मृत्युशैया पर एक स्त्री का बयान

डॉ. आरती  

संपादक , समय के साखी ( साहित्यिक पत्रिका ) संपर्क :samaysakhi@gmail.com



मृत्युशैया पर एक स्त्री का बयान


1.
सभी लोग जा चुके हैं
अपना अपना हिस्सा लेकर
फिर भी
इस महायुद्ध में कोई भी संतुष्ट नहीं है
ओ देव! बस तुम्हारा हिस्सा शेष है
तीन पग देह
तीन पग आत्मा
मैं तुम्हारा आवाहन करती हूँ

2.
ओ देव अब आओ
निसंकोच
किसी भी रंग की चादर ओढ़े
किसी भी वाहन पर सवार हो
मुझे आलिंगन में भींच लो
अब मैं अपनी तमाम छायाओं से मुँह फेर
निद्वंन्द हो चुकी हूँ

3.
धरती की गोद सिमटती जा रही
मैं किसी अतल लोक की ओर फिसलती जा रही हूँ
प्रियतम का घर
दोनों हाथ खालीकर
बचे खुचे प्रेम की एक मुट्ठी भर
लो पकड़ लो कसकर हाथ मेरा
जल्दी ले चलो अब कहीं भी
हाँ मुझे स्वर्ग के देवताओं के जिक्र से भी घृणा है

4.
अब कैसा शोक
कैसा अफसोस
कैसे आँसू
यह देह और आत्मा भी
आहुतियों का ढेर मात्र थी
एक तुम्हारे नाम की भी
स्वाहा!!

5.
ओह पहली बार, अप्रतिम सुख का साक्षात्कार
चिरमुंदी आँखों का मौन सुख
सभी मेरे आसपास हैं
सभी वापस कर रहे हैं
मेरी आहुतियाँ
अब तक की यादें
आँसू
वेदना
ग्लानि
बूँद बूँद स्तनपान

6.
अधूरी इच्छाओं की गागरें
हर कोने में अभी भी रखी हैं
सर उठातीं जब भी वे
एक एक मुट्ठी मिट्टी डालती रही
बाकायदा ढंकी मुंदी रहीं
उसी तरह जैसे चेहरे की झुर्रियाँ और मुस्कानें
आहों आँसुओं और सिसकियों पर भी रंग रोगन
आज सब मिलकर खाली कर रहे हैं
अंजुरी भर भर
आत्माएँ गिद्धों की मुर्दे के पास बैठते ही दिव्य हो गईं

7.
मेरी इच्छाओं का दान चल रहा है
वे पलों-क्षणों को भी वापस कर रहे हैं
तिल चावल
जौं घी दूध
सब वापस
सब स्वाहा
उनकी किताबों में यही लिखा है
यह समय मेरा नहीं है फिर भी
यह समय मेरा नहीं है
फिर भी मैं समय में हूँ
यह समय कुछ खास किस्म के बुद्धिजीवियों
का समय घोषित हो चुका है
फिलहाल छोटे से छोटा विश्लेषण जारी है
दरो-दीवारों के किसी भी कोने में लगे
मकड़ी के जालों पर भी शोधकार्य हो सकता है
बशर्ते मकडिय़ों की मौत की साजि़शों का जिक्र न आये
नाटक अभी भी जारी है
मंच पर मेरे प्रवेश का समय वह था जब
चारों ओर घुप्प अंधेरा
बेफिक्री से गहरी नींद फरमा रहा था
कुछ देर बाद थोड़ा-सा अँधेरा छँटा
एक हलके प्रकाशपुंज का प्रवेश हुआ कि
दबी घुटी एक चीख सुनाई पड़ी
प्रकाश गोलाकार वृत्त से होता हुआ समूचे मंच पर फैलने लगा
और चीखें भी
प्रकाश की आँख मिचौनी, फैलना-सिकुडऩा
वैसे तो तकनीकी कौशल का नमूना था
कुछ उंगलियाँ हरकतें करतीं और
अँधेरा उजाले में और
उजाला अँधेरे में कायांतरित हो जाता
इन दिनों इन कौशलों का विधिवत प्रशिक्षण दिया जाता है
तकनीक परदा उठाने-गिराने की जहमत से मुक्ति दिलाती है
फिर भी चीखें गले से ही निकलकर आ रही थीं
भरपूर साहस के बाद ही संभव हो पाता है
इस प्रकार चीख सकना
तरह तरह के बनते बिगड़ते चेहरे
मेरी आँखों के सामने से आ जा रहे थे
एक बदहवास लडक़ी चीख में सनी हँसी हँसती
दाएं अँधेरे कोने में जाकर गुम हो गई
कुछ औरतें
नकाब ढंके भयाक्रांत चेहरे
ऊपर की ओर हाथ फैलाए
चीख में लिपटी रुलाई रो रही थीं
थके हारे, बीमार से पुरुषों का एक दल
कोई अदृश्य रस्सी उन्हें खींचे जा रही थी
थामे हुए हाथ कहीं नजर न आ रहे थे
दृश्य निरंतर बदल रहे हैं
एक के बाद एक आ-जा रहे थे
कभी सडक़ तो कभी अस्पताल
कभी चौराहा तो कभी संसद भवन
स्कूल दफ्तर रसोई छत बरामदा
न्यायालयों के भीड़ भरे परिसर
नगरपालिका के नल के आगे लगे पीले डिब्बों की कतारें
सुपर बाजार

खेत खदान
फैक्ट्री मकान
अनगिनत जर्जर बूढ़े बीमार
टूटी चप्पलें हाथ में लिए चीख रहे थे
शायद पुकार रहे थे…
मेरे हाथों में एक डायरी थी अभी
वहाँ आखिरी पृष्ठ पर मेरे देश के साथ ही
तमाम देशों के नक्शे उकेरे थे
मैं वहीं कहीं उंगली रखने के लिए
कोई सुरक्षित जगह ढूँढऩे लगी
हर जगह रक्त के लाल-काले धब्बे दिखे
भयावह चीखों से भरी दास्तानें मिलीं
कर्ण की तरह भी नहीं मिली मुझे सुईभर सुरक्षित जमीन
इतनी चीखों सिसकियों और भयंकर अट्टहासों के बीच भी
ऐसा लग रहा है कि सब बहरे हो गए हैं
किसी के चेहरे पर बेचैनी और आक्रोश का कोई चिन्ह दिखाई नहीं दे रहा
अब तक की दबी घुटी चीखों का समवेत स्वर
मंच पर यूँ उभरा कि
वे संगीत की तरह ही कानों को सहन होने लगे
मंच के सामने पहली पंक्ति में बैठे लोग टेबिलों पर
और बाकी के अपनी जंघाओं पर
तीन तीन थापें दे रहे थे
यह तो पहला दृश्य था
दूसरा दृश्य- दर्शकों का एक दल चीखता हुआ दीर्घा के बाहर निकल गया
और दूसरा मंच की समवेत चीखों में शामिल हो गया
अब आप भी बताएं यह नाटक का सुखांत है या दुखांत
वैसे नाटक अभी जारी है

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