21वीं सदी: स्त्री-सम्वेदी पुरुष की परिकल्पना और ‘कठपुतलियाँ’

 तरुणा यादव 

उत्तर आधुनिक युग में स्त्री के जीवन में व्यापक परिवर्तन हुए हैं। बदलते परिवेश में युवा स्त्री परिवार के बीच पुरुष के प्रभुत्व को चुनौती देती हुई परिधि से केन्द्र में आने की निरंतर कोशिश कर रही है। कुछ हद तक उसे सफलता भी मिली है। इसके बावजूद हम यह नहीं कह सकते है कि स्त्री विमर्श अपने उद्देश्यों को पूर्णतया पा चुका है, स्त्री विमर्श अभी आने वाले दो-तीन दशकों तक ज्वलंत मुद्दा रहेगा। लेकिन 21वीं सदी की लेखिकाएँ जैसे इस विमर्श को लेकर चल रही हैं और युवा पीढ़ी की स्त्रियाँ भी धीरे-धीरे पुरुष वर्चस्व का प्रतिकार कर रही हैं तो वह दिन अब दूर नहीं, जब यह विमर्श कबीर की साखियों की चिर-प्रासंगिकता को पीछे छोड़कर अपना मुकाम हासिल करने में कामयाब होगा और होना भी चाहिए क्योंकि आखिर कब तक यह षड्यंत्रकारी पितृसत्ता अपनी भयावह विद्रूपताओं के साथ स्त्रियों को मुहँफाड निगलती रहेगी। आखिर एक दिन तो इसे थमना ही पड़ेगा अपने जोरदार प्रतिरोध के साथ। लेकिन अभी वह समय बिल्कुल नहीं आया; है! हाँ कुछ अध कचराए विकृत मानसिकता वाले, अपने को बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोग जरूर गली नुक्कड़ के मुहानों, सभाओं और सरकारी कुर्सियों को तोड़ते हुए फैशन की तरह यह फिकरा कसते मिलेंगे- ‘अब काहे की स्त्रियों का शोषण हो रहा है अब तो पुरुष विमर्श की जरूरत है। या फिर स्त्री विमर्श सिर्फ देह मुक्ति का विमर्श है। खैर! ये हवाई बातें ठीक वैसे ही उस कहावत की तरह है जिसके पैर न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई। किन्तु स्त्रियों को इसकी परवाह न करते हुए अभी अपनी मंजिल तक अपना संघर्ष जारी रखना है और जो अधकचराये लोग स्त्री-विमर्श को देह मुक्ति का विमर्श मानते हैं, उन्हें भी उन्हीं की भाषा में जवाब देना है जैसे ‘प्रतियोगी’ कहानी में नीलाक्षी सिंह बाजार को बाजार की भाषा में जवाब देती है। मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी ‘कठपुतलियाँ’ कहानी में स्त्री विमर्श को देह-मुक्ति का विमर्श मानने वालों को उन्हीं की भाषा में जवाब देती है।

‘कठपुतलियाँ’ कहानी मनीषा कुलश्रेष्ठ के इसी शीर्षक के संग्रह में प्रकाशित है। मनीषा अपनी कहानियों में ऐसे चरित्रों की तलाश करती है जिनका जीवन और आवाज समाज में त्याग की महिमामयी प्रति मूर्ति के रूप में अभिव्यक्ति पाता है। लेखिका पात्रों की रचना के समय उनके व्यक्तित्वों के अनेक स्तरों का उद्घाटन करती हैं, ‘कठपुतलियाँ’ कहानी मुख्य रूप से जैसलमेर के ग्रामीण परिवेश की है। कहानी की मुख्यधारा में तीन पात्र हैं – सुगना, रामकिसन और जोगेन्द्र। हाशिए पर है मायका, ससुराल और परम्परागत पंचायत। जो मुख्यधारा की पृष्ठभूमि को तैयार करके भारत में वास्तव में निःशुल्क (फ्री) मिलने वाली अत्यधिक और अनावश्यक सलाह की तरह जीवन में जबरन घुस कर उसे तीव्रता से प्रभावित करते हैं।

