स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
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थी (है)। मालिक और मल्कियत के लिए अलग-अलग उसूले-जिन्दगी बन गए। मर्द पालनहार पति
और ख़ुदाए-मज़ाजी। औरत के फरायज़ मर्द की ख़िदमत कि रोज़ी-रोटी की खातिर बराहे-रास्त
हवादिसे-ज़माना का मुकाबला नहीं करना पड़ता था जब तक मर्द को खुश करती। ज्यादा से
ज्यादा सिपाही पैदा करती। महफूज चैन की ज़िन्दगी गुज़ारती। उसके बाद वही अंजाम होता
जो बूढ़े नाकारा मवेशियों का होता है। इसीलिए औरत बुढ़ापे से डरती है। उम्र छियाती
है कि आज भी वह शौहर और बेटो के रहम की मोहताज है।’’ (काग़ज़ी है पैरहन,
इस्मत चुगताई, पृष्ठ-258-59)
पक्षी पाल लेता है( उपयोग के लिए गाय-घोड़े पाल लेता है, उसी प्रकार वह एक स्त्री को भी पालता है तथा अपने पालित पशु-पक्षियों
के समान ही उसके शरीर और मन पर अपना अधिकार समझता है।’’ (शृंखला की कड़ियां,
महादेवी वर्मा, पृष्ठ-83)
उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है। इस्लाम ने यदि औरतों को बराबरी का अधिकार दे
रखा है तो फिर वह अपने समाज,
परिवार में इस तरह कैद
क्यों रखी जाती है? एक तरफ कयामत के दिन मुरदों की पहचान मां के नाम
से होगी बाप के वंशवृक्ष से नहीं,
फिर उसी औरत को आखिर
प्रताड़ित कौन कर रहा है – सियासत, समाज, अज्ञानता।’’ ( ‘खुदा की
वापसी’, नासिरा शर्मा ( 1998) में ‘निवेदन’ पृष्ठ-7-8)
कारण गरीबी है। उनकी स्थिति
जिस वजह से अनुसूचित जाति की औरत नहीं पढ़ पाती है, उसी वजह से मुस्लिम औरत भी
नहीं पढ़ पाती। धर्म और पर्दा उतना बड़ा कारण नहीं है। सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को
नजरअंदाज कर मुस्लिम औरत की स्थिति को ठीक से नहीं समझा जा सकता।’’ ( जोया हसन, हंस भारतीय मुसलमान अंक, अगस्त-2003, पृष्ठ-15)
के आंगन में पड़ी (सड़ी) नंगी,
अधनंगी, और जली हुई कुछ जिन्दा-मुर्दा लाशों के भयावह शब्द चित्रों का एक
कोलाज दिमाग में छाया है…’’ दालान के कच्चे फर्श पर
सुनारिन बिल्कुल नंगी पड़ी हुई थी और बलपूर्वक उसे दबाये हुए उसका पति छाती पर बैठा
हुआ था। अपने हाथ में सोने के जेवर बनाने वाली छोटी हथौड़ी लिए वह युवती की नाभि के
नीचे की नंगी हड्डी पर रह-रह कर चोट देता, दांत पीसता और जैसे सबक
सिखाने के ढंग पर गंदी गालियां बकता हुआ कहता, ‘‘अब, बोल बोल…’’ नेपथ्य से… ‘‘भले मुंहबोली हो, जिसे बेटी की तरह पाला हो, उसे ही जवान होने पर पत्नी
बना ले और ब्याहता बीवी को रास्ता बता दे, ऐसे आदमी के लिए पाप शब्द
भी क्या हल्का नहीं पड़ जाता?…’’
( पृष्ठ 13-14) ‘‘कट्…कट्.
हुए हैं, ब्लाउज फटकर शरीर को काफी उघाड़े हुए है और उसके
तमाम जिस्म के साफ-सुथरे मांस पर बेंत के कई आड़े-तिरछे रोल उभर आए
हैं।’’ पृष्ठभूमि में ‘‘मैं तेरा गला घोंट दूंगी, हरामजादी! रंडी,
बाजारू, किससे पेट भराया है,
बोल. .. बोल…।’’ ( पृष्ठ-126-127) ‘‘…कट्…
ग्रामीण |
बाई ओर…’’ घुटनों से लेकर गले तक
जगह-जगह उसने अपने शरीर को आग से भून डाला था। इस तरह जला-भूनकर शायद वह समझ रही
थी कि खुदा उसके गुनाहों को माफ कर देगा। कहने लगी- मैं चाहती हूं कि मेरा जिस्म
बदसूरत हो जाए – इतना बदसूरत कि उसमें हाथ तक न लगाया जा सके। मैंने रोकर कहा कि
रशीदा यह तूने क्या कर लिया?
बोली- जीते जी दोज़ख भोग रही
हूं। खुदा जाने उसके बाद उसने क्या सोचा-समझा, हफ्रतेभर बाद सुना कि एक रात जब सब सो रहे थे तो अपने शरीर पर
किरासिन तेल छिड़ककर वह
जल मरी…।’’ पृष्ठ-130 ‘‘इंसान होकर ऐसी क्या नियत कि सगी बेटी का रिश्ता
भुला दिया जाए? आदमी और जानवर में आखिर फर्क क्या हुआ?’’ ( पृष्ठ-110) और दाहिने… ‘‘सुना है कि लड़की ( शल्लो
आपा) रात-भर चिल्ला-चिल्ला कर रोती रही कि डाक्टर बुलाओ, नहीं तो मैं मर जाऊँगी, पर किसी ने ध्यान नहीं
दिया। दुनिया को दिखाने के लिए सुबह-सुबह डाक्टर बुलाया गया, लेकिन उससे क्या,
कहने वाले तो आज भी कहते
हैं कि कुछ दाल में काला था। …जिन्होंने
देखा है, वे बताती हैं कि उल्टियों में लड़की की अंतड़ियां
कट-कट कर गिरी थीं…।’’
( पृष्ठ-293-294) सुनारिन
के संदर्भ में एक जगह लिखा है ‘उसकी जलभीगी छातियों पर सरदार की भूखी और नोचती
आंखें तीर की तरह अटकी हुई थी।’
( पृष्ठ-12) ऐसी ही ‘भूखी और नोचती आंखें’ हैं-रशीदा के चाचा और फूफी के ससुर रज्जू मियां की। तभी तो ‘जैसे ही वह ( फूफी) अपने ससुर की ओर ताकती है, उनका चेहरा रशीदा के चाचा की शक्ल में बदला जाता है।’ सल्लो आपा भी बार-बार शिकायत करती है ‘‘देखते हो माटी मिलों को? किस कदर घूर-घूर कर देखते हैं!’’ मालती भी तो रज्जू मियां की
ही ‘भूखी और नोचती’ आंखों का शिकार बनती है।
कभी भूखी और नोचती आंखें सपना बुनती हैं। ‘‘देखता हूं कि उस नीले पानी
से जल भीगा शरीर लेकर सल्लो आपा निकलती हैं। पतला और इकहरा लिपटा कपड़ा भीगकर उनके
शरीर के हर अवयव से ऐसे चिपक गया है कि वह बिल्कुल विवस्त्र लगती हैं।’’ ( पृष्ठ-185)
तक ‘जल भीगा शरीर’ हैं और उनका पीछा करती ‘भूखी और नोचती आंखें’ सपनों तक में चैकन्नी हैं।
सिर्फ जिस्म है ‘मांसल और भरा हुआ’। वही ‘भूखी और नोचती आंखें’ कैलेंडर में भी देखती रहती
हैं ‘‘एक सुंदर स्त्री
पल्लू के एक कोने को दांतों से दबाये, परदा करने का अभिनय करती
हुई, ब्लाउज उतार रही है, लेकिन लगभग अर्धनग्न है…’’ ( पृष्ठ-149) यही नहीं, पेटी में अलग से भरी हैं ‘पोर्नोग्रापिफक’
किताबें, जिनमें स्त्राी को सिपर्फ ‘शरीर’, ‘मांसल देह’, ‘सेक्स सिम्बल’, ‘सेक्स बम’, ‘सेक्सी डाल’ और ‘गर्म गोश्त’ के रूप में ही दर्शाया जाता है। ऐसी ‘उत्तेजक’, ‘कामोद्दीपक’, ‘अश्लील’ और नग्नतम मुद्राओं में, जो व्यक्ति को ‘भूखी और नोचती’ आंखों में बदल दे और
स्त्री-देह को भोग्य वस्तु में। यौन विकृतियों के विषैले बीज, ऐसे ही फलते-फूलते रहे हैं- पीढ़ी-दर-पीढ़ी।
आंखों से बचाने के लिए ही
स्त्रियों को बुर्के या घूंघट में (ताला) बंद किया जाता रहा है और अनेक प्रतिबंध
लगाए गये हैं। लेकिन घर में कैद स्त्री भी कहां सुरक्षित हैं। पिता, चाचा, मामा या ससुर की ‘भूखी और नोचती’ निगाहों का कोई क्या करे! घरेलू हिंसा या यौन हिंसा और यौनशोषण से
बचाव के लिए ‘सुनारिन’, ‘मालती’, ‘रशीदा’, ‘सल्लो’, ‘फूफी’ और ‘बब्बन की मां’ आखिर कहां जाएं? क्या करें? चुपचाप सहती रहें, खटती रहें और गुमनाम मरती
रहें या मारी जाती रहें। नहीं तो फूफी की तरह रूंधे कंठ से बड़बड़ाती रहे ‘‘अल्लाह, मुझे उठा ले तो इस रोज-रोज की दांता किट किट से
राहत मिले… या ऐसा करो, यह हर बार नोंचने के बदले, तुम सब मुझे जहर दे दो…’’ (पृष्ठ-261) या फिर बब्बन की अम्मी की तरह कड़वाहट भरे शब्दों में कहती रहे ‘‘अब मेरा गोश्त रह गया है खाने के लिए, तुम सब लोग बैठकर उसे भी
चीथ डालो…’’ ( पृष्ठ-178) यह सब
नहीं तो बिट्टी उपर्फ बी-दारोगिन की भांति आत्मसमर्पण करते हुए स्वीकार कर ले ‘‘एक मुट्ठी भात और गज भर कपड़ा… बस मेरे जीने के लिए इतना काफी है।’’ ( पृष्ठ-28)
