वीरू सोनकर की कविताएँ

वीरू सोनकर

कविता एवं कहानी लेखन, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व ब्लाग्स पर रचनाएं प्रकाशित . संपर्क :veeru_sonker@yahoo.com, 7275302077


बस एक दिक्कत है

सरकार,
आपकी पुलिस एक बुलडोजर है
व्यवस्था के लिए नियम-कानून की दिशानिर्देशित गोलियों से लैस
और
एक भीड़ से भरी सड़क को
पलक झपकते ही
लोकतंत्र पर थूकते एक सन्नाटे में बदल सकने की खूबी से भरपूर

सरकार,
सबसे चमकदार इसके ऊपर लगा हुआ झंडा है
जो यह कहता है कि यह हमारी सेवा में तत्पर है
मूढ़ जनता झंडा नहीं उसमे लगा डंडा देखती है

सरकार,
जब आपका बुलडोजर चलता है
तो एक देश चलता है
नियम सड़को पर दौड़ने लगते हैं
सत्यमेव जयते के नारे से रंग-बिरंगा हुआ यह देश
जिसकी मूढ़ जनता उसे बार बार “सरकार की जय” पढ़ती है

सरकार,
यह उस सर्वशक्तिमान बुलडोजर की जीत है
जो सब कुछ कर सकता है
यह आपकी जीत है
कि आपसे बड़ा कोई भी नहीं

सरकार,
बस एक दिक्कत है
यह जनता जो पुलिस के एक इशारे पर मुर्दा बन जाती है
चिढ जाने पर यह सबसे तेज़ चिल्ला सकती है

इतना तेज़,
कि बुलडोजर खुद के कुचले जाने के भय से भाग खड़ा हो

इतना तेज़,
कि आपकी मुर्दा-ख़ामोशी किसी गिड़गिड़ाहट में बदल जाये

इतना तेज़,
कि देश में फिर
उससे ज्यादा जिन्दा कुछ और न दिन


“मेरा वर्तमान”

उसके पैरो की रखवाली
अपनी पदचापो में मुझे बोल रही है
मैं सतर्क हूँ
तुम भी रहो!

रात का उदास जल रहा दिया
बदलता है दिन के चिड़चिड़े सूर्य में
कि तुम पर नजरे है मेरी,
और हर पल हाथो से छूटता-बीतता समय
मानो तैनात है मेरे एक चल फिर रहे जीवन पर
और,
डुबा रही है प्रशांत महासागर की अथाह जलराशी मुझे खुद में
पर कहता हूँ मैं उसे,
उबर रहा हूँ मैं तुममे

खुद को नया करने की नित नयी तरकीबो में
हर तरकीब पुरानी पड़ती है
और रीतता हूँ मैं खुद में,
एक अदद जगह के लिए
भटकता और पुराना पड़ता मैं
चिढ़ता हूँ पुर्वजो की कथाओ से
और निकल भागता हूँ इतिहास के उन दिनों से,
जहाँ एक दिन का अर्थ बस सूर्योदय से सूर्यास्त भर की दौड़ है
मेरे भागते चेहरे पर खरोंचे है घड़ी की सुइयों की
एक चीत्कार में कहना चाहता हूँ
मुझे वापस दो
मेरे पुर्वजो के वही दिन,
जहाँ कुछ बज कर कुछ सेकेंड में हो गए किसी काम का
कोई आंकड़ा न हो

सूर्योदय का शालीन सूर्य मेरे दिन की पहली दृष्टि में हो
और जले, मेरे ताखे पर एक चिंता मुक्त दिया
कि हवा का कोई भी झोका उसे बुझा देने के पाप-बोझ से मुक्त हो

और मैं भी मुक्त होऊं पहरेदार वर्तमान के चंगुल से
और कह सकूँ
सुनो, मेरा इतिहास तुमसे बहुत अच्छा था
मेरे क्रूर वर्तमान!

“अजनबी”

कितने सालो से
और कितने दिनों, महीनो
और घंटो की उधेड़बुन में,

कौन सिसकता है मुझमे
कौन लड़ पड़ता है बार-बार
चाहनाओ के इच्छा-जंगल से कौन नासमझ निकल
मुझसे लड़ बैठता है
जो समझ के भी नहीं समझता!

की-पैड पर थिरकती उँगलियों में
ये कौन लिखता है बार-बार
कि क्रांति, आने से पहले कोई बिगुल नहीं बजाती
कौन है जो चुपचाप आँसुओ को पीने अपनी कहानी
बस खुद से बांटता है ?

