धर्मांध होता संसार, डेरों में सिसकती जिंदगी!

कुमारी ज्योति गुप्ता


कुमारी ज्योति गुप्ता भारत रत्न डा.अम्बेडकर विश्वविद्यालय ,दिल्ली में हिन्दी विभाग में शोधरत हैं सम्पर्क: jyotigupta1999@rediffmail.com

‘‘यादव टोली का किसून कहता है ‘‘अंधामहंत अपने पापों का प्राश्चित कर रहा है। बाबाजी होकर जो रखेलिन रखता है, वह बाबाजी नहीं। ऊपर बाबाजी, भीतर दगाबाजी! क्या कहते हो? रखेलिन नहीं, दासिन है? किसी और को सिखाना। पांच बरस तक मठ में नौकरी की है, हमसे बढ़ कर और कौन जानेगा मठ की बात? और कोई देखे या नहीं, ऊपर परमेश्वर तो है। महंत ने जब लक्ष्मी दासी को मठ पर लाया था तो वह एकदम अबोध थी, एकदम नादान। एक ही कपड़ा पहनती थी, कहां वह बच्ची और कहां पचास बरस का बूढ़ा गिद्ध!’’ फणीश्वरनाथ रेणु ने 1954 में मैला आंचल उपन्यास लिखे  जो कि एक आंचलिक उपन्यास है।इसमें अंचल विशेष की कथा के साथ उन तमाम मुद्दों को उठाया गया है जो आज प्रसंगिक है।उदाहरण मठ के महंत का अय्याशीपन।आज हमारे देश में धर्म के नाम पर जो हो रहा है उसे रेणु ने 1954 में ही दिखा दिए थे। महंत सेवादास इलाके के ज्ञानी साधु के रूप में प्रसिद्ध थे।


पूर्णिया बिहार का छोटा सा जिला जहां के लोग अपनी अज्ञानता के कारण महंत सेवादास को सभी  शास्त्र-पुराण का ज्ञाता मानते थे।आज के संदर्भ में देखे तो हमारी जनता भी अंध भक्ति के कारण अय्याशों को महात्मा बना डालती है।इस पर कई फिल्में बनी, जागरुक लोग लिख कर , फिल्म बनाकर जनता को आइना दिखाते हैं पर भीड़ धर्म के नामपर जिस तरह बलात्कारियों का सहयोग कर रही है इसका अंजाम भी उसे ही भुगतना पड़ रहा है। शहर जलाए जा रहे हैं, लोग मर रहे हैं. खून की नदियां बह रही हैं लेकिन फर्क किसी को नहीं पड़ रहा। हम ऐसे समय में रहे हैं जहां अपना उल्लू सीधा करने के लिए हजार जानें चली जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता।  हम उस सदीमें , उस व्सवस्था में जी रहे हैं जहां इंसान की जान से ज्यादा धर्म के धोखेबाजों का महत्त्व है।भारत पूरे विश्व में धर्मिक सहिष्णुता और अनेकता में एकता के लिए विख्यात है लेकिन बाबाओं ने जिस प्रकार का आतंक फैला रखा है कि आनेवाले दिन में भारत धामिर्क पाखंडियों  के  नाम से जाना जाएगा। धर्म की आड़ में जनता के विश्वास से खेलनेवाले ढोंगियों जैसे आशाराम बापू, रामपाल और गुरमित राम रहीम आदि ने जो कर्मकाण्ड किया है वह क्षमा योग्य नहीं, इन पर तो हत्या का भी आरोप है फिर जनता ऐसे लोगों का सहयोग करके अपनी किस मानसिकता का परिचय दे रही है?

पंद्रह वर्ष पहले एक साध्वी ने तात्कालीन पी.एम को जो पत्र लिखा था उससे उसकी जैसी कई स्त्रियों की पीड़ा महसूस की जा सकती है ‘‘ डेरे के महाराज द्वारा सैकड़ों लड़कियों से बलात्कार की जांच करे …हमारा यहां शारीरिक शोषण किया जा रहा है। साथ में डेरे के महाराज गुरमीत सिंह द्वारा यौन शोषण किया जा रहाहै।’’क्या इस पत्र में उस साध्वी की पीड़ा लागों को नज़र नहीं आती जबकि रेणु ने तो इस पीड़ा को 1954 में ही महसूस कर लिया था जहां किसुन कहता है ‘‘ रोज़ रात में लक्ष्मी रोती थी ऐसा रोना कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघल जाए। हम तो सो नहीं सकते थे। उठकर भैसों को खोलकर चराने चले जाते थे। रोज़ सुबह लक्ष्मी दूध लेने आती थी, उसकी आंखे कदम की फूल की तरह फूली रहती थीं।रात में रोने का कारण पूछने पर चुपचाप टुकुर-टुकुर मुंह देखने लगती थी ठीक उस गाय की बाछी की तरह, जिसकी मां मर गई हो। ’’

गंभीर सवाल यह भी है कि स्त्रियाँ  कहां सुरक्षित हैं। न घर में, न परिवार में, न समाज में और न ही धार्मिक संस्थाओं में…सचमुच देख तेरे संसार की क्या हालत हो गई भगवान! कितना बदल गया इंसान! अब तो धर्म के नामपर खुलेआम अय्याशी हो रही है पर मूर्ख भीड़ सबकुछ जानते हुए भी चुप है , गलत का साथ दे रही है।मुक्तिबोध की एक पंक्ति आज प्रासंगिक लग रही है-
‘‘अब अभिव्यक्ति के खतरे उठाने होंगे
तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब’’

बुद्धिजीवी साहित्यकारों ने शुरू से ही अन्याय के खिलाफ, धोखे से भरे धर्म के खिलाफ लिखा । जनता को मार्ग दिखाने की कोशिश की और धर्म की आड़ में इंसनियत का चोला ओढ़कर हैवानियत की सीमा पार करनेवाले आतताइयों का मुखौटा भी उतारा जिन्होंने धर्म और आस्था को आड़ बनाकर अपनी रासलीला को अंजाम दिया।लेकिन आज इंसानियत की हार का समय चल रहा है जहां सिर्फ कौम, धर्म, जाति का घंटा बज रहा है और वह  कहावत भी सच होती नज़र आ रही है ‘‘जिसकी लाठी उसकी भैस’’ इसलिए अपराधी साफ कहता है ‘‘हमारी सरकार में बहुत चलती है। हरियाणा व पंजाब के मुख्य मंत्री, केंद्रीय मंत्री हमारे चरण छूते हैं।राजनीतिज्ञ हमसे समर्थन लेते हैं, पैसा लेते हैं , वे हमारे खिलाफ कभी नहीं जाएंगे। हम तुम्हारे परिवार के नौकरी लगे सदस्यों को बर्खास्त कर देंगे।सभी सदस्यों को अपने सेवादारों से मरवा देंगे।सबूत भी नहीं छोड़ेंगे।’’ इनकी ताकत इतनी अधिक है या यूं कहें इनका साहस इतना ज्यादा है कि राजनीति, पुलिस और न्याय व्यवस्था इन्हें अपने सामने बौना लगता है तभी तो ये किसी से नहीं डरते और जनता में  खुद को पैगम्बर बनाकर,नहीं नहीं खुदा बनाकर राज कर रहे हैं।

सवाल यह है कि इसका समाधान क्या है? क्या कानून व्यवस्था में परिर्वतन करने की जरूरत है क्योंकि अंध भक्ति  में लीन जनता कानून को भी तोड़ रही है। या फिर हमारी जनता की सामाजिक,  सांस्कृतिक और नैतिक सोच में बदलाव लाने की जरूरत है। कुछ समझ में नहीं आ रहा बस इतना सूझ रहा है कि सच को पहचाने, सच के हक में खड़े हो, पीड़िता को न्याय दिलाने के हक में आगे आए , सारे पूर्वाग्रहों को, धर्मिक अंधविश्वास को ताख पर रखकर इंसानियत के हक में खड़े हो।वर्ना मुक्तिबोध की तरह यही कहना पड़ेगा-
‘‘ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अबतक क्या किया
जीवन क्या जीया

बहुत-बहुत ज्यादा लिया
दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश
अरे !जीवित रह गए तुम’’

संदर्भ-


डेरों में सिसकती जिंदगी

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह ‘द मार्जिनलाइज्ड’ नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. ‘द मार्जिनलाइज्ड’ मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
लिंक  पर  जाकर सहयोग करें :  डोनेशन/ सदस्यता 

‘द मार्जिनलाइज्ड’ के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें :  फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं. ई बुक : दलित स्त्रीवाद 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles