हिंदी साहित्य से झाँकतीं आदिवासी स्त्रियाँ

रीता दुबे

शोधर्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
, दिल्ली, संपर्क:ईमेल:rita.jnu@gmail.com

अगर अपनी बात यशपाल की  दिव्या से शुरू करू तो जो कहना चाहती हूँ उसे कहने का आसानी से एक माध्यम मिल जायेगा .दिव्या दासी धर्म और मातृत्व धर्म में से मातृत्व धर्म को प्रधान मानकर अपने मालिक के घर से भागती है तो वह एक बौद्ध विहार में पहुचती है .वहाँ वह शरण कि भीख मांगती है तो स्थविर कहतें हैं ,”तुम माँ के रूप में शरण माँग रही हो ,मोहमाया से मुक्त नहीं हो ,इसलिए शरण नहीं मिलेगी ,वह चेरी बन जाने का वचन देती है तो स्थविर पूछतें हैं ,कि क्या तुम्हारे पति ,पिता या पुत्र की आज्ञा है ?वह बताती है कि पति नहीं है ,पिता दिवंगत हैं ,और पुत्र गोद में है .स्थविर अस्वीकार में उठकर अंदर जाने लगते हैं  तो वह प्रार्थना करती है कि तथागत ने तो आम्रपाली कों शरण दी थी और मुझे आप भूखा,प्यासा,असुरक्षित छोड़ रहे हैं .स्थविर उत्तर देते हैं –“वैश्या स्वतन्त स्वतन्त्र नारी है” |यह है हमारे तथाकथित सभ्य समाज का असली  चेहरा, जहाँ स्त्री की  अपनी कोई पहचान नहीं उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं,वह व्यक्ति नही है ,स्वतन्त्र होने के लिए उसे वैश्या बनना होगा .यहाँ तो नारी की  झाई पड़त अंधा होत भुजंग है ,नारी नरक का द्वार है .क्या ही तर्कपूर्ण बात है कि हमारे देश की आधी आबादी या तो प्रताड़ित करने योग्य है या फिर देवी बनाकर मंदिरों में सजाने के योग्य .यह सृष्टि इसी आधी आबादी के सहारे चलती है फिर भी वो घृणित हैं अश्लील हैं .स्वयं दोयम दर्जे की  हैं ,उसे तो पितृसत्ता के पैरों में दासी बनकर रहना ही चाहिए .ये एक चीज हैं एक वस्तु हैं जिसे ख़रीदा जा सकता है ,बेचा जा सकता है .वह सम्भोग और संतान की  इच्छा पूरी करने वाली एक मादा मात्र है .सबसे आश्चर्यजनक यह है कि स्त्रियों को बचपन से ही यह पाठ पढाया जाता है कि यही तुम्हारा धर्म है तुम इसी के लिए बने हो और वो इसे सहज स्वीकार भी कर लेती है .लकिन आज स्थितियाँ सिर्फ यही नहीं है.आकडों में गिनती में सही   लेकिन स्त्रियों ने अपनी आवाज उठाई है .अपने लिए समाज में जगह बनाई है ,कई बार समाज के कदम से कदम मिलाया है तो कई बार उसके खिलाफ  बगावत भी की  है .पर यह संख्या इतनी कम है कि बदलाव के लिए अभी और संघर्ष कि जरुरत है.

