दुनिया भर के मुल्कों के बाशिंदों के लिए इक्कीसवीं सदी की शुरुआत भारी झंझावातों के साथ हुई है. इन झंझावातों की पूर्वपीठिका बीसवीं सदी के आखिरी दो दशकों की बौद्धिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक घटनाक्रमों में निहित कही जा सकती है. इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक प्रघटनाओं का विश्लेषण करने का प्रयास करें तो पाते हैं कि तीसरी दुनिया के परिधीय देशों का आर्थिक-सांस्कृतिक शोषण बहुआयामी स्वरुप में बढ़ा है. इस बीच दक्षिण एशियाई राष्ट्र-राज्यों के अन्दर कुछ ऐसी परिघटनाएं बहुत स्पष्टता के साथ परिलक्षित हुई हैं, जिन्हें ‘नया’ और ‘विघटनकारी’ की संज्ञा से संज्ञायित किया जा रहा है.
प्रस्तुत शोधपत्र में इन्ही सामाजिक-सांस्कृतिक झंझावातों से उत्पन्न परिघटना (जैसा कि अधिकांश विद्वान मानते हैं) ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ का ‘जातीय संरचना’ के साथ अंतर्क्रियात्मक संबंधों का समाज वैज्ञानिक अध्ययन ऐतिहासिक पूर्वपीठिका में किया गया है. इसका अध्ययन क्षेत्र बनारस लिया गया है. बनारस को अध्ययन क्षेत्र के रूप में चुनने का मेरा प्रमुख कारण यहाँ की जीवंत प्राचीन संस्कृति है, जिसने प्राचीन काल से मध्य काल तक के बौद्धिक एवं आधुनिक भारत के राजनीतिक बुद्धिजीवी वर्ग को खासतौर पर हिंदुत्व कि राजनीति को एक शसक्त नेतृत्व प्रदान किया है. इस नेतृत्व में शामिल हैं, महाकारुणिक तथागत गौतम बुद्ध, पार्श्वनाथ एवं मध्यकाल में सन्त कबीर, रविदास और ब्राम्हणवादी चेतना के जड़त्व के घोर अंधकार के दौर में मीरा बाई का आन्दोलन और उनका प्रेरणास्रोत बनारस के एक फ़क़ीर रविदास का होना. इतना ही नहीं ब्राम्हणों के सत्ता के साथ समझौतों के परंपरा का विस्तृत प्रचार-प्रसार जिस तुलसीदास ने किया, उसकी शुरुआत भी बनारस से ही हुई है. आधुनिक भारतीय समाज, कम से कम हिंदी पट्टी का समाज और यहाँ कि राजनीति (राष्ट्रीय राजनीति सहित) तो इन्ही मान्यताओं, पूर्व मान्यताओं के वशीभूत अपने जीवन दर्शन को भ्रमित आधुनिकताबोध के साये में संचालित कर रहा है.
अवधारणात्मक स्पष्टीकरण
लिव-इन-सम्बन्ध पर कुछ भी लिखने व कहने से पहले इसको अवधारणात्मक स्तर पर समझ लेना आवश्यक है. लिव-इन-सम्बन्ध को लेकर अवधारणा के स्तर पर कतिपय भ्रांतियां हैं, इनके मध्य समन्वय स्थापित करते हुए मैं अपना विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा. पहली भ्रान्ति तो इसी सवाल को लेकर है कि लिव-इन-सम्बन्ध कहा किसे जाय? इस मुद्दे पर तीन दृष्टियाँ हैं-
1. ऐसे अविवाहित या कोई एक अविवाहित युवक-युवती/स्त्री-पुरुष जो एक साथ एक ही घर में रहते हों तथा उनके मध्य यौन सम्बन्ध हों.
2. ऐसे अविवाहित जोड़े जो एक साथ एक ही आवास में निवास करते हों, परन्तु उनके मध्य यौन सम्बन्ध स्थापित न हों.
3. ऐसे अविवाहित या विवाहेत्तर युवक-युवती/स्त्री-पुरुष जिनके बीच यौन सम्बन्ध सहमति पूर्वक स्थापित हों परन्तु वे साथ में रहते न हों.
इस तरह से हम पाते हैं कि इन तीन दृष्टियों के अलावा कुछ मुद्दों पर सामान्य सहमति भी पाई गयी है. इनमे से भावनात्मक सहयोग, विवाहेत्तर सम्बन्ध, स्थापित सामाजिक संरचना में स्त्री-पुरुष संबंधों में बिखराव, यौन इच्छा की तृप्ति, परस्पर सहयोग, अस्थाई सम्बन्ध होना आदि.
लिव-इन-संबंधों की ऐतिहासिकता का सामान्य विश्लेषण
लिव-इन-सम्बन्ध पारंपरिक भारतीय समाज के लिए अतिसंवेदनशील प्रघटना है जिसे विद्वानों (बौद्धिक कहे जाने वाले भारतीय) ने सामान्य जन के सामने एक चुनौती के रूप में प्रस्तुत किया है. यहाँ पर मैं लिव-इन-संबंधों की ऐतिहासिकता का आलोचनात्मक अध्ययन करना चाहूँगा.
हिन्दुत्ववादी वैचारिकी के समर्थक विद्वान लिव-इन-संबधों को पश्चिमी संस्कृति का उत्पाद मानते हैं तथा इसके भारत में प्रवेश करने के पीछे पश्चिमी सांस्कृतिक मूल्यों का भारत में अविच्छिन्न प्रवाह को कारण मानते हैं. ये विद्वान् लिव-इन-संबधों को भारतीय समाज के लिए नकारात्मक प्रभाव वाली विघटनकारी प्रघटना मानते हैं. किन्तु ऐसे राष्ट्रवादी तथा हिन्दुत्वादी विद्वानों के साथ समस्या यह है कि यह विद्वत मंडली ब्राम्हणवादी परंपरा के श्रेष्ठताबोध से ग्रसित है. ये विद्वान् प्रत्येक उस ज्ञान, वस्तु, परंपरा, संस्था आदि का विरोध करते हैं जो इनकी पारंपरिक सत्ता संरचना को चुनौती प्रस्तुत करता हुआ प्रतीत होता है. संरक्षणवादी तथा पारंपरिक यथास्थितिवादी ये विद्वान् अपने वर्गहित के लिए कई बार तथ्यों का निर्माण खुद कर लेते हैं तो कई बार तथ्यों को ऐसे तरीके से प्रस्तुत करते हैं कि उन तथ्यों का मूल मंतव्य ही ओझिल हो जाता है. ऐसे में जियाउद्दीन के शब्दों में कई बार बहस (संवाद नहीं) का स्वरूप झूठ बनाम झूठ का हो जाता है और भारतीय समाज का कराहता हुआ सच समूचे बौद्धिक परिदृश्य से सुनियोजित तरीके से बाहर कर दिया जाता है. इसका सामाजिक परिणाम भी घोर नकारात्मक होता है. अतः भारत के इस पारंपरिक सत्ताधारी वर्ग द्वारा प्रत्येक असफलता का जिम्मेदार पश्चिमी संस्कृति को या किसी किसी और को बताना इनके इरादों के प्रति संदेह पैदा करता है.
लिव-इन-संबधों की ऐतिहासिकता की चर्चा में आदिवासी समुदायों में पाए जाने वाले युवागृह काफी प्रासंगिक हैं. आदिवासी समाज के इन युवागृहों में एक निश्चित आयु के बाद युवक-युवतियों को एक विशेष निवास स्थान (यह प्रायः मुख्य बस्ती से दूर होता है) में एक साथ रात्रि विश्राम करने की सामजिक व्यवस्था थी. इस संस्था के बहुत से कारणों तथा उद्देश्यों में एक प्रमुख उद्देश्य युवक-युवतियों को यौन प्रशिक्षण प्रदान करना होता था. इससे उन युवक-युवतियों को अपना जीवन साथी चुनने तथा साथ रहने की वैवाहिक स्वतंत्रता मिलती थी. ऐसे युवागृह लगभग सभी आदिवासी समाजों में पाए जाते थे. आदिवासी समाजों में महिलाओं की प्रस्थिति तथा महिला उत्पीड़न, बलात्कार आदि के अमानवीय मामलों का सभ्य समाज की तुलना में काफी कम पाया जाने का प्रधान कारण उनके युवागृहों की व्यवस्था को माना जाना चाहिए.
अब हम कुछ उद्धरण शास्त्रीय ब्राम्हण ग्रंथों से भी लेते हैं, जहाँ पर विवाह को एक संस्कार के रूप में व्याख्यायित किया गया है. ब्राम्हण धर्मशास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों के की चर्चा मिलती है, जिसमे से एक प्रकार गन्धर्व विवाह का भी है. गन्धर्व विवाह के अंतर्गत स्त्री-पुरुष/ युवक-युवती स्वेच्छापूर्वक अपने जीवन साथी का चुनाव करने को स्वतंत्र थे. इसके अलावा महाभारत में कुंती और सूर्य की प्रेम कहानी और उससे जन्मा कर्ण, कुंती का वायु, इंद्र आदि के साथ संबंधों के अलोक में भी लिव-इन-संबंधों की ऐतिहासिकता परखी जा सकती है.
औद्योगिकीकरण और लिव-इन-सम्बन्ध
भारत में औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों एवं सांस्कृतिक संक्रमण के कारण लिव-इन-सम्बन्ध के स्वरूप तथा संख्या में मात्रात्मक एवं गुणात्मक रूप से वृद्धि हुई है. इसे कार्य-कारणत्व स्वरूप में इस तरह से देखा जा सकता है.
औद्योगिकीकरण तथा शिक्षा व्यवस्था में परस्पर सम्पूरकता का सकारात्मक सम्बन्ध है. आधुनिक शिक्षा तथा औद्योगीकरण की प्रक्रियाएं आवश्यक रूप से एक दूसरे की पूरक हैं. शिक्षा और औद्योगीकरण स्वतंत्र तथा गैर पारंपरिक (कई बार तो परम्परा-विरोधी) विचारों तथा प्रक्रियाओं के साथ घनिष्ठ रूप में अंतर्संबंधित हैं. औद्योगीकरण के स्पष्ट परिलक्षित होने वाले परिणामों में औद्योगिक विस्थापन, शैक्षणिक विस्थापन तथा व्यावसायिक विस्थापन प्रमुख हैं. लिव-इन-संबंधों का इन प्रक्रियागत मूल्यों के साथ सकारात्मक सम्बन्ध है.
औद्योगीकरण के ही एक परिणाम के रूप में औद्योगिक प्रतिष्ठानों तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में युवक-युवतियों/ स्त्री पुरुषों का एक साथ काम करना है. शिक्षा संस्थानों में भी युवक-युवतियां एक साथ अध्ययन करते हैं. ऐसे विद्यार्थी तथा औद्योगिक, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में कार्य करने करने वाले व्यक्ति सामान्यतौर पर अपने पैतृक आवासों से विस्थापित होते हैं. ऐसे में एक साथ काम करते हुए मनोभावनात्मक अलगाव से उत्पन्न भावनात्मक सहयोग की इच्छा (विस्थापित व्यक्तियों में भावनात्मक विषाद से ग्रसित होने की सम्भावना हमेशा ही बनी रहती है) के अलावा विपरीत सेक्स के प्रति सहज आकर्षण इनमें परस्पर प्रेम पैदा होने की प्रधान वजहों के रूप में चिन्हित की जा सकती हैं. यह प्रेम समय के साथ-साथ लिव-इन-संबंधों के रूप में परिणति को प्राप्त होता है.
लिव-इन-संबंधों की स्वीकार्यता एवं पुरुष सत्तात्मक मनोग्रंथि
इन दिनों भारतीय सामाजिक विमर्श का एक प्रमुख मुद्दा लिव-इन-संबंधों की स्वीकार्यता का है. अधिकांश मामलों में यह पाया गया है कि लिव-इन-संबंधों की सामाजिक स्वीकार्यता बहुत क्षीण होती है. काढ़ में खोज तो तब होता है जब ये सम्बन्ध जाति और धर्म की जकड़बंदी को स्वीकार करने से नकार रहे होते हैं. जाति-धर्म की दीवारों को तोड़ते हुए बनाये गए लिव-इन-संबंधों की पारिवारिक स्वीकार्यता भी लगभग असंभव हो जाती है. जाति का वर्चस्व पुरुष सत्ता की जकड़बंदी और क्रमिक असमानता की प्रक्रियाओं को बढ़ावा देने वाले प्रकार्यों कि संरचना को निरंतरता में मजबूती से पूरक रूप में सम्बंधित है .
यहां पर मैं लिव-इन-संबंधों के सन्दर्भ में पुरुष सत्तात्मक मनोग्रंथि को भी समझना चाहूँगा. भारतीय सामाजिक संरचना में पुरुष सत्तावादी मानसिकता व्यापक रूप से बहुआयामी स्वरूप में विस्तारित है. स्थिति यह है कि लिव-इन सम्बन्ध में रहने वाला या रहने की इक्षा रखने वाला एक पुरुष तो लिव-इन में रहने को अपने स्वाभिमान से जोड़कर देखता है, वहीं दूसरी तरफ इसी मामले में वह अपने घर की महिलाओं (बहन, पत्नी, बेटी) के प्रति ठीक विपरीत मनोवृत्ति से ग्रस्त रहता है. बहुत कम ऐसे अपवाद मिले हैं जहाँ परिवार के सदस्य इसे पारिवारिक और वैचारिक लोकतंत्र मानते हुए स्त्री-पुरुषों के समान पारिवारिक-सामाजिक नियमावली को स्वीकार करते हैं. उम्मीद की जानी चाहिये कि जैसे व्यक्तियों के अन्दर ‘जनतंत्रीय पवित्रता बोध’ बढ़ता जायेगा, ‘विवेकशील शिक्षा’ का स्तर बढ़ेगा तथा इन जीवन मूल्यों की व्यापकता बढ़ेगी; भारतीयों सहित दक्षिण एशियाई समाज के विचारों तथा व्यवहार में सकारात्मक जनतंत्रीय परिवर्तन उद्घाटित होंगे.
भारतीय समाज में विवाह संस्था प्रकार्यात्मक रूप से बहुत महत्वपूर्ण रही है. विवाह का महत्व बच्चों के समाजीकरण, पारिवारिक प्रकार्यों का निर्वहन, अंतर-पीढ़ीगत संबंधों से लेकर वैयक्तिक व पारिवारिक विघटन को रोकने तक रहा है. विवाह संस्था हिन्दू समाज के संयुक्त परिवार की रीढ़ रही है. स्वतंत्रता पश्चात् हुए आद्योगीकरण के बाद से विवाह संस्था के प्रकार्यों तथा उसकी प्राथमिकताओं में संरचनात्मक परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं. तलाक की दरों में भी प्रतिवर्ष वृद्धि दर्ज की जा रही है. मुस्लिम समुदाय से अधिक तलाक हिन्दू परिवारों में हो रहे हैं. इसे स्वतंत्रता और जनतंत्रीय मूल्यों के साथ भी जोड़ने के प्रयास किये जा रहे हैं.
