एक ओर जहाँ भारत में मातृ मृत्यू दर बहुत ज्यादा है वहै, वहीं भारत सरकार के आयुष मंत्रालय (जो आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्धी तथा होमियोपेथी के विकास के लिये कार्य करता है) ने अपनी एक स्वास्थ्य सलाह पुस्तिका में स्वस्थ प्रसव और सेहतमंद बच्चे के लिए सलाह दी है कि गर्भवती महिलायें मांसाहार न करें. वासना से बचें. सेक्स न करें लगता है, इक्कीसवीं सदी में भी देश की वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियाँ विज्ञान और शोध पर अपना आधार विकसित करने के बजाय, महाभारत के अभिमन्यू-मिथक से ही संचालित हो रही हैं. रें . महाभारत के अभिमन्यू के मिथक से संचालित यह सुझाव कई मामले में अवैज्ञानिक है, खासकर तब, जब भारत की बहुसंख्य आबादी मांसाहारी है और बहुत बड़ी संख्या के लिए जरूरी पोषण आहार मांसाहार पर निर्भर है. सेक्स करने के लेकर भी डाक्टरों की राय आयुष मंत्रालय से ज्यादा वैज्ञानिक है. दुखद सत्य यह है कि 5 वर्ष से छोटे बच्चे तथा माँयें भारत में कुपोषण के सबसे ज्यादा शिकार हैं, और आसानी से कहा जा सकता है कि आयुष का स्वास्थ्य-बोध इस प्रकार की सलाह देते समय पोषण में वंचित इस आबादी के स्वास्थ्य से ज्यादा तथाकथित ‘संस्कृति’ पर अधिक ध्यान दे रहा है.से दूर रहने की आयुष की सलाह का सीधा व प्रचलित अर्थ जो होता है यानि कि सेक्स से दूर रहना, तो यह पूर्णत: अवैज्ञानिक है और फिर से भारतीय संस्कृति की ‘नयी व्याख्याओं’ से प्रेरित दिखाई देती है.
मातृ मृत्यु का नियन्त्रण महिला स्वास्थय का जरूरी पहलू
आयुष मंत्रालय ने मदर एंड चाइल्ड केयर नामक बुकलेट जारी करते हुए अपने सुझाव में कहा कि गर्भवती महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान इच्छा, क्रोध, लगाव, नफरत और वासना से खुद को अलग रखना चाहिए. साथ ही बुरी सोहबत से भी दूर रहना चाहिए. हमेशा अच्छे लोगों के साथ और शांतिप्रिय माहौल में रहें. आयुष मंत्रालय दो कदम आगे बढ़कर कहता है कि यदि आप सुंदर और सेहतमंद बच्चा चाहती हैं तो महिलाओं को “इच्छा और नफरत” से दूर रहना चाहिए, आध्यात्मिक विचारों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. अपने आसपास धार्मिक तथा सुंदर चित्रों को सजाना चाहिए. केंद्रीय आयुष मंत्री श्रीपद नाइक ने पिछले सप्ताह इस बुकलेट को नई दिल्ली में हुई राष्ट्रीय स्वास्थ्य संपादकों के एक सम्मेलन में जारी किया था.
सामूहिक नसबंदी के कारण भारतीय स्त्रियों की मौत
स्त्रीकाल के संस्थापक संपादकों में से एक महात्मा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में प्रोफेसर डाॅ. अनुपमा गुप्ता कहती हैं कि गर्भावस्था के दौरान भारत में 50 % से अधिक महिलायें खून की कमी तथा कुपोषण के अन्य प्रकारों से जूझती हैं , जिनके लिए मांसाहारी भोजन में प्रोटीन, आयरन और कार्बोहाइड्रेट की पूर्ती होती है. खुद शाकाहारी गुप्ता बहुसंख्य मांसाहारी जनता की हकीकत को नजरअंदाज करने से बचने का सुझाव देती हैं. उन्होंने कहा कि सेक्स करना या न करना स्वास्थ्य की स्थिति का मामला है. मसलन पहले तीन महीने में सेक्स करना कई तरह की समस्यायें पैदा कर सकता है, लेकिन यदि गर्भावस्था सामान्य है तो उसके बाद के तीन महीनों में सावधानी के साथ सेक्स किया जा सकता है. बल्कि कई बार महिला के मानसिक स्वास्थ्य के लिए यह लाभकारी भी सिद्ध होता है. क्योंकि शरीर व मन पर अतिरिक्त बोझ डालने वाली इस स्थिति के दौरान कई महिलाओं में तनाव की स्थिति निर्मित होती है और सेक्स तथा पति से शारीरिक निकटता इस तनाव को दूर करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. उन्होंने स्पष्ट किया कि गर्भावस्था के दौरान सेक्स के फायदे गिनाने वाले चिकित्सीय शोध इंटरनेट पर न भी मिलें तो, ‘गर्भावस्था में मनोविज्ञान’ पर उपलब्ध पुस्तकें इस तथ्य पर प्रकाश डाल सकती हैं.
![]() |
गर्भवती महिला का डायट |
चाइल्ड केयर लीव बनाम मातृत्व की ठेकेदारी पर ठप्पा
डाॅ. अनुपमा कहती हैं कि क्रोध, नफरत आदि मनोभावों से बचना गर्भवती स्त्री के लिए जरूर फायदेमंद है, जिसका अनुपालन किया जा सकता है, और उसका कारण वैज्ञानिक है. लेकिन बड़ी बात यह है कि यह तभी कारगर हो सकता है, जब महिला का परिवार और समाज भी इस प्रकार का वातावरण निर्मित करने में सामूहिक रूप से योगदान दे. यदि माँ बन रही स्त्री के चारों ओर प्रताड़णा, धोखे, लालच और नफरत का वातावरण पहले से ही है, तो वह अकेली स्वयं को तथा आने वाले बच्चे को इन सब से कैसे बचा पायेगी? क्या गर्भावस्था के दौरान उसे वनवास में रहने की सलाह दी जा रही है?
सच तो यही है कि आयुष गर्भवती स्त्रियों को जो सलाहें दे रहा है, वे तब तक कारगर नहीं हो सकतीं जब तक समूचा समाज इसमें मदद नहीं करता. वे कहती हैं साथ ही यदि ये सलाहें चिकित्सा से जुड़े एक जिम्मेदार मंत्रालय द्वारा दी जा रहीं हैं, तब इन सलाहों को सबसे पहले वैज्ञानिक होना चाहिये और तब ही उनके सवालिया सांस्कृतिक व आध्यात्मिक पहलुओं की तरफ नज़र डालने के बारे में सोचा जा सकता है, उसके पहले बिल्कुल नहीं. स्त्रियों को उनके मौलिक अधिकारों तक को देने में कछुये की चाल से चल रहे एक देश-समाज में, स्वस्थ व नीतिवान शिशुओं को जन्म देने की जितनी जिम्मेदारी माँ की हो सकती है, उससे कहीं अधिक परिवार और समाज की होनी चाहिये, इस सत्य का सामना सरकारी महकमों को करना ही चाहिये, यदि वे सचमुच ही देश की तरक्की चाहते हैं