सावधान ! यहाँ बुर्के में लिपस्टिक भी है और जन्नत के लिप्स का आनंद लेती उषा की अधेड़ जवानी भी

संजीव चंदन 

पुरुषों के मुकाबले हमारी यौनिकता अधिक दमित है. हमपर आचरण के जितने कड़े नियम आरोपित किये गये हैं उतने कभी भी पुरुषों पर आरोपित नहीं रहे.
केट मिलेट, सेक्सुअल पॉलिटिक्स
We’re more sexually repressed than men, having been given a much more strict puritanical code of behavior than men ever have.

“हमारी सामाजिक परिस्थितियों के कारण, पुरुष और महिला वास्तव में दो संस्कृतियां हैं और उनके जीवन के अनुभव बिल्कुल अलग हैं- और यह महत्वपूर्ण है. अंतर्निहित ”
केट मिलेट, सेक्सुअल पॉलिटिक्स
“Because of our social circumstances, male and female are really two cultures and their life experiences are utterly different—and this is crucial. Implicit”
― Kate Millett, Sexual Politics

निदेशक अलंकृता श्रीवास्तव और निर्माता प्रकाश झा की फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ स्त्री के यौन-अधिकार को केंद्र में रखकर बनी फिल्म है. फिल्म की कहानी एक समग्र स्त्री ‘रोजी’ की कहानी है- अपने लस्ट, अपनी यौन-कामनाओं से लबरेज स्त्री. वह काल्पनिक है, वह हर स्त्री में है, वह इस कहानी की हर पात्र के भीतर है, खुद एक पात्र नहीं है. वह किसी कामुक किताब की नायिका है, लेकिन कहानी की नैरेटर, एक फीमेल आवाज, कुछ अंतराल पर रोजी की कहानी सुनाती है, उसकी कामना, वासना की कहानी, जिसे दृश्य पात्रों के  जीवन में घटित होते  हैं.

ऊपर के दो कथनों में  सत्तर के दशक की रैडिकल स्त्रीवादी केट मिलेट अपनी किताब ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ में स्पष्ट हैं कि स्त्री के ऊपर व्यवहार और आचरण के कड़े नियम आरोपित किये गये हैं, जो उसे समान्य मनुष्य की तरह सहज नहीं रहने देते इच्छाओं का दमन और पेश आने के प्रति सम्पूर्ण सजगता उसकी सहजता के मार्ग की हैं. फिल्म की काल्पनिक नायिका रोजी इन बाधाओं से मुक्त है इसलिए अपनी कामुकता का उत्सव मनाने में सक्षम है, लेकिन जब उसका व्यवहार वास्तविक रूप में सामने आता है, वह फिल्म की अधेड़ नायिका बुआजी (रत्ना पाठक) के रूप में वास्तविक रूप से घटित होती है  तो सामाजिक विस्फोट होता है, उसे छिनाल, कुल्टा, चरित्रहीन सिद्ध कर दिया जाता है.

जन्नत के लिप्स का चुंबन बनाम यौन-आनंद का चरम और वह सीमा जहां से चरित्र शुरू होता है 


बुआजी उस पुरानी इमारत की मालकिन हैं, जहां फिल्म की पात्र रहती हैं. एक दबंग, निर्णयों के मामले में सक्षम, आर्थिक रूप से मजबूत और उदार अकेली स्त्री के पुरुष-स्त्री सभी किरायदारों के बीच रुआब है. वह म्युनिसपल काउन्सिल के अधिकारियों और बिल्डिंग पर नजर गड़ाये बिल्डरों से निपटना जानती हैं- साम-दाम हर कला में निपुण. लेकिन वह अधेड़ स्त्री जब अपनी कामनाओं को जीना चाहती है, तो उसकी सारी छवि एक ‘चरित्रहीन’ में सिमट जाती है. रोजी उसकी प्रिय कामुक नायिका है, जिसे वह फुर्सत के क्षणों में अपने पास पाती है. छिपाकर कामुक किताबें पढ़ते हुए उसके भीतर रोजी के रूप में कामनाओं का एक सोता फूटता है. और फिर वह अपने ऊपर केन्द्रित होती है. इन कामनाओं की पूर्ती के लिए वह तैराकी सीखने पहुँच जाती है और तैराकी के ट्रेनर से फोन पर रोजी बनकर कामुक बातचीत करती है. प्रत्यक्ष में वह बुआजी है तैराक भी बुआजी को जानता है, वह नहीं जानता कि बुआजी और रोजी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, कि बुआ ही रोजी  बनकर उससे कामुक बातचीत करती हैं. तैराक उसे उसके नाम (उषा) से पुकारकर बुआजी के भीतर सुप्त स्त्री को जाग्रत तो कर देता है, लेकिन एक सम्पूर्ण जाग्रत स्त्री के खिलाफ वह खुद भी कार्रवाई का दूत और गवाह बन जाता है. प्रत्यक्षतः वह बुआजी को अपनी पारंपरिक साड़ी वाली वेशभूषा से तैराकी की वेशभूषा में आकर तैरने के साहस से भर देता है और अनजाने में फोन पर कामुक बातचीत करते हुए उसके कपड़े उतरता हुआ उसे नंगा कर देता है. उसके स्तनों से खेलते हुए पूरे शरीर पर कोमल फूल उगाते हुए उसके जन्नत के लिप्स (योनि, जिसे कामुक बातचीत के आख़िरी हिस्से में वह नाम देता है) तक आते-आते आनंद और उन्माद से भर देता है. इस रूप में बुआजी समग्र रूप से रोजी हो जाती हैं. लेकिन तभी विस्फोट घटित होता है. उसपर यह जाहिर हो जाता है कि रोजी और बुआजी एक ही हैं. वहीं उसका पूर्ण पुरुष खुद को आहत समझता है और बदले में  वह बुआजी को सार्वजनिक रूप से जलील करता है, करवाता है.

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कामनाओं की ‘चोरी’ : लिपस्टिक जब बुर्के के अंदर घुटने से मना कर देती  है
रोजी न सिर्फ बुआजी के भीतर  की हकीकत है, वह थोड़ी-थोड़ी हर स्त्री पात्र में घटित होती है. दुहरा दें कि नैरेटर (स्त्री आवाज) कहानी में अलग-अलग पात्रों की कहानियों के दृश्यों से दर्शकों को  रोजी की कहानी के सूत्र से ही जोड़ता है. युवा लडकी रेहाना अबीदी (प्लाबिता ठाकुर ) के भीतर भी रोजी है, जो एक ऐसी मुस्लिम लडकी है जिसका पिता ईमानपरस्त, खुदा से खौफ खाने वाला लेकिन शख्त पैट्रिआर्क है. अबीदी पर भी उतनी ही पाबंदियां हैं, जितनी ऐसे  किसी भी पितृसत्ताक पुरुष द्वारा शासित घर और सम्पूर्णता में स्त्रीविरोधी परिवेश की लडकी पर हो सकती हैं. लेकिन रोजी जैसी कामनाएं इन पाबंदियों के भीतर कितनी देर कैद रह सकती हैं, इसलिए विद्रोह करती हैं. इतनी कि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ती के लिए फैशन की वस्तुएं भी चुरा लेती है. लेकिन अंततः उसे युवा सपनों के लिए कीमत चुकानी पड़ती है, वह फिर से कैद कर ली जाती है. उसे कैद करने में न सिर्फ उसके पितृसत्ताक पिता की भूमिका है, बल्कि उसके आजाद ख्याल दोस्तों का भी है. यहीं फिल्म की अपनी कमजोरी भी है, जिसपर आगे बात करते हैं.

ऐसी ही एक रोजी लीला (आहना) और उसकी विधवा मां ( सोनल झा) के भीतर भी है. लीला  पेंटिंग्स के न्यूड मॉडल का काम 17 वर्षों से कर रही है. मां-बेटी आजाद ख्याल हैं तभी देह और सेक्स उनके लिए बहुत हाय-तौबा का विषय नहीं है. मां का भी प्रेमी है, जो उसे फ़्लैट खरीदकर देने वाला है और बेटी भी किसी से प्रेम करती है, सेक्स भी करती है, कई बार अविश्वसनीय मौकों पर भी. मां जब उसे अपने प्रेमी के साथ सेक्स करते हुए देखती है, तो वह उसके लिए कोई अर्थ संदर्भ नहीं रखता, फिल्म के दृश्य इसे स्पष्ट कर देते हैं, जब देखकर वह उसे डांटते हुए नीचे आ गई पैंटी थोड़ा ऊपरकर अपने साथ खीच ले जाती है, क्योंकि बाहर उसकी सगाई हो रही थी. यह घटना बेटी को उसके लिए न तो बदचलन बनाती है और न ही कोई आपात प्रसंग, वह चिंतित है तो सिर्फ उसके भविष्य के लिए ताकि वह एक आर्थिक रूप से सुदृढ़ जीवनसाथी के साथ सुरक्षित हो सके. बेटी को भी अपनी न्यूड मॉडल मां और उसका प्रेम सहज स्वीकार्य है. बेटी अपने प्रेमी और  मंगेतर के बीच फंस बखूबी मैनेज तो कर ले रही है लेकिन वह आखिर तक संभव नहीं हो पाता.  इसपर आगे बात करते हैं.

और एक रोजी घुटती है शीरीन असलम (कोंकना सेन) के भीतर. वह अपने पति से आतंकित है. अपनी इच्छा के विपरीत उससे सेक्स करने को बाध्य है. पति बलात संबंध बनाता है, अप्राकृतिक भी. कंडोम का इस्तेमाल नहीं करता, उसके तीन बच्चे हैं. यह सब सहते हुए पति से छिपाकर नौकरी करती है. एक सफल सेल्स गर्ल है. हर बार बेहतरीन सेल्स गर्ल का सम्मान उसे ही देती है उसकी कंपनी. पति उसके साथ सिर्फ सेक्स करता है और प्रेम दूसरी औरत के साथ. वह अपने होठों पर चुम्बन भी नहीं जानती, छुअन का अहसास भी नहीं, जो दूसरी औरत को सहज हासिल है. जब वह अपने पति के जीवन में दूसरी स्त्री के बारे में जान जाती है तो अपने तरीके से उसपर नियन्त्रण भी चाहती है और अपनी नौकरी के बारे में जाहिर भी करा देती है. जिसका आख़िरी हस्र है पति का यह बताना कि तुम बीबी हो शौहर मत बन और नौकरी भी छूट जाती है.

