याओं की तह में जाते हैं, हमें घर से बाहर तक की जीती-जागती जिंदगियां दिखाई देने लगती हैं. यह आंकड़ा साल 2015 में देशभर में महिलाओं के साथ होनेवाले वाले अपराधों की संख्या है. स्त्री जाति के साथ इतने ही कुल अपराध हुए होंगे, यह कहना थोड़ा सही नहीं है. यह संख्या वह है, जो पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है. इसके बावजूद, यह कम नहीं है. क्या इस संख्या को सुनते ही हमारे अंदर कुछ बेचैनी पैदा हुई? क्या यह कहीं से भी हमें कुछ सोचने पर मजबूर करती है? स्त्री जीवन की जो कथा रघुवीर सहाय सुना रहे हैं, क्या इसकी गूंज हमें सुनाई देती है?

बलात्कार, बलात्कार की कोशिश, दहेज के लिए हत्या, पति या ससुरालियों द्वारा अत्याचार, यौन हिंसा, घरेलू हिंसा जैसे अपराध किसके साथ हो रहे हैं- मर्द के साथ? सवाल ही नहीं है? महज मर्द होने की वजह से मर्दों के साथ यह सब होता, तो अब तक दुनिया सर पर उठा ली गयी होती. है न!

वैसे, हम यह चर्चा कर क्यों रहे हैं? क्योंकि, यह मौका है कि इस पर खुल कर बात की जाये. इस वक्त पूरी दुनिया में जेंडर आधारित हिंसा के खिलाफ 16 दिनी जागरूकता अभियान चल रहा है. यह अभियान 25 नवंबर यानी महिलाओं के साथ होनेवाली हिंसा खत्म करने के दिवस से शुरू हुआ है और मानवाधिकार दिवस, 10 दिसंबर तक चलेगा. हमारे देश में भी जगह-जगह स्त्रियों के साथ होनेवाली हिंसा के खिलाफ यह अभियान चल रहा है. मगर सवाल है कि हम इस हिंसा को देख या महसूस भी कर पा रहे हैं? किसी भी बुरी चीज को खत्म करने के लिए जरूरी है पहले उसे स्वीकार करना. उसके नुकसानदेह असर को समझना. उसे इंसानी हकों के खिलाफ मानना.

ऊपर जिस आंकड़े का जिक्र किया गया है, वह राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट से लिया गया है. इस आंकड़े की तह में जाने पर पता चलता है कि 2015 में हमारे मुल्क में हर घंटे चार महिलाओं के साथ कहीं-न-कहीं बलात्कार की घटना हुई. हर रोज 21 लड़कियों का दहेज के लिए खून हुआ. करीब सवा लाख महिलाएं पति या ससुरालियों की हिंसा की शिकार हुईं. हर दस मिनट पर कहीं-न-कहीं किसी लड़की के साथ ऐसी हरकत हुई, जो उसकी मर्जी के खिलाफ है. यह सम्मान पर हमला है. कानूनी रूप में यौन उत्पीड़न है.

अब गौर करने की बात है कि क्या आमतौर पर लड़कियों या स्त्रियों की तरह ही मर्दों या लड़कों का पीछा किया जाता है या उनके साथ यौन हिंसा होती है? क्या आमतौर पर मर्दों के साथ बलात्कार होता है और वे इस खौफ के साये में जीते हैं? क्या मर्द दहेज के लिए मार दिये जाते हैं? क्या दहेज न देने या लाने के लिए मर्दों के साथ हिंसा होती है? क्या जितनी बड़ी संख्या में महिलाओं के साथ महिला होने के नाते हिंसा की शिकायत पुलिस के पास पहुंचती है, क्या मर्द के साथ वैसी ही हिंसा होती है? कुछ लोग किंतु-परंतु जरूर करेंगे पर ज्यादातर के लिए इसका जवाब ‘ना’ में होगा.

