दो चोटी वाली लड़की और अन्य कविताएं

सुलोचना वर्मा

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित. छायाचित्रण और चित्रकारी में रुचि संपर्क :verma.sulochana@gmail.com

जरूरतें

सम्मान और सामान
श्रुतिसमभिन्नार्थक शब्द थे
स्त्री के लिए पुरुष के शब्दकोष में
जिनका अर्थ तय करती थीं जरूरतें

वक्त बेरहम अक्सर पलट जाता था

शून्य के जनसमुद्र में

हो उठा है कुत्सित ये मनहूस शहर
किसी स्तनविहीन नग्न नारी की देह के समान
और रात है एक पेड़ जिसपर लटक रहा है लालच
बनकर चमगादड़ों का कोई झुण्ड

खो गयी है इक रात उसके जीवन की
जिसे वह जी सकती थी सोकर या जागते हुए
जिसे पी गया है अंधकार स्वाद की ओट में
और अवाक रह गयी अभिसार को निकली युवती

कहाँ से ढूँढे सांत्वना का कोई भी शब्द ऐसे में
जहाँ ले चुकी हैं समाधि हमारी भावनाएँ
गूँजती हो जहाँ साज़िश शून्य के जनसमुद्र में
जहाँ भोर होते ही पूजी जायेगी फिर एक कन्या

आकार

सब जानते हैं
कि वह नही बेल पाती
चाँदसी गोल रोटियाँ
और ना ही बेल पाती है
समभुज त्रिकोण वाले पराठे
पर वह भरती है पेट कुछ लोगों का
लाकर चावल, आंटे, नमकऔरघी
साथ ही लाती और भी कई ज़रूरी सामान
जो होने चाहिए किसी रसोईमें

है शुद्ध कलात्मक क्रिया
पेट भर पाना, अपना और औरों का
कि जहाँ पेट हों भरे,
लोग निहार सकते हैं चाँद को घंटों
और कर सकते हैं चर्चा उसकी गोलाई की

भरा पेट देता है दृष्टिकोण
कि आप देख पाएँ
बराबर है त्रिभुज का हर कोण

सामान्य है ना बेल पाना
रोटियों और पराठों का
कमाकर लाना भी सामान्य ही है

असामान्य है समाज का स्वीकार लेना
एक ऐसी स्त्री को, जो सभी का पेट भरते हुए
नही बेल पाती है सही आकार की रोटी और पराठे

रसोई के बाहर अमीबा नज़र आती है स्त्री

स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं

इस देश की स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं
कि शोध करे कण भौतिकी पर
और ठीक स्वर्ण पदक पा लेने के बाद
घर बैठे बन बेरोजगार बिना किसी ग्लानी के

वो कर सकती हैं प्रेम टूटकर किसी से
और जा सकती हैं किसी अजनबी के साथ बिताने उम्र
ऐसे में कुल की मर्यादा की रक्षा करने के लिए
इस देश की स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं

इस देश की स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं
कि जन सकें आठवीं बेटी बेटे की आस में
और जीतीं रहें यंत्रवत जीवन साल दर साल
किसी अनजाने भय में होकर लिप्त

वो हो सकती हैं अनुकूलित जरुरत के हिसाब से
कि उनकी अपनी कोई इच्छा ही नहीं होती
किसी भी प्रकार की ग्लानी, दुःख और पीड़ा से
इस देश की स्त्रियाँ स्वतंत्र हैं

मेरी आँखों में अक्सर खटकती है ऐसी स्वतंत्रता
कि पनपे आधी आबादी को भी करोड़ों साल बीते
पूछती है अपनी निजता की पराधीन मेरी आत्मा
इस देश की स्त्रियाँ इतनी स्वतंत्र क्यूँ हैं!!!

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
बस सोती रही देर तक
घण्टों नहाया झरने में
धूप में सुखाये बाल
और गाती रही पुरे दिन कोई पुराना गीत

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
बिंदी को कहा “ना”
कहा चूड़ियों से “आज नहीं”
काजल से बोली “फिर कभी”
और लगा लिया तन पर आराम का लेप

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
न तोड़े फूल बगीचे से
न किया कोई पूजा पाठ
न पढ़ा कोई श्लोक ही
और सुनती रही मन का प्रलाप तन्मयता से

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
तवे को दिखाया पीठ
खूब चिढ़ाया कड़ाही को
फेर लिया मुँह चाकू से
और मिलाकर घी खाया गीला भात

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
न साफ़ की रसोई
न साफ़ किया घर
नहीं माँजा पड़ा हुआ जूठा बर्तन
और अंजुरी में भरकर पिया पानी

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
रहने दिया जूतों को बिन पॉलिश के
झाड़न को दूर से घूरा
झाड़ू को भी अनदेखा कर दिया
और हटाती रही धूल सुन्दर स्मृतियों से

