प्रत्यूषचंद्र मिश्र संवेदनशील कवि हैं. राजेंद्र यादव की तरह प्रत्यूष को भी पैरों में समस्या है. राजेंद्र जी को समयांतर में याद करते हुए पंकज बिष्ट ने लिखा था ‘अगर उनके दोनों पैर सही होते तो कहा नहीं जा सकता कि हिंदी साहित्य में उनकी भूमिका क्या रही होती।’ आहत प्रत्यूष ने तब उन्हें चिट्ठी लिखी थी. वे मैत्रेयी पुष्पा द्वारा अपनी किताब ‘सफ़र था कि मुक़ाम था’ में राजेंद्र जी को बार-बार अपाहिज, अपंग, लंगडा कहे जाने से एकबार फिर आहात हुए हैं. प्रत्यूष की चिट्ठी, जो उन्होंने पंकज बिष्ट को लिखी थी. उन्होंने फेसबुक पर संजीव चंदन का स्टेटस में किताब में राजेंद्र जी के लिए मैत्रेयी के इन शब्दों को पढ़कर स्त्रीकाल को 4 साल पुरानी चिट्ठी उपलब्ध कराई है.
समयांतर (संपादक महोदय)
समयांतर के दिसंबर अंक में राजेंद्र यादव को याद करते हुए पंकज बिष्ट का संस्मरण ‘असहमति के सहयात्री’ में राजेंद्र जी के व्यक्तित्व को कई कोणों से देखने-परखने की कोशिश की गई है। इस आलेख में पंकज जी ने कुछ ऐसी बातें भी जाने-अनजाने कह दी हैं जो उन जैसे संवेदनशील रचनाकार को शोभा नहीं देता। हमारे समाज का पूरा ढांचा ही स्त्रियों, दलितों एवं आदिवासियों के साथ ही विकलांगों के प्रति हिंसक मनोभावों को अपने जेहन में समाए हुए है। अधिकांश लोगों में तो यह चेतना केउपरी स्तर पर ही ही है लेकिन समाज के खासे प्रबुद्ध लोगों के बीच भी यह अवचेतन में गहरे तक धंसा हुआ है जो गाहे-बेगाहे बाहर आ ही जाता है।
कवि जीतेंद्र और तद्भव के संपादक अखिलेश के साथ प्रत्यूषचंद्र मिश्रा |
पंकज बिष्ट के इस संस्मरण लेख में इसकी एक साफ झलक देखी जा सकती है। राजेंद्र जी को याद करते हुए उन्होंने उनकी विकलांगता का जिक्र किया है (पृष्ठ 13) । यहां तक तो ठीक था, लेकिन कहते-कहते उन्होंनें यह भी कह दिया कि ‘अगर उनके दोनों पैर सही होते तो कहा नहीं जा सकता कि हिंदी साहित्य में उनकी भूमिका क्या रही होती।’ मेरी समझ में नहीं आता कि उनके दोनों पैर सही होने से उनके साहित्यिक योगदान पर क्या असर होता? शारीरिक अक्षमता को किसी व्यक्ति की कार्य अक्षमता से जोड कर देखना अक्सर एक सतही निष्कर्ष होता है । होता तो यह है कि शारीरिक अक्षमता व्यक्ति में किसी विशेष क्षमता का सृजन ही करती है। इसके लिए किसी शास्त्र विशेष की जानकारी की आवश्यकता नहीं है। मगही की एक कहावत है ‘आंधर-लांगड़ तीन जौ आगर’.
साहित्यिक मानदंडों की बात करें तो सूरदास की दृष्टि अगर सामान्य रही होती तो शायद वे वो नहीं देख पाते जो उन्होंने देखा। जॉन मिल्टन की पूरी रचनात्मकता का यदि विश्व साहित्य आज भी ऋणी है तो इसमें उनकी विकलांगता कहीं बाधक नहीं बनती। मिल्टन और सूरदास किसी भी साहित्यिक मानदंड पर कहां अक्षम साबित होते हैं मेरी समझ में नहीं आता।हमारे दौर के सबसे बड़े वैज्ञानिक स्टीफेन हाकिंग शारीरिक रूप से यदद पूरी तरह फिट होते तो दुनिया कौन से सातवें ग्रह पर चली गई होती. मेरी समझ में नहीं आता। दरअसल यह हमारी सामान्य समझ ही है जो प्रत्येक चीज को मानकीकृत रूप में देखने की आदि हो चुकी है. शक्ति और वर्चस्व आधारित इस समझ के शिकार हमारे रचनाकार भी हो रहे हों तो क्या आश्चर्य !
प्रत्यूष चंद्र मिश्रा , सम्पर्क: 09122493975
17 जून को संजीव चंदन का फेसबुक स्टेटस
क्या वह ‘अपाहिज’ छः रोटियाँ खाता था!
इस पोस्ट को लिखते हुए और राजेंद्र जी के समकालीनों से पूछते हुए मैं क्रोध से भी भरा हूँ और व्यंग्य से भी . ‘वह सफ़र था कि मुक़ाम था’ के पेज न 71 पर आकर दिमाग भन्ना गया है कि हमारी भाषा की दुलारी और बड़ी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा क्या वर्जीनिया वुल्फ की किताब के बारे में यह भी नहीं जानती कि वह बहुचर्चित किताब ‘One’s room is own’ है (जैसा कि यहाँ लिखा है) या ‘A room of one’s own. क्या सम्मानित लेखिका गूगल करना भी नहीं जानतीं !
खैर, राजेंद्र जी के समकालीनों से एक सवाल करूं उसके पहले यह किताब पढ़ते हुए यह देख रहा हूँ कि यहां दो चीजों की बड़ी वकालत है , एक मैत्रेयी के खुद के लेखन की और उनकी राजेंद्र जी के प्रसंग में कथित शुचिता की. महिलाओं के मामले में यौन-मुक्ति की पक्षधर लेखिका कमलेश्वर जी के दो महिलाओं से पिता होने को चरित्र का प्रसंग मानती हैं, मानो महिलायें जब यौनमुक्त होंगी तो पुरुष की कोई भूमिका ही नहीं होगी, या फिर विवाहेत्तर प्रेम करती महिलायें चुन-चुनकर क्वांरे पुरुष खोजेंगी, किसी कमलेश्वर को नहीं.
जब वे अपने लेखन, अपनी प्रतिभा की वकालत कर रही होती हैं तो वे राजेन्द्र जी जैसे ‘बड़े संपादक-लेखक’ की गवाही खड़ा करती हैं, अपने लिए लिखे गये उनकी टिप्पणियों का कोट्स लेती हैं और जब वे अपनी शुचिता की गवाही देती हैं तो राजेंद्र जी को अपाहिज, लंगडा, विकलांग बताती हैं- शुचिता का प्रसंग देह से है तो वे पाठकों को ध्यान दिलाती चलती हैं कि दैहिक स्तर पर अपाहिज हैं. यह संबोधन इतनी बार है कि पढ़ते-पढ़ते आप तनाव से भर जायेंगे. औपन्यासिक संस्मरण इस शुचिता की गवाही के लिए पाठकों को कई-कई यात्राओं के प्रंसग से जोड़ता है और फिर उन यात्राओं में एकांत का उद्दीपन भी पैदा करता है. वहाँ फिर बेचारे अपाहिज राजेंद्र जी अपनी सखी से पुराने, नये प्रेम प्रसंग की चर्चा भर ही कर पाते हैं. हद तो यह भी है कि जम्मू में मैत्रेयी ‘दो लम्पट, शराबखोर’ पुरुषों के अकेलेपन से अकेली रु-ब-रू होती हैं, तरस खाती हैं, लेकिन शुचितापूर्ण तरस. वैसा तरस नहीं जैसा चाक की कलावती चाची अपने दामाद पर खाती है! यह महान साहित्यकार का सतीत्व प्रसंग है, जबकि राजेंद्र जी के आस-पास की कथित ‘मुग्धा मध्या ( मैत्रेयी के शब्दों) हुनर नहीं हुश्न का जाल बिछा रही थीं उनके इर्द-गिर्द.
गुस्सा और व्यंग्य से कोई भी भर जायेगा जो राजेंद्र जी को प्यार करता है, जो उनके हस्तक्षेप को हिन्दी समाज और भाषा का युगांतकारी हस्तक्षेप मानता है. राजेंद्र जी हमसब के इसीलिए प्रिय हैं. लेकिन मैं यह पोस्ट अपने गुस्से को व्यक्त करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ. मेरा कौतुहल कुछ और है. राजेंद्र जी को नजदीक से जानने वाले एक बड़े लेखक ने मुझे बताया कि वे बड़े ही संयमित व्यक्ति थे-दो रोटी खाते थे तो दो रोटी ही खायेंगे, दो पैग लेते थे तो दो ही, मजाल है कि कोई तीसरे तक उन्हें ले जाये, चाहे कितना भी सुस्वादु भोजन क्यों न हो और चाहे कितना ही यारबाश महफ़िल क्यों न हो! .’ इस संयम की पुष्टि एक और बड़े लेखक ने की. लेकिन ऐसा क्या है कि वे यात्रा में जाते हुए मैत्रेयी जी के हाथ से पूरे छः पराठे खा गये और दो बाँध कर रख लिए सुबह तक के लिए ! सच में ऐसा भी करते थे क्या राजेंद्र जी !