इक्कीसवीं सदी में उच्च शिक्षित युवाओं की संख्या में आशातीत वृद्धि दर्ज की गयी है. यहां पर शिक्षा के मूल्यों तथा शिक्षा पर एक बड़ा सवाल यह है कि, यदि जनतंत्रीय मूल्यों का स्पष्ट सम्बन्ध शिक्षा के साथ है; यदि सामाजिक व व्यक्तिगत जागरूकता के स्तर को तय करने का पैमाना भी शिक्षा है, तब घरेलू हिंसा, दहेज़ प्रताड़ना आदि अमानवीय मामलों में वृद्धि तथा स्त्री शोषण के बढ़ते नए आयामों के सन्दर्भ में इन सभी मूल्यों, मानदंडों का परीक्षण किये जाने की पुरजोर आवश्यकता है. इस आवश्यकता का एक प्रमुख कारण यह भी है कि स्त्री-शोषण के विभिन्न स्तर तथा विभिन्न आयाम उच्च शिक्षित और जागरूक समझे जाने वाले तबके के अन्दर अपनी विशिष्ट उपस्थिति प्रदर्शित कर रहे हैं.
उपरोक्त मुद्दे को लेकर विवाह के स्थानापन्न व्यवस्था के रूप में लिव-इन-संबधों के बारे में कुछ विचारकों तथा एक्टिविस्टों ने कार्य प्रारंभ कर दिया है. इनमें से कुछ नाम इस प्रकार से हैं- राजेन्द्र यादव, तसलीमा नसरीन, अरुंधती रॉय, अनिल यादव, शोभा डे आदि.
लिव-इन-सम्बन्धों के बाद प्रादुर्भूत समस्याएं
लिव-इन-संबंधों के स्थायित्व का विश्लेषण करने का प्रयास करें तो पाते हैं कि, अधिकांश स्वजातीय लिव-इन-सम्बन्ध कालान्तर में विवाह के रूप में परिणत हो जाते हैं, परन्तु इसके अतिरिक्त अन्य लिव-इन-सम्बन्धियों के सम्बन्ध प्रायः अस्थायी होते हैं. प्रायः यह देखने में आया है कि लिव-इन-संबंधों के ख़त्म होने के बाद की जिंदगी पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण होती है. संभवतः इसका कारण वर्तमान समाज में भी ‘समाज व परिवार की इज्जत को नारी की योनि में कैद माना जाता है.’ कोई भी महिला या युवती अपनी मर्जी से किसी पुरुष के साथ सम्बन्ध स्थापित कर ले तो वह परिवार और समाज के लिए बहिष्कृत सी हो जाती है. भारतीय समाज की ऐसी ही अस्वीकार्यता तथा असंवेदनशीलता बलात्कार पीड़ित युवतियों/बच्चियों के समक्ष भीषण संत्रासजनक चुनौती के रूप में प्रस्तुत होता है, जब तथाकथित सभ्य समाज ऐसी पीड़ित महिलाओं तथा बच्चियों को अपनी कर्कश तथा व्यंग-मिश्रित टिप्पणियों से मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है.
यह प्रवृत्ति भी देखने में आयी है कि यदि लिव-इन-सम्बन्ध में रह रहे युगलों में एक बार यौन सम्बन्ध स्थापित हो गया तो उसके बाद पुरुष वर्ग स्त्री पर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास प्रारंभ कर देता है. इस मानसिक-सांस्कृतिक मनोवृत्ति का कारण भी पुरुष सत्तात्मक मनोग्रंथि में ढूढ़ा जा सकता है.
एक समस्या लिव-इन-संबंधों के बाद पैदा हुए बच्चों को लेकर आती है. यदि स्त्री-पुरुष दोनों ही कामकाजी हैं (अक्सर ऐसा ही होता है) तो बच्चे के समाजीकरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की सम्भावना प्रबल हो जाती है. बचपन में उस बच्चे/बच्ची को पड़ोसियों तथा अन्य जान-पहचान के व्यक्तियों के ताने, अश्लील गालियां सुनने को विवश होना पड़ता है. ऐसे में कई बार तो बच्चे के अन्दर विघटनकारी प्रवृत्तियां घर कर जाती हैं. अनाथालयों में अवैध बच्चों की बढ़ती हुई संख्या भी इसी असंवेदनशीलता का परिणाम है.
