इतिहास में पहली बार गृहणियों के पारिश्रमिक के हक़ में कोर्ट का फैसला

कादम्बरी

फ्रीलांस पत्रकार.स्त्री मुद्दों पर केन्द्रित पत्रकारिता करती है. सम्पर्क : kadambari1992@gmail.com

कुछ ऐतिहासिक फैसले चुपके से आते हैं और बिना चर्चा के ओझल हो जाते हैं.  न चर्चा की भी अपनी राजनीति होती है. कादम्बरी बता रही हैं महिलाओं के हक़ में मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को, जिसे मुख्य मीडिया ने तवज्जो नहीं दिया. 
संपादक 

बाथरूम की सफाई से लेकर, कपड़े धोने, इस्त्री करने, खाना बनाने, सफाई करने, बर्तन धोने, झाड़ू पोछा लगाने के साथ-साथ खिड़कियों से लेकर, टेबल, बिछौना, कार आदि की सफाई तक,  महिलाएं सभी घरेलू अनगिनत प्रकार के काम करती हैं जिनकी न तो कोई गणना होती है न ही कोई मूल्यांकन किया जाता है। अब तक इन कार्यों के लिए उचित वेतन व्यवस्था का प्रस्ताव भी नहीं किया गया है। इन सबके बावजूद महिलाएं इन  अप्रत्यक्ष  श्रम को अंजाम दे रही हैं. परंतु  रोजगार और सामाजिक सुरक्षा नीतियां घर में महिलाओं के श्रम की उपेक्षा, अनदेखी करती आई हैं।
लेकिन स्वतंत्र भारत के न्यायिक इतिहास में पहली बार, एक अदालत ने एक गृहिणी के कार्य को पहचाना, सत्यापित किया तथा उसकी आय को आंका। गत 28 जून को न्यायमूर्ति के.के.शशिधरन और न्यायमूर्ति एम.मुरलीधरन की एक डिवीज़न बेंच ने अप्रत्यक्ष कार्यों और देखभाल का मूल्यांकन किया उसे स्वीकृत किया,  जो हर रोज महिलाएं अपने घरों में करती हैं। ऐसे समाज में जहां गृहिणियों का काम कभी भी ‘काम’ के रूप में नहीं माना गया है, इस फैसले ने घरेलू कार्यों के प्रति एक उन्नत और बेहतर दृष्टिकोण पेश किया है।

मद्रास हाईकोर्ट का केस


एक मामले में, मद्रास हाईकोर्ट में पुडुचेरी इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड ने अपील की, जिसमें उन्हें मालती नाम की एक गृहिणी के पति को 5 लाख के मुआवजे का भुगतान करना था। मालती की मौत 2009 में इलेक्ट्रोक्यूशन यानि बिजली के खुले तार की चपेट में आने से हुई थी। इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड ने अपील की कि मालती एक गृहिणी थी और उनकी कोई आय भी नहीं थी, इसलिए मुआवजे की रक़म बहुत अधिक है।

गृहिणी को परिवार का ‘वित्त मंत्री‘  बताते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि वह एक कर्तव्यनिष्ठ पत्नी और अपने दो बच्चों को प्यार करने वाली ममतामयी मां थी। वह परिवार की न केवल चार्टर्ड एकाउंटेंट थी, जो आय और व्यय का ध्यान रखती थी, बल्कि शेफ भी थी। मासिक आय का मूल्यांकन करते हुए अदालत ने उक्त महिला की आय 3,000 रूपये प्रति माह माना। अदालत ने एक गृहिणी के गैर मान्यता प्राप्त, अवैतनिक कार्य को वैतनिक, स्वीकृत श्रम के समान माना और एक गृहिणी के कार्य को बराबरी का दर्जा दिया है। इस बराबरी के दर्जे को सामने लाना अदालत, न्यायाधीश और मालती के केस के वकील का एक युगारंभ करने वाला और महत्त्वपूर्ण क़दम है। चाहे एक महिला के पास नौकरी हो या नहीं, वह सभी वार्षिक, मासिक, साप्ताहिक, दैनिक घरेलू काम करती है। हालांकि 3000 रूपये मात्र मासिक आया मानना भी कम है लेकिन देर से ही सही एक स्वीकृति तो यह है ही.

परंपरा या रुढ़िवाद

बरसों से चली आ रही परंपराओं के अनुसार इन कार्यों को माता, पत्नी, बहन या बेटी का किसी भी वेतन की उम्मीद किए बगैर अकथित ‘कर्तव्य’ माना जाता है। यह घरेलू कामगारों को न्यूनतम मजदूरी भी न  मिलने के प्रमुख कारणों में से एक है। विनिर्माण क्षेत्र, परिवहन क्षेत्र जैसे विभिन्न क्षेत्रों को देश के कुल श्रम में जोड़ा जाता है। श्रम और रोजगार मंत्रालय, देहाड़ी मजदूर और घरेलू श्रमिकों जैसे असंगठित क्षेत्रों को भी शामिल करता है, लेकिन इसमें दिन-रात अपने घरों में काम करने वाले गृहिणियों के श्रम को शामिल नहीं किया जाता है।

संयुक्त राष्ट्र के आठवें महासचिव बान की मून कहते हैं, “घरेलू स्तर पर, देखभाल सहित अवैतनिक काम अदृश्य बने हुए हैं”। गृहिणियां एकमात्र ऐसी श्रमिक हैं जिनको नियमित या अनियमित छुट्टी नहीं मिलती है, एक बड़ा वर्ग जो अवकाश-रहित काम करता है और जो बच्चों के साथ-साथ बुजुर्ग माता-पिता की भी देखभाल करता है। उनके पास कोई निश्चित आय स्रोत नहीं है, न कोई स्वास्थ्य जांच, प्रसूति या आकस्मिक बीमा या पेंशन जैसे कोई अन्य लाभ भी नहीं हैं।

दलित और आदिवासी महिलाओं की स्थिति और भी बद्तर है। वे न केवल खाना पकाने, सफाई, देखभाल जैसे घरेलू काम करती हैं, बल्कि बाहरी काम भी करती हैं जैसे खेती, बाज़ार जाकर घर के लिए भाजी तरकारी और अन्य सामान को खरीदना, कोसों दूर स्थित कुएं से बाल्टियों में पानी भरकर लाना, जानवरों की देखभाल करना और चूल्हे के लिए लकड़ी को एकत्रित करना आदि ।
‘अदृश्यता’ के कारण उत्पन्न विषमताएँ

घरेलू कार्यों की ‘अदृश्यता’ के कारण कई विषमताएँ उत्पन्न हो रही हैं जैसे देश के आर्थिक और सामाजिक विकास में अपर्याप्त योगदान, आवश्यक व ज़रूरी होने के बावजूद प्रजनन का कोई महत्त्व न होना, लैंगिक असमानता, भेदभाव, लिंग के बीच श्रम विभाजन में असंतुलन और रूढ़िवादी धारणाओं में वृद्धि जिसमें महिलाओं को सिर्फ देखभाल करने वाली मानना और पुरुषों को कमाने वाला मानना शामिल है।

सामाजिक विकास के लिए 2008 के एक प्रोजेक्ट में संयुक्त राष्ट्र शोध संस्थान ने भारत और कुछ अन्य देशों को कवर किया था। इस प्रोजेक्ट से यह सामने आया कि अवैतनिक देखभाल में महिलाओं द्वारा बिताया गया समय पुरुषों द्वारा बिताए गए वैतनिक देखभाल के समय से दो गुणा अधिक था। 16 जून, 2011 को अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने घरेलू श्रमिकों के लिए सभ्य काम से संबंधित सम्मेलन संख्या 189 को अपनाया। यह घरेलू श्रमिकों के लिए विशिष्ट संरक्षण प्रदान करता है, और उनके अधिकारों, सिद्धांतों और आवश्यकताओं का ध्यान रखता है।


सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. सर्वेश जैन का कहना है कि जब तक महिलाओं के काम का मूल्यांकन एवं आकलन नहीं होगा तब तक महिलाओं के साथ भेदभाव एवं नाइंसाफ़ी होती रहेगी। अब समय आ गया है कि हम लैंगिक रूढ़िवादी धारणाओं को खत्म करने के उपायों का विकास करें, कार्य वातावरण और व्यवस्था में लचीलेपन को बढावा दें, पुरुषों और महिलाओं की भूमिकाओं और उनकी जिम्मेदारियों को समानता दें, तथा सकल घरेलू उत्पाद के मूल्यांकन  में घरेलू काम शामिल करें।

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह ‘द मार्जिनलाइज्ड’ नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. ‘द मार्जिनलाइज्ड’ मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
लिंक  पर  जाकर सहयोग करें    :  डोनेशन/ सदस्यता 

‘द मार्जिनलाइज्ड’ के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें :  फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें  उपलब्ध हैं. ई बुक : दलित स्त्रीवाद 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles