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एक बड़े रचनाकार हैं जैनेन्द्र .अपने समय के भी और आज के भी. प्रेमचंद्र के साथ और उनके समय के साथ रहकर जैनेन्द्र ने समाज को और व्यक्ति को नयी/भिन्न नजर से देखा है.बगैर किसी बंधन में बंधे हुए सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन प्रेमचंदजिस तरीके से कर रहे थे उसमें कुछ “और” कर गुजरने की गुंजाईश की तलाश की. यही कारण है की जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में प्रेमचंद से वैचारिक समानता रखते हुए भी सर्जनात्मकता का एक भिन्न मार्ग चुना.सामाजिक जकड़न,सामंती संस्कृति की शोषणमूलक प्रवृत्तियों के खिलाफ़ प्रेमचंद्र जो लड़ाई लड़ रहे थे जैनेन्द्र उन्ही के साथ रहकर व्यक्ति की निजी अस्मिता की सुरक्षा का अन्वेषण कर रहे थे. जैनेन्द्र मूलतः चिन्तक थे- मानवीय संबंधों और जीवन व्यवहार सेसम्बद्ध तात्विक प्रश्नों के. व्यक्ति की पूर्णता में समाज की पूर्णता और “सामाजिक” पर“आत्मिक” को प्रतिष्ठित करने वाले जैनेन्द्र की अधिकांश रचनाओं का सरोकार स्त्री-पुरुष संबंधों से जुड़ता है.वे जीवन और साहित्य में बगैर किसी मूढ़ सामाजिक ढांचे और फार्मूले में बधे हुए मानव मन की सहज वृतियों का सरलता से उद्घाटन करते हैं.
काम,प्रेम और परिवार जैनेन्द्र की चिंता के मूल विषय रहे हैं.इन्हीं के आलोक में जैनेन्द्र ने अभिजात समाज के भीतरी खोखलेपन को उजागर किया है और अच्छाई-बुराई दोनों से निर्मित समाज की ठोस नैतिकता को महत्व देना चाहा है. भारतीय समाज की कुटुंब नाम की संस्था में जकड़ी हुयी नारी का जीवन जैनेन्द्र की चिंता का बिंदु वहां बनता है जहाँ माना जाता है की कुटुंब को बनाने और बिगाड़ने की पूरी जिम्मेदा स्त्री की ही होती है.—“पुरुष कुछ नहीं और बिगाड़ता,यहाँ तक की पूरी दुनिया स्त्री की सामाजिक नैतिकता को निर्धरित करने के लिए ही नये-नये नियम गढ़ती है-जनेद्र का यही मानना था. यही कारण है की जैनेन्द्र की कहानियों के“नारी पात्रों की सारी क्लिष्टता या समझ लेने पर सरलता – प्रेम में समर्पण या स्वीकृति का उस मांग से जो कभी उपेक्षित यौवन रस के चलते और कभी मात्र शरीर और संयोग सुख की अभिलाषा के चलते और कभी मात्र शरीर और संयोग सुख की अभिलाषा के चलते मानसिक तनाव बनाये रखती है.”1(कहानीकार जैनेन्द्र अभिग्यनौर उपलब्धि -जगदीश पांडेय) उनकी कहानियों-“जान्हवी”,”त्रिवेणी”,”पत्नी”,”दो सहेलियां” आदि में स्त्री अपने स्वाभाविक इक्छा,आकांक्षा और अधिकार की मांग करने वाली नारी के रूप में सामने आती है.जैनेन्द्र की इन कहनियों में घर है –उसकी छत है,खुला आकाश है,उन्मुक्त पक्षी है,शहर के एक ओर का तिरस्कृत मकान,चूल्हा है,चूल्हे का धुआं है,अँधेरा है और भगवान् को कोसने वाला वह वाक्य है की “भगवान,तूने औरत को क्यों जन्माया?”2 जैनेद्र की कहानियों के नारी पात्र अपने पति को उपदेशक और कामुक क्रांतिकारी सामाजिक तथा नौकरी –शुदा होने के अतिरिक्त उसे किसी “और” अवस्था में देखने के लिए तडपती है. थोड़े गिले-शिकवे के साथ उसमें जी लेने की चाहत है.और साथ ही जीवन की हौस को बुझते न देने का गहरा आत्मबल भी.वह प्रेम की भूखी है,पुरुषों की तरह प्यार को सिर्फ़ फुरसत की चीज नही मान पाती है.
