सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय
लखनऊ.
संपर्क:kiran.shipra@gmail.com
साहित्य के फिल्मी रूपांतरण की कड़ी में यूँ तो कई फ़िल्में आईं हैं किन्तु कुछ ही फ़िल्में ऐसी हुईं जो हिन्दी सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुईं. सिनेमा और साहित्य के इसी कड़ी को मजबूत करती एक फिल्म है- साहब, बीवी और गुलाम. विमल मित्र के उपन्यास पर बनी यह फिल्म वर्ष 1962 में रिलीज हुई थी. इसे उस वर्ष के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का सम्मान मिला था साथ ही फिल्मफेयर पुरस्कारों में इसे चार श्रेणियों में एक साथ सम्मानित किया गया. जिनमें से दो पुरस्कार अभिनय के लिए थे जो क्रमशः सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए गुरुदत्त व सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए मीना कुमारी को दिए गए. उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों की कथा कहतीऔर कलकत्ते की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म कई मामलों में ख़ास हो जाती है.कई गहरे प्रतीकों और शानदार अभिनय से सजी यह फिल्म भारतीय समाज और इतिहास के एक ख़ास दौर के विभिन्न पहलुओं का लेखा-जोखा देती है और इसी क्रम में स्त्री मन के एक नए पक्ष को हमारे सामने ले आती है.
पूरी फिल्म भारतीय सामंती समाज के विघटन को आधार बना कर चलती है. फिल्म की शुरुआत एक ढही या ढाही जा रहीहवेली से होती है और यह पहला दृश्य ही पूरी कहानी का खाका प्रस्तुत कर देता है. ढहती या ढाही जा रही वह हवेली ख़त्म होतीजमींदारी और उसकी जर्जर अवस्था का प्रतीक है.बीच बीच में पागलों की तरह चीख-चीख कर हवेली के बूढ़े घड़ीवार का भूतनाथ से कहा गया यह कथन सामंती व्यवस्था के शोषक चरित्र व बीतते समय के साथ ज़मींदारों के ख़त्म होते रसूख को बखूबी बयान करता है- “भाग जा वहीं भाग जा. इन हवेलियों से दूर रह. घड़ी भ्रमनाशिनी है. हर भ्रम को तोड़ा है इसने. महाकाल के इसने टुकड़े टुकड़े कर डाले. घंटे, मिनट और सेकेण्ड में. वक्त की आवाज़ सुन और भ्रम को पहचान. ताजो-तख़्त नहीं रहे, महल नहीं रहे, ये हवेलियाँ भी नहीं रहेंगी.”1 घड़ीसाज के अतिरिक्त इन हवेलियों में काम करने वाले बंशी जैसे नौकर के इस बात से भी इन महलों की सच्चाई समझी जा सकती है जब वह बार बार कहता है- “अजीब घर है.”2इन हवेलियों के सामंतों की खस्ता होती हालत, उनकी ऐय्याशियों के बीच सबसे दयनीय स्थिति यदि किसी की थी तो वह थी सूनी और खँडहर होती हवेलियों में रहने वाली औरतकी. फिल्म के प्रारंभ में ही मीना कुमारी अर्थात छोटी बहू के इस कथन से इस स्थिति को नजदीक से समझा जा सकता है जब वह कहती है- “यहाँ दिन सोने के लिए है और रात जागने के लिए- इस घर की रीत है.”3यह सिर्फ उसी घर की नहीं बल्कि सभी सामंती हवेलियों की रीत बन चुकी थी. यहाँ की औरतें-पत्नियां अपने पतियों की प्रतीक्षा में रातें जाग कर गुजारतीं.लेकिन पति अपनी रातें कहीं और बिताता था. स्त्री की इसी वास्तविक स्थिति का बयान है यह फिल्म. वैसे तो फिल्म के सभी किरदार महत्वपूर्ण हैं पर ‘छोटी बहू’ के रूप में मीना कुमारी पूरी कहानी के केंद्र में हैं.