‘काला जल’ में बब्बन अपने पिता की
पेटी से निकाल कर ‘गंदी तस्वीरों वाली किताब’ सल्लो आपा तक पहुंचाता है। ऐसे ही ‘सूखा बरगद’ ( मंजूर एहतेशाम) में शोबिया एक किताब शाहिदा आपा के यहां देखती है ‘‘सूपड़े के नीचे से एक किताब हाथ में आ गई। मैं नहीं सोचती कि उस सबकी
जो मुझे नजर आया मैंने कभी किसी किताब के साथ कल्पना भी की हो। लिखा क्या था, पढ़वाना तो संभव था ही नहीं, जो चित्रकारी थी- आदमी-औरत
अलग-अलग तरह से एक-दूसरे के साथ-वही मेरे होश उड़ा देने के लिए काफी थी। …शाहिदा
आपा? वह आदमी?? अकेले घर में? मेरा दिमाग लपक कर किताब के उन पन्नों पर चला गया। छी!! कैसी बेहूदा
किताब थी! वह सब फोटो-क्या और क्यों हो रहा था उन पन्नों पर? कहीं ऐसा भी कोई करता होगा? क्या शाहिदा आपा और वह आदमी इस समय वही
सब… छी! …छी! …और न जाने कितने समय के लिए किताब के वह गंदे पन्ने, वही गंदी हरकतें,
गंदी शाहिदा आपा मेरे दिमाग
में जाले बुनते रहे।’’ ( पृष्ठ-28-29)
व्यवहार को देखें तो लगभग कोई महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई नहीं देता। यौन
शिक्षा-दीक्षा का एक मात्रा विकल्प ‘पोर्नोग्रापफी’ ही रह गया है, जो वास्तव में युवा पीढ़ी को सजग-सचेत करने की बजाए
यौन विकृतियों की ओर धकेलता है। पुरुषों की ‘भूखी और नोचती’ आंखों को पढ़ने-समझने और यौन हिंसा की शिकार स्त्रियों की पृष्ठभूमि
जानने के लिए ‘पोर्नोग्राफी’ के प्रभाव से परिणाम तक को
भी सूक्ष्मता से पढ़ना जरूरी है। ‘काला जल’ में शानी ‘पोर्नोग्रापफी’,
‘सेक्स एंड वायलेंस’ के तमाम अंतर्संबंधों को भी
समझने-समझाने की प्रक्रिया में पात्रों के चेतन-अवचेतन में जमी काई खुरच-खुरच कर
परखते हैं। इसके साथ-साथ सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक तनाव, दबाव और दमन के बीच,
बनते-बिगड़ते व्यक्तित्वों
और संबंधों के आपसी सूत्रों को भी पकड़ते हैं। आर्थिक रूप से पिछड़े बन्द समाजों (
रूढ़िग्रस्त, अंधविश्वासी और मर्यादित) में दमित और कुंठित
पुरुषों की हिंसा ( यौन हिंसा) का सबसे अधिक शिकार उनके अपने घर-परिवार की ही
स्त्रिायां (विशेषकर पत्नी या पुत्री) होती हैं, क्योंकि उनकी स्थिति ‘घरेलू गुलाम’ जैसी ही है। विकसित समाजों में स्त्री, घर में ही नहीं बाहर भी पुरुष हिंसा की संभावित शिकार बनी रहती है। ‘काला जल’ की तमाम स्त्रियां अपने ही घरों में असुरक्षित और
आतंकित रहती हैं। ‘फांसी घर’ में कैद सजायाफ्रता कैदी की
तरह भाग निकलने या बचने का कोई रास्ता नहीं।
गुजर जाती, उधर रास्तों की शाखों में आंखों की हजार कलियां
खिल जाती, दरवाजे बांहें बन जाते और बंसखटो में नब्जें धड़कने
लगती।’ ( पृष्ठ-112) झंगटिया
बो की देह ‘काली मगर बला की खूबसूरत, सौंधी और मीठी थी। बिल्कुल
ताजा-ताजा गुड़ की तरह, जिसमें अभी भाप निकल रही हो।’ ( पृष्ठ-42) सैफुनिया नाइन की ‘लंगड़े आमों की तरह तैयार
छातियां बारीक कुरते के अंदर चोली से निकल पड़ रही थीं और सब्ज चूड़ीदार पाजामें का
सुर्ख नेफा और नेफे से उपर का सारा धड़ नजर आ रहा था’ ( पृष्ठ-135) इसके विपरीत जुलाहिन ‘कुलसुम में क्या रखा है? उसकी कसी कसाई कच्चे अमरूद जैसी छातियां लटक चुकी थी’ ( पृष्ठ-225) दुलरिया ( भंगन) है, तो झंगटिया बो ( चमारिन)।
कुलसुम ( जुलाहिन) है और सैफुनिया नाइन। मतलब
चारों निम्न जातियों की स्त्रियां हैं, जो अभिजात्य वर्ग के
पुरुषों के उपभोग के लिए उपलब्ध ही नहीं, बल्कि उनकी ही प्रतीक्षा
में ( ‘तैयार’) खड़ी हैं। एक ‘ताजा-ताजा
गुड़’ की तरह ‘अछूती’ और ‘गर्म’ है, तो दूसरी ‘लंगड़े आम की तरह तैयार’- भोगे जाने के लिए प्रस्तुत। तीसरी तो ‘दहकती अंगीठी से कम नहीं?