कहानी की शुरूआत में ही रचनाकार दरवाजे के पीछे लटकी कठपुतलियों की ओर इशारा करती है और लिखती है कि – ‘‘कभी सुगना उदास होती तो …. इन कठपुतलियों को एक साथ ढेर बनाकर ताक पर रख देती और साँकल लगाकर गुदड़ी पर ढह जाती। कभी गुस्सा होती तो जोर से झिंझोड़ देती सबके धागें। कुछ मटक जातीं एक-दूसरे में अटक जाती। किसी नर्तकी की गर्दन उसी के हाथों में उलझ जाती। कोई राजा डोर से टूट मुंह  के बल गिरा होता। ढीठ मालिन टोकरी समेत उसके ऊपर।’’1 यहाँ कठपुतलियाँ प्रतीक है सदियों पुरानी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के हाथों की कठपुतलियाँ बनी औरतों की। यहाँ कठपुतलियों को गुस्से में झिझोड़ना दबी, कुचली औरतों को उनके अधिकारों के प्रति जाग्रत करना है जिसमें कुछ मटक कर यानि थोड़ा-सा अधिकार या प्यार पाकर इतरा कर उसी में उलझी रह जाती है। कुछ अपनी ही समस्यायों में उलझ कर फँसी उलझी रह जाती है तो कुछ पितृसत्तात्मक व्यवस्था की  नृत्यांगनायें यानि पुरुषवादी महिलाएँ बन उन्हीं के हाथों में अपनी गर्दन सौंप देती हैं। दूसरी ओर पितृसत्ता रूपी कोई राजा किसी शिक्षित या जागृत स्त्री से मुँह की खाकर भी ढीठ हुआ फीके पड़ चुके अपने दम्भी  पुरुषत्व के साथ स्त्री समाज के आस-पास मुँह खिसयाता रहता है।

जाहिर है सुगना को कठपुतली रूपी औरतों का चित्र  मात्र भी पसंद नहीं, तभी तो  वह कठपुतलियों को खीज कर आँखों के आगे से हटा कर ताक पर रखकर साँकल के अंदर रख देती है। सुगना का विवाह पिता ने जोगेन्द्र से तय किया था पर पिता की मृत्यु के बाद माँ ने लेन-देन के कारण तोड़कर कठपुतलियाँ दिखाने वाले लँगड़े तीस वर्ष की उमर के दो बच्चों वाले नसबंदी करवा चुके विधुर से करा दिया। सुगना की माँ को किसी और के साथ जिन्दगी बसानी थी इसलिए जल्दी-जल्दी उसने लड़की का ब्याह 13 वर्ष की उम्र में ही निपटा दिया। शादी का सौदा उसने रामकिसन से दो हजार रूपये लेकर किया था। रामकिसन शादी के बाद अपनी शारीरिक जरूरतें तो सुगना से पूरी करता रहा लेकिन सौन्दर्य की मरूस्थल सुगना से उठती रेतीली देह रूपी लहरों की पूर्ति करने में वह नाकामयाब रहता है। लेखिका के शब्दों में – ‘‘वह धम्म से गुदड़ी पर सुन्न होकर पड़ जाती। अपने वजूद को, अपनी देह को हाथ से टटोलती। सोचती-उलझती लेकिन समझ नहीं आता-रात किस मुहाने पर जाकर उफन पड़ी थी। वह कि रामकिसन कुंठित हो गया और छिटक गया उससे दूर। पहले देह जब शान्त नदी-सी पड़ी रहती थी तो वह मीलों तैर जाता था। अब जब वह नैसर्गिक आकांक्षाओं से भरपूर नदी में बदल जाती है और इन्हीं आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु प्रसन्न-प्रगल्भ तो रामकिसन के लिए मुश्किल हो जाता है इस उफनती नदी को बाँहों में भरकर तैरना। बहुत डरपोक थी सुगना, अब रामकिसन चाहे जैसे नचाए। वह तृप्ति की डकार लेता….. तो वह जूठन के इधर-उधर गिरे टुकड़े समेट …. भूखी ही उठ जाती।’’2