कहीं से भी चल कर,
और कहीं भी न पहुँचने वाला यायावर
कौन है जो इतिहास की गुमनाम गली से भटक कर
बस मेरी ही गली में आ निकला है
मेरे ही अपने घर में,
मेरी ही कुर्सी पर,

और बेशर्मी से ताकता है मुझे
जैसे मैं अजनबी हूँ कोई


“नक्शा”

किसी देश के नक़्शे में ढूँढना खुद को
किसी पुरानी आदत सा शामिल रहा मुझमे,
मैं खुद को ढूंढा इतिहास के सबसे पुराने देश में,
पर अपने शहर को नहीं खोज सका

पहली बार प्रेम की उदण्ड उमंग में ढूंढा था
उसी देश के नक़्शे में,
शहर बनारस का नाम
और सर्च किया था
कानपुर से बनारस की दुरी कितनी है

किसी भी देश के नक़्शे में खुद को देखना
एक यात्रा को देखना है
वर्त्तमान और इतिहास की चालाकियों से बचते हुए
एक सपाट रेखा चित्र में अपनी ठीक ठाक जगह देखना
नाजुक काम है
भटकने से बचने की कोशिश में छूट चुकी स्थान-रेखाएं
तुम्हे पीछे धकेलती है
इतना पीछे कि
एक बढ़िया दिन बेकार हो सकता है
एक उत्साह मर सकता है कि तुम गौरव से भरे एक देश में हो
कि तुमने सौगन्ध खायी थी उसे न याद करने की

तुम इतना चिढ सकते हो,
कि ढ़ुढ़ते हो विश्व मानचित्र पर
जर्मनी जैसा कोई देश
उसके प्रांत फिनलैंड की कोई साइंस-लैब

फिर देखते हो तुम,
बनारस की कोई फ्लाइट कैसे वहाँ तक आयी होगी
कहाँ-कहाँ स्टॉप हुआ होगा

हर स्टॉप पर प्रतीक्षा के उन पलो में
खुद के होने न होने की संभावनाओ में ढूंढ़ते हुए
जब तुम्हे याद आएगा
कि फ्लाइट से पहले कह दी गयी थी तुमसे,
बस एक पँक्ति
सॉरी.. आई एम् सॉरी!

नक़्शे को बंद करके रखते समय
कानपुर के एक छोटे से कमरे में लौटना
फिर बहुत दूर था!

जबकि नक़्शे के हिसाब से एक बलिश्त भर की दूरी है
जर्मनी और भारत में

और बनारस से कानपुर तो बस एक बिंदु भर ही

और यह वाकई एक शोध का विषय है
कि पीछे धकेले जा चुके लोग
नक्शा क्यों नहीं देखते
या प्रेमी,
नक़्शे से गुजरते हुए
क्यों बदल जाते हैं एक मौन योगी मे

“हमारी जाग”

जहाँ सभी सोये पड़े थे
वहाँ एक जाग लिए मैं सब तक गया
गया उनके पास
जो खुली आँखों से सो रहे थे
और वासना की ताप पर रो रहे थे
कि उन्हें प्रेम हुआ है!

मैंने उन्हें बस एक फूल दिया और आगे चला गया

पहुँचा एक स्त्री के बगल में
अभिसार के बाद
एक तृप्त सोयी स्त्री को जी भर के देखा
और जाना,
कि कभी कभी सोना जागने से ज्यादा सुन्दर होता है

बच्चों से भरे एक गाँव भी गया
और बड़े विश्वास से कहा
बच्चों, पीपल वाले कुँए में कोई भूत नहीं है

और लौटा मैं, पर अपने घर नहीं
ठिठक गया
पगडण्डी पर तैनात खड़े
मेरे मृत दादा के अकेले जीवित बचे साथी के पास

और उस बरगद की पीठ थपथपाई
एक भुलाया जा चुका लोक-गीत गुनगुनाया
और कहा रात हुई सो जा!

और कहा,
उस कभी न सोने वाली अथक घूमती नृत्यांगना को
धन्यवाद, हमारे लिए इतना जागने के लिए

आकाश ने कुछ ओस बुँदे उपहार में मुझ तक फेंकी
जो नींद की परछाई सी
मुझ पर छा रही थीं

मैं बस इतना कह सका,
सुनो, ओ जीवन देने वालो!
कल हम सब एक साथ जागेंगे

और मैं सो गया!