जहाँ तक प्रश्न जैनेन्द्र की कहानियों में स्त्री विमर्श का है तो कहा जा सकता है कि भारतीय समाजिक जीवन का आधार ‘कुटुंब ’ नाम की संस्था में जकड़ी हुई नारी ही जैनेन्द्र के केन्द्र में है और जहाँ कुटुंब को बनाने-बिगाड़ने का पूरा दायित्व स्त्री का है-‘पुरूष कुछ नही‘ बनाता-बिगाड़ता। धर्म और सभ्यता, यहाँतक की ‘दुनिया स्त्री पर टिकी है। यही कारण है कि ‘‘जैनेन्द्र के नारी-पात्रों की सारी क्लिष्टता या समझ लेने पर सरलता – प्रेम मे समर्पण या स्वीकृति का उस माॅग से है जो कभी अपेक्षित यौवन रस के चलते और कभी मात्र शरीर और सहयोग सुख की अभिलाषा के चलते मानसिक तनाव बनाये रखती है”. (कहानीकार जैनेन्द्र – अभिज्ञान और उपलब्धी – जगदीश पाण्डेय) उनकी कहानियों – ‘जान्हवी‘ ‘त्रिवेणी‘ ‘पत्नी‘ ‘दो सहेलियाँ’आदि में स्त्री अपनी स्वाभविक इच्छा, आकांक्षा, अधिकार की मांग करने वाली नारी के रूप मे सामने आती है। जैनेन्द्र की इस कहानियों में ‘घर‘ है- उसकी छत है, खुला आकाश है, उन्मुक्त पक्षी है। शहर के एक ओर का तिरस्कृत ‘मकान‘ है, चूल्हे का धुआ है, अॅधेरा है और भगवान को कोसने वाला वह वाक्य है कि ‘भगवान, तूने औरत को क्यों जनमाया ? जैनेन्द्र की नारी पात्र अपने पति को ‘उपदेशक‘ और ‘कामुक‘ क्रान्तिकारी‘ समाजिक तथा नौकरी – शुदा होने के अतिरिक्त उसे ‘किसी और अवस्था‘ में देखने के लिए तड़पती है। थौड़े-गिले-शिकवे के साथ उसमे जी लेने की चाहत है। और जीवन की हौस को बुझते न देने का गहरा आत्म-बल। वह प्रेम की भूखी है, पुरूषों की तरह प्यार को सिर्फ फुरसत की चीज वह नहीं मान पाती है। ‘विवाह‘ और प्रेम का सवाल भी जैनेन्द्र की चिन्ता के मूल प्रश्नों में है। वे विवाह को दो व्यक्तियो का सम्बन्ध नही मानते वे उसे समाज की ग्रन्थि मानते है। विवाह उनके लिए ‘भावुकता का प्रश्न नही, व्यवस्था का प्रश्न है।‘ इसे जैनेन्द्र के स्त्री सम्बन्धी का कम जोर पक्ष कहा जाना चाहिए। आखिर छायावाद और उसके बाद का वह दौर जब नारी मुक्ति की हवा जोरों से चल रही थी, जैनेन्द्र के यहाँ वह ‘व्यवस्था का प्रश्न‘ में बॅध क्यों गई? यह विचारणीय है। नारी क्यों नियति पर टिकी रह गई? जैनेन्द्र ‘त्यागपत्र‘ में लिखते है – ‘‘दान स्त्री का धर्म हैै। नहीं तो उसका और क्या धर्म है? सवाल यह है कि जैनेन्द्र नारी मन की संवेदना को जानते हुए भी आखिर उसे प्राकृतिक रूप से इसी लायक क्यो घोषित कर देते है?