 लेकिन जब भी हम आदिवासी स्त्रियों के इतिहास के पन्ने पलटेंगे हमे उनकी स्थिति इस से अलग दिखाई देगी वे न तो देवी दुर्गा हैं न ही सम्भोग के लिए मादा मात्र .उनकी पहचान इससे अलग है,पुरुष से अलग उस समाज कि महिलाओं का एक सांस्कृतिक जीवन है जहाँ घर के बाहर के दरवाजे भी उनके लिए खुले हैं जंगल अपनी बाहें फैला कर उनका स्वागत करता है .”वह धान की कटाई के काम पर मान बाजार जाया करती थी .उन दिनों वह धान काटती थी,वन जंगलों में डाव डाव घुमा करती थी “1 |”रोज मुँह अँधेरे वह जाग उठती थी .दातोन मुँह में लगाये किवाड़ की  साँकल चढाकर निकल पड़ती थी घर से ढाई  तीन कोस जमीन पैदल चलकर रोजहा व्यापारी कि तरह दिन भर गली-गली घूमकर सब्जियां बेचना पडता था 2”.  अपनी बची हुई जमीन में रोपनी कटनी से लेकर खलिहानों से अनाज निकालने और उसे बाजारों में बेचने तक का काम स्त्रियां करती हैं .वो श्रम कर सकती हैं मुक्त रूप से पुरुषों से ताल मिलाकर जीवन का उत्सव मना सकती हैं मिजो और नागा लोगों की  संस्कृति इस बात का प्रमाण है ,जहाँ शाम को युवा लड़के लड़कियां एक दूसरे से मिलते हैं ,उनका समाज इस बात को बुरा नहीं मानता,घोटुल कि प्रथा भी आम लोगों को  जो उस समाज का हिस्सा नहीं है उन्हें चौकाने वाली लग सकती है ,जिसमे विवाह योग्य युवक और युवतियाँ घोटुल जाते हैं जहाँ पर विवाहित लोगों का प्रवेश वर्जित है,लड़के,लड़कियाँ एक दूसरे से मिल सकते हैं और अगर इस दौरान कोई युगल साथ रहने का निश्चय कर लेता है तो माता पिता धूम –धाम से शादी करा देते  हैं.दिन भर की  थकान रात के गहराने  के साथ घुघुरुओं की  खनक और ढोलों की  माद में खो जाती है.

 ये  अपनी पसंद का जीवन साथी चुन सकती हैं,अंतरजातीय विवाह कर सकती हैं जिसके लिए उन्हें पंचायत द्वारा लगाये गए जुर्माने की अदायगी करनी होती है .”सुकुरमुनी संथाली है और जाम्बिरा हो ,दोनो का समाज ही एक दूसरे को विवाह की अनुमति नहीं देगा .हमारा हो समाज भी कभी इस विवाह को स्वीकार नहीं करेगा सुकुरमुनी .सुकुरमुनी ने कहा समाज के लोगों के सामने हाथ पाँव जोड़कर आरजू मिन्नत करेंगे ,माफ़ी मागेंगे फिर हर्जाना स्वरुप उन्हें अच्छी तरह से हडिया दारु मुर्गा भात खिला –पिला कर मना लेंगे,…सुकुरमुनी के स्वर में दृढ विश्वास था”3 .“हाथ धोते हुए मार्था ने गहरी सांस ली न तुम दीपक से शादी करती और न हमें यह दिन देखना पडता .कितना समझया था वह घासी है और हम लोग उरांव.समाज नहीं मानेगा  .मानेगा भी,तो भारी जुर्माना लगायेगा,और हम लोग जुर्माना नहीं चुका सकते,पर तुमने नहीं सुना .सुना क्या ?चालीस हजार रुपए बहुत होते हैं ,सो तो ठीक मे.लेकिन सोचो तो आज तक पड़हा ने किसी पर इतना बड़ा जुर्माना लगाया ?नहीं न ?पड़हा पंचो को तो बस हडिया दारु और खस्सी मिल जाए  .इतना बड़ा जुर्माना ? सब महाजन का ही किया धरा है” 4. लेकिन इसके बरक्स जब हम अपने वर्ण आधारित समाज के अंतरजातीय विवाह को रखतें हैं तो आदिवासी स्त्रियों की स्थिति और भी  ज्यादा समझ में आने लगती है  .पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस तरह के विवाह के लिए ’ आनर किलिंग’की प्रथा है  |जिसके तहत लड़की घर की इज्जत है और इस इज्जत को बचाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है |.लड़के को मारा जा सकता है उसके पूरे परिवार की हत्या भी की जा सकती है,बहनों के साथ बलात्कार किया जा सकता है ,उन पर तेजाब फेका जा सकता है .आये दिन अखबार के पन्ने इस तरह की सुर्ख़ियों से भरे पड़े रहते हैं ,और आश्चर्य ये है कि ये सुर्खियाँ अब हमें चौकातीं नहीं ,क्योंकि अब हमे इनकी आदत सी हो गयी है  .आदिवासी स्त्रियाँ दहेज से भी मुक्त है वहाँ वर पक्ष, वधु पक्ष को कुछ मूल्य देता है |’हो ‘जनजाति में वधू मूल्य की प्रथा कों’ गोनांग’ कहते हैं विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से होता है . ’ खड़िया ’  जनजाति में ‘गिनिगंतान’ की प्रथा है ,जिसमे वर पक्ष वधू पक्ष कों मवेशी देता है .इस समाज में तलाक, विधवा विवाह भी मान्य है ,गाँव की पंचायत तलाक की अनुमति देती है .पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी तलाक मिल सकता है ,परस्त्रीगमन,नपुंसकता ,क्रूर अमानवीय व्यवहार ,घर के कामकाज में हाथ न बटाना तलाक के आधार हो सकते हैं|



लेकिन इन् सबके बावजूद आदिवासी समाज में बेटियों को  पिता की सम्पति में अधिकार नहीं है .पुरुष आदिवासी नेतृत्व के एक वर्ग  का मानना है कि पिता की सम्पति में बेटियों को अधिकार मिलने से आदिवासी समाज में गैरआदिवासियों को घुसने कों मौका मिल सकता है .गैरआदिवासी युवक आदिवासी स्त्रियों से शादी रचायेंगे और शादी के बहाने जमीन को हथीयाने की कोशिश  करेंगें .लेकिन स्त्रियों को उनके अधिकार से वंचित रखने का यह एक बहुत ही कमजोर तर्क है .क्योंकि  इन सबके बावजूद आदिवासी जमीन धड़ल्ले से बिक रही है .ये जमीन किस  तरह  से आदिवासियों से हासिल की जाती है ,कैसे सरकारी कानूनों को उखाड़ फेंका जाता है इसका अंदाजा हम सबको है .जो लोग भी ऐसा मानते है उनके लिए एक उदहारण द्रष्टव्य है –“छतीसगढ़ के कोरबा जिले में वीडीयोकान कंपनी को १२०० मेगावाट कों पावरप्लांट बैठाना है उसके लिए कुछ आदिवासी गावों की जमीन हासिल करनी है …तो उसने यह हथकंडा अपनाया .छत्तीसगढ़ के सरकार के एक मंत्री है ननकी राम उनके बेटे हैं संदीप …संदीप को पब्लिक रिलेशन आफिसर बनाया और संदीप ने खुद जाकर उन गावों में आदिवासियों की जमीने खरीद ली,क्योंकि एक आदिवासी आदिवासी की जमीन खरीद सकता है .तो वीडियोकान ने एक आदिवासी  मंत्री के बेटे को ही अपना पब्लिक रिलेशन आफिसर  बनाकर वह जमीन आसानी से हथिया ली….इस तरह के हथकंडों से आदिवासियों की ये जमीने ये बड़ी- बड़ी विदेशी कंपनियाँ हथिया रही है ”5 . इस के लिए क्या आदिवासी स्त्रियाँ जिम्मेदार हैं ?नहीं न .इसलिए  ऐसे तर्क का एक ही मतलब है स्त्रियों कों उनके हक से महरूम रखना जो किसी भी समाज के लिए हितकर नहीं है .जहाँ तक गैरआदिवासी पुरुषों द्वारा आदिवासी स्त्रियों से विवाह करके सम्पति हडपने की बात है तो उसके लिए कानून में कुछ प्रावधान किये जा सकते हैं  मसलन ऐसे विवाह में संपत्ति का अधिकार पिता को ना देकर विवाह द्वारा उत्पन होने वाली संतान को दिया जाये और उसे भी अपनी जमीन किसी गैरआदिवासी को बेचने का अधिकार ना हो  .और ऐसे कानूनों का सख्ती से पालन किया जाये |

इसके साथ ही साथ आदिवासी समाज में कुछ ऐसे क्षेत्र  भी हैं  जहाँ आदिवासी स्त्री  का प्रवेश वर्जित है..हल चलाना,खेतों को समतल करना ,छप्पर छाना ,कुल्हाड़ी चलाना ,कपड़ा बुनना वर्जित है .और तो और डायन प्रथा ने इस समाज को बहुत हानि पहुचाई है .वर्ष 1995  से 1998 के बीच सिर्फ रांची पश्चिमी सिंहभूमि और गुमला में डायन घोषित करके 141  महिलाओं की हत्या करने की घटनाएं प्रकाश में आई है ..”औरत जात खेत में हल चलाई ….ऐसा तो कभी नहीं हुआ … न इस डीह में न किसी डीह …इस डीह को कोई नहीं बचा सकता रे अब  .देवी किसी को नहीं छोड़ेगी |हैजा फैलेगा ,महामारी व्यापेगी इस डीह में अक्सर किसी बूढी या जवान स्त्री को डायन का दोष देकर कोई खाटी बाप का जना मर्द उसकी गर्दन काट कर सदर थानें कटी हुई मुंडी लेकर पहुँच जाता और शान से कबूलता की इसको मने काटा है या फिर बांस की नली से औरत को आदमी का गू घोलकर पिलाया जाता या उसकी आँखे निकल ली जाती…या उसे नंगा कर गाँव भर घुमाया जाता.डायन के आरोप और डायन के प्रति नफरत  आम बात थी”6|


