पेशे से पत्रकार. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन. पहला उपन्यास रूममेट्स प्रकाशित
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घर छोड़ने के बाद दोबारा घर वापसी उस रूप में तो कभी नहीं हो पाती। कभी कुछ कम होता है कभी कुछ ज्यादा होता है। लेकिन जस का तस कोई भी नहीं लौटता। इसका एहसास इस बार घर पहुंचकर बार-बार हो रहा था। मेरे पहुंचने से पहले अफवाह घर पहुंच चुकी थी, सोचा था घर पर इन बातों से मुक्ति मिलेगी, मैं आराम से रह सकूंगी। अफवाह से दूर, सुकून के साथ, अपनो के साथ। लेकिन मैं गलत सोच रही थी यहां भी अफवाह फैली हुई थी।
चाची ने पहुंचते ही कहा, ‘का बिटिया नाम कमाए गयी रहूँ, बहुत नाम कई दिहलू।’ बुआ डांट देती चाची को और मुझे समझाती ‘कीड़ा पड़ी बिटिया ओन लोगन के। तू चिंता जिन किहू, ऊपर बाला कुल देखत बा।’
दादी, माँ को सम्बोधित करती हुई कहती, ‘इही बिना लड़कियन के कभौ बहरे न भेजे के चाही। तब न समझूं बजन्ती अब कुल समझ में आवत होई’।
पड़ोसी भी तंज कसते, ‘अरे बहिन, हमार लड़की रहल होत त काट के फेंक देइत। इही बिना बाहर जाए जाला। आपन इज्जत अपने हाथ में होथ।
‘कुछ त भएल रहा होई ऐस ही कोनों बात नाही बढ़त’।
‘कहीं सुने बाटू कि बिना आग के भी धुआँ उड़े ला’।
‘बहरे जाए पर लड़कियन के पर लग जाला, मन बढ़ जाला, बडन के सम्मान भूल जालिन।
‘संस्कार में कमी रह गईल। ई कुल परिवार वाले सिखाव थेन’।
मन बहुत करता था पूछू, किसका परिवार सिखाता है। बाहर भेजने को तैयार नहीं होते और ज्ञान बांट रहे हो। किसी ने बताया था कि कैसे तैयार करो खुद को? बाहर भाई, बाप, ताया, ताई नहीं मिलेंगे, सिर्फ पुरुष मिलेंगे जो हर मौके पर तुम्हें नोच खाने को तैयार बैठे होंगे। खाकर डकार भी नहीं लेंगे और आगे बढ़ जाएंगे दूसरी की तलाश में। तब तो यही संस्कार भरे जा रहे थे बड़ों की इज्जत करो, किसी को जवाब मत दो, पुरुषों से दूर रहो, जुबान मत लड़ाओ यह सब न सिखाते तो भी एहसान करते। वहीं उन सबको लपाट लगाकर आती । लेकिन नहीं इज्जत कर रही थी योगेश की, रागश्री की।
जन्म से हम लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार किया गया और हमारे ऊपर आँखें तरेरी गयीं। नैसर्गिक रूप से स्वीकारने के बजाय हर पल की रोक-टोक मेरी नजर में दुर्व्यवहार के दायरे में ही आती है।
इन सबके बीच माँ कुछ नहीं बोलतीं चुपचाप रहती हैं। कई बार देखती हूँ वह अपने आंचल के कोरों से अपने आंसूओं को पोछ रही होतीं हैं। मन करता है आगे बढ़कर उनके आँसू पोछ दूँ और उन्हें अपनी बाहों में थाम लूँ। समझा दूँ- कुछ नहीं हुआ है माँ, सब ठीक है। लेकिन कुछ नहीं करती। जानती हूँ अगर माँ ने मेरी आँखों में ठहरे हुए आँसू देख लिए तो बहुत बड़ा सैलाब बह निकलेगा और उसे मैं नहीं रोक सकूंगी।
दादी, चाची, पड़ोसी सबका कहा सबकुछ सुनती हैं माँ पर कुछ नहीं कहतीं, बस चुप्प रहती हैं। माँ की आँखें पहले की अपेक्षा ज्यादा सूनी हो गयी है, जाने वह मुझे सही समझती हैं या गलत।
माँ क्यों सुनती हैं? क्यों बर्दाश्त करती हैं इतना? क्या उन्हें लगता है कि उनकी बेटी गलत है? बेटी गलत है इसलिए वापस लौट आई है?
माँ हमेशा कहती थीं- ‘भीतर रहे गुन करे, बाहर जाए खून करे।’ शायद इसलिए उन्होंने मुझे कभी नहीं कुरेदा। कभी नहीं पूछती कि क्या हुआ? या तुम क्या करोगी? या छोड़ दो यह लड़ाई। लड़ने में कुछ नहीं रखा है।
अब माँ यह भी नहीं पूछती- ‘बिटिया तू कहिया टीबी में देखाबू।’
क्या मैंने अपने घरवालों से सिर उठाकर जीने का हक छीन लिया है। क्या मेरे ख्वाहिशों के आसमान ने उनकी प्रतिष्ठा धूमिल कर दी है। मैं इन्हें कभी इस दर्द से उबार नहीं सकूंगी। इन्हें कोई खुशी नहीं दे सकती तो गम नहीं होता, लेकिन इतना बड़ा दर्द मैंने कैसे दे दिया। इसलिए तो माँ ने मुझे बाहर नहीं भेजा था, भाभी ने भईया को इसलिए तो नहीं मनाया था।
जब से घर आई हूँ सबकुछ यथावत चल रहा है, जैसे मशीन से सबकुछ संचालित हो रहा है। माँ दिन भर पूछती हैं बिटिया-‘कुछ खाऊ, कुछ खाई ल, ले आई कुछ।’ चाय अभी भी अपने हाथों से बनाकर ही पिलाती हैं। खाना भी अपने हाथों से ही परोसती हैं, बस अब खाने में स्वाद नहीं आता। मैं उस बेस्वाद खाने को खा नहीं पाती और वह मुझे इस हाल में देख नहीं पाती और मुझे अकेला छोड़कर कमरे से बाहर चली जाती हैं.
हमेशा की तरह माँ अब भी मेरा बिस्तर अपने हाथों से बदल देती है। कुछ नहीं कहती वो। संकट मुझपर आया लेकिन लगता है कि वह इस तकलीफ से खुद गुजर रही हैं, अब वह रातों में कराहतीं। मैं बार-बार उठकर बैठ जाती हूँ, पूछती हूँ मां क्या हुआ- कहती हैं ‘कुछ नाही बिटिया तू सोई जा’। जाने वह उनके घुटनो के दर्द से ज्यादा परेशान हो गयीं हैं या इस उम्र में मैंने जो अपने उपर धब्बा लगवा लिया है उसका दर्द ज्यादा बड़ा है। वह कराहती हुई वॉशरूम तक जाती हैं फिर अपने दर्द को दबाए हुए लौटकर आती हैं और अपने बिस्तर में लेटने से हमेशा की तरह वह मुझे निहारती होंगी शायद। मैं चादर मुँह से पैर तक ओढ़कर सोती हूँ कहीं वह समझ न जाएँ कि मैं सिसक रही हूँ। वह चादर के उपर से ही हाथ फेरती हैं और बगल में लेट जाती हैं। मैं उनके बगल में दूसरी तरफ मुंह किए सिसक रही हूँ, शायद वह भी यही कर रही हों। लेकिन हम में से कोई भी एक-दूसरे से कुछ नहीं पूछता।
माँ से अब मैं क्यों नहीं चिपट पा रही? सीने पर ऐसा क्या बोझ रखा है, जिसका भार अगर मुझ पर से उतरा तो मेरे अपनों पर चढ़ जाने का भय मुझे सालता है। मैं घरवालों से कौन सी बात से छिपाना चाहती हूँ, कि मैंने रब को खो दिया है या मैं अफवाहों में हूं। सबकुछ जानते हुए क्यों अंजान बनी हूँ मैं। क्यों नहीं अफवाह के झूठ को झूठला पा रही, कोई सवाल ही नहीं उठाता सब अपनी अपनी कहकर खाली हो जाते हैं।
अनुभव बोल रहा है कि जिसकी आशंका हो, जिससे बचने की चिन्ता हो वह बात जरूर होकर रहती है। मन में डर घर कर गया है कि कुछ-न-कुछ बहुत बुरा जरूर होगा। अजीब सी बातें हो रही हैं, आसार अच्छे नजर नहीं रहे हैं। शाम के समय घर के भीतर से बातचीत के स्वर सुनाई दे रहे हैं-जैसे कोई बहस हो रही हो। थोड़ी देर बाद ताऊ गरजते हुए बोले- कुलच्छिनी तो है ही यही सब करेगी।
क्या यह शब्द मेरे लिए थे। उफ्फ…. सबको क्या हो गया है अपनी ही बेटी समझ नहीं आ रही है। मुझे जाने क्या हो गया है? मैं कुछ ही महीनों में कितनी बदल गयी। मेरा सारा उत्साह, जोश जाने कहां खो गया था। दुनिया से लड़ लेने ही हिम्मत ही नहीं होती, खुद के जीत जाने का यकीन ही नहीं है। मेरी आँखें अंदर धंस गईं। महसूस होता कि शरीर की सारी शक्ति ही कहीं गुम हो गयी है। मेरे मस्तिष्क में अजीब सा डर समा गया था। अंधेरे से बहुत डर लगता, हर आहट डरा देती, हर बात पर चिहुंक उठती। छोटी-छोटी बातों पर कांपने लगती। कोई भी बात याद नहीं रहती। एक बात करती दूसरी भूल जाती। चावल गैस पर चढ़ाकर बंद करना भूल जाती, लड्डू को पढ़ाते-पढ़ाते चुप्प हो जाती हूं।
दिल बात-बात पर बैठ क्यों जाता है, हर बात पर मैं क्यों घबरा जाती हूँ, क्यों लगता है सबकुछ ठीक नहीं होगा? यह क्या हो गया है मुझे? मैं खुद को समझा नहीं पा रही तो परिवारवालों को क्या समझाऊँ?
उपन्यास रूममेट्स का एक अंश
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