‘कच्चे अमरूद’ जैसी ( लटकी) छातियों में अब क्या रखा है? यह एक बड़ा अन्तर है ‘काला जल’ और ‘आधा गांव’ की भाषा, दृष्टि और मानसिकता में। ‘काला जल’ में ‘जल भीगी छातियां’ हैं, मगर स्त्री की ही हैं और छातियां हैं। ‘आधा गांव’ की भाषा में तो वे ‘ताजा-ताजा ( गर्म) गुड़’ समझी जा रही हैं या ‘लंगड़े आम की तरह तैयार’ ( उपभोग के लिए आतुर) छातियां और ‘दहकती अंगीठी’ सी कामातुर औरत मानी जा रही है।
घर-परिवार और समाज में किसी भी विवाहित स्त्री का ‘बांझ’ होना सबसे
बड़ा ‘अभिशाप’ ( अपराध) है, भले ही पति नपुंसक हो। स्त्री जीवन की एकमात्र सार्थकता उसका मातृत्व ही माना-समझा जाता है। वह अगर पति को उत्तराधिकारी नहीं दे सकती या दे पाती, तो प्रायः सबके लिए अवांछित और बेकार का बोझ बन जाती है। अपमानजनक उपेक्षाओं और
अकल्पनीय सदमों से भीतर तक आहत और व्यथित, ऐसी स्त्री की मानसिक उथल-पुथल का अनुमान लगाना भी मुश्किल है।
ले-लेकर, कब तक चित्रण-वर्णन करते
रहेंगे? कब तक दोहराते रहेंगे आखिर ‘गोपी-पीन-पयोधर-मर्दन-चंचल
कर युगशाली’। क्या उन्हे अभी भी ‘पर्वत पृथ्वी के उरोजों-से दिखाई देते हैं? खैर… मुंह बोली बेटी को जवान होने पर अपनी पत्नी बना लिया है सुनार-बैद्य ने और पत्नी को घर से निकाल
दिया है लेकिन चरित्र पर हरदम संदेह करता रहता है। अपनी यौन
अक्षमता का गुस्सा, पत्नी पर निकालता है। पत्नी
जब कहती है ‘‘ऐसा ही है तो मुझे परदा में बैठा दे…
ताले में बंद रख। मेरा उठना-बैठना, चलना-फिरना, कहीं आना-जाना पाप हो गया। न मरने दे, न जीने’’ तो सुनार गाली-गलौच और मारपीट पर उतरता हुआ कहता है ‘‘जैसे तू तो सती सावित्री है। दिनभर दरवाजे के पास खड़ा होकर लौंडों को तो मैं ही ताकता हूं। छिनाल बना बहाने, दस बार
निकल-निकल कर देख अपने
यारों को और झोंक मेरी आंखों में धूल! जवानी एक तुझी पर ही
आई है! जब देखो, छाती उछालती, चटकती-मटकती चली जा रही है।
साली, किसी दिन तेरे ये दूध के काटकर न फेक दूं तो
कहना। न रहे बांस न बजे बांसुरी…’( पृष्ठ-12)
कहने-सुनने वाला नहीं। पति है इसलिए मारना-पीटना या ‘दूध के काट कर’ फेंकने की धमकी देना, उसका ‘जन्मसिद्ध अधिकार’ है। पत्नी
बचाव में अड़ोसी-पड़ोसी आते हैं, तो पति ‘जलती हुई आंखों’
से घूर कर चिल्लाता है- ‘‘अरे, यहां क्या (‘तमाशा’) देखते हो। जाओ, अपनी-अपनी मां-बहनों की देखो…!’’ सब चुप। ‘किसी ने भी एक शब्द नहीं कहा’ – पीठ पीछे जितनी मर्जी ‘थुक्का-फज़ीहत’ होती रहे या औरतें कोसती
रहें ‘नासपीटा बुड्ढा आखिर बुरी मौत मरेगा। देह से
कोढ़-रोग न फू टे तो कहना…’ ( पृष्ठ-14) पति के पास सदियों से एक
तर्क यह भी तो रहा है कि मेरी पत्नी ( बीवी, घरवाली, संपत्ति) है… मैं मारूं. .. पीटूं या प्यार करूं, तुम बीच में बोलने-रोकने-टोकने वाले कौन ( क्या) होते हो? शेष समाज के लिए यह सब उनका
‘आपसी घरेलू मामला’ है या ये तो लड़-झगड़ कर फिर एक
हो जाएंगे, हम क्यूं बेकार ‘बुरे’ बने! भारतीय गांव-देहात से लेकर नगरों-महानगरों तक में, आज भी क्या ऐसी ही स्थिति नहीं बनी हुई है? पति के हाथों अधिकांश पत्नियां प्रायः रोज पिटती
या पीटी जाती हैं। कारण एक नहीं अनेक हैं। व्यक्तिगत कुंठाओं, असमर्थताओं, विवशताओं और असफलताओं से
लेकर पुरुष ( मर्द, मालिक, स्वामी, पति परमेश्वर) अहं तक। पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में मर्द-औरत को अपने ‘पांव की जूती’ समझता ( रहा) है। जो नहीं समझता वो ‘साला, जोरू का गुलाम’ है ‘नामर्द’, ‘हिजड़ा’…।’ इस संदर्भ में शानी,
कलम का इस्तेमाल जूते की
तरह करते हैं।
आपसी झगड़े में सुनारिन शारीरिक उत्पीड़न झेलती है, तो ज़हीरा भाभी मानसिक प्रताड़ना।
शायद इसी वजह से ‘स्वास्थ्य, चेहरा-मोहरा, पहनाव-उढ़ाव सब कहीं आश्चर्यजनक बदलाहट आ गई है। बात-बात में खिली रहने
वाली आंखों के नीचे स्याही पड़ गई है। और जो गाल हमेशा प्रसन्नता के मारे दहकते रहते थे, वे मुरझाये पत्ते की तरह अल्लर लगते हैं। न वे होंठ हैं, न होंठ में जमे रहने वाले पान…’’ ( पृष्ठ-129-130)
निकालते हैं कि मोटी हूं,
बांझ हूं, बिला वजह चर्बी चढ़ाए जा रही हूं… पर मैं इनमें से किसी बात का
बुरा नहीं मानती, क्योंकि यह सच है कि मैंने उन्हें कुछ नहीं
दिया। जिसका सबसे अधिक सदमा मुझे है, वह यह कि जिन दिनों करना था, तब तो किया नहीं,
अब शक के मारे अंधे हो रहे हैं।
बाहर निकल जाने का बहाना करते हैं और कहीं पास-पड़ोस में छिप कर देखते रहते हैं कि मैं