  स्त्रियों की यह स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है .विस्थापन और विकास के खेल ने इन्हें और ज्यादा प्रताड़ित किया है .अपनी व्यवस्थाओं के नष्ट होने का खामियाजा सबसे ज्यादा इन्हें भुगतना पड़ रहा है.अब वह भी अपने परिवार के अन्य सदस्यों की तरह जमीदारों के खेतों खलिहानों में उनके फैक्टरियों में मजदूरी करने को विवश है .हर साल अकेले झारखण्ड से लगभग 1200 लड़कियाँ महानगरों में काम करने के लिए आती है जिसमे कई बार उनके समाज का कोई पुरुष या स्त्रियाँ भी उन्हें  अँधेरी गलियों में धकेलते हैं “और हाँ पहचानों/..जो तुम्हारी भोली –भाली बहनों की आँखों में /सुनहरी जिंदगी का ख्वाब दिखाकर /दिल्ली की आया बनाने वाली फैक्टरियों में /कर रही है कच्चे माल की तरह सप्लाई |”7 औपनिवेशिक  व्यवस्था ने इस प्रक्रिया में आदिवासी स्त्री को  आर्थिक शोषण के साथ ही साथ शारीरिक शोषण के कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है .ईट भट्टों,सड़कों मकानों के निर्माण में जुटी इन् स्त्रियों को जहाँ एक ओर कम मेहनताना मिलता है वहीँ दूसरी तरफ ठेकेदारों,अधिकारियों की तरह तरह की फब्तियाँ,हँसी मजाक डाट फटकार,गालियाँ ओर यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है .तभी निर्मला पुतुल लिखती हैं “कैसा बिकाऊ है तुम्हरी बस्ती का प्रधान/जो सिर्फ एक बोतल वेदेशी दारु में रख देता है /पूरे गाँव को गिरवी /ओर ले जाता है कोई लकडियों के गट्ठर की तरह /लादकर अपनी गाड़ियों में तुम्हरी बेटियों को हजार पांच सौ हथेली पर रखकर /पिछले साल /धनकटनी में खाली पेट बंगाल गई पड़ोस की बुधनी/किसका पेट सजाकर लौटी है गाँव?” 8 .इतना ही नहीं “बबुवानी से सटे घासी लोगों का टोला है बबुवानी के नए उम्र के लौंडों लपाड़ों से लेकर अधेड़ विधुरों तक के लिए इनके घर की बहू-बेटियों की देह मर्दानगी अजमाइश का अखाड़ा हो गयी थी…..पांडे जी को एथेनिक लुक पसंद है ,पंडित आदमी थे…जहाँ कोई अछतयौवना मिलती ,वे बड़े मानोयोग से तंत्र साधना में डूब जाते” 9 .”ऐसे ही अँधेरे और सूनेपन का लाभ उठाकर आदमी के भीतर छुपे हुए धमिनवा ने दो –दो दफे रंगेनी को छानकर गारा है ,तभी से डरती है  रंगेनी अँधेरे से,जो कुछ रंगेनी के साथ बीता था वो किसी औरत के लिए बेहयाई की बात थी .अपनी मर्जी से तो किसी के साथ सो लेती हैं आदिवासिने ,कोई खराब नहीं मानता इसे .पर कोई जोर जबर से किसी को पटककर चढ़ बैठे तो …….”10 .   आदिवासी समाज में स्त्रियों की स्वतंत्रता ओर समानता के जिन बिंदुओं की चर्चा हम कर आयें हैं वो धीरे –धीरे इतिहास में बदल रहें हैं .क्योंकि  आज बदली हुई परिस्थिति में यह समाज भी सामंती मानसिकता का शिकार हो गया है. पितृसत्ता के मुहवारें में बात करना इस समाज के पुरुषों ने भी शुरू कर दिया है ,अपनी ही जाति में विवाह  करना, विवाह में वधू पक्ष की ओर से ज्यादा से ज्यादा दहेज लेना आज आम बात हो गई है.कुछ आदिवासी परिवार जो तथाकथित इस सभ्य समाज का हिस्सा बन गए हैं उन्होंने भी इस समाज के नियमों को अपना लिया है,ऐसे में आदिवासी सामाज की स्त्रिओं की स्थिति निः संदेह समानता के खुले आसमान  से बाहर निकलकर पितृसत्ता के  घेरे में आ रही है  .अगर ऐसा ना होता तो बेटी के जन्म पे –बेटी जनम सोना /धरती सिंगार रे /नारी जनम बेटी,सुखकर सार रे …..गाने वाले आदिवासी आज बेटा पैदा होने पर जिस धाई माँ को दो मन धान देतें हैं उसी धाई माँ को बेटी पैदा होने पर एक मन धान देते हैं .स्त्री पुरुष विभेद की इस मानसिकता के लिए कौन जिम्मेदार है? इसकी पड़ताल बेहद जरुरी है.



 कोई भी समाज बहुस्तरीय होता है जिनमे विभिन्न प्रकार की संस्कृतियां,रीति –रिवाज, ,परम्परायें सांस लेती हैं आदिवासी समाज भी ऐसा ही है .आज आदिवासी समाज में स्त्रियों की स्थिति को जानने के लिए,किसी निर्णय पर पहुचने के लिए हर स्तर को जानना जरुरी है.उन्हें भी जो आज भी अपने जंगलो में अपने सभ्यता को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत है .उन्हें भी( बासी तिरिया ,मीना अनीता कुमारी ,सोभा तिर्की   ) जो अपने घर से बेघर होकर दूर दराज के खानों में अपनी मेहनत के साथ साथ इनके मालिकों के आगे अपने शरीर को जलाने के लिए भी  मजबूर है .ओर उन्हें भी जो आर्थिक स्थिति में आगे बढ़े हुए हैं जिन्होंने समाज में अपनी एक जगह बना ली है .हर स्तर पर स्त्रियों की एक भिन्न स्थिति दिखाई देगी इसका भी ध्यान रखना जरुरी है .किसी भी समाज के अंदर सब कुछ सकारात्मक या सबकुछ नकारात्मक नहीं होता है लेकिन हमारी कोशिश यह  होनी चाहिए की हम दोनों को पहचान सकें ताकि  उसके प्रगतिशील अंशो से कुछ सीखें और प्रतिगामी अंशो को दूर कर के उस समाज को और भी  और स्वस्थ बना सके .इस हमारे समाज से पितृसत्ता के पैरोकारों से एक ही बात कहनी है की अगर आप विकास करना चाहतें है तो आधी आबादी को छोड़ कर यह हर्गिज संभव नहीं.”कभी अकेले में मुक्ति नहीं मिलती /यदि वह है तो सबके ही साथ है”.

सन्दर्भ ग्रन्थ


1. पृष्ट सं०135  आदिवासी कथा ( कहानी संग्रह ) महाश्वेता देवी ,वाणी प्रकाशन संस्करण 2008
2. पृष्ट सं० ,30 पठार पर कोहरा ,राकेश कुमार सिंह ,भारतीय ज्ञानपीठ  संस्करण 2005
3. पृष्ट सं० ,78-79 मरंग गोडा नीलकंठ हुआ ,महुआ माझी ,राजकमल प्रकाशन संस्करण 2012
4. पृष्ट सं०,58-60 ,इस्पातिका आदिवासी विशेषांक जनवरी –जून 2012
5. पृष्ट सं ० 16 इस्पातिका आदिवासी विशेषांक जनवरी –जून 2012
6. पृष्ट सं ०153 ,आदिवासी कहानियाँ,संपादक –केदार प्रसाद मीणा,अलख प्रकाशन    संस्करण 2013
7. पृष्ट सं ० 20  नगाड़े  की तरह बजते शब्द ,निर्मला पुतुल भारतीय ज्ञानपीठ  संस्करण 2005
8. पृष्ट सं ० 20 नगाड़े की तरह बजते शब्द  भारतीय ज्ञानपीठ  संस्करण 2005
9. पृष्ट सं ०49 ग्लोबल गाँव का देवता ,रणेन्द्र,भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण 2010
10- पृष्ट सं०23 ,पठार पर कोहरा ,राकेश कुमार सिंह भारतीय ज्ञानपीठ  संस्करण,2005

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ISSN 2394-093X
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