बंद गली

उनकी गलियों से
सड़क तक आने का हर रास्ता बंद है
और आवाज पर है कड़ा पहरा
कुछ भी नहीं बदलेगा के अघोषित नारे से सहमा
एक भविष्य है

पक्ष में कही गयी
सभी बातों पर टूटता एक भरोसा है

और एक कविता है
जो गली के पक्ष में सड़क पर फैली एक अफवाह है
सत्ता के प्रतिपक्ष में,
कभी भी घट सकती एक दुर्घटना

जहाँ शोर से भयानक चुप्पी है
जहाँ घुटी चीखों की अमिट बातचीत दर्ज है
जहाँ आवाज में लौटती पहली गर्माहट एक बुरी खबर है

दुनिया की हर सत्ता के पास एक सुनसान सड़क है
दुनिया की हर कविता का पक्ष एक बंद गली है

[ हर बंद गली का भविष्य एक खुली सड़क है ]

एक हँसी

रक्त और स्वेद के संबंधों से
मात्र वीर्य ही हूँ मैं

अपनी पगलाई तलाश की लोलुपता में
निपट नग्न
सदियों की अतृप्त भूख लिए-लिए
और पाप-लिप्तता का एक मुकुट धारण किये
मैं तुम तक आया

मैंने पाया
काम-संघर्ष से हलकी हुई देह की परछाई में
एक औरत चुप लेटी है
अपनी अनंत मोक्षदायी यात्राओं की
ठंडी पड़ती सांसो का स्वाद मुझे देते हुए

मेरे पास अब एक चिंता मुक्त देह थी
तनाव रहित,
और तृप्तता के उच्छ्वास फेंकते हुए

मैं तलाश कर रहा था
उसी औरत में,
एक ऊर्जा स्त्रोत

कि कैसे
यह हर बार मुझे नया कर देती है
कि कैसे बार-बार
यह जन्म देती आयी है एक आदिकालीन अतृप्तता के विलोम को

वो एक रहस्य ओढ़े बस मुस्कुरा रही थी
स्तन पर्वतो के गर्व को मैंने निचोड़ कर कहा: मुझे जवाब चाहिए

उसकी मुस्कान स्थिर चुप्पी एक हँसी में टूटी थी
संभोग स्मृति से

आने वाले दिन

वर्तमान एक रूखा गद्य है
और भविष्य समझ-सूत्रों के पार भागती
एक गूढ़ कविता

पुरानी कविताएं अतीत का असह दुःख
न कह पाये दुःख की ओट में जहाँ कविताएं रच रही हैं
एक निर्वात,

और निर्वात के परदों से झाँकता
कोई सुख देखता है जीवन की परतों को
और स्वप्न की आँखों में धीरे से उतर आता है
नींद की तलछट से,
एक दिन के चेहरे पर खुद को उगाता है

कहते हैं
उस एक दिन से शक्तिशाली कोई नहीं
बीता हुआ दुःख भी नहीं
न लौटा सुख तक नहीं
लिखी जा चुकी तमाम कविताएं तक नहीं

जहाँ एक उम्मीद की तरह दिन की रोशनी में अपने पंख फैलाएं
एक,
न लिखी गयी कविता
बस यूँ ही कही मिल जाती है

[ आने वाले दिन से अधिक लयबद्ध/रसयुक्त कुछ भी नहीं ]

बुद्ध लापता थे

रात की टहनी पर अटका
एक स्वप्न,
जब डगमगा रहा था
कामनाओं के इच्छा गांव ने खुद को
तब चुपके से एक प्याज में बदला था

और कहा था,
हमे नग्न करो और ठीक करो हर परत पर
खुद की पहचान

यह कामनाओं का सत्याग्रह था
यह प्रथम आपत्ति थी कि हमे प्रार्थनाओं में न बदलो
ताकी जान सको कि
नग्न होती कामनाएं अंत में
कैसे किसी अफवाह सी गायब हो जाती हैं

और कहा: हमे अतृप्त भटकने दो

ठीक उसी तरह,
जैसे एक पृथ्वी इतना घूम कर भी नहीं थकी
या फिर सड़क इतना घिस कर भी यात्राओं में बनी रही
जैसे नदी का सूखने के बाद भी मोर्चे पर बने रहना
या समय के सम्भोग से इतिहास का लगातार जन्मते रहना

या फिर,
धुप का अपनी देह पर काँटों को निरंतर उगाना
या शाम के प्रेम-चुम्बन पा कर
उनका ठंडी ओस में बदल जाना

उन्हें प्रार्थनाओं में बदले जाने से भी अधिक आपत्ति
व्यक्ति-नामकरण से थी
कि एक तैयार व्यक्ति
कामनाओं की नदी पार करके ही
पूर्णता की नींद पाता है

नामकरण छदम पूर्णता रचते थे,
कामनाएं संपूर्णता के पक्ष में थीं और नामकरण के प्रतिपक्ष में

तब,
सातो महाद्वीप प्रतीक्षा में थे
और नदियां साहस के अंतिम पड़ाव पर
पहाड़ो ने धैर्य छोड़ना आरम्भ किया था
और पेड़ो ने जड़ो से लड़ना

यह पहली बार था,
कि कामनाओं के प्राणहंता की हर साधना स्थल पर
गर्मजोशी से तलाश थी

नग्न कामनाएं थीं कि मोक्ष पाना ही चाहती थीं
और बुद्ध थे कि लापता थे

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ISSN 2394-093X
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