क्या करती हूं। दौरे की बात कह कर चले जाएंगे और अचानक आधी रात को आकर धीरे-धीरे दरवाजा
खटखटाएंगे या इशारा करने के ढंग पर सीटियां बजाएंगे… ऐसे में क्या मन होता है, बताउ? यह कि बिना किए ही इल्जाम पाने से तो करके बदनाम होना ज्यादा
अच्छा है। एक बेचारी रशीदा थी।’’ ( पृष्ठ-132)
घर-परिवार और समाज में किसी
भी विवाहित स्त्री का ‘बांझ’ होना सबसे बड़ा ‘अभिशाप’ ( अपराध) है, भले ही पति नपुंसक हो। स्त्री जीवन की एकमात्र सार्थकता उसका
मातृत्व ही माना-समझा जाता है। वह अगर पति को उत्तराधिकारी या पुत्राधिकारी नहीं दे सकती या दे पाती, तो प्रायः सबके लिए अवांछित और बेकार का बोझ बन जाती है।
अपमानजनक उपेक्षाओं और अकल्पनीय सदमों से भीतर तक आहत और व्यथित, ऐसी स्त्राी की मानसिक उथल-पुथल का अनुमान लगाना भी मुश्किल है। जहीरा
भाभी का यह कहना कि ‘बिना किये ही इल्जाम पाने से तो करके बदनाम होना ज्यादा अच्छा है।’ दरअसल एक निर्दोष – दंडित व्यक्ति की प्रतिक्रिया है, जो अंततः प्रतिशोध स्वरूप आत्मघाती भी हो सकती है और हिंसक भी।
रूखाई से बी. दरोगिन कहती है ‘‘तुम्हें भी क्या घर में
काम-धंधा नहीं है? बैठ गई तो घंटों बैठ गई।’’ तब जहीरा भाभी का चेहरा ‘अपमान और क्रोध के मारे’ तमतमा जाता है। लेकिन ‘हंसकर’ कोई ‘मीठा सा’ जवाब देते हुए
दबाती रहेगी? एक न एक दिन ‘अपमान और क्रोध’ का ऐसा विस्पफोट होगा कि सब
देखते रह जाएंगे। कब, कहां और कैसे होगा – कहना कठिन है। जहीरा भाभी के अतिसंवेदनशील
मन और दमित व्यक्तित्व को सहानुभूतिपूर्वक समझते हुए ही, उसकी व्यथा-कथा और वेदना को सही परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जा सकता है। शानी अपने
पात्रों के दुःख-दर्द को जितनी हमदर्दी से पढ़ते-समझते हैं, उतनी ही बेचैनी और पीड़ा से अभिव्यक्त भी करते हैं। कभी शब्दों में, कभी संकेतों में और कभी अलिखित मौन में। उदास-निराश-हताश चेहरों का
इतिहास जानने-पहचानने की तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरते हुए लेखक, स्वयं अपने को और अपने समय और समाज को
तलाशने-तराशने का बीड़ा उठाता है। स्त्री
पात्रों के प्रति सहानुभूति ही नहीं बल्कि गहरा स्नेह और सम्मान भी साफ झलकता है।
पुरुष मानसिकता में रची-बसी
मांसलता से मुक्त हुए बिना ‘कालाजल’ का सृजन असंभव है। गहरे सरोकार
और संस्कार के बिना,
स्त्री संसार का सन्नाटा और सूनापन महसूस ही
नहीं किया जा सकता। नारी जीवन की विडम्बना और सामाजिक संरचना के पूरे
ताने-बाने को उधेड़ते हुए जहीरा भाभी एक जगह कहती हैं, ‘‘कभी-कभी मैं सोचती हूं कि हम लोगों की जिन्दगी
का कितना हिस्सा धोखे-धोखे में ही निकल जाता है! शायद इतना ही
देखकर हम लोग संतोषपूर्वक आंखें मूंद लेती हैं कि हथेलियां खाली नहीं हैं, जबकि कई बार उनमें गीली मिट्टी भरी होती है। ऐसी
गीली मिट्टी जिसे मुट्ठी में बंद करके रखना कभी संभव नहीं होता। पकड़ने के लिए उसे जितना ही
दबाओ, उतनी ही वह पकड़ के बाहर होती जाती है।’’ ( पृष्ठ-131) पारिवारिक ही नहीं बल्कि अन्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भी देखें तो यह बात एकदम सही लगती है कि
स्त्रियों की मुट्ठी में सिर्फ गीली मिट्टी की तरह भरे हैं – तमाम मौलिक अधिकार, जीने की आजादी और मुक्ति के सपने। जहीरा भाभी के समानान्तर ही
याद आती है ‘चारों ओर से निपट अकेली और अभागिन
बिलासपुर वाली’ जिसे मिर्जा करामतबेग के लिए बी दारोगिन स्वयं ही
बिलासपुर से किसी मुस्लिम खानदान से ब्याह लायी थी। लेकिन ‘बिलासपुर वाली दो बार मां बनी, पर ऐसे नसीब कि दोनों बार गोद
सूनी हो गई और सारे आंगन में बीदारोगिन का बेटा रोशन ही अंत तक खेलता रहा।’’ ( पृष्ठ-38) मिर्जा साहब की मृत्यु के
बाद ‘बी. दारोगिन ने अपनी सौत को इतना परेशान किया कि वह घर
छोड़कर चली गई।’ ( पृष्ठ-43)
यह जानते-समझते हुए कि ‘किसके मां-बाप आज के जमाने
में जवान बेटी को जिन्दगी-भर
पालते हैं।’ ( पृष्ठ-43) पूछो तो बी दारोगिन हंसती है ‘‘जवान औरत है, कब तक मिर्जा के नाम की माला जपती बैठी रहेगी?’’ ( पृष्ठ-45) निसंतान विधवा का ससुराल
में क्या हक? यहां तो पुत्रवती सौत भी मौजूद है। मायके में
‘जिन्दगी भर’ पालेगा कौन? सच यह भी तो है कि ‘बेटी के मां-बाप तो उसी दिन
मर जाते हैं, जिस दिन डोले में बैठकर निकल आती है…’ ( पृष्ठ-103) हिन्दू हो या मुस्लिम क्या फर्क पड़ता है!
हिन्दू समाज में तो विधवा (विशेषकर निःसंतान) के लिए ‘सती’ से लेकर वृंदावन के विधवा आश्रमों तक का पुख्ता प्रबंध किया ही गया
है। ऐसे में जहीरा भाभी या बिलासपुर वाली का भविष्य बताने के लिए किसी ‘ज्योतिषाचार्य’ की जरूरत नहीं। हर कोई जानता है कि निःसंतान (विधवा) स्त्री की नांव कब, कहां, कैसे ‘डूब’ जाएगी! और लाश तक बरामद नहीं होगी – गिद्ध-चील नोच
खायेंगे।
बेटी की तरह ही पली-बढ़ी है। लेकिन जवान होने पर मालती रज्जू मियां की
हवस का शिकार बनती है। गर्भवती होने का भेद खुलता है तो बी. दारोगिन उसकी जम कर पिटाई
करती है और उसी शाम मालती घर से निकल (निकाल दी) जाती है। बचपन में ही मालती की मां
किसी के साथ भाग गई थी और बच्ची को रज्जू मियां अपने घर ले आए थे। बी.
दारोगिन ने भी खुश होकर कहा था ‘अच्छा किया, जो ले आए। जाने बेचारी
किसके हाथ पड़ जाती और उसकी क्या दुर्गति होती!’ ( पृष्ठ-118) रज्जू मियां के हाथों पड़कर भी क्या ‘दुर्गति’ नहीं हुई। मालती जैसी ‘रूपवती, स्वस्थ-साफ और धुली दूब-सी
निखरी-निखरी और हंसमुख’ जवान लड़की पर रज्जू मियां की ‘लार टपकी पड़ रही थी’ – न जाने कब से। उपर से ‘बेचारी सीधी-सादी अनाथ सी लड़की’ एक दिन दोपहर में फूफी ने देखा था ‘रज्जू मियां के कमरे की चौखट पर भीतर से निकलकर
मालती हांफती सी खड़ी है। नहीं, वह खड़े होना न था, या तो एक पल के लिए ठहरकर इसे साहित्य सृजन की ‘शालीनता’ कहें या ‘बोल्डनेस’ का अभाव? पूरे उपन्यास में लेखक ( तमाम गुंजाइशों
के बावजूद) शब्द संयम बनाए-बचाए रहते हैं। लगता है जैसे किसी मामले की गहरी जांच-पड़ताल के दौरान, तमाम गवाहों के बयान दर्ज करते चले गए
हों और ‘चार्जशीट’ तैयार (या दायर) करने की जिम्मेदारी पाठकों पर
छोड़ दी हो। हर तथ्य-सत्य को दर्ज करते हैं – सूत्र-दर-सूत्र मिला कर
पढ़ने-समझने का उत्तरदायित्व आप पर है। सुस्ताहट की सांस भरना या गलत जगह देखे और पकड़े
जाने की अचकचाहट थी।’ ( पृष्ठ-124)
एक दिन
फिर रज्जू मियां के कमरे में सफाई करते समय फूफी ने देखा था ‘ट्रंक के किनारे एक उतरा हुआ पेटीकोट ऐसे गोल पड़ा है
जैसे कमर के नीचे सरकाकर किसी ने अपने पांव हटा लिए हों… बी. पेटीकोट
पहनती नहीं… कुछ दिन पहले जिस पेटीकोट को उन्होंने मालती को पहनते हुए देखा था वह हू-ब-हू ऐसा ही
था – यही सफेद रंग, रेशमी धागे से कढ़े हुए, अनसधे हाथों के फूल-पांख और क्रोशिये के काम वाला निचला बार्डर…’ ( पृष्ठ-123) फूफी को ‘एकाएक रशीदा की याद आ गई’ और ‘बिल्कुल न सोचने के लिए अपने सिर को झटककर बिस्तर की ओर बढ़ गई।’ ( पृष्ठ-123-124) रज्जू मियां और मालती के
बीच देह संबंधों को शानी ऐसी ही सांकेतिक भाषा में उजागर करते हैं।
जाती’ तो उन्हें याद आता कि ‘ससुर ( रज्जू मियां) के बिस्तर समेटने-धरने के
दौरान, सिरहाने से जो कुछ चीजें गिरी थीं, उनमें अधजली बीड़ियों, दियासलाई की तीलियों और खपरैल से गिरे
कचरे के साथ बेलमोगरा के कुछ बासी और सूखे फूल भी थे।’ ( पृष्ठ-125) मालती के जूड़े में ‘बेलमोगरा के कुछ बासी और सूखे फूलों’ के बीच ही कथा के महत्वपूर्ण सूत्र, कड़ियां और अर्थ मौजूद हैं।
फूफी की पारिवारिक स्थिति ऐसी है कि वह इस बारे में कुछ भी सोचना तक नहीं चाहती।
जब मालती ‘नाली के पास बैठकर कै करने लगी’ तो फूफी ‘फटी-फटी आंखों से खिड़की के बाहर ताकने लगी’, रज्जू मियां ‘उल्टी की आवाज से बुरी तरह चौके और सफेद होते चेहरे से उन्होंने मालती की ओर देखा’ और बी ‘जहां की तहां ऐसे रूक गई जैसे काठ मार गया हो’। ( पृष्ठ-125) मालती ‘असहाय-सी ताकती हुई हांफती रही’। चेहरा घुटनों में धंसाकर छिपा लिया। फूफी ने फंसे गले से सिर्फ
इतना कहा ‘यह क्या कर लिया तूने, हरामजादी?’ और उसके पास बैठ गई। दोपहर
में बी. दारोगिन मालती को मारते-पीटते हुए चीखती चिल्लाती रही ‘मैं तेरा गला घोंट दूंगी, हरामजादी! रण्डी, बाजारू, किससे पेट भराया है…’ मालती बंद कमरे में घंटों पिटती रही, कराहती रही लेकिन जबान नहीं खोली। बी ने अंततः टूटे स्वर में कहा ‘‘हम तो तेरे भले के लिए कह रहे थे, नहीं समझती तो भाड़ में जा
लेकिन रोशन के आने से पहले यहां से अपनी मनहूस सूरत जरूर हटा लेना। वह कहीं देख-सुन ले तो तेरी
जान ले लेगा…’’ ( पृष्ठ-126) उसी शाम मालती घर से चली गई।
बिलासपुर वाली की तरह मालती भी न जाने कहां गई ? क्या हुआ?? किसे पडी थी पता करने की! ‘रतिनाथ की चाची’
( नागार्जुन, 1949) में विधवा गौरी अपने विधुर देवर जयनाथ की कामवासना का शिकार होकर
गर्भवती हो जाती है और गांव का सारा समाज उसका बहिष्कार करता है। बेटा उमानाथ उसे पीटता है, परन्तु गौरी मरने तक जयनाथ का नाम नहीं बताती।
मालती ने कोई नाम न लिया- बताया हो मगर बी. दारोगिन भी सच जानती समझती है।
बाद में एक दिन बायें हाथ को हंसिया चलाने की तरह चमकाकर कहती हैं (रज्जू मियां से) ‘‘अब तुम मेरी जबान न खुलवाओ, वरना तुम्हारी सारी शराफत यहीं
खोलकर रख दूंगी और कोई भी आए-जाए, तुम्हें तांक-झांक करने की
क्या जरूरत? यही है शराफत! कहे देती हूं, मुझसे तुम्हारा कुछ भी छिपा नहीं, राई-रत्ती हाल जानती हूं। अरे, शराफत होती तो उसी दिन चुल्लूभर पानी में डूब मरे होते जिस दिन…’’ ( पृष्ठ-133) शानी जी नहीं बताते किस दिन (?) मगर अगले ही क्षण दर्ज करते हैं ‘‘उस रात एक क्षण के लिए भी रशीदा का
चेहरा फू फी की आंखों से नहीं हटा. .. मालती का फर्श पर लोटता शरीर… जिसके पास बेलमोगरा के सूखे फू ल पड़े हैं।’’ ( पृष्ठ-133) और साफ है कि अकेले रज्जू मियां कटघरे में खड़े हैं।
तमाम गवाह और सबूत उनके खिलाफ हैं। सचमुच शानी एक बेजोड़ कथा शिल्पी हैं और शिल्प एकदम अनूठा। रज्जू मियां का बयान
‘‘माफी मांग सकूं, ऐसा मुंह भी अब मेरे पास नहीं है।’’ ( पृष्ठ-134) संदेह के सारे पर्दे हटा देता है।
सुनारिन और मालती की ही तरह
रशीदा अपने चाचा की यौन कुंठाओं और विकृतियों की संतुष्टि का ‘सुख साधन’ बनने को विवश होती है। मगर एक रात अपने शरीर पर किरासिन
तेल छिड़ककर जल मरती है। ‘‘रशीदा बेचारी का बाप नहीं
रह गया, चाचा के पास रहती है। लेकिन
चाचा खुद दोजख का कीड़ा है। उसकी शादी-ब्याह करता नहीं, बेचारी कुंआरी ही बूढ़ी हो रही है। जो भी पैगाम लेकर पहुंचता
है, उसे गाली-गलौच करके निकाल देता है। सारी बिरादरी में
मशहूर कर रखा है कि मुनासिब लड़के मिलते नहीं, लेकिन हकीकत कुछ और है –
ऐसी कि मुंह पर आते ही जबान कट कर गिर जानी चाहिए… इन्सान होकर ऐसी