एक और समस्या तब आती है जब बच्चा पैदा होने के बाद उसके माँ-बाप अलग हो जायें. ऐसे बच्चों के पालन-पोषण की समस्या तो आती ही है, बच्चे का संरक्षकत्व तय करने में भी मुश्किल होती है. उस बच्चे की शिक्षा पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ने की पूरी सम्भावना होती है, क्योंकि उस बच्चे से उसके पिता नाम पूछा जाता है, एक अदृश्य मगर बहुत मजबूत मानसिक भय से बच्चा ग्रसित हो जाता है. यह परेशानी उस बच्चे को युवावस्था के बाद तक झेलनी पड़ती है. लावारिस बच्चों के पाए जाने की प्रधान वजह के रूप में ऐसे माँ-बाप का अलग हो जाना है.
समीक्षात्मक टिप्पणी
स्वतंत्रता के सत्तर वर्ष बीत जाने के बाद भी भारतीय समाज की सबसे बड़ी कटु सच्चाई जाति व्यवस्था का समय के साथ-साथ अपने स्वरूपों तथा संप्रत्ययों को बदलते हुए अपनी संकीर्णता एवं सामाजिक समता, ममता के विध्वंसक स्वरुप में अपनी अनवरत उपस्थिति को बनाये रखना है. समकालीन भारतीय समाज का दूसरा बड़ा और खतरनाक सच यहां की राजनीतिक-धार्मिक प्रणाली से उत्पन्न साम्प्रदायिक गुटबंदियों को आधार बनाकर नित नए समाज विरोधी प्रयोग किये जाना है.
इन जातीय तथा धार्मिक बाड़ेबंदी से मुक्ति के रूप में भी लिव-इन-संबंधों पर विचार किया जा रहा है. जाति और लिव-इन-संबंधों पर एक दिलचस्प पहलू यह है कि यदि ये सम्बन्ध एक ही जाति के स्त्री-पुरुषों के मध्य बनते हैं तो, उन्हें पारिवारिक व सामाजिक स्वीकार्यता कदाचित आसानी से प्राप्त हो जाती है, किन्तु अन्तर्जातीय संबंधों के मामलों में सामाजिक स्वीकार्यता हासिल कर पाना बहुत मुस्किल होता है. अन्तरधार्मिक सम्बन्ध होने पर स्वीकार्यता का स्तर सर्वाधिक मुश्किल होता है. इस तरह के मामलों में बहुत बार प्रेमियों की हत्या तक कर दी जाती है. लिव-इन-संबंधों के मध्य आर्थिक स्तरों का विभेद और उससे प्रदत्त समस्याएं प्रायः बहुत कम पाई गयी हैं. अतः जातीय व धार्मिक विभाजन के खतरनाक गठजोड़ और लिव-इन-सम्बन्ध के सन्दर्भ में हमारा उद्देश्य ‘जाति विहीन समाज की स्थापना में लिव-इन-संबंधों के कारकतत्व को समझना है.
एक समस्या भारतीय शिक्षितों में आधुनिकता की समझ तथा तत्संबंधित व्यव्हार को लेकर भी आती है, जिस देश में लगभग सत्तर फीसदी आबादी को मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने का अवसर नहीं मिल सका है. ऐसे में आधुनिकता की इस अधकचरी समझ ने स्त्रियों, महिलाओं, बच्चियों को उपभोग की एक वस्तु के रूप में देखे जाने तथा तदनुरूप व्यवहार के मूल्य के मात्रात्मक तथा गुणात्मक विस्तार के दायरे को बढ़ाया है. विस्तार इस दृष्टि से कि तथाकथित सभ्य समाज से अलग, आदिवासी समाज की स्त्रियों को मानवीय अस्मिता तथा मानवीय गरिमा को सुरक्षित रखते हुए जीवन यापन करना उनके आदिवासी जीवन-संस्कृति का अटूट हिस्सा था. उपभोक्तावाद से ग्रसित वर्तमान बाजारवादी समाजव्यवस्था ने आदिवासी स्त्री को भी बाजारू बना दिया है. हिमालय के तलहट में बसे थारु, झारखण्ड के संथाल, मुंडा तथा अन्य आदिवासी जातियों से लेकर उत्तर-पूर्वी भारत की गारो, खासी आदि आदिवासी जातियों के साथ (आधुनिक जीवन मूल्यों से संचालित होने का दावा करने वाले समाज ने) अभी तक उपभोग की एक वस्तु के अनुरूप ही व्यवहार करता रहा है. इन भोले-भाले आदिवासी समाज की युवतियों, बच्चियों को यौन शोषण के साथ-साथ मानसिक, शारीरिक उत्पीड़न का तोहफा हमारे इस सभ्य समाज ने दिया है
ऐसी विषम परिस्थितियों की मारी महिलाओं को यदि किसी युवक/पुरुष की तरफ से सम्मान तथा भावनात्मक सहयोग का भरोसा मिलता है ऐसे में एक सम्भावना बनती है कि उनके बीच का सम्बन्ध लिव-इन-सम्बन्ध के रूप में परिणत हो जायेगा. क्योंकि यह सहज मानवीय स्वभाव है कि जब किसी व्यक्ति को चहुतरफा शोषण का शिकार बनाया गया हो, वह अनेक आयामी वंचनाओं, शोषण, उत्पीड़न, दमन का दैनिक आहार लेने को विवश हो और ऐसे में उसे कहीं से भी अपनापे तथा संवेदनात्मक सहानुभूति मिले और उसको भावनात्मक संबल प्रदान करने वाला सहयोगी मिल जाये जो उसे तमाम तरह की अमानवीय वंचनाओं, शोषण, उत्पीड़न आदि की कष्टदायी यादों से उबरने में उसका मददगार बनता है, तो उनके बीच सहज ही प्रेम, सौहार्द्र तथा अपनेपन की भावना जन्म ले लेती है. और ऐसे में यदि वो विपरीत सेक्स के हुए तो उनमें एक खास तरह का संज्ञानात्मक लगाव विकसित हो जाता है, जो कई बार लिव-इन-सम्बन्ध का रूप ले लेता है.
सन्दर्भ सूची-
*पुस्तकें-
1. ओशो; सम्भोग से समाधि की ओर, डायमंड प्रकाशन, दिल्ली, 2006
2. ज्ञानभेद, स्वामी; ओशो: एक फक्कड़ मसीहा, भाग 2, 4, डायमंड प्रकाशन, दिल्ली, 2001, 2003
3. यादव, राजेन्द्र; आदमी की निगाह में औरत, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2006
4. शास्त्री, सोहनलाल; डॉ. आंबेडकर और हिन्दू कोड बिल, सम्यक प्रकाशन, दिल्ली, 2008
5. दोषी, एस. एल.; आधुनिक समाजशास्त्रीय विचारक, रावत प्रकाशन, जयपुर, 2011
**वैयक्तिक साक्षात्कार तथा परिचर्चायें-
1. सरिता के साथ संवाद, समाजशास्त्र विभाग, बी.एच.यू., अक्टूबर 2014 से अप्रैल 2015.
2. सुबोध कान्त के साथ संवाद, राजा राम मोहन रॉय छात्रावास बी.एच.यू., सितम्बर-अक्टूबर 2016.
3. जियाउद्दीन के साथ संवाद, डॉ. भगवानदास छात्रावास बी.एच.यू., नवम्बर 2016.
5. रामायण पटेल के साथ संवाद, केन्द्रीय ग्रंथालय, बी.एच.यू., नवम्बर 2016.
शोधार्थी,
इतिहास विभाग, डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज,
बी.एच.यू. वाराणसी
इमेल: vikashasaeem@gmail.com