अगर बंगाला दलित साहित्य की शीर्षस्थ लेखिकाओं की बात की जाये तो कल्याणी ठाकुर का नाम सबसे आगे होगा। कल्याणी ठाकुर मानती हैं कि दलित लेखन प्रमुख तौर पर दमन और घृणा के इतिहास को उजागर करने से संबंधित है। यह वह दमन और घृणा है, जिसका सामना कुछ दलित जातियों को सदियों से करना पड़ा है। दलित साहित्य के इस समूचे परिदृश्य के अपने अर्थ, लक्ष्य और उद्देश्य हैं। परंतु उनको लगता है कि अगर दलित लेखक अपने लेखन को साहित्य जगत में स्थायित्व दिलाना चाहते हैं तो उनको धीरे-धीरे इसमें सौंदर्यबोध को शामिल करना होगा।
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कल्याणी ठाकुर का जन्म सन 1965 में पश्चिम बंगाल के नाडिया जिले में बागुला के निकट पुरबापारा गांव में हुआ था। उनका परिवार नामशूद्र जाति से ताल्लुक रखता था, जो सन 1947 में पूर्वी पाकिस्तान से आया शरणार्थी परिवार था। उनके पिता कृष्ण चंद्र ठाकुर को लोग केस्टो साधू कहकर पुकारते थे। वह मतुआ धर्म के अनुयाई होने के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता थे। वह सार्वजनिक शिक्षण के प्रतिपादक थे और सत्य और सादगी के आदर्शों में यकीन करते थे। कल्याणी पर अपने पिता का प्रभाव था और उनमें भी सत्य के प्रति टिके रहने और जूझने की भावना प्रबल है। उन्होंने बगुला श्रीकृष्ण कॉलेज से अकाउंटेंसी में स्नातक की पढ़ाई पूरी की और कलकत्ता विश्वविद्यालय से सांध्यकालीन पाठ्यक्रम में स्नातकोत्तर किया। ऐसा इसलिए क्योंकि इस दौरान वह एक सरकारी कार्यालय में लिपिकीय नौकरी करने लगी थीं।
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वह जिस इलाके में पलीं-बढ़ीं वहां का सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य कुछ ऐसा था कि बचपन में ही वह अपनी जातीय अस्मिता को लेकर सचेत हो गईं। वह याद करती हैं कि कैसे पुरबापारा के अधिकांश प्रवासी नामशूद्र जैसी निचली जाति से ताल्लुक रखते थे। उस क्षेत्र में रहने वाले ऊंची जाति के लोग इन्हें नीची नजर से देखते थे। ऊंची जाति वाले उनको अक्सर अपराधी, बेईमान और अपवित्र मानते थे। बहरहाल इस जातीय कटुता और पूर्वग्रह से उनका सामना तब हुआ जब उन्होंने सरकारी कार्यालय में नौकरी शुरू की। वह भी तथाकथित आधुनिक और प्रबुद्ध लोगों के शहर कोलकाता में। उन्हें अपने कार्यालय में हर कदम पर यह याद दिलाया जाता कि उनकी जाति क्या है। उनके उच्चवर्ण वाले शिक्षित सहकर्मी उन्हें अपमानित करने का एक भी मौका गंवाते नहीं थे। चूंकि कल्याणी कभी अपनी आवाज उठाने में झिझकती नहीं थीं इसलिए उन्होंने प्रतिरोध स्वरूप अपनी जातीय पहचान को कभी शर्म का विषय नहीं माना। उल्टे वह अपने और अपने समुदाय के अधिकारों के लिए लड़ती रहीं। मुक्त विचारों और पहचान वाली स्त्री होने के नाते उनके पहनावे, उनकी संगत और यहां तक कि उनके लेखन के लिए उनको लगातार उलाहने दिए गए।
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वह कोलकाता के गोलपार्क में महिलाओं के एक हॉस्टल में रहा करती थीं। उस समय में उन्होंने कोलकाता के तमाम हॉस्टलों में रहने वाली महिलाओं को आवाज देने के लिए नीड़ नामक एक वॉल मैगजीन प्रकाशित करनी शुरू की। इस काम में सफलता मिलने के बाद उन्होंने इस पत्रिका का मुद्रित संस्करण प्रकाशित करना शुरू किया। अपने पहले अंक से लेकर आज तक नीड़ में हाशिए के लोगों की उन चिंताओं को शामिल किया जाता है जो अब तक अनसुनी रह गईं।