क्या नियत कि सगी बेटी का रिश्ता भुला दिया जाए? आदमी और जानवर में आखिर फर्क क्या हुआ?’’ ( पृष्ठ-109-110) रशीदा रो-रोकर बताती है ‘‘जीते-जी कब्र में पड़ी हूं’’ और सुनने वाले खीझते हुए सलाह देते हैं ‘‘कब तक ऐसी गुनाह की जिन्दगी को ढोती फिरेगी, नदी-तालाब तो नहीं सूखे, जहर तो दुनिया से उठ नहीं गया?’’… रशीदा देखने में लंबी और दुबली। ‘‘आंखें बड़ी-बड़ी और सुन्दर थी लेकिन उनमें आकर्षण का सिरे से अभाव था। बाल
छोटे-छोटे, सीना मर्दों की तरह सपाट और
चेहरे की बनावट में बीमारियत… सचमुच उसे कुंआरी कौन कहेगा?… बिल्कुल निर्विकार और भावहीन चेहरा, जैसे झाड़ की छाया में पड़ा, मरा हुआ पत्ता…’’
( पृष्ठ-108)
जहीरा भाभी का फूफी के सामने बयान है ‘‘उस हादसे से एक हफता पहले मेरे पास आई
थी… उस दिन भी बड़ी देर तक रोती रही कि उसे मौत नहीं आती। घंटों बैठकर मुझे रोज-ब-रोज
का हाल सुनाती रही और अपना सारा जिस्म खोलकर दिखाया। …घुटनों से लेकर गले तक, जगह-जगह उसने अपने शरीर को आग से भून डाला था। ( इस तरह जल-भुनकर शायद वह समझ रही थी कि खुदा उसके गुनाहों को माफ कर देगा)
कहने लगी- मैं चाहती हूं कि मेरा जिस्म बदसूरत हो जाए – इतना
बदसूरत कि उसमें हाथ तक न लगाया जा सके। मैंने रोकर कहा कि रशीदा, यह तूने क्या कर लिया? बोली – जीते जी दोजख भोग रही हूं।’’ ( पृष्ठ-130) जब से रशीदा मरी है जहीरा
भाभी को बिल्कुल चैन नहीं। ‘‘रात को ठीक से नींद नहीं आती। अंधेरा होते
ही अजीब बेचैनी और घबराहट शुरू हो जाती है। कहीं थोड़ी देर के लिए आंख
लगती है, तो रशीदा को ही सपने में देखती है।’’ ( पृष्ठ-131) फूफी के बयान में लिखा है ‘‘भाभी ने रशीदा के जीवन-काल में उसे आत्महत्या करके गुनाही की जिन्दगी खत्म
करने की सैकड़ों बार सलाह दी थी। वह चाहे भावावेश में हो अथवा क्रोध में आकर संवेदना के कारण और (मगर)
आज जब रशीदा सचमुच वह सब कर गई, तो भाभी भीतर से भीरू और
अपराधी बन गई हैं।’’ ( पृष्ठ-131) ऐसे में
जहीरा भाभी का अपराधबोध स्वाभाविक ही लगता है।
सुनारिन, मालती और रशीदा के यौन-शोषण
की व्यथा कथा का कोई अन्त नहीं। चालीस-पचास साल बाद के तथाकथित आजाद देश और सभ्य समाज में
भी यौन हिंसा के आंकड़े लगातार बढ़ते ही गये हैं। अधिकांश मामलों में युवतियों से
बलात्कार उनके अपने ही पिता, भाई, चाचा, ताउफ, मामा, जीजा या निकट संबंधी और पड़ोसी द्वारा किये जाते
(रहे) हैं। तब अपराधों को घर के आंगन में ही गड्ढा खोद कर दबा दिया जाता था, अब कुछ मामले ( 20-25 प्रतिशत) पुलिस स्टेशन से कोर्ट-कचहरी तक भी पहुंच जाते हैं और लगभग 96 प्रतिशत बलात्कारी और हत्यारे बाइज्जत बरी हो जाते हैं या ‘संदेह का लाभ’ पाकर छूट जाते हैं। स्त्रियां न घर में सुरक्षित हैं और न
बाहर। सबसे अधिक हिंसक और असुरक्षित है – देश की
राजधानी दिल्ली – नई दिल्ली।
इसके बावजूद एक सिद्ध-प्रसिद्ध-वयोवृद्ध ( कथाकार-
सम्पादक-विचारक) का कहना-मानना है ‘‘दुनिया की हर खूबसूरत लड़की चाहती है कि
उसके साथ ‘रेप’ हो… ‘रेप’ का आधा मजा तो वह लोगों की भूखी निगाहों और तारीफ के फिकरों में लेती
ही है। डरती वह उस घटना से नहीं है बल्कि उसके तो सपने देखती है। वह
डरती है उस घटना को दूर खड़े होकर देखने वालों की आंखों से, तमाशबीनों से।’’ रशीदा के चाचा-ताउफ अभी भी ‘जिन्दा’ हैं। तसलीमा नसरीन ने ‘मेरे बचपन के दिन’ में लिखा है कि बचपन में उसका यौन शोषण उसके शराफ
मामा और अमान चाचा ने ही किया था।
क्रमशः