पूरी फिल्म व सभी पात्र छोटी बहू को केंद्र में रखकर ही गढ़े गए हैं.फिल्म में पहली बार छोटी बहू से हमारा सामना तब होता है जब वह अपने पड़ोस में नए रहने आये युवा भूतनाथ अर्थात गुरुदत्त को हवेली आने का बुलावा भेजती है. भूतनाथ रोजगार की तलाश में पहली बार गाँव से शहर आया था. उसे मोहिनी सिन्दूर बनाने के कारखाने में नौकरी मिलगई थी.छोटी बहू ने भूतनाथ को हवेली इसलिए बुलाया था कि वह उससे मोहिनी सिन्दूर मंगाना चाहती थी. वही मोहिनी सिन्दूर जिसे अपने माथे पर सजा कर वह अपने पति और हवेली के ‘छोटे बाबू’ का मन मोह सके और दूसरी औरत से दूर कर उन्हें अपने करीब ला सके. भूतनाथ से तफ्तीस करती है- “उस सिन्दूर का कुछ असर होता भी है कि नहीं?”4क्योंकि वह कई-कई दिन और कई-कई रात घर नहीं लौटते थे. वह किसी पतुरिया अर्थात एक नाचने वाली के कोठे पर अपना समय बिताते. छोटे बाबू का चरित्र उसी ठेठ सामंती पुरुष का प्रतिनिधित्व करता है जो पतन के कगार पर भी विलास के साधनों में डूबा हुआ था. छोटी बहू के मोहिनी सिन्दूर लगाने का भी जिस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. जबकि सिन्दूर की मात्रा दिन-ब-दिन बढ़ती ही जाती है. गोल बिंदी के अलावा अब वह मोहिनी सिन्दूर को अपनी मांग के बीचोंबीच भी लगाना शुरू कर देती है. सारे श्रृंगार करती है. लेकिन साथ साथछोटी बहू दिन रात उसकी प्रतीक्षा में स्वयं को खोती जाती है. कभी नौकरों को भेजकर तो कभी बीमारी का बहाना बनाकर भी उसे अपने पास बुला लेना चाहती है लेकिन वह हर बार असफल ही होती है.
सामंती और पितृसत्तात्मक समाज की यह कितनी बड़ी विडम्बना थी कि एक स्त्री को अपने ही पति के साथ रहने के लिए उससे झूठ बोलने की नौबत आ गई थी. पूरी फिल्म स्त्री के अस्तित्व के प्रश्न तो खड़े करती ही है, उसी सन्दर्भ में मोहिनी-सिन्दूर के माध्यम से सिन्दूर जैसे वैवाहिक प्रतीकों के सामर्थ्य पर भी सवाल उठाती है.एक रात जब छोटी बहू अपने पति को बाहर जाने से रोकती है और उससे सवाल करती है कि इतनी बड़ी हवेली में मैं तुम्हारे बिना क्या करूं तो वह कहता है- “गहने तुड़वाओ, गहने बनवाओ और कौड़ियाँ गिनो. सोओ आराम से.”5क्या हवेलियों में रहने वाली एक समृद्ध स्त्री का एकमात्र यही काम था? धार्मिक-सामजिक रीति-रिवाजों द्वारा वैवाहिक बंधन को जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध मानने वाली छोटी बहू जैसी स्त्रीअपने साथ हुए छल को देख कर हतप्रभ रहती है.अपनी पीड़ा को वह खूब हंसती हुई इन शब्दों में व्यक्त करती है- “इतने बड़े घर की बहू बनी मैं. इतना रुपया-पैसा, नौकर-चाकर, जेवर-गहना, सभी कुछ तो है. पर ये सारे सुख खोखले हैं.”6छोटी बहू का हँसते हुए कहा गया यह संवाद जहां एक गहरी टीस पैदा करता है वहीं उसकी हँसी की आर्द्रता एक अजीब सी करुणा से भर देने वाली है.एक बड़े खानदानी और रसूखदार बहू की यह पीड़ा गहरा व्यंग्य बोध उत्पन्न करती है.छोटी बहू के रूप में मीना कुमारी की सजल-गहरी आँखें एक स्त्री की भावनाओं का अथाह समुद्र लगती हैं.लेकिन अपनी इस पीड़ा को वह इस हवेली मेंकिसके साथ बांटती?सवाल किससे करती जबकि हवेली की अन्य स्त्रियाँ भी उसी सामंती और पुरुषवादी मानसिकता का शिकार हैं. उसी हवेली की मंझली बहू अर्थात छोटी बहू की जेठानी उस पर ताने कसती है, कहती है- “रईस घराने का मर्द जब तक नाच-रंग ना देखे मर्द कैसा!! छी छी! शर्म करो शर्म गुईयाँ. चौधरी वंश का नाम डुबो दिया तुमने. तुम जैसी मर्द के लिए तड़पने वाली औरत हमने आज तक नहीं देखी.”7तब छोटी बहू बहुत पीड़ित होकर कहती भी है- “तुम्हारे देवर के पास मैं कब रहती हूँ मंझली दीदी. इसका मौक़ा ही कब मिलता है मुझे.”8स्त्रियों की मानसिक कंडीशनिंग का उदाहरण है मंझली बहू द्वारा कहा गया यह संवाद. उन स्त्रियों को अपनी स्थिति का एहसास तो क्या होता बल्कि वह पुरुष की गलतियों को भी महिमामंडित करने लगती हैं. और तो औरपति के पास रहने की छोटी बहू की सहज नैसर्गिक मानवीय इच्छा को ही गलत ठहराती हुई उसके स्त्रीत्व का अपमान ही करती है.“तो बेहयाई से हाय हाय क्या करती हो? मर्द आदमी है मेरा देवर.”9उसके लिए पौरुष का अर्थ पति या देवर द्वारा कई अन्य स्त्रियों के साथ सम्बन्ध बनाना ही है.स्त्रीत्व और पौरुष के सही अर्थों को न समझते हुए वह उसे पुरुष का गुण मानती है और उसके इस चरित्र का गुणगान ही करती है. फिल्म में छोटी बहू के चरित्र को मात्र एक समृद्ध सामंती परिवार की किसी पत्नी द्वारा अपने पति का साहचर्य पाने की लालसा रखने वाली स्त्री-पात्र कहना उस सशक्त किरदार और इस पूरी फिल्म की अधूरी समझ होगी. उस जकड़े हुए समाज में अपने पति के साहचर्य के लिए आवाज उठाना भी कहीं न कहीं उस समय और सन्दर्भ में विद्रोह की शुरुआत है.और इस बात से भी कहीं बहुत आगे यह स्त्री के मान, उसके स्वाभिमान और उसके अस्तित्व के लड़ाई की अभिव्यक्ति है.जहां इस तरह के पुरुषवादी समाज में ऐसे जुमले बहुत ही आम चलन में थे- “पुरुष अगर दूसरी औरत के पास ना जाए तो उसे निकम्मा समझा जाता है.”10 या फिर छोटे बाबू का यह कथन- “जिस मर्द को अपना कर्त्तव्य जोरू से सीखना पड़े- लानत है उस पर.”11छोटी बहू की यह लड़ाई किसी एक ‘छोटे बाबू’ या किसी एक पुरुष से नही बल्कि उस पूरी सामाजिक व्यवस्था से है जिसने स्त्री को उसकी भावना और उसकी अस्मिता से अलग कर सिर्फ एक शरीर तक सीमित कर दिया है. छोटी बहू एक जगह कहती भी है- “वो मर्दों को नहीं समझाया जा सकता. कई औरतों को भी नहीं. औरत का इतना बड़ा अपमान! इतनी बड़ी लज्जा!”12यह हवेली के सामंती घुटन का शिकार एक स्त्री की चेतना थी जो उससे यह बात कहलाती है. वह सिर्फ पति के प्रेम में पागल एक स्त्री छवि नहीं बल्कि अपने व्यक्तित्व, अपने स्वाभिमान की चेतना से लैश हो रही स्त्री है. उसे अपने आत्मसम्मान की गहरी समझ है. उसे यह स्वीकार नहीं की हवेली की यथास्थिति को स्वीकार कर जीने वाली अन्य स्त्रियों से उसकी तुलनाकी जाए. उसे इस बात का भी अहसास है कि वह दूसरी औरतों से अलहदा है और वह सचमुच अलहदा है भी. अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए ही वह अपने पति के कहने पर शराब भी पीती है.उसका पति किसी और स्त्री के पास रहने ना जाए इसके लिए आखिरी उम्मीद के रूप में वह शराब के सेवन की शर्त भी स्वीकार कर लेती है. दूसरी औरत की तरह अपने पति को खुश करने के लिए गाने भी गाती है.“छोटी बहू धार्मिक किस्म की मध्यवर्गीय स्त्री है पर अपने पति के पास आने के लिए वह मदिरा पान के लिए भी तैयार है. यही उसके लिए विद्रोह है.”13सचमुच उस समय-सन्दर्भ में वह एक स्त्री का विद्रोह ही कहा जाएगा.