दूसरी ओर रचनाकार कहती है कि सुगना की मोहक हँसी को भी शतरंज के घोड़े की तरह टेढ़ी चाल चलने वाले सर्प ने यानि लगड़े रामकिसन ने ही डस लिया था। रसोई और कोठरी रूपी पितृसत्ता की चारदीवारियों से सुगना को घुटन होती है। उसे तो खुले में खड़ा खेजड़े का पेड़ भाता है जिस पर वह प्यासे पक्षियों के लिए दाना-पानी लगाती है पेड़ सुगना को उस घर में अपने अस्तित्व का प्रतीक लगता है तो दाना-पानी उस के जीवन की छोटी-छोटी खुशियों के प्रतीक हैं। खेजड़े के पेड़ के चारों ओर सुगना का चबूतरा बनाना अपने अस्तित्व को उस घर में भी सीमित कर लेना है। रामकिसन के घर में पहले की औरत के दोनों बच्चों को संभालना, पूरे दिन पति की अनुपस्थिति में घर का कामकाज और प्रतीक्षा करना, रेगिस्तानी क्षेत्र के कारण पानी की किल्लत से दूसरे गांव कुलधरा के कुंए से पानी लाना ही सुगना की दिनचर्या थी। रामकिसन के अलावा नयी ब्याहता जवान औरत के सपनों को समझने वाला और कौन होता ? पर उसके लिए तो वह बच्चों को संभालने वाली और जरूरत के मुताबिक यौन सुख देने वाली औरत मात्र थी। इस दिनचर्या में कुलधरा कुएँ से पानी लेने आते-जाते एक दिन तूफान के समय उसकी भेंट जोगिन्द्र से हुई, जिसके साथ उसकी शादी टूट गयी थी। खेजड़े के पेड़ की जड़े काँपने लगी थी। दोनों की देखा-देखी मे भावनात्मक आत्मीयता स्थापित हो गई। जोगिन्द्र की आँखों के जंगल में सुगना को प्रेम रूपी फसल लहराती दिखाई देने लगी।

मरूस्थल में पीली आंधी का तूफान आता है और सुगना का लूगड़ा सर से उखड़कर फरफराने लगता है। रचनाकार के शब्दों में – ‘‘कुर्ती-काँचली में अटका छोर छूट गया …. बस घाघरे में अटका छोर छुड़ा पाता तो यह लूगड़ा तेज हवाओं के साथ कहीं परदेश ही जा उड़ता।’’3 यहाँ घाघरे के छोर में लूगड़े का अटका रह जाना दिखाता है कि युवा पीढ़ी की स्त्री के पाँव अपनी मर्यादा रूपी जमीन पर दृढता से टिके हुए है; नहीं तो उसी दिन जोगी के साथ सुगना भाग भी सकती थी, परन्तु वह तो रामकिसन के बच्चों से जुड़ी हुई थी।

खैर! मरूस्थल में प्रेम की फसल लहराई भी और फसल रूपी बीज सुगना के गर्भ में भी छोड़ दिया। यहाँ भी रचनाकार अपने व्यंग्य के पैनेपन और धार से पितृसत्ता पर करारी चोट करती है। पंडित का फिकरा गूंजा – ‘‘विधवा, गाभण…. रितुमती औरताँ, छोड़ी हुई लुगायाँ हवन सूँ आप ही उठ के चली जावो … बुरो मत मानजो सा …. भगवान री बनायी रीत है … आरती में कोई भेदभाव नी…. आरती के टेम वापस आ … सको …. अपनी-अपनी श्रद्धा आसूँ भेंट चढ़ा सको।’’4 जाहिर है कहानी में पंडित के इस वक्तव्य को पढ़कर स्त्री-विमर्श का प्रतिकार करने वालों की आँखें बरबस ही नीची हो जाएँ, कि आज भी प्रकृति जन्य स्थितियों में औरतों के धार्मिक आयोजनों में शरीक होने पर प्रतिबन्ध लगाने वाली यह पुरुषवादी मानसिकता आखिर कब बदलेगी। प्रकृति ने माँ बनने का गौरवपूर्ण अधिकार सिर्फ स्त्रियों को ही दिया है। इसलिए नहीं कि वह कमजोर है अपितु इसलिए की उसमें दूसरे प्राणी को समझने और स्नेह-सिक्त करने के लिए पुरुष के अतिरिक्त शक्ति व संवेदनशीलता होती है। फिर भी गर्भ भार से क्लान्त एक स्त्री पर लगभग सभी आयोजनों (यज्ञ, मृत्यु, शोक, विवाह आदि) में जाने पर प्रतिबंध लगाये जाते हैं। मैं प्रश्न करना चाहती हूँ कि पितृसत्ता के ये सारे प्रतिबंध सिर्फ स्त्री पर ही क्यों लगाएँ जाते हैं? पिता बनने वाले पुरुष व स्त्री माँ बननेवाली दोनों का ही समान आचरण होता है। तो क्या सिर्फ इसलिए कि स्त्रियों को प्रकृति ने जिस अतिरिक्त स्नेह से आपूरित किया है उसे दबाना ही पितृसत्ता का उद्देश्य है ताकि सृष्टि में उससे ऊपर किसी का वर्चस्व ही न उठ पाए। तो क्या ये दमन मात्र अधिकार लिप्सा का एक मोहकारी षड्यन्त्र है ? अगर हाँ तो फिर 21वीं सदी की स्त्रीयाँ अधिकार मोह में लिप्त मर्दवादी मानसिकता को ये भी बताना चाहती है कि वह भी उसी लोकतंत्र देश की नागरिक है जिस देश का नागरिक दम्भयुक्त वह पुरुष है जो उसे बिना चुनाव के ही दबाना चाहता है।

मनीषा कुलश्रेष्ठ

कहानी में सुगना ढीठ होकर यज्ञ में आहूतियाँ देती है और सन्देश देती है कि तुम्हारी बनाई हुइ मान्यताओं की अब धज्जियाँ उड़ने का समय आ चुका है। ये 21वीं सदी की स्त्रियाँ हैं। इन्हें  तुम और ज्यादा नहीं बरगला सकते हो। सुगना गर्भवती हुई तो नसबन्दी करवाए पति को संदेह हुआ। रामकिसन की माँ जो कि पितृसत्ता की चौकीदारिन है ने जाति दण्ड दिलवाने की ठान ली। जाति पंचायत हुई पंचायत में पंच कहता है कि – ‘‘अग्नि परीक्षा औरत की मर्जी से ही ली जाती है।’’5 मेरे सामने सबसे बडा सवाल यह है कि जब रामकिसन से सुगना की शादी सुगना की मर्जी से नहीं हुई, जो औरत अपनी मर्जी से शादी नहीं कर सकती वह भला अपनी मर्जी से अग्नि परीक्षा क्यों देगी? या फिर मर्जी पूछने वाली यह पंचायत सिर्फ अग्नि परीक्षाओं में ही मर्जी क्यों पूछती है? शादी के समय पंचायत के न्यायधीश  क्या छुट्टियों पर होते हैं? दूसरी ओर जोगिन्द्र पंचायत में मौजूद रहता है वह कहता है कि – ‘‘सुगना सुन, मैं हरजाने के चार हजार लाया हूँ …. दो हजार में छीना था न तुझे मुझसे मैं दुगुना हरजाना भरूँगा। उसे बोल, छाती ठोक के कह दे कि बच्चा तेरा-मेरा है। कोई जरूरत नहीं गरम तेल में हाथ डालने की….. या गरम ईंट पकड़ने की। ये पंच अपना फायदा देखते हैं ऐसी चीजों में। औरत का चरित्र खराब निकले तो भी पंचों की चांदी, न निकले तो भी उनकी चांदी। दोनों तरफ का पैसा उनको तो मिलता ही है।’’6 यहाँ जोगिन्द्र के माध्यम से पंचायत रूपी पितृसत्ता के किलों पर करारा व्यंग्य करती है नरेटर। हालांकि जोगिन्द्र भी कोई दूध का धुला नहीं है, स्वयं शादी-शुदा होते हुए भी उसने अबोध सुगना को बरगला कर उससे शारीरिक संबंध स्थापित किये थे।

यहाँ तक आपको लगता होगा कि मैं और रचनाकार दोनों ही स्त्री-विमर्श में स्त्री-देह-मुक्ति  का तिल्लिस्म रच आपको बरगला रहे हैं। नहीं यहाँ से कहानी अपनी तमाम दकियानूसी सोच को पीछे धकेलकर एक नए आयाम की ओर अग्रसर होती है। सुगना ने पंचायत में दृढ़ता से कहा – ‘‘यह बच्चा बंसी का ही भाई या बहन है। मुझे बंसी के बापू के साथ ही रहना है …. और आप ही कहो क्या कहूँ?’’7 सुगना अग्नि परीक्षा में सफल हुई। पंचायत होते समय जोगिन्द्र वहाँ मंडराता रहा व अनुरोध करता रहा कि सुगना उसके साथ भाग चले। गर्भ के बच्चे को जोगिन्द्र से जोड़ दे। हरजाने की राशि वह दे देगा। परंतु सुगना ने अपने प्रेम और शारीरिक जरूरतों को किनारे कर दिया। दो छोटे-छोटे बच्चों नंद-बंसी के लिए रामकिसन के साथ रहना पसंद किया। वह ऐसी समूची औरत बन गयी जो केवल देह मुक्ति के लिए आजाद नहीं होना चाहती थी।

स्त्री-विमर्श के अंतर्गत सिर्फ स्त्रियों की छवि को ही नहीं गढ़ा जाता और न ही ये पुरुष के विरोध में उपजा कोई प्रतिरोधी आंदोलन है। अपितु यह पुरुष के भी सह अस्तित्व को गढ़ कर समाज को एक नए सिरे से देखता है और उसी की मांग भी करता है। कहानी सिर्फ सुगना की ही नहीं, अपितु यह रामकिसन रूपी पुरुष के चरित्र को भी एक नया आयाम प्रदान करती है। कहानी में रामकिसन का सीमा पार  चार किलोमीटर जाकर ग्वारपाठे और छीपकली का तेल लेकर आना, जोगेन्द्र के बच्चे के साथ सुगना को अपनाना बताता है कि 21वीं सदी का पुरूष भी धीरे-धीरे गहरी संवेदना, विवेक और स्त्री के प्रति उदात्त संभावनाओं से ओत-प्रोत होता जा रहा है। गर्भवती होने पर भी सुगना पर हाथ न उठा कर अपितु स्वयं को ही नुकसान पहुँचाना रामकिसन के उदात्त चरित्र को सिर्फ ऊपर ही नहीं उठाता अपितु उसे समाज के उस सर्वोच्च शिखर पर स्थापित करता है जहाँ से उसे पितृसत्ता की गगनचुम्बी इमारतें भी छू नहीं सकती। प्रभा खेतान अपने उपन्यास ‘छिन्नमस्ता’ में लिखती है कि – ‘‘हर व्यक्ति अपने आप में एक इकाई अवश्य होता है, पर उसमें सच्चे स्त्री और पुरुष वही हो पाते हैं जो पुरुष प्रधान समाज की सीमाओं को पार करके अपने स्वभाव में स्त्री की करुणा को संचित कर पाते हैं, वे ही जीवन का सच्चा सृजन कर पाते हैं।’’7

रही बात कहानी की तो अगर कहानी के पार जाकर सोचा जाये तो कि सुगना और रामकिसन का आगे का जीवन कैसा रहा होगा तो इसमें कोई संदेह नहीं की सुगना के लिए रामकिसन विश्व विजेता सिकन्दर से भी बढ़़कर कोई अन्य ही महान पुरुष सिद्ध हुआ होगा और सुगना स्वयं अपने आप में उसकी रानी। अतः कहानी यहाँ चीख-चीख कर सीमोन के विचारों का समर्थन करते हुए यह बताना चाहती है कि भले ही औरतों की लड़ाई आपने आप में विशिष्ट है, पर वह पुरुषों के साथ मिलकर ही लड़ी जानी चाहिए।वस्तुतः पुरुषों का विरोध करके स्त्री-मुक्ति संभव हो ही नहीं सकती है क्योंकि सिर्फ स्त्रियों को ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था या मर्दवादी मानसिकता से मुक्ति नहीं चाहिए अपितु वैयक्तिक स्तर पर भी प्रत्येक स्त्री-पुरुष को इससे छुटकारा पाना है। ताकि परस्पर सामंजस्य, समन्वय एवं सद्भाव से युक्त सह-अस्तित्वपरक समाज की संरचना का मानवीय स्वप्न पूरा हो सके।

अतः कहानी में स्पष्ट किया गया है कि स्त्री को देह से मुक्ति नहीं चाहिए और न ही वह पुरुष के बरक्स किसी प्रतिसंसार की मांग करती है बल्कि वह तो पुरुष के साथ मिलकर सह अस्तित्वपरक समाज की स्थापना करना चाहती है। वस्तुत इस कहानी में स्त्री के पक्ष-विपक्ष पर विचार करते हुए स्त्री को मनुष्य रूप में स्वीकारने की मांग की गई है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती दी गई है और इस व्यवस्था के विरूद्ध संवाद करते हुए उन मूल्यों को खंडित किया गया है जो स्त्री के शोषण का कारण बनते हैं। इसलिए आज स्त्री की समाज में बदलती हुई स्थिति और भूमिका के प्रश्न नए परिप्रेक्ष्य में उभर कर सामने आए हैं। कहा जा सकता है कि स्त्री-विमर्श किसी प्रतिस्पर्धा या आवेश का आंदोलन नहीं है और न ही यह केवल स्त्री समस्याओं पर केन्द्रित बहस। डाॅ. रोहिणी अग्रवाल के अनुसार – ‘‘स्त्री-विमर्श अपनी मूल चेतना में  स्त्री को पराधीन बनाने वाली पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का विश्लेषण करता है। यह स्त्री को एक जीवंत मानवीय इकाई समझने का संस्कार देता है।’’8 इसका एकमात्र उद्देश्य तो लिंगगत भेदभाव से ऊपर उठ कर ऐसे समाज की स्थापना करना है जहाँ सभी का समान अधिकार है।

संदर्भ –
1. मनीषा कुलश्रेष्ठ, कठपुतलियाँ, पृ0 7
2. वही, पृ0 11
3. वही, पृ0
4. वही, पृ0
5 वही, पृ0
6. वही, पृ0
7. प्रभा खेतान, छिन्नमस्ता, पृ0 211
8. डाॅ. रोहिणी अग्रवाल, स्त्री लेखन: स्वप्न और संकल्प, पृ0 12

लेखिका महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक से शोध करने के बाद हरियाण शिक्षा विभाग में हिन्दी की प्रवक्ता है. संपर्क: tarunayadav87@gmail.com

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ISSN 2394-093X
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