जैनेन्द्र की कुछ कहानियों में ‘पति-पत्नी और ‘वह‘ का त्रिकोण है तो कुछ में स्त्री-पुरूष के आपसी रिश्तों से उपजी नारी मन की झुंझलाहट। ‘पत्नी‘ (1940) और ‘त्रिवेणी‘(1935) दोनों कहानियाँ लगभग एक जैसी नारी की कथाएं है। ‘पत्नी‘ की पत्नी सुनन्दा अपने पति कालिन्दी चरण की सेवा ‘भारतीय नारी-विधान‘ की तरह ही करती है। लेकिन उसे अपने जीवन के दिनों में अलस भाव से केवल यही सोचने को रह गया है कि (जिन्दगी के) कोयले बुझ न जाये। वह जिनकी अर्धांगिनी है उसी का उत्साह उसे समझ में नही आता। परतंत्रता (सदियों की) की बेड़ियों में जकड़ी इस नारी को (सुनन्दा को) भारत माता की स्वतंत्रता की बात समझ में नही आती है। ‘वह कम पढ़ी-लिखी है, लेकिन उसमे उसका क्या कसूर है? कहकर जैनेन्द्र पूरी सामाजिक व्यवस्था को कटघरे मे खड़ा करते है। घर मे ही बेगानी बन गई नारी की कहानी है- ‘पत्नी‘। किसी ने सही लिखा है-‘‘सुनन्दा का पति परदेश मे नही है, वह घर पर ही है। वह चौकेकी वेबा है, र्निजीव चीजों के बीच ही सुनन्दा की दुनिया बसती है। उसकी ट्रेजडी मे कोई काव्यत्व नही, नाटकीयता नही, नित्य प्रति का मौन मरण है। जहाँदुख एक दिन का नही रोज का है। ध्यान रहे! यह अज्ञेय का ‘रोज‘ नही है। यहाँ अज्ञेय के नीरस, यान्त्रिक विघटनोन्मुख जीवन का रूप नही है- यह तो जैनेन्द्र का अपनी परंपरा मे दो दम्पत्तियों के अनबन की कहानी है, जिसमे चाह और खीझ दोनों दबायी जाती है। खीझ तो कभी प्रकट हो जाती है, लेकिन तब असल चाह पर परदा पड़ जाता है। एक ओर उपेक्षा लेकिन दूसरी ओर मनुहार की भूख है।‘‘ यहाँ जैनेन्द्र यह दिखाने मे सफल है कि ‘क्रान्ति‘ घर के बाहर ही होती थी, यह भी चित्रित करने मे सफल है कि नारी मुक्ति का आन्दोलन घर के भीतर नही चल रहा था। वह मात्र छलावा था, नारी अब भी पिंछड़े मे बंद थी। वे यह भी बताते चलते है आन्दोलन का जिम्मा किस तरह घर के भीतर कैद रहने वाली नारियां उठ रही थी। इस कहानी मे नारी अपने ‘तनिक-सा‘ मान की तलाश करती है यहाँ वह भी कुचल उठा। लेकिन फिर भी सुनन्दा-‘मेरी तो खैर कुछ नही, पर अपने तन का ध्यान रखना चाहिए।‘ की कामना अपने पति से करती है। इस कहानी मे-बच्चो की तरह झगड़ा है, मगर बड़ों की तरह विचार, पति के स्वास्थ्य की चिन्ता है, पति कुछ भी करे, उसमे विश्वास भी है, पति कम से कम पूछॅ तो लिया करे बस इतनी सी ही ललक है।
‘पत्नी‘ यदि दो (सुनन्दा और कालिन्दी चरण) के बीच की अबूझ प्रेम कहानी है तो ‘त्रिवेणी‘ (1935) वैवाहिक जीवन की जकड़ बंदी को उजागर करने वाली कथा। कहानी के दो भाग है पहले मे यथार्थ है दूसरे मे पश्चाताप। पहले मे जिन्दगी के चूल्हे की मंद आंच है, वैवाहिक जीवन मे ‘मध्यान्ह का प्रखर ताप है, यहाँ क्षण-क्षण पर बगूले उठ रहे है। दिन काटे जा हे है। जिन्दगी की गाड़ी चू-चू कर चल रही है। जीवन मे रस नही है। पति-पत्नी है, बच्चा भी है, लेकिन जीवन का सार तत्व वहां गायब है। कहानी का दूसरा भाग वह है जहाँ पहले का दुःख उसे पाप लगता है। प्रेम की तरसती त्रिवेणी यहाॅ भोजन बनाने को तैयार है। यहाँ नारजगी नही है और ऋण मांग लेने का साहस है। एक नीरस होते जीवन मे प्रेम को (विवाह से ऊपर) एक निर्णायक तत्व के रूप मे जैनेन्द्र यहाँ प्रस्तुत करते हैं। कहानी का आरम्भिक विद्रोह अन्त मे पश्चाताप क्यो बन जाता है? और स्त्री भारतीय पतिव्रता आर्दश का चोला पहन लेती है। चंचलता और संकोच बगैर ‘प्रेम’ तत्व के किस प्रकार जिन्दगी को उबाऊ बना देते है। जैनेन्द्र इसकी पड़ताल करते यहाँ जान पड़ते है।
पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और जैनेन्द्र (विशेष सन्दर्भ-‘पत्नी’ कहानी)
‘जान्हवी‘ कहानी मे किसी को छायावाद की ‘छाया‘ दिख सकती है। और कमोवेश इससे सहमत भी हुआ जा सकता है लेकिन कहानी उससे आगे भी बहुत कुछ कहती है। ‘प्रेम‘ और ‘विवाह‘ के सवाल को जैनेन्द्र ने इस कहानी मे भी नारी मुक्ति के प्रश्न के रूप मे प्रस्तुत किया है। लेकिन हमेशा की तरह जैनेन्द्र की नारी पात्र यहाँ भी किसी तरह का सामाजिक विद्रोह नही करती है। जान्हवी अपने मंगेतर ब्रजमोहन के पास पत्र भेजकर अपने पूर्व प्रेम की सूचना देती है। वह कहती है-‘आप जब विवाह के लिए यहाँ पहुचेंगें तो मुझे प्रस्तुत भी पायेगें विवाह जैसे धार्मिक अनुष्ठान की पात्रता मुझमे नही है। एक अनुगता आपको विवाह द्वारा मिल जायेगी। पर चाहिए की वह जीवन-संगिनी भी हो। वह मै हूँ या हो सकती हूँ.इसमे मुझे बहुत संदेह है। विवाह मे आप मुझे लेगें और स्वीकार करेंगे तो मे अपने आप को दे ही दूँगी, आपके चरणों की धूल माथे से लगाऊॅगी। आपकी कृपा मानूंगी । कृतज्ञ होऊॅगी। पर निवेदन है कि यदि आप मुझ पर से अपनी मांग उठा लेंगे, मुझे छोड़ देंगे, तो मैं और भी कृतज्ञ होंऊॅगी। निर्णय आप के हाथ है। जो चाहे, करे।‘‘ सामाजिक मान्यताओं के बीच जकड़ी जान्हवी जहाँ पढ़ी-लिखी सब की जात एक ही मानी जाती है- लड़की अपने प्रेम का प्रदर्शन/अभीव्यक्ति नही कर सकती है। तथा कथित ‘सामजिकता‘ के ठेकेदारों से वह अन्त तक कहती है- ‘‘दो नैना मत खाइयो‘‘। मत खाइयो – पीउ मिलन की आस!‘‘ मृणाल की तरह अनकहे रूप में वह भी चिड़िया होना चाहती है। पुरूष प्रणान समाज को इसमें कोई आपत्ति नहीं बशर्ते उसे पिजंरे (सामाजिक) में रहना स्वीकार हो।
सन् 1960 में लिखी कहानी ‘दो सहेलियाँ’ भी कुछ ऐसी ही समस्याओं को सामने लाती है। जसुदा और बसुदा की आधी जीवन यात्रा के बीच विवाह और प्रेम के सवाल को जैनेन्द्र ने पढ़ी-लिखी तथा नौकरी-शुदा नारी की पीड़ा के रूप में प्रस्तुत किसा है। सन्तुष्ट दोनों नहीं है अपने पति तथा अपने समाज से, नारी यहाॅ प्रेम के त्रिकोण पर जिन्दा है। जिसे वसुदा ने बयां कर दिया है -‘‘ तुम न कभी पति की बात करेगी, न उस चेहरे की बात करोगी जो मेरे सारे कष्टों का कारण रहा। उसका प्यार न होता तो मैं तनिक से ही कष्ट में कभी की अडिग चुकी होती और जब तक बड़े आराम से होती।‘‘ इसमें भी नारी अपने को मार कर जीवित रहती है। ‘मन के छलावे में रहने से फायदा नहीं है। मन मार कर ही रहना हो पाता है।‘‘ नारी ने स्वच्छन्द जीवन नहीं देखा, लेकिनयह उसकी आदत का हिस्सा बन गया है। बसु अपने पति से संतुष्ट नहीं है डाªइवर की जगह उसने पति को रखकर घाटे का सौदा क्या सचमुच नहीं किया है। उसका पति उसकी जिन्दगी की गाड़ी का डाªइवर नहीं है- ‘मर्द एक काम में मर्द हो तो उतने से तो चलता नहीं है। बाकी जिन्दगी में भी तो उसे ‘मर्द‘ होना चाहिए।‘ औरत अपनी स्थिति से अवगत है पुरूष कुछ भी करे उसे तो पूरी छूट है लेकिन औरत को, तो मन मार कर ही जीना होता है -‘‘मरद का दिल शीशा होता है। जरा में तरेड़ खा जाता है। मरद तो मरद है। आखिर बिगाड़ तो औरत को भोगना होता है। बे सहारा वही बनती है।‘‘ सच को कहने की छूट और सुनने का साहस समाज में कहाॅ ? जैनेन्द्र ने अन्यन्त्र कही लिखा है कि ‘‘प्रेम जीवन को बहलाने की वस्तु तो बन सकती है, लेकिन जीवन उसके लिए स्वाहा नहीं किया जा सकता। जीवन तो दायित्व है और विवाह वास्तव में उसकी पूर्णता की राह – उसकी शर्त।‘‘
सूरजमुखी अँधेरे के” की नायिका का आहत मनोविज्ञान
जैनेन्द्र के नारी पात्र उनके इसी वक्तव्य पर साइन कर अपने को पुरूष समाज के शोषण से मुक्त कर पाने में असफल रहती है। अत्यधिक नैतिकता वैवाहिक जीवन मे एक स्त्री को कुंठित कर देती है। छः बच्चों की माँ बन चुकी स्त्री उजाले मे पति को ‘सत्यार्थ-प्रकाश‘ के रूप में ही क्यों देखती है। पति का प्यार उसने दिन मे देखा ही नहीं। स्त्री अपने पति को प्रेम के रूप मे देखना चाहती है लेकिन उसने उपदेशक और कामुक के अतिरिक्त कोई और अवस्था देखी ही नही। ‘क्या है स्त्री, क्या है अर्थ, क्या है व्यवसाय ? जैनेन्द्र की नारी को यह सब माया का प्रपंच लगता है।तमाम कष्टों को सहकर अपने पति को इन कष्टों की फिक्र से दूर रखने की कोशिश यहाॅ भी है घर से बाहर बिना बताये निकलने की मनाई भी है साथ मे है पुरूष वादी मानसिकता का वह बंधन जिसके लिए नारी सिर्फ नारी है। इस प्रकार ‘दो सहेलियाँ‘ जैनेन्द्र की नारी जीवन को बेढ़ब जिन्दगी को उजागर करने वाली ऐसी कहानी है जिसमे संवेदनाओ, को मोथरा बना दिया है समाज ने और उसकी झूठी नैतिकता ने ! जैनेन्द्र की नारी जिस तरह ‘त्यागपत्र‘ में समाज को नहीं तोड़ती, वैसे ‘दों सहेलियाँ‘ में भी। वैसे भी जैनेन्द्र तोड़ने के नही जोड़ने के हमेशा कायल रहे है बावजूद कुछ कमजोरियो के। ‘‘उनकी रचनाओं में जिस रास्ते से समाज परिवर्तन की ध्वनि उठती है, वह हृदय-परिवर्तन का रास्ता है। त्याग उनके पात्रों का सबसे बड़ा गुण है, वे दूसरे को तकलीफ पहुचाना तो दूर होम होना जानते हैं-बलिदान, उत्सर्ग की भावना उस समय वातावरण मे थी।‘‘1 इसलिए कोई उन पर गाधीवाद का प्रभाव देखना चाहे तो देख सकता है।
जैनेन्द्र की नारी-दृष्टि पर बात करते हुए हमें जैनेन्द्र के युग का और अपने युग दोनों का ध्यान रखना चाहिए। साथ में जैनेन्द्र के उन विचारों को भी जिन्होंने उनको नारी जीवन की संवेदना को जानने-समझने की शक्ति दी। जैनेन्द्र के नारी-मत परम्परागत हैं, उनमें समाज धर्म के चलते व्यक्ति (नारी) की प्राकृतिक अवस्था ही दान-धर्म के रूप में मान ली गयी है जो कि जैनेन्द्र के विमर्श का एक कमजोर पक्ष कहा जा सकता है। उनकी नारी बंधनों में बंधती चली जाने वाली, अदम्य आत्मबल रखने वाली, ईमानदार, भारतीय सतित्व आदर्शों को पालने वाली है। आज के प्रगतिशील समीक्षक उनके ‘प्रेम‘ ओर ‘विवाह‘ जैसे मुद्दों पर सवाल उठा सकते है कि । क्या प्रेम गुनाह है? क्या विवाह सिर्फ समाज की ही गाठ है? व्यक्ति की अपनी चाह का कोई योग उसमें नही है। जैनेन्द्र कुमार की चिन्तन प्रक्रिया इसी देश की परंपराओं और संस्कृतियों के समेकित ज्ञान से निर्मित हुई है‘‘। 2 अतः आज की प्रगतिशीलता के बरक्स जैनेन्द्र समय के साथ हैं। श्रीकांत वर्मा ने ठीक लिखा है- ‘‘जैनेन्द्र कुमार की सबसे बड़ी देन है, स्त्री की सामाजिक स्थिति और नियति की परिभाषा। स्त्री-पुरूष संबधों को लेकर तो जैनेन्द्र कुमार के पहले भी लोगों ने लिखा और उसके बाद भी लागों ने लिखा है लेकिन स्त्री की सामाजिक स्थिति पर और उनकी नियती पर सिर्फ एक ही लेखक ने लिखा है, हिन्दी में और वे है जैनेन्द्र कुमार।‘‘ (जैनेन्द्र की आवाज, सम्पादक अशेक बाजपेयी, पृष्ठ-40) प्रेम को जिस तरह का ‘प्रगतिशील‘ समाज ‘ईश्वर‘ की चीज मानता है। कृष्ण राधा से खुलकर प्रेमालाप ही नही ‘रासलीला‘ भी रचाते है लेकिन यदि मनुष्य ऐसा करता है तो वह व्यभिचार क्यों हो जाता है। ‘मीरा‘ को पहली विद्रोही स्त्री मानने वाले क्या खुद के परिवार की लड़की का मीरा हो जाना स्वीकार कर सकेगें? ध्यान रहे जैनेन्द्र कागजी कलाबाजी में नही आये। जिस समस्या का समाधान व्यापक समाज में सम्भव न हो उसको साहित्यिक समाधान के रूप में पेश करने से क्या फायदा?
चैखव में कहीं लिखा है- बड़े रचनाकार का कार्य समाधान देना नही, समस्याओं को सही तरीके से रखना होता है। ‘जैनेन्द्र कुछ इन्ही‘ अर्थों में सफल है। डा0 निर्मला जैन लिखती है- ‘‘जैनेन्द्र के लिए निदान से ज्यादा महत्वपूर्ण है‘‘। 3 ‘‘नारी-पात्रों की सारी विविधताओ को एकत्रित किया जाये तो कृतिकार जैनेन्द्र की ओर से एक ही संकेत है कि नारी कोई रूढ़ प्राणी नही जो जन्म-जन्मान्तर से एक ढर्रे पर चलती चली आयी हो, नारी में यौवन का मद है, आवेश है, जो जीवन भर व्यभिचारी पति से परित्क्त होने पर, जी लेनी की सहिष्णुता भी है।‘‘ (‘कहानी कार-जैनेन्द्र-अभिज्ञान और उपलब्धि‘-लेखक-जगदीश पाण्डेय) आज ‘स्त्री-विमर्श‘ के दौर में जैनेन्द्र पर भले सवाल उठाये जाये, लेकिन परतंत्रता के काल में जैनेन्द्र ने सामाजिक विषयों से अलग नारी के वैयक्तिक सुख दुःख की जो समीक्षा की वह कही न कही आज के स्त्री विमर्श से जुड़ जाता है। समाज को बदलने के हिंसात्मक तरीके के जैनेन्द्र कायल नही। परिवर्तन ऐसा कि लोगों को किसी भी तरह खदेड़ा, कुचला या अपनी जगह पर खचोटा न जाए, बल्कि समझाने के रास्ते, त्याग और साझेपन के जरिये, नम्र और विनीत ढंग से मनवाकर परिवर्तन लाया जाए। जैनेन्द्र का ‘स्त्री-विमर्श‘ भी उनके इसी नम्र और विनीत ढंग से चलने वाला एक घरेलू आन्दोंलन है। जैनेन्द्र ने आज के लिए भूमि तैयार की इसमे कोई संदेह नही।
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