इन चारो ही शक्लों में रोजी का यथार्थ यही है कि वह कैद कर ली जाती है, उसके ख्वाहिशों के पर काट दिये जाते हैं.

कामनाओं के सोतों के आगे इर्ष्या का दरिया.. सेक्स का क्लाइमेक्स

अपनी कहानी और क्राफ्ट के साथ फिल्म स्त्रीवादी है और उसका विषय स्त्रियों के यौन आनंद  तक सीमित है, इसलिए उससे अधिक मुद्दों की अपेक्षा फिल्म के साथ बेमानी होगी और आलोचना का अतिरेक भी. लेकिन इस सीमित कहानी के भीतर ही ज़रा गौर करते हैं कि किन स्थितियों से बचा जाना अनिवार्य था और कौन सी स्थतियों से बचा जा सकता था, जो सिर्फ दृश्य-रोचकता और उद्दीपन के लिए निश्चित की गई हैं. लीला को  फोटोग्राफर से  प्रेम है, दैहिक प्रेम भी शामिल है, वह और उसकी मां सहज हैं इसे लेकर. जबकि उसका प्रेमी सहज नहीं है एक मर्द की तरह पजेसिव. वह उससे लड़ता है, तब जब वह सेक्स के प्रसंग में ऐसा कुछ कहती है, जिससे वह खुद को आहत महसूस करता है.  गालियाँ देता है, जलील करता है. उसके बाद भी वह उसके पास जाती है, सेक्स करती है  और आख़िरी तौर पर जलील होती है. बाहर उसका मंगेतर  गाड़ी में है, जो उसे बहुत प्यार करता है, सम्मान देता है.

दृश्य का चमत्कार पैदा करने के लिए  शायद एक सेक्स दृश्य उसकी सगाई के दौरान भी है. वह सगाई के लिए अपने मंगेतर के साथ मंच पर है, छोटे से चालनुमा  घर में थोड़ी देर के लिए लाईट चली जाती है और वह अपने प्रेमी के साथ सेक्स करने पहुँच जाती है. क्या किसी लडकी के भीतर ऐसी रोजी हो सकती है, जो अपने परिवेश के भीतर कुछ ऐसा कर जाये. न यह संभव है न और सगाई करती लडकी के पास इतना समय है. लेकिन यह होता है, शायद दृश्यांकन और दृश्यों से प्रभाव की मजबूरियाँ होती होंगी.

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सवाल इससे  आगे भी है और फिल्म की अपनी राजनीति पर सवाल खड़ा करता हुआ भी कि कामानाओं के सोतों के फूटने के बाद आखिर क्या? जींस की आजादी के लिए संघर्ष करती लडकियां, आजाद ख्याल लडकियां, बिंदास म्यूजिक बैंड में गाती और पबों में घूमती लडकियां इस आजादी के बाद भी क्या पितृसत्ता द्वारा सहज बना दिये गये भावों से मुक्त हैं, या वे दूसरी लड़कियों से वैसे ही बदला लेती हैं, जैसे दूसरी सामान्य स्त्रियाँ या लोग. रेहाना के आजादख्याल दोस्त को जब पता चलता है कि वह उसके ही बॉयफ्रेंड के साथ आशिकी में है तो वह उसे बेनकाब करा देती है और सार्वजनिक रूप से जलील करती है. उसका गुस्सा अपने बॉयफ्रेंड पर कम, उसके अनुसार जिसने उसे प्रेग्नेंट कर दिया है, रेहाना पर अधिक है. इसके बाद रेहाना की जिन्दगी समाप्त हो जाती है. शीरीन भी अपने पति को ठीक करने की जगह दूसरी औरत को अपराधी के रूप में देखती है और उसे जलील करती है (मेरा चीज तो तुम अपने मुंह में नहीं ले सकती हो न के व्यंग्य के साथ). एक ओर लीला के साथ कहानी दर्शकों को सहज करती है, इंगेजमेंट के समय सेक्स के उसके अधिकार के प्रति,  प्रेमी और मंगेतर को एक साथ मैनेज करने के प्रति और दूसरी ओर अपने स्त्री पात्रों को  प्रेमी या पति के संबंधों के प्रति पारंपरिक व्यवहार करते हुए दिखाती है. सवाल यही है कि आखिर कामानाओं की आजादी क्या इन्हीं सीमाओ पर जाकर खत्म होगी? क्या कामनाओं के सोतों से आगे आग का दरिया है या शीना बोहरा का हस्र ( शीना बोहरा जेल में हैं, जिनके प्रेम संबंधों की कहानियां टीवी चैनलों की सुर्खियