1 साल 2 महीने पहले जब इलाहबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ में अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने का ठानी तो कुछ बातें मन में थीं, पहली कि विश्वविद्यालय के इतिहास में 128 साल में कोई भी चुनी हुई महिला अध्यक्ष क्यों नहीं? क्या छात्रसंघ का स्वरुप ऐसा होना चाहिए, जिससे हर आम छात्र अपने को जोड़ न पाता हो? धनबल-बाहुबल, क्या ये राजीनीति की नर्सरी हो सकते हैं, क्या जीतने वाला छात्र एक आम छात्र न होकर बड़ी -बड़ी गाड़ियों में चलने वाला कोई बाहुबली होगा, जिससे आम स्टूडेंट मिल कर अपनी समस्यायों को साझा करना तो दूर उसको देखना भी मुश्किल होता है! पूरब का ऑक्सफ़ोर्ड, जो देश की राजनीति को दिशा देता था, उसकी दशा को तय करता था, आज क्यों वह राष्ट्रीय पटल से भी हटता जा रहा है, क्यों इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर अपनी आवाज़ मिलते नहीं दिखते? इन्ही कुछ सवालों के साथ अपने साधारण से दिखने वाले दोस्तों की टीम, जिन्होंने मेरे सपनों पर बिना सवाल किये मेरा न सिर्फ साथ दिया, बल्कि जब लगा की अब मुझसे नहीं होगा, हाथों में हाथ डाल ताकत भी दी।
हमने कहा था हमारे पास क्रांति का कोई मॉडल नहीं पर बदलाव लाएंगे माहौल में। 15 अगस्त, 26 जनवरी को छात्रसंघ के प्राचीर से किया गया झंडारोहण बहुत याद आता है, इसलिए नहीं की 128 साल में पहली बार किसी लड़की ने छात्रसंघ के प्राचीर से झंडा फहराया था, बल्कि इसलिए कि छात्रसंघ के प्राचीर पर न सिर्फ लड़के बल्कि बराबर की संख्या में लड़कियों ने भी भागीदारी की थी और हम सबने मिलकर स्वतंत्रता और गणतंत्र के पर्व को मनाया था, जहाँ किसी लड़के को छात्रसंघ के भवन में लड़कियों को देखकर कोई असहजता नहीं थी , जहाँ लड़कियों को छेड़खानी या ‘छात्रसंघ में लड़कियां नहीं जाती’, ऐसा कोई डर नहीं था। यही बदलाव करने तो निकले थे हम… किमाहौल बदले, आज बेख़ौफ़ लड़किया छात्रसंघ भवन के क्षेत्र में जाती हैं, जहाँ से वो गुजरने तक से पहले सोचती थी।
हम लड़े, हमने आंदोलन किया, कभी कैंपस में साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ़, घायल होकर भी हम और हमारे साथी डेट रहे , क्योंकि लड़ाई बड़ी थी हमारी संख्या छोटी. चोट खाकर भी टूटे नहीं, बल्कि और मज़बूत हुए- हम लड़े कैंपस में जेंडर बराबरी के लिए, महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न में घिरे प्रशासनिक से लेकर शिक्षकों पदों पर बैठे हुए लोगो के खिलाफ। हम लड़े यू.जी.सी की फेलोशिप बंद करने के खिलाफ़ और दिल्ली में अपने साथियों की न सिर्फ आवाज़ से आवाज मिलायी बल्कि उस लड़ाई में पूरब के ऑक्सफ़ोर्ड ने अहम भूमिका भी निभायी, हम लड़े अपने साथी रोहित वेमुला की लड़ाई, जो हम सबकी अपनी लड़ाई थी। एक दौर ऐसा भी आया जब लगा किअब तो पीएचडी का एडमिशन भी नहीं बचा पायेंगे, तब देश खड़ा हुआ मेरे साथ. सड़क से संसद तक आवाज़ गूंजी , छात्रों से लेकर शिक्षक, बुद्धजीवी, मीडिया और देश की संसद ने मेरे सवाल को उठाया. हम फिर कामयाब हुए, जो मेरी नहीं हम सबकी कामयाबी थी। बिना घर पर बताये अपने साथियों की लड़ाई ऑनलाइन-ऑफलाइन परीक्षा के मुद्दे पर 10 दिन तक बिना घर पर बताये अनशन भी किये, और विश्वविद्यालय प्रशासन को ही नहीं, एमएचआरडी को भी अपना फैसला वापस लेना पड़ा और छात्रहित में ऑनलाइन के साथ ऑफलाइन के विकल्प को अपने अधिकार को छीन कर लिए। यहाँ तक आते -आते तो समझ आ गया कि छात्रसंघ की ताकत क्या होती है, क्योंकि ये छात्रनेताओं नही बल्कि छात्रों का संघ, अर्थात शक्ति होता है।
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कई बार लोग यह भी कहते थे एक लड़की क्या कर पायेगी ? इसलिए दोहरी ज़िम्मेदारी थी मुझपर, पहली एक अध्यक्ष के रूप में अपने को साबित करना और दूसरी महिला अध्यक्ष के रूप में अपने को साबित करना ताकि अगली लड़की जब चुनावों में आये तो लोग ये न पूछे कि एक लड़की क्या कर पायेगी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ में। पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो संघर्ष का लंबा दौर रहा, एक लड़की, एक आम छात्र, जिसके पास धन बल बाहुबल के नामनपर कुछ नहीं , जिसकी जीत को लेकर शहर के साथ विश्वविद्यालय प्रशासन भी सोचता थी कि गलती से जीत कर आ गयी, अब दिमाग ठिकाने आ जायेगा, के लिए सबकुछ आसान और संघर्ष से हासिल किये जाने वाले आसान लक्ष्य मेंं तब्दील हो गया. कई बार मनोबल टूटा भी, क्योंकि इंसान थे- जब लोग कहते थे, ‘ऐसा सबक़ सिखएंगे की लड़की होने प्नर शर्म आयेगी’, पर लड़ने का रास्ता ही अंततः चुना क्योंकि उसके सिवा कोई रास्ता न था.
अभी लम्बी लड़ाई बाकी है, बदलाव की पर क़दम मज़बूत हैं और एक नयी शरुआत हो चुकी है , कोशिश है इसे नयी मंजिल की ओर ले जाने की। सोचा नहीं था कि कभी लंदन जाने और वहाँ विश्वविद्यालय या उत्तर प्रदेश या अपनी पार्टी का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलेगा , पर मिला. सोचती हूँ कि कहाँ एक छोटे शहर की छोटे कद की यू.पी बोर्ड में पढ़ी एक सामान्य परिवार की लड़की को ब्रिटेन में अपनी बात रखने, वहाँ की बात समझने, पूरब से पश्चिम ऑक्सफ़ोर्ड, ब्रिटेन की पार्लियामेंट में जाने का मौका मिलेगा. पूरब की इस बेटी ने वहां भी लोगों की उम्मीद पर अपने को परखा.
ब्रिटेन में ऋचा |
और अब सीधे जनता के बीच, इलाहाबद (पश्चिम) से विधानसभा उम्मीदवार के रूप में. उम्मीद है जनता मुझे यह नई जिम्मेवारी भी सौपेंगी. अपने प्रतिनिधित्व की जिम्मेवारी. लोकतंत्र में मेरी दूसरी पारी शुरू हो चुकी है. एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार ( पिता बिजली विभाग में इंजीनियर और माँ गृहिणी) में 4 बहनों और दो भाईयों के बीच सबसे छोटी संतान , मैं, बिना किसी राजनीतिक विरासत के राजनीति की नई पारी की ओर जा रही हूँ, जहां राजनीति मेरे लिए सिर्फ सत्ता और सियासत का एक गठजोड़ भर नहीं होगी, बल्कि उसके मूल्य मेरे लिए जनता के हित में निहित हैं. उम्मीद है छात्रसंघ की ही तरह इस नई चुनौती को भी मैं बखूबी जी सकूंगी.
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