अगर इन सब सवालों का जवाब नहीं है, तो क्या इसके बारे में सोचने की जरूरत नहीं है? तो क्या यह सब सामान्य है? अगर सोचने की जरूरत है, तो क्या सिर्फ वही सोचेगा, जिसके साथ हिंसा हो रही है? यानी क्या सिर्फ स्त्रियां ही हिंसा/जुल्म के खिलाफ आवाज उठायेंगी? क्या मर्दों को सोचने या आवाज उठाने की जरूरत नहीं है? स्त्रियां तो इस हिंसा के खिलाफ आवाज उठा ही रही हैं, लेकिन स्त्रियों की जिंदगी में पैबस्त हिंसा सिर्फ उनके जानने-समझने से खत्म नहीं हो रही है. एक समाज में स्त्री-पुरुष आपस में दुश्मन की तरह नहीं रह सकते हैं. अगर हम इंसानी हकों पर आधारित घर-समाज-देश-दुनिया चाहते हैं, तो हर तरह की हिंसा के खिलाफ मर्दों को भी स्त्रियों के साथ आवाज उठानी पड़ेगी. यह मर्दों के इंसान बने रहने के लिए जरूरी है और उनकी सेहत के लिए भी फायदेमंद है. क्योंकि हिंसा हमेशा नुकसानदेह ही होती है.

हिंसक होने से न कोई ‘मर्द’ होता है और न ही यह ‘मर्दानगी’ का प्राकृतिक गुण है. हमारा समाज सदियों से जिस तरह का मर्द बनाता रहा है, वह अमानवीय मर्द की रचना है. पैदा होने के साथ ही लड़कों को जिस तरह ठोक-ठोक कर मर्द बनाया जाता है, कहीं-न-कहीं स्त्री के साथ हिंसा की जड़ वहां है.

स्त्री की जिंदगी से हिंसा खत्म करने की पहली सीढ़ी है, इस अमानवीय मर्द की रचना को नकारना. एक ऐसे इंसान के रूप में अपने को ढाल देना, जो मर्द तो है पर हिंसक नहीं है. जो किसी भी तरह की ताकत का इस्तेमाल कर स्त्री ही नहीं, बल्कि किसी को भी दबाने में यकीन नहीं रखता है.

जिसे अहिंसा और प्रेम की ताकत में यकीन है. जाहिर है, इसके लिए मर्दों को कोशिश करनी होगी. ऐसा नहीं है कि यह कोई नामुमकिन सा काम है. हमारे मुल्क के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे बहुत लोग हैं, जिन्होंने ऐसा कर दिखाया है.

तमिल के मशहूर साहित्यकार सुब्रह्मण्यम भारती करीब सौ साल पहले स्त्री-पुरुष संबंधों में भय वाली मर्दानगी खत्म करने के लिए इसीलिए मर्दों से यह कहते हैं, ‘…यदि पुरुष चाहता है कि स्त्री उससे सच्चा प्रेम करे, तो पुरुष को भी स्त्री के प्रति अटूट श्रद्धा रखनी चाहिए.

भक्ति के द्वारा ही भक्ति का आविर्भाव होगा. एक दूसरी आत्मा, भय से त्रस्त होकर हमारे वश में रहेगी, ऐसा माननेवाला चाहे राजा हो, गुरु हो या पुरुष हो, वह निरा मूर्ख है. उसकी यह इच्छा पूरी नहीं होगी. आतंकित मानव का प्राण चाहे प्रकट रूप में गुलाम की भांति अभिनय करे, हृदय के अंदर द्रोह की भावना को वह अवश्य छिपाता रहेगा. भयवश होकर प्रेम कभी खिलता नहीं है.’ तो क्या मर्द अपनी हिंसक मर्दानगी की खास सोच को बदलने को तैयार हैं? जनाब, इस बदलाव में ही समझदारी है.
नसीरुद्दीन वरिष्ठ पत्रकार हैं. 
साभार प्रभात खबर 

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