इसके बाद कल्याणी एक दलित प्रकाशन समूह और बौद्धिक समूह के संपर्क में आईं, जिसका नाम था ‘चौथर्य दुनिया’ (चौथी दुनिया)। इस प्रकाशन से ही ‘धोरलेई जुद्धो सुनिश्चित’ (मात्र स्पर्श से हो सकता है युद्ध का निर्धारण), ‘जे मेये अंधार गान'(अंधेरे को गिनने वाली लडक़ी) और ‘चंडालिनीर कोबिता’ (चंडालिनी का काव्य) जैसी रचनाएं प्रकाशित हुईं। इनमें से चंडालिनी की कविता ने उन्हें बंगाल के महिला दलित स्वर की पहचान दिलाई। इसके बाद उनका एक कहानी संग्रह ‘फिरे एलो उलांगो होये'(नग्न वापसी) और एक नॉन फिक्शन संग्रह ‘चंडालीनीर बिबृत्ति’ (चंडालिनी का अभिकथन) प्रकाशित हुए। बंगाल के साहित्यिक समाज में एक निचली जाति की लेखिका द्वारा इतने स्पष्ट तरीके से जातीय और वर्गीय दमन और शोषण का सुस्पष्ट चित्रण करना अप्रत्याशित था। हाल ही में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी है, ‘ऐमी कानो चरल लिखी?’ (मैं चरल क्यों लिखती हूं?) इसमें उन्होंने अपने जीवन की पूरी कहानी लिखने के साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि आखिर क्यों उन्होंने अपने नाम में चरल के रूप में दालित पहचान जोड़ी।
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वर्ष 2012 में कल्याणी को पुड्डुचेरी में स्पैरो वुमेन आकाईव द्वारा आयोजित लेखक कार्यशाला में बंगाल का प्रतिनिधित्व करने के लिए बुलाया गया था। अप्रैल 2016 में वह मेलबर्न में स्थानीय यूनेस्को कार्यालय द्वारा समर्थित और मोनाश विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘लिटरेरी कॉमंस: राइटिंग ऑस्ट्रेलिया-इंडिया इन द एशियसन सेंच्युरी विद दलित, इंडीजीनस ऐंड मल्टीलिंगुअल टंग’ में सम्मानित अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया।
कल्याणी का मानना है कि प्रतिरोध भले ही छोटे पैमाने पर क्यों न किया जाए वह हर प्रकार के दमन के खिलाफ हमेशा से मौजूद रहा है। इन प्रतिरोध की आवाजों में से कई शायद मुख्यधारा के इतिहास में दर्ज नहीं किए गए हों लेकिन इससे उनका महत्त्व कम नहीं हो जाता। यही वजह है कि आवाज उठाना कभी बंद नहीं करना चाहिए। हमेशा यह कोशिश करनी चाहिए कि दुनिया को जायज ढंग से अपनी आवाज सुनाई जाए। चूंकि बंगाल में जातिवाद मौजूद है इसलिए इसके विरुद्ध संघर्ष में उन लोगों की आवाज बाहर आनी चाहिए जिनको खामोशी से दबा दिया गया। लैंगिक असमानता और निरंकुशता भी जातीय-अन्याय के दायरे से बाहर नहीं हैं।
कल्याणी ने साहित्यिक लेखन के साथ-साथ हमेशा जरूरतमंदों का साथ दिया है और उनके पक्ष में खड़ी रही हैं। चौथी दुनिया के साथ अपने जुड़ाव के दौर में उन्होंने दलित कल्याण मंच आयोजित किया। इसका उद्देश्य था बंगाल के निचली जातियों वाले समुदायों की बेहतरी के लिए काम करना। हालांकि अभी इसे वांछित रूप दिया जाना है क्योंकि खुद उनके समूह में सहयोग का अभाव है। वह अंबेडकरवादी हैं और इसलिए सोचती हैं कि जिन दलितों को कुछ हासिल हो चुका है वे समाज को कुछ वापस दें वरना हालात कभी नहीं सुधरेंगे।
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कल्याणी का सोचना है कि पढ़े-लिखे दलितों को और अधिक सशक्त बनने के लिए पढऩे की आदत डालनी होगी। उनके मुताबिक इस वक्त पुस्तकालयों की स्थापना करना भी स्कूल बनाने जैसा ही अहम है। वंचित वर्ग द्वारा अपने समान लोगों के लिए बनाए गए पुस्तकालय उनके साहित्य और इतिहास को रसूखदार सांस्कृतिक और राजनीतिक समूहों के वर्चस्व से बचा सकते हैं।
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मोहम्मद दिलवर हुसैन ने अंग्रेजी से एम ए करने के बाद आईसीएसएसआर के शोध प्रोजेक्ट के तहत लोकसाहित्य, धर्म और जाति के अंतर्संबंध पर काम किया है.
मूल अंग्रेजी से अनुवाद पूजा सिंह ने किया . अनुवादक पूजा सिंह पत्रकार हैं, अभी साप्ताहिक शुक्रवार के साथ काम कर रही हैं.