खुदमुख्तार स्त्रियों का कथा -वितान: अन्हियारे तलछट में चमका

विकल सिंह


‘अन्हियारे तलछट में चमका’ कहानीकार अल्पना मिश्र का पहला उपन्यास है.यह उपन्यास समाज में स्त्रियों की स्थिति को तो रेखांकित करता ही है, साथ ही उनके शोषण के नये सूत्रों को भी प्रस्तुत करता है.जहाँ एक ओर उपन्यास में लेखिका ने स्त्री की परम्परागत छवि को तोड़ते हुए स्त्री आत्मनिर्भरता के पक्ष को उजागर किया है, वहीं  स्त्री के आत्मनिर्भर होने के बावजूद उसे आर्थिक स्वतंत्रता न मिल पाने जैसे पक्ष को भी प्रस्तुत करना नहीं भूली हैं.इस दृष्टि से यह उपन्यास और भी महत्वपूर्ण हो जाता है.यह सच है कि आज स्त्री को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता तो मिलने लगी है, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता अब भी नहीं मिल पाई है .‘अन्हियारे तलछट में चमका’ मुख्यतः चार स्त्रियों बिट्टो की माँ, बिट्टो, मुन्ना बो (सुमन) और ननकी के माध्यम से व्यक्त संघर्षरत औरतों की कहानी है.इस पुरुष प्रधान समाज में स्त्री किस प्रकार उपेक्षित है? अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए उसका जीवन किस प्रकार संघर्षमय बना हुआ है? क्या स्त्री का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाना मात्र उसकी स्वतंत्रता का पर्याय माना जाना चाहिए, जबकि उसे आर्थिक स्वतंत्रता न मिल पाई हो? इन सब पहलुओं को अल्पना जी ने इस उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ के माध्यम से प्रस्तुत किया है.

 स्त्री को इस पुरुष प्रधान  समाज में एक वस्तु के रूप में देखा जाता रहा  है .अपने-आप और अपने लिए जीने का अधिकार स्त्री को नहीं है.वैवाहिक जीवन में तो ये बात और भी स्पष्ट हो जाती है.उपन्यास की स्त्री पात्र ‘सुमन’ को अपनी ससुराल में अनेक प्रकार की यातनाओं का सामना करना पड़ता है, बिना किसी अपराध के उसका पति ‘मुन्ना’ गाली-गलोज करते हुए उसे बेरहमी से पीटता है.यह सिर्फ एक सुमन की आपबीती नहीं है, बल्कि न जाने ऐसी ही कितनी असहाय स्त्रियों की कथा-व्यथा है जो इस पुरुष वर्चस्ववादी समाज में दम तोड़ती नजर आती हैं.स्त्री पर होने वाली ज्यादती को उपन्यास के इस प्रसंग के माध्यम से समझा जा सकता है- “अरे बाप रे, अरे राम, बचाओ .अरे मुन्ना इ का कर रहे हो ? काहे हमारी जान पे पड़े हो ?…फिर जोर-जोर से चीखीं .उनकी चीख कहीं तक जा रही थी, इसका भरोसा खुद सुमन को नहीं था .अलबत्ता उनकी चीख पर तड़ तड़ चार-छः झापड़ मुन्ना जी जड़ते जाते।”1 बिना किसी अपराध के सुमन को अपनी ससुराल में अपने पति द्वारा इस प्रकार प्रताड़ित और अपमानित करना पुरुषवर्चस्ववादिता के घिनौने रूप का एक प्रमाण है, जिसे स्त्रियाँ चुपचाप वर्षों से सहन करती आई हैं.

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 यह विडम्बना ही रही है कि स्त्रियाँ अपनी अस्मिता के बचाव के प्रति अधिक सक्रीय नहीं रही हैं.यदि वह संगठित होना चाहें तो भी नहीं हो सकती हैं.ऐसा करने पर उनके वापस आने के दरवाजे बंद हो जाते हैं.घर-परिवार और समाज में उनकी असुरक्षा की स्थिति और भी बढ़ जाती है.बावजूद इसके वर्तमान परिदृश्य में अपने शोषण के प्रति स्त्रियों में प्रतिकार की भावना का स्वर तीव्र हुआ है.इस उपन्यास में यह दिखाया गया है कि ‘सुमन’ अपने पति के द्वारा दिए दुःख और अपमान को चुपचाप सहन नहीं करती वह इसका विरोध करती है.स्त्री प्रतिरोध का तीव्र स्वर उपन्यास के इस प्रसंग के माध्यम से देखा जा सकता है- “पिशाच आदमी है, नर पिशाच है ! औरत को इंसान नहीं समझता है.औरत क्या है? देह भर है? जैसे चाहा मसला, रौंदा? जो चाहा किया? औरत आवाज उठा दे तो बहुत बुरी.प्रेम न किया गुनाह कर दिया.उसी की सजा काट रही हूँ.घर से भागने का कोई रास्ता मिलता तो वही चुनती, काहे इस जंजाल में पड़ती.लेकिन मति मारी गई थी.तुम्हीं मिले इस दुनिया में हमें? ला के नरक में झोंक दिये.अरे, इससे अच्छा तो भीख माँग लेते, जहर खाके मर जाते.जानते तो कभी ऐसा न करते।”2 स्पष्ट है कि अब स्त्री पहले की अपेक्षा अपने अधिकारों और शोषण के प्रति सचेत हुई है.पहले जहाँ स्त्री इसे अपनी किस्मत या नशीब मानकर चुपचाप सहन कर लेती थी, वहीं अब वह उसका प्रतिरोध करने लगी है.स्त्री का यह प्रतिक्रियावादी कदम उसकी स्वतंत्रता का परिचायक सिद्ध हो सकता है, ज़रूरत है तो सिर्फ दृढ़ संकल्प और मजबूत इच्छाशक्ति से पुरुषवर्चस्ववादी इन गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की.