यह अलग बात है इसी कोशिश में वह शराब की आदी हो जाती है लेकिन अंततः पति की तरफ से उसे कुछ भी हासिल नहीं होता. वह शराब पीती तो है पर साथ ही उसके भीतर एक अपराधबोध भी घर किये रहता है. ‘स्व’ की चेतना और पति-प्रेम की भावना के बीच के स्त्री-अंतर्द्वंद को छोटी बहू के रूप में मीना कुमारी ने बखूबी चित्रित किया है. छोटे बाबू अपने जिस पौरुष के मद में चूर थे उनसे वह सवाल करती है कि “तुम क्या दे सके मुझे? मुझे माँ कह कर पुकारनेवाला…?”14उस सामंती युग में किसी पुरुष से सवाल करती और उसके पौरुष के छद्म-अहम् पर प्रश्नचिन्ह लगाती स्त्री है साहिब, बीवी और गुलाम की छोटी बहू. अंत में छोटे बाबू के लकवाग्रस्त हो जाने पर अपने लकवाग्रस्त पति के इलाज के लिए छोटी बहू रात में भूतनाथ के साथ हवेली से निकलती है लेकिन रास्ते में ही छोटे बाबू का मंझला भाई उसकी ह्त्या करवा देता है. क्योंकि वह जानता था कि जमींदारी अब बची नही और जो रही-सही संपत्ति है उसे वह छोटी बहू के साथ बांटना नहीं चाहता था. अपने तथाकथित चौधराना सम्मान की रक्षा के लिए छोटी बहू की लाश हवेली में ही दफना दी जाती है. उसी लाश की हड्डियां फिल्म के अंत में ओवरसियर भूतनाथ को टूटी हुई हवेली के मलबे के बीच मिलती है. उसके हाथ के कंगन बताते हैं कि वह छोटी बहू के ही हड्डियों का ढांचा है. इस तरह अपने सम्मान के रास्ते तलाशती स्त्री की मौत उस तत्कालीन व्यवस्था का सच तो बयान करती ही है साथ ही हमें वर्तमान व्यवस्था के सामंती अवशेषों के प्रति भी आगाह करती है.
वर्तमान समय की खाप पंचायतें और सम्मान की आड़ में हो रही हत्याएं या ऑनर किलिंगके मामले उसी अवशेष का प्रमाण हैं. बीतते समय के साथ ध्वस्त होती जमींदारियों के बीच भी भारतीय सामंत अपने झूठे गौरव व मद से बाहर आने को तैयार नहीं था. रस्सी जल चुकी थी पर ऐंठन नहीं गई थी. वह साहब, बीवी और गुलाम के बड़े बाबू की तरह कबूतरों की प्रतियोगिता करा रहा था. उसने किसानो और मजदूरों को अपनी ज्यादतियों का शिकार बनाने के लिए गुंडे और लठैत भी पाल रखे थे.फिल्म का एक पात्र भूतनाथ से इस व्यवस्था के अत्याचार का परिचय कुछ इस तरह देता है- “यहाँ की हर बात बड़ी है भैया. मकान बड़े, लोग बड़े, नाम बड़े, दाम भी बड़े…यहाँ की हर बात बड़ी है और इस सारे बड़प्पन का बोझ हम छोटे लोगों की गर्दन पर है. या तो गर्दन ऐंठ जाती है या मरोड़ी जाती है.”15यह संवाद प्रेमचंद के गोदान में वर्णित सामंती शोषण के चित्रण की याद दिलाता है.इसका उदाहरण फिल्म के प्रारंभिक दृश्यों में ही हम देख सकते हैं कि बड़े बाबू अपना अधिकार मांगने आये एक गरीब किसान को किस तरह अपने गुंडों से पिटवाते हैं. एक लठैत तो बड़े बाबू से यहाँ तक कहता है- “अब तो हमारे पास कोई काम रहा नहीं, औजारों में जंग लग गया है जब से जमींदारी गई है.”16इन्हीं गुडों को वह अपने ही घर की स्त्री की हत्या की सुपारी देता है.फिल्म में छोटी बहू की हत्या के बाद भूतनाथ अपनी नौकरी के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर जाता है. जब वह लौटकर वापस आता है तब तक स्थितियां बदल चुकी होती हैं. भूतनाथ बंशी से पूछता है- “हवेली की ये क्या हालत हो गई?” बंशी बताता है- “अस्तबल, घोड़ा गाड़ी सब बिक गवा है. सात महीने से नौकरों को तनख्वाह नहीं मिली. छोटे बाबू को लकवा मार गया है.”17अपने सामंती शौक को पूरा करने में धीरे धीरे उनकी तिजोरियां भी खाली हो चुकी थीं. छोटे बाबू को लकवा मारना, हवेली का ढहना, मंझली बहू का मायके चली जाना आदि घटनाओं से जमींदारी प्रथा के अंतिम चरण और उसकी दयनीय होती स्थिति को समझा जा सकता है. यह सब कहीं न कहीं एक दमनकारी व्यवस्था के खात्मे का प्रतीक है.
छोटी बहू की भूमिका में मीना कुमारी ने अविस्मरणीय अभिनय किया है. उनकी आवाज, उनके सौंदर्य में मादकता, पीड़ा और मासूमियत का मेल सम्मोहित करता है. प्रसिद्ध फिल्म आलोचकविनोद भारद्वाज ने मीना कुमारी के विषय में लिखा है- “मीना कुमारी के व्यक्तित्व को रोमैंटिक ढंग से देखा गया है. उनके जीवन को कभी लम्बी दर्द भरी कविता कहा गया है तो कभी दुखी और सताई हुई स्त्री की छवि उनमें देखी गई है. लेकिन फर्क यह था कि यह दुखी स्त्री लड़ना भी जानती थी.”18मीना कुमारी ने छोटी बहू के माध्यम से अपने मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्ष करती स्त्री के किरदार को अपने सशक्त अभिनय से और अधिक सशक्त बनाया है. रुढ़िग्रस्तभारतीय सामंती समाज में स्त्री-प्रश्नों से रूबरू कराती यह फिल्म अपने समय से कहीं बहुत आगे निकल जाती है.
सन्दर्भ सूची
1.साहब, बीवी और गुलाम- घड़ीवार का आत्मालाप, फिल्म निर्माण वर्ष-1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
2.साहब, बीवी और गुलाम- नौकर बंशी का आत्मालाप, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता- निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
3.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और भूतनाथ के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता- निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
4.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और भूतनाथ के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता- निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
5.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बाबू और छोटे बाबू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
6.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और भूतनाथ के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
7.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और मंझली बहू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
8.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और मंझली बहू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
9.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और मंझली बहू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
10.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और छोटे बाबू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
11.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और छोटे बाबू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
12.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और भूतनाथ के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
13.सिनेमा : कल, आज, कल- विनोद भारद्वाज, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या- 421
14.साहब, बीवी और गुलाम- छोटी बहू और छोटे बाबू के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
15.साहब, बीवी और गुलाम- भूतनाथ और उसके बहनोई के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता-निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
16.साहब, बीवी और गुलाम- बड़े बाबू और लठैतों के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता- निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
17.साहब, बीवी और गुलाम- भूतनाथ और बंशी के मध्य संवाद, फिल्म निर्माण वर्ष- 1962, फिल्म निर्माता- निर्देशक- गुरुदत्त,अबरार अल्वी.
18. सिनेमा : कल, आज, कल- विनोद भारद्वाज, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ संख्या- 421
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