युवा रचनाकार, सामाजिक कार्यकर्ता , मोती लाल नेहरू कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय, में संस्कृत की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर संपर्क : 9999439709
और वह जान ही नहीं पाई थी कि वह कब उसके इतने करीब आ गया था, जिसकी उसने कल्पना ही नहीं की थी. हालांकि वह उसके प्रति एक खिंचाव महसूस जरूर कर रही थी, उसके भाव उसके प्रति कुछ अलग आकार में थे जरूर परंतु वह यूं और इतनी दूर तक की सफ़र नहीं करना चाह रही थी. फ़िर ये सब क्यूं होने दिया था उसने… उसे रोका क्यूं नही. वहउस पल में ये महसूस ही नहीं कर सकी थी कि जो कुछ भी यह हो रहा है उसके लिए वह तैयार भी थी या नहीं.
दिन ही कितने हुए थे उसे मिले. बस यही कोई एक दो मुलाकात. पहली मुलाकात तब हुई थी जब वह पार्क में बेंच पर बैठे-बैठे अपनी ही दुनिया में खोई थी. अचानक उसने किसी की परछाई सी अपने पैरों के नीचे महसूस की. उसने अपनी पलकें उठाकर नम सी आंखों में सामने खड़े शख्स को निहारा भर था. हैलो, कैसी हैं आप. ठीक हूं, इतना ही कह पायी थी वह उसे. पर अन्दर से उसे अजीब सा अपनापन लगा था. वह पार्क से लौट आयी थी अपने घर. अपने रोजमर्रा के काम में लगी रही, पर वह परछाई वाला शख्स अभी भी उसकी आंखे के आगे आ जा रहा था. उसका उन्मुक्त व बेपरवाह सा अंदाज बार-बार उसकी आंखों के आगे तैर सा रहा था.
एक बार उसे वह पब्लिक लाइब्रेरी में मिली थी. किताबों को जब रैक में रख रही थी तो दूसरी ओर से किसी ने एक किताब उठाई, जैसे ही आमना- सामन हुआ तो देखा वही थी. वह उसे देखकर सकपका गयी थी. जल्दी से किताब लेकर लाईब्रेरी में मेज के चारों ओर पड़ी कुर्सियों में से एक में धस गयी. किताब को हाथ में लेकर पलटने लगी, मानोउसकी नजर उसे किताब के पन्ने पलटने में ही ढूंढ रही हों कि वह कहां पर बैठा है या उसने उसे देखा कि नहीं. जब जवाब नहीं मिला तो उसने अपनी नजरें चारों ओर घुमाई, वह उसे दिखाई नहीं दिया. सोचा चला गया होगा. और वह किताब पढने लगी थी. किताब पढने में मशगूल हो गयी थी वह. किताब ही ऐसी थी, जो पढकर झकझोरर दे. उसे अपनी जिन्दगी उस किताब में लिखे हर एक लब्ज जैसी दिख रही थी. कैसे ओमप्रकाश वाल्मीकि की माता जूठन इकटठा कर लेकर आती थी और सारा परिवार उसे खाता था. ये परम्परा कहां से आयी होगी. वह पढते-पढते ही सोचने लगी थी. उनके परिवार में भी तो उसकी ताई जमीदारों के घरों से मिली रोटी मांगकर लाती थी और वे सब मिलकर खाते थे. पर एक दिन जब वह भी अपनी ताई के साथ कमाण गयी थी तो अपने हाथों से ताई को गंदगी उठाते देख उसे उबकाई आ गयी थी. उस दिन के बाद से तो उसने पीली दाल खाना बंद ही कर दिया था. जब भी घर में ये पीली दाल बनती, उसे उल्टियां शुरु हो जाती थी. धीरे- धीरे घर में ये दाल बननी बंद हो गयी थी. आज तो वह मैट्रोपोलियन सिटी में है परंतु उस बीते बचपन को वह भी आज तक कहां भूला पायी थी. जूठन को पढते हुए उसे यही लग रहा था. वह पढने में इतनी डूब गयी थी कि वह शख्सकब उसके सामने वाली चेयर पर आकर बैठ गया, उसे तनिक भी भान नहीं हुआ. उसने किताब खत्म की और एक लम्बी सी सांस खीचकर अपनी गर्दन लाइब्रेरी की छतपर टिका दी. . थोड़ी देर बुत बनी रही मानो जूठन का एक-एक शब्द उसने ही लिखा होहो. सामान्य हुई और अपनी चेयर पर सीधे बैठने लगी कि सामने वह गहरी सी, चोर सी आंखों वाला उसके सामने वाली चेयर पर टकटकी लगाये बैठा था. वह चौकन्नी सी हो गयी मानो अपनी भावनाएं उसके सामने आने से छुपा रही हो. शख्स ने अपना हाथ उसकी तरफ़ हैलो कहने के लिए बढा दिया था. उसने भी हाथ मिलाकर उसका अभिवादन स्वीकार कर लिया था. जैसे वह अभी-अभी किताब की पढी बातों को चुनौती सा दे रही थी कि वह इतनी कमजोर नहीं रही अब. यहां तक पंहुचने का उसका अपना संघर्ष था, उसने तो हर हाल में जीतना ही सीखा था. पर अब वह किताब नहीं पढ रही थी, बल्कि हकीकत में उस शख्स से हाथ मिला चुकी थी, जिसे वह जानती ही नहीं थी. उसकी ये आदत औरों की नजरों में बडी बोल्ड़ लगती थी और लोग तरह-तरह की व्याख्यायें अकसर इस पर किया भी करते थे पर वह कितनी सावधानी से हाथ मिलाती थी, वह ही इसे जानती थी. हाथ मिलाने के अंदाज से ही वह सामने वाले की उसको लेकर राय जान जाती थी. और उससे हाथ मिलाना तो दूर वह उसके देखना भी पसंद नहीं करती थी. पर आज उसने अपने हाथ मिलने से मिली उष्मा को सहेज सा लिया था. वह भी चेयर की ओर इशारा कर उसे बैठने के लिए कह रहा था. थोड़ी सी औपचारिकता के बाद उसने सीधा सवाल किया था, “आप तो वह है न जो टी.वी. में डिबेट में आयी थी इंट्रनेशनल वीमेन डे पर. मैने आपका इन्ट्रव्यू देखा था. जिस बेबाकी से आपने अपनी बात रखी, उसे सुनकर मैं तो सच पूछो,आपका कायल हो गया, आपका फ़ैन हो गया. मुझे नहीं पता था कि आप भी यही आती हैं पढने के लिए. जिस दिन से आपको टी.वी. पर देखा-सुना था, मैं तो आपको खोज ही रहा था, कई मित्रों से आपके बारे में पूछा भी मैने, पर किसी ने बताया नहीं कि आप यहां आती हैं. मैं भी यहीं आता हूं”. एक सांस मे वह बहुत कुछ बोल गया था. वह सुनती रही थी. और वह बिना उसके जवाब सुने बोलता जा रहा था. सवाल पे सवाल. जब काफ़ी देर हो गयी तो उसे रोक कर जवाब देने की कोशिश की थी उसने. पर वह अपनी ही सुनाता जा रहा था जैसे बहुत दिनों से ढेर सारे प्रश्नों को लेकर उसे ही खोज रहा हो. उसे भी भला सा लगा था उसे यूबिना किसी की परवाह किये बोलते हुए. वैसे तो वह ही बहुत बोलती थी. वह अपनी ही दुनिया में खो सी गयी थी. “कहां खो गयी” उसने हाथ की चुटकी उसके चेहरे की ओर घुमाते हुए कहा. वह अपनी दुनिया से बाहर आ गयी थी. उस दिन बड़ी आत्मियता से उसने बात की थी. उसे भी अच्छा लगा था.
एक दिन फ़िर मुलाकात हुई और उसने उसे काफ़ी के लिए आमंत्रित किया. वह ना न कह सकी. पास के ही रेस्तरां में जाकर उन्होंने काफ़ी पी. उसे भूख लगी थी तो उसने खाने का आफ़र किया. यह उसके साथ पहली दफ़ा था कि किसी अजनबी के साथ वह बाहर काफ़ी पीने के लिए बिना सोचे समझे आ गयी थी. एक अलग तरह का खिंचाव महसूस किया था उसने.. ढेर सारी बाते काफ़ी पीते- पीते हुई उनके बीच. समाज की और शिक्षा की भी. हालांकि वह खुद आस-पास घट रही घटनाओं के बारे में सोचती थी और यदा -कदा होने वाले आंदोलन में भी चली जाती थी. पर वह अपने परिवार तक ही सीमित रही थी. परिवार के साथ मिलकर ही वह आगे बढे, उसकी अपनी सोच थी समझ थी. वह सकीर्ण विचारों की भी नहीं ही थी. एक हद तक अपने आपको उसने मानवीय बनाकर रखा भी था. अपने आपको खफ़ाकर बहुत अच्छी बेटी जैसी उपमाओं को ढोने वाली वह नहीं थी. नौकरी के दौरान भी उसकी अपनी सहकर्मियों के साथ अकसर घट रही सामाजिक-राजनैतिक विषयों पर ही वह बात करती थी, जिस कारण से उसकी मित्र मंड़ली में महिलाओं से ज्यादा पुरुषों से उसकी मित्रता हो जाती थी. महिलाओं की चर्चा में वह ज्यादा घुल-मिल भी नहीं पाती थी. जब उनकी चर्चा होती कि किसने कितने कैरट सोने की अंगुठी पहनी है, कपडे, सैंडिल किस ब्रांड के हैं या मेकअप कौन सी कंपनी का है आदि-आदि. असल में उसकी परवरिश भी बिल्कुल सामान्य परिवार में हुई थी जहां पर हर रोज कुंआ खोदो और पानी पीयो जैसे हालात थे, ऐसे में कपड़ा उसके केवल तन ढकने वाला ही पसंद था, ज्यादा से ज्यादा उस पर जचने वाला हो, ब्रांड़-व्रांड का उसे पता भी नहीं था. पैसे से ही ज्ञान मिलता है, वह था नहीं इसलिए उसे पता भी नही था. जब पैसा हुआ था तो रुचि भी नहीं जागी थी. ऐसे में वह महिलाओं द्वारा की गयी ऐसी चर्चाओं में अपने आपको अनफ़िट महसूस करती . पुरुषों के बीच ऐसी चर्चाएं कम होती. ऐसा नहीं था कि उसे महिलाओं का साथ पसंद नहीं आता था. वह कुलीन वर्ग की महिलाओ के बारे में खूब सुनती थी. उनका दर्द भी था तो एक जैसा ही. बस फ़र्क उसमें और उनमें इतना होता था कि वह जिस परिवार से आती थी, वह दलितों में भी दलित था और छुआछूतपन का व्यवहार बचपन से ही पा लिया था, जिसको पाकर वह ओर कठोर हो गयी थी. पुरुष मित्र मंडली में वह इन सब सवालों से बच जाती थी और एक कम्फ़र्ट जोन में आ जाती थी. वह चर्चा के दौरान देश-दुनिया, समाज-संस्कृति के प्रति उसकी जानकारियों और स्पष्टता से प्रभावित हुई. वह उसे सीनियर नजर आने लगा था. उसके प्रति अब उसके मन में आदर भाव आ गया था. वह अभी तक उसके नाम पर नहीं गयी थी. न ही पूछना ज्यादा ठीक लगा था उसे. कुछ- कुछ जो उसकी समझ आ पाया था तो वह कि वह उससे कहीं ज्यादा बड़ा था. पद और जाति दोनों से. उसके विचार ज्यादा मेल नहीं खा पाये थे पर अपने से इतर विचारों पर विचार करना उसकी खास आदत थी. उसने कभी अपनी समझ को कटटर नहीं बनाया था. विस्तार देने में वह यकीन करती थी. एक मायने में यह मिलन अलग तरह का अनुभव लेकर आया था उसकी जिन्दगी में.
स्पीड ब्रेकर / कहानी
शायद उसकी तीसरी मुलाकात तब हुई जब वह अपने आफ़िस से बाहर निकल रही थी. उसने अपना रोजमर्रा का सामान टेबल से उठाया, पानी की बोतल जो हमेशा साथ ही रहती थी, उठाकर पर्स में रखी और मोबाइल को हाथ में लेते हुए ही साडी का पल्लू सीधा किया. जैसे ही बाहर निकली, चिरपरिचत से अंदाज में उसने हैलो बोला. वह अचानक से उसके प्रकट होने से चौक गई, फिर सहज हुई ‘प्रत्युत्तर में उसने भी ‘हैलो’ कहा. हाल चाल पूछने के बाद उसने उसे नागपुर में होने वाली कान्फ़्रेंस में जाने के बारे में पूछा. वह भी एक दम से ना नहीं कह सकी थी. और बाद में बात करने को कहकर आटो में बैठकर चली गयी.
जैसे ही अगले दिन आफ़िस पहुँचीकि आवाज आयी..”क्या जाने का कन्फर्म हुआ है, टिकट बुक करवा रहा हूं. सारा अरेंजमैंट हो गया है, ऐयर्पोर्ट पर गाड़ी रिसीव करने पहुंच जायेगी. वह भागते से अंदाज में बोल गया था. और जब तक वह पीछे मुड़कर देखती वह जा चुका था. अगले दिन इमेल पर उसका टिकट और ठहरने का होटल बुक का कन्फ़र्मेशन आ गया था. वह चली गयी थी. घूमना उसे अच्छा लगता ही था. सुबह -सुबह वह नागपुर पंहुच गयी थी. गाड़ी अभी तक नहीं आयी थी. उसने उसके नम्बर पर फ़ोन मिलाया. उसने फोन काट दिया. थोडी देर में रिंग आ गयी थी. गाड़ी वाले का फोन था और रसीव करने के लिए लोकेशन पूछने लगा था. वह होटल आ चुकी थी तो गाडी वाले ने उसे आधा घंटा आराम करने के लिए कहा और यह भी बताया कि वह आधे घंटे बाद उसे लेने आ जायेगा. उसने नाश्ता किया और रेस्ट किया कि गाड़ी वेन्यू पर ले जाने के लिए आ गयी थी. वह गाडी में बैठकर कांफ्रेंस हाल आ गयी. हाल खचाखच भरा था. ऐसा नहीं था कि इस तरह की सभा में वह पहली बार आयी हो. परन्तु ये भीड़ उसके लिए बिल्कुल अनजान की तरह थी, कुछ चेहरे दिखाई दिये भी तो वे इतने बड़े थे, जिनके साथ घुलना मिलना उसके लिए कठिन हो रहा था. इसलिए वहां लोगों की भीड़ मे वह उसे ही ढूंढ रही थी. अचानक वह उसे एक झुंड़ से घिरे दिखाई दिया. सब उसी को ताक रहे थे. इसमे कोई दो राय नहीं थी कि वह इस पूरे आयोजन का सूत्रधार था. सब उसे ही देख रहे थे. वह अब उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया था. उसके लिए यह एक कदम ओर उसकी तरफ़ जाने का प्रयास था, या वह उसका सम्मान करने लगी थी. वह अभी तक नहीं जान पायी थी या जानना भी नहीं चाहती थी. वह भीड़ में श्रोताओं के बीच में बैठी उसे ही देख रही थी. शायद उसने भी उसे देखा था लेकिन इग्नोर सा कर दिया था. उसको मंच पर बोलने जाना था सो उसने उसकी तरफ़ ज्यादा ध्यान देना उचित नहीं लगा था. वह बोलने लगा तो मंच पर विराजमान सभी लोग उसे ही ध्यान से सुन रहे थे. भीड़ शान्ति से उसकी बातों को गम्भीरता से सुन-समझ रही थी. उसे भी उसका व्याख्यान अच्छा लगा था और उसने उसका पूरा भाषण रिकार्ड कर लिया था. अब उसे घबराहट होने लगी थी कि वह कैसे बोल पायेगी और क्या बोलेगी. मंच पर जब उसका व्याख्यान खत्म हुआ तो हाल तालियो से गूंज उठा. कईयों ने तो खड़े होकर तालियां बजाई. उसने कई बार उसकी सीट की तरफ़ झांकने की कोशिश भी की पर वह खुद ही झेंप गयी थी. उसकी नजरों में उसका कद ओर बढ गया था. सुबह से शाम तक चले कार्यक्रम में उसके साथ उसकी कोई बात नहीं हो पायी थी, और उसने भी उससे बात करना उचित नहीं लगा था. वह अकेला दिखा ही नहीं. ऐसे ही पहले दिन का कार्यक्रम खत्म हो गया.
मेरा कोना / मेरा कमरा
अगले दिन उसे बोलना था. वह नर्वस थी और थोडी बहुत नाराज भी कि उसने उसे आमंत्रित किया और एक बार भी पूछा तक नहीं. वह बहुत व्यस्त था और शायद उसकी जान-पहचान को किसी के सामने नहीं लाना चाहता था. वह भी अब अपने आपको उसके सामने साबित करना चाह रही थी और अच्छा बोलना चाह रही थी. थोड़ा सा नर्वस भी कि वह. सुने तो ही अच्छा था. अजीब किस्म की कशमकश थी, एक तरफ़ वह यह भी चाहती थी कि वो भी उसे सुने लेकिन दूसरी तरफ़ नहीं भी कि वह उसे सामने बैठे देखकर बोल भी पायेगी या नहीं. अपने तय समयानुसार वह बोलने का मन बना चुकी थी. अपनी समझ के अनुसार उसने और पैनलिस्ट से ठीक-ठाक बोला था. लोगों ने उसकी बातों को ध्यान से सुना. इसकी खबर उसे भी लग चुकी थी.
देर शाम को उसका फोन आया था और उसने शुभकामनायें दी. ये भी जता दिया था कि उसने बात क्यों नहीं की थी. उसने उसे सुबह मिलने के लिए कहा. उसका फोन आया कि वह उससे मिलने के लिए आ रहा है. उसके लिए यह सामान्य ही थी लेकिन फ़िर भी कहीं न कहीं एक उत्सुकता भी थी. उसने डोरबेलबजाई. वह अब उसके सामने था. बात शुरु की और कहा कि संगठन वालों से झूठ बोलकर आया हूं कि जरुरी काम से बाहर जा रहा हूं. वरना तो मुझे ये लोग कभी अकेला ही नहीं छोड़ते. इधर-उधर की बातें हुई कार्यक्रम को लेकर और सामाजिक आन्दोलनों को लेकर भी. दलित और ओबीसी साहित्य पर भी बात हुई और वाम संगठनों पर भी. वह चुपचाप उसे सुन रही थी और वह बोले जा रहा था. फ़िर अचानक खामोश हो गया और उसकी ओर देखनेलगा. उसने उससे बस इतना ही कहा कि –“आप मुझे अच्छे लगते हो.”. उसने प्रत्युत्तर में कहा कि ‘जब दो बुद्धिजीवी आपस में बात करते है तो अच्छे लगते ही हैं.’ यह उसके लिए मानो सारे सवालों का जवाब था. उसे सुनकर और अच्छा लगा था. वह इन्हीं सब में खोई थी कि कब वह उसके नजदीक आया, उसे पता ही नहीं चला.
बाथरुम में आईने के सामने खड़ी वह सोचने लगी कि वह उसे क्यों नहीं रोक सकी थी, क्यों नहीं जान पायी थी? या उसका इतना सम्मान करने लगी थी कि उसे रोकने की वह हिम्मत ही नहीं जुटा पायी थी. या वह भी यही चाहती थी, ऐसा तो नहीं था. पर इस तरह से होगा यह भी उसे मंजूर नहीं था.
“यह उसके लिए जैसे रोजमर्रा के काम जैसा हुआ होगा” पर……. उसके लिए नहीं था. जिस तरह के संस्कारों में वह पली-बढी थी उसके लिए इस तरह के रिश्ते बहुत मायने रखते थे. इसलिए उसने उससे बहुत बार इस पर बात करने की कोशिश की, पर उसके पास बात करने मिलने का समय ही नहीं था. कभी यहां व्यस्त तो कभी वहां, हर बार उसका यही जवाब होता. हालांकि वह जानती थी कि वह सचमुच में व्यस्त भी हो सकता है क्योंकि वह उसके काम को देख चुकी थी. फ़िर भी फोन पर बात न करे, यह उसे हजम नहीं हो पाया था. उसने एकाध बार फोन उठाकर बात भी की. पर वही पुराना राग, ‘ बहुत काम है, समय ही नहीं मिलता.’ वह उसे हर रोज याद करती, . सारी कमियों के बावजूद वह उस पल को नहीं भूला पायी थी, जो उसने उसके साथ बिताया था हालांकि इसमे उसकी कोई भी भागीदारी नहीं थी. फ़िर् भी एकाकार तो हुई ही थी, जिसके कारण वह उसे अपने मन में बसा बैठी थी. उसको उससे मोहब्बत हो गयी थी पर वह उसे इग्नोर ही करता आ रहा था. शुरु शुरु में उसे लगा था कि वह व्यस्त होगा पर धीरे धीरे बहुत कुछ वह समझ गयी थी. जिस मोहब्बत पर वह अब इठलाने सी लगी थी वह एक छलावा भर था, केवल उसका एकतरफ़ा प्यार. जिस्मानी संबंध उस शख्स के लिए कोई मायने ही नहीं रखता था पर उसके लिए रखता था. धीरे धीरे उसने फोन उठाना भी बंद कर दिया. जब मन आया तो एक मैसेज का जवाब आता “काल यू लेटर” पर फोन या मसेज कभी नहीं करता था. ये रिश्ता उसके लिए उसे डिस्टरब करने जैसा बन गया था. वह भी भूल जाना चाह रही थी, लेकिन नहीं ही भूल पायी. वह उस पल को अपनी यादों में समेटकर आगे बढना चाह रही थी पर उसके पास इतना समय ही नहीं था कि वह अब फ़िर से उसे ‘हैलो’ कह पाता या फ़िर किसी ओर की तलास में था.या…..। वह इसे जीना चाहती थी. पर वह तो हवा के झौंके की तरह आया था और तूफ़ान छोडकर निकल गया.
जूते
उसे याद आया कि राहुल भी तो ऐसे ही उससे एक तरफ़ा मोहब्बत करता था पर उसने कभी उसे देखा तक नहीं , बल्कि उसे देखते ही वह कट लेती थी. अगर बात करने की कोशिश करता तो दुत्कारते हुए साफ़- साफ़ जवाब देती कि जो वह सोच रहा है, ये उसकी अपनी भावनाये हैं पर उसकी नहीं. लेकिन उसने राहुल को कभी झांसे में भी तो नहीं रखा था, वह स्पष्ट थी. पर यहां तो वह यह तक नही तय कर पायी थी कि आखिर ये सब था क्या.
उसने बहुत कोशिश की कि वह भी भूला दे सब कुछ…. पर नहीं भूला पायी थी. दुखद यह भी था कि अब उसने ठान लिया था कि वह किसी पर भरोसा नहीं करेगी. उसे इसे कायम करने की पूरजोर कोशिश की. उसने अपनी बितायी जिन्दगी के पन्नों को पलट-पलट कर देखा जिस कोरे कागज पर किसी का नाम गुदा नहीं था. हैरानी की बात थी कि उम्र के इस पड़ाव पर आकर वह इस जातीय दंभ को क्यों नहीं समझ पायी थी. जिस व्यवस्था से लड़ते-लड़ते समझते हुए उसने अपने आपकी घेराबंदी की थी, उसने अपने ही हाथों से कैसे उस किले को ढह जाने दिया था. वह तो आज तक किसी के झांसे में नहीं आयी थी, जब भटकाव के कारण सबसे ज्यादा रहे थे. पर आज……. क्या प्रगतिशीलता का मुखौटा पहनकर आये इस ब्राह्मणवाद के झांसे में वह भी आ गयी थी.
वह उसे अपने दिल से ही नहीं बल्कि दिमाग से भी नहीं निकाल पायी थी. उसने बहुत कोशिश की पर……..। उसने अपने आपको वक्त दिया. झोक दिया कामों में उसे भूलाने के लिए. समय बड़ी से बडी याद को बिसरा देता है. वह भी ठोकर खाकर, सम्भलकर आगे बढ गयी थी.
जिसने उससे मोहब्बत की, उसने उसकी कद्र नहीं की.
जिसने कद्र की, उसने उससे मोहब्बत ही नहीं की.
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