उपन्यास में सुमन ही नहीं बल्कि बिट्टो और उसकी माँ भी स्वयं के प्रति सचेत हैं, उनमें प्रतिकार की भावना है.तमाम हाशियों, घेरों व परिधियों को तोड़कर केन्द्रीय स्वतंत्र स्थान प्राप्त करने के लिए वह दृढ-संकल्प हैं और इसके लिए वह निरंतर संघर्षरत हैं.स्त्रियों का शोषण होना  इस पुरुष सत्तात्मक समाज में आम बात रही है.शोषण का आधार भले ही अलग-अलग हों.इस सन्दर्भ में लमही पत्रिका के संपादक विजय राय पत्रिका की सम्पादकीय में लिखते हैं-“स्त्रियों का शोषण किसी एक व्यक्ति की समस्या नहीं है.स्त्रियों का शोषण संस्थाबद्ध तरीके से पुरुषों द्वारा होता रहा है.चाहे वह सवर्ण समाज हो, चाहे वह दलित समाज हो-दोनों में स्त्रियों का शोषण समान रूप से प्रचलित है।”3 यह बड़ा ही दुःखद है कि समाज का कोई भी वर्ग-समुदाय क्यों न हो, लेकिन स्त्री का शोषण सभी जगह होता रहा है.पहले जहाँ स्त्रियों को घर की चार-दीवारी में रखकर शिक्षा से वंचित रखा जाता था अब वहीं उसे थोड़ी स्वतंत्रता जरूर मिली है.आज समाज में स्त्री को शिक्षा के अवसर मिलने लगे हैं.शिक्षित होकर अब वह असहाय होने की बजाय दूसरों का सहारा बनने लगी है.बावजूद इसके स्त्रियों की स्थिति आज भी इस पुरुष सत्तात्मक समाज में बदली नहीं है.पहले जहाँ स्त्री-जीवन आर्थिक स्वावलंबन के लिए संघर्षमय था, वहीं अब आर्थिक स्वतंत्रता के लिए.आज भी स्त्रियाँ अपनी कमाई अगर अपने हाँथ में रखना चाहें तो उन्हें हिंसा, प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है.अधिकांश ऐसी कमाऊ बहुएँ हैं जिन्हें अपनी कमाई लाकर ससुराल वालों को देनी पड़ती है, ऐसा न कर विरोध जताने पर उनके साथ मारपीट शुरू कर दी जाती है.उनका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता, अपनी ही कमाई पर अपना हक़ नहीं होता, बल्कि अपनी जरूरतों के लिए भी उन्हें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है.स्त्री की अपनी कमाई पर स्वंम उसका अधिकार न होना एक बिषम परिस्थिति है.इस सन्दर्भ में बिट्टो की माँ से सम्बंधित उपन्यास का यह प्रसंग दृष्टव्य है– “गहन जरूरत के बावजूद उन्हें अनिवार्य रूप से अपनी तनख्वाह लाकर हर महीने पिता जी के सामने स्टूल पर रखनी पड़ती थी.शायद पहले, जब हम कुछ छोटे थे, तब उन्हें तनख्वाह रखकर चरण भी छूना पड़ता था.बाद में हम बहनों के बार-बार टोकने पर माँ ने चरण छूकर आशीर्वाद लेना बंद कर दिया.उससे भी पहले उन्हें दादी के चरण के पास रुपया रख कर पांव लगी करके आशीर्वाद लेना पड़ता था।”4 इस उपन्यास के माध्यम से हम स्त्रियों की इस समस्या पर भी विचार कर सकतें है कि मात्र आर्थिक स्वावलंबन ही उनकी मुक्ति का हथियार नहीं बन सकता है, हाँ कुछ हद तक उन पर हो रही प्रताड़नाएँ जरूर कम हो सकती हैं.आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाओं को ऐसी स्थितियों का सामना तब तक करना पड़ेगा जब तक कि उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो जाती.आर्थिक स्वतंत्रता को नारी स्वतंत्रता का पर्याय माना जा सकता है क्योंकि जब तक वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं होगी, दूसरों पर निर्भर रहेगी.जब स्त्री अपनी कमाई का स्वतंत्रतापूर्वक उपयोग स्वयं के लिए करने में सक्षम हो जाएगी तभी स्त्री का आर्थिक स्वावलंबन उस पर हो रहे शोषण से मुक्ति दिलाने में सहायक सिद्ध होगा.वह तभी पति की दासता से मुक्ति हो सकेगी.इस पुरुषसत्तात्मक विचारधारा का विरोध करते हुए जे. एल. रेड्डी ‘आजकल’ पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख ‘स्त्री-विमर्श के पुरोधा चलम्’ में लिखते हैं- “स्त्री के लिए पति की दासता से बचने का एक ही उपाय है, और वह है आर्थिक स्वतंत्रता.पुरुष स्वेच्छा और ऊच्छृंखलता के साथ जी रहा है.स्त्री को भी ऐसी आजादी होनी चाहिए.पति को चाहिए कि वह पत्नी को अपनी निजी संपत्ति न माने।”5 स्पष्ट है कि स्त्री को आर्थिक स्वावलंबन के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता भी मिलनी चाहिए.तभी उसका शिक्षित और आत्मनिर्भर होना सार्थक सिद्ध होगा.

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बिट्टो की माँ अपने गाँव की पहली ग्रेजुएट थीं.उनके पति पढ़ी-लिखी लड़की से शादी का पूरा फायदा लेना चाहते थे जिसके कारण वह बिट्टो की माँ को नौकरी पकड़ लेने पर जोर देते थे.परिणामस्वरूप बिट्टो की माँ को सरकारी प्राइमरी पाठशाला में नौकरी मिल जाती है.इससे बिट्टो की माँ की स्थिति में कोई सुधार नहीं होता.वह कमाकर लाती और सारे पैसे उसे अपने पति को देने पड़ते, उन पैसों का उसे कोई लाभ नहीं मिलता.कमाकर लाने पर भी घर का खर्च ठीक से न चल पाने का क्षोभ उसे निरंतर सताता रहता.जब बर्दाश्त की सारी हदें पार हो गयीं तो एक दिन वह इसका विरोध करती है.इस सन्दर्भ में उपन्यास का यह प्रसंग दृष्टव्य है- “दूसरे का रुपया तो नहीं मांगती? अपना ही मांगती हूँ तो नहीं देते.कौन सा अपना पेट भर लूँगी? एक टेबुल खरीदनी है.कोई घर आ जाये तो अच्छा नहीं लगता.माँ बड़बड़ाती जातीं और बर्तन घिसती जातीं.पिता जी माँ का बड़बड़ाना सुन कर टालते जाते.बाहर अपने मित्रों से कहते-‘कमाने भेजो तो औरत हाँथ से निकलने लगती है.रात-दिन चिक-चिक मचाती है.साला, रुपया न लाई, जेवरात लाई है ! घर की जरूरत न होती तो कौन भेजता?”6  ऐसे अमानवीय व्यवहार स्त्री के साथ हमेशा से ही होते रहे हैं.पुरुष-प्रधान समाज ने स्त्री को शिक्षित और आत्मनिर्भर होने के लिए कुछ हद तक स्वतंत्रता तो दी लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता उन्हें नहीं मिलने दी.यहाँ यह बात भी विचारणीय हो जाती है कि इस समाज द्वारा स्त्रियों को शिक्षित और आत्मनिर्भर होने के लिए जो स्वतंत्रता दी गई, वह कहीं न कहीं अपने स्वार्थवश.उपर्युक्त प्रसंग का यह वाक्य ‘घर की जरूरत न होती तो कौन भेजता?’ इसकी पुष्टि करता है.

 एक स्त्री जो पत्नी के रूप में अपना घर-परिवार सब कुछ छोड़कर ससुराल आती है, वहाँ उस पर हो रहे अत्याचार और उसका शोषण उसकी दयनीय स्थिति बयाँ करते हैं.क्या यह अशोभनीय व्यवहार एक स्त्री के लिए न्यायसंगत है? यह पूरे पुरुष सत्तात्मक विचारधारा वाले समाज के लिए एक प्रश्न है.स्त्री की इस दयनीय स्थिति को देखकर नगमा जावेद की ये पंक्तियाँ स्वतः ही स्मरण हो आती हैं, जिन्हें वो अपनी पुस्तक ‘हिंदी और उर्दू कविता में नारीवाद’ में उद्धृत करते हुए लिखती हैं-
“अंग-अंग पे चोट का निशान है
नारी
तू सचमुच कितनी महान है
हँसते जख्मों के साथ जीती है तू
लहू अपनी तमन्नाओं का अधूरी
पीती है तू,
इन्सानियत की तू पहचान है-
सर उठाकर जीना सीख-
कायम तुझसे ही
दुनिया की शान है ?”7

कुल मिलाकर यह उपन्यास पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री के हो रहे शोषण को व्यक्त करता है.शोषण के सूत्र जहाँ आर्थिक सशक्तिकरण से जुड़ते हैं वहीं पारिवारिक व यौन संबंधी शोषण से भी.स्त्री आज भी समझौतों और दोहरे कार्यभार के बीच पिस रही है.पुरुष सत्ता की नीवें हमारे समाज में बहुत गहरे तक धंसी हुई हैं.इसे तोडना, बदलना या संवारना एक लम्बी लड़ाई है.स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं.स्त्री विकास के बिना, विकसित समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है.इस सन्दर्भ में आजकल पत्रिका में प्रकाशित नाहीद आबिदी के लेख ‘धर्मशास्त्र एवं वर्तमान समाज में नारी की स्थिति’ का यह कथन दृष्टव्य है -“स्त्री-पुरुष एक ही सत्ता के दो रूप हैं.उनमें से किसी एक का अपना अलग एवं पूरा व्यक्तित्व नहीं है.स्त्री पुरुष का और पुरुष स्त्री का पूरक अंश है.जब यह अंश भिन्न-भिन्न होकर अपनी अलग सत्ता बनाने की भूल करते हैं तभी समाज में विघटन तथा विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं.समाज का सम्यक् विकास करने के लिए नारी का विकास आवश्यक है.शरीर का आधा अंग ठीक बना रहे और आधे अंग पर पक्षाघात का प्रभाव रहे तो भला ऐसा शरीर किसी के क्या काम आ सकता है ! समाज रूपी पुरुष की ऐसी अपंग दशा में उसका उत्थान संभव नहीं है.समाज का सम्यक् विकास तब ही संभव है जब स्त्री-पुरुष दोनों का विकास एक साथ हो।”8 स्पष्ट है कि स्त्री विकास के बिना विकसित समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है.लेकिन विडम्बना यह है कि स्त्री यदि आत्मनिर्भर होकर अपने पैरों पे खड़ा होना भी चाहे तो पुरुषवर्चस्ववादी समाज में उसके अवरोध की तमाम बेड़ियाँ उसे पहना दी जाती हैं.क्योंकि यदि स्त्री आत्मनिर्भर हो जाएगी तो वह पुरुष की दासता से मुक्त होकर अपना स्वतंत्र स्थान प्राप्त कर लेगी.ऐसा इसलिए भी है कि कोई तभी तक दास, गुलाम या असहाय है जब तक वह आत्मनिर्भर नहीं है .



 उपन्यास की एक और महत्वपूर्ण स्त्री पात्र ननकी है.ननकी के रूप में समाज के बंधनों को तोड़ती हुई एक स्त्री का चित्रण इस उपन्यास में किया गया है.ननकी समाज के बंधनों को तोड़कर एक युवक से प्रेम करती है जो प्रेम के नाम पर देह को भोग, गर्भबीज बोकर भाग जाता है .परिवार वालों के लाख मना करने पर वह अपनी संतान को जन्म देने पर अड़ जाती है.घर वाले अपनी इज्जत को बचाने के लिए उसकी शादी एक बूढ़े से करवाकर उससे मुक्त होना चाहते हैं, पर ननकी उस बूढ़े को अपनी हकीकत बता आती है.शादी टूटने की ओर है और अंत में परिवार वालों द्वारा ही उसकी हत्या कर हत्या को आत्महत्या का रूप दे दिया जाता है.ननकी का विवाहपूर्व गर्भधारण करना और बच्चे को जन्म देने की जिद् उसकी हत्या का कारण बनती है.उसकी मृत्यु पर उपन्यास की एक और स्त्री पात्र सुमन, पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री की इस स्थिति को देखकर अत्यधिक व्यथित होती है.इस सन्दर्भ में उपन्यास का यह प्रसंग दृष्टव्य है- “फिर सुमन ने ननकी की चादर ढ़की देह को देखा.आँखों में आंसू छलक पड़े.कैसी सलोनी सी लड़की ! जरा सा भटक जाये आदमी तो सीधा रास्ता पाने की कोशिश नहीं करता क्या? कोई गलती हो जाये तो सुधारने के सब रास्ते औरत के लिये बंद क्यों?”9 ननकी मृत्यु को मुक्ति का रास्ता नहीं मानती थी, वह तो जीना चाहती थी.एक बार ननकी ने सुमन से कहा था- “भाभी मैं हार मानने वाली नहीं हूँ.मैं अपना बच्चा पाल लूँगी.तुम देखना.कोई साथ न दे.बस, जीने दे।”10  इस पुरुष सत्तात्मक समाज में एक लाचार और भयभीत स्त्री के जीने की चाह को देखकर डॉ. नगमा जावेद मालिक अपनी पुस्तक ‘हिंदी और उर्दू कविता में नारीवाद’ में ‘अँधेरे में बुद्ध: गगन गिल’ की पंक्तियों को उद्धृत करती हुई लिखती हैं-
“मैं जीना चाहती हूँ
वह कहती थी
अपने से अक्सर
मैं जीना चाहती हूँ ।”11

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उपन्यास की चौथी महत्वपूर्ण स्त्री पात्र ‘बिट्टो’ है.उसके पति शचीन्द्र की मुख्य समस्या यौन अक्षमता नहीं है, बल्कि उस अक्षमता का अस्वीकार करना है.पत्नी बिट्टो के बार-बार कहने पर भी वह डॉक्टरी इलाज के लिए तैयार नहीं होता है.बिट्टो के समझाने पर भी वह नहीं मानता वह उसकी बातों को उपदेश समझता है और रीझकर उसे धक्का देकर गिरा देता है.वह असहाय सी रोती हुई वहीं बैठ जाती है.इस संदर्भ में उपन्यास के इस प्रसंग को देखा जा सकता है- “ हो गया उपदेश ! परेशान करके रख दिया है.चैन से दो घड़ी बैठ भी नहीं सकता !…..क्या समझ रही हो अपने को? हाँ ! पैसा कमा रही हो तो जो मर्जी बोलोगी? हाँ ! मैं कुछ नहीं हूँ न ! यही साबित करना चाहती हो ! तुम तैश में खुद को भूल गये हो.एक साथ मुझे हिलाते हुए, न जाने कितने झापड़-घूसे-लात जमा रहे हो.मैं बैठी हुई, गिरती हुई, रोकती हुई, रोती हुई…तुम गुस्से में चले गये हो !”12  बिट्टो के उपर्युक्त कथन से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि स्त्री न तो पुरुष का विरोध करती है और न ही वैवाहिक जीवन का.वह वैवाहिक जीवन में ऐसे पति की कल्पना करती है, जो उसे समझे और उसकी भावनाओं की क़द्र करे.यहाँ बिट्टो के पति द्वारा अपनी खामियों को न समझकर अपनी पत्नी को प्रताड़ित पुरुषवर्चस्व मानसिकता का ही एक रूप है, जिसके चलते स्त्री जीवन संघर्षमय बना हुआ है.

निष्कर्षतः अल्पना मिश्र के इस उपन्यास की विषयवस्तु और अनुभूति के स्तर को देखते हुए हम कह सकते हैं कि ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ उपन्यास अपने अधिकारों और स्वत्व के लिए लड़ती एक ऐसी स्त्री की आवाज है, जो आत्मनिर्भर एवं शिक्षित होते हुए भी अभिवंचित है. इस उपन्यास में जितनी भी स्त्री पात्र आई हैं वो सभी नई चेतना से संपन्न हैं.वे जहाँ हैं, उससे और भी अच्छी स्थिति में पहुँचना चाहती हैं.परन्तु इसके लिए वे अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं करती हैं, बल्कि अपनी संघर्षशीलता से आगे बढ़ने का प्रयत्न करती हैं.अंततः कहा जा सकता है कि यह उपन्यास स्त्री शोषण और प्रतिरोध की चेतना का प्रचारक उपन्यास है.

विकल सिंह  गुजरात केन्द्रीय   विश्वविद्यालय  में शोधरत है.
ईमेल- vikalpatel786@gmail.com
मो: 07897551642 

 संदर्भ सूची  


1. मिश्र,अल्पना, अन्हियारे तलछट में चमका, आधार प्रकाशन, हरियाणा, संस्करण-2114, पृष्ठ संख्या- 75    
2., वही, पृष्ठ संख्या -76
3. संपादक- विजयराय, लमही पत्रिका, त्रैमासिक, लखनऊ, अंक- जन.-मार्च-2015, पृष्ठ संख्या- 03          
4. मिश्र,अल्पना, अन्हियारे तलछट में चमका, आधार प्रकाशन, हरियाणा, संस्करण- 2114, पृष्ठ संख्या- 25
5. परवीन, फरहत (संपादक), आजकल (पत्रिका) दिल्ली, अंक- मार्च 2014, पृष्ठ संख्या- 32
6. मिश्र,अल्पना, अन्हियारे तलछट में चमका, आधार प्रकाशन, हरियाणा, संस्करण- 2114, पृष्ठ संख्या- 25
7. मलिक,डॉ. नगमा जावेद, हिंदी और उर्दू कविता में नारीवाद,प्रकाशन संस्थान,दिल्ली                                  संस्करण-2110,पृष्ठ          संख्या- 54    
8. संपादक- परवीन, फरहत, आजकल पत्रिका, दिल्ली, अंक- मार्च- 2014, पृष्ठ संख्या- 55
9.  वही, पृष्ठ संख्या- 109
10. वही, पृष्ठ संख्या- 107
11. मलिक,डॉ. नगमा जावेद, हिंदी और उर्दू कविता में नारीवाद,प्रकाशन संस्थान,दिल्ली,                              संस्करण-2110,पृष्ठ           संख्या- 155    
12. मिश्र,अल्पना, अन्हियारे तलछट में चमका, आधार प्रकाशन, हरियाणा, संस्करण-2114, पृष्ठ संख्या-            85

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