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
न ही उठाया खिड़की से पर्दा
न ही घूमने गयी कहीं बाहर
न मुलाक़ात की किसी से
और बस करती रही बात अपने आप से

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
जो उसे करना था रखने को खुश औरों को
कि उसे नहीं था मन कुछ भी करने का
जीना था उसे भी एक दिन बेतरतीबी से
और मिटाना था ऊब अभिनय करते रहने का

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
दरअसल वह गयी थी जान
कि नहीं था अधिक ज़रूरी
कुछ भी जिंदगी में
जिंदगी से अधिक

एक दिन कविता ने नहीं किया कुछ भी
बस मनाया ज़श्न
अपने जिंदा होने का

दो चोटी वाली लड़की

ना इतराना दो चोटी वाली लड़की
जो कह दे तुम्हें कोई गुलाब का फूल
कि जो ऐसा हुआ
ताक पर रख दी जायेगी तुम्हारी बौद्धिकता
फिर तुम्हें दिखना होगा सुन्दर
तुम्हें महकना भी होगा
फिर ………
चर्म इन्द्रि से देखना चाहेंगे लोग तुम्हारा सौन्दर्य
और लगभग भूल जायेंगे विलोचन की उपस्थिति
उमड़ पड़ेंगे लोग लेने तुम्हारा सुवास
कुछ लोग महानता का ढोंग भी रचेंगे
और तुम्हारा कर देंगे उत्सर्ग किसी देवता के चरणों में
इन सभी परिस्थितियों में
बिखर जायेंगी तुम्हारी पंखुडियाँ
और तुम्हे मुरझा जाना होगा

क्या जानती हो दो चोटी वाली लड़की
नहीं ख़त्म होगी बात तुम्हारे मुरझा जाने पर
और समाज सोचेगा भी नहीं
कि वह कर देगा व्यक्त अपनी मानसिक अस्वमस्थपता को
जब जब करेगा प्रश्न तुम्हारे यौन शुचिता की
और तुम बनी रह जाओगी केवल और केवल
एक शर्मनाक विषय,
एक नीरस चर्चा,
जिसे समाज स्त्री कहता है

सुनो दो चोटी वाली लड़की
तुम्हें बनना है बछेंद्री पाल
और नाप लेना है माउंट एवरेस्ट
गाड़ देना है झंडा अपने वजूद का
और अपने नाम का परचम लहराना है
विश्व के सबसे ऊँचे पर्वत शिखर पर …….

तुम्हे मैरीकॉम भी बनना है दो चोटी वाली लड़की
कि तुम जड़ सको जोरदार घूँसा
हर उस मनहूस चेहरे पर
जिसकी भंगिमाएँ बदलती हों
तुम्हारे शरीर की बदलती ज्यामिति पर ……

दो चोटी वाली लड़की, बन सकती हो तुम मैरी अंडरसन
जो करे इजाद एक ऐसा विंडशील्ड वाइपर
जिसे लोग करे इस्तेमाल
अपने दिमाग पर पड़े धुल को धोने के लिए
और फिर एक हो जाए उनका रवैया लड़का और लड़की के लिए …..

बन सकती हो तुम ग्रेस हूपर दो चोटी वाली लड़की
और लिख सकती है कोबोल जैसी कोई नयी भाषा
जिसे पढ़ें उभय लिंग के प्राणी बिना भेदभाव के
और डिस्प्ले लिखकर कहे “हेल्लो वर्ल्ड ”
बड़े ही जिंदादिली और बेबाकी के साथ …….

जो ऐसा कुछ नहीं बन पायी दो चोटी वाली लड़की
तो कर लेना अनुसरण अपने पिता का…खेतों… खलिहानों  तक
लगा लेना झूला आम के किसी पेड़ पर और बौरा जाना
जैसे बौराती है अमिया की डाली फागुन में
खूब गाना कजरी सखियों के संग मिलकर
ऐसे में कहीं जो कोई धर दे तुम्हारी जुबां पर हाथ
मंथर होने लगे तुम्हारी आवाज़
उठा लेना हाथ में हंसुआ
और काट देना गन्दी फसल को……… जड़ से….
फिर खोल लेना अपनी चोटियाँ मुक्तिबोध में
बना लेना गजरा खेत के मेड़ पर उग आये वनफूलों से
खोंस लेना बालों में आत्मविश्वास के साथ
चल पड़ना हवा के बहाव की दिशा में
कि तुम हो प्रकृति
तुम्हे रहना है हरा भरा…हर हाल में |

बताओ न, दो चोटी वाली लड़की,
तुम्हें क्या बनना है ?

सभी चित्र: वाजदा खान

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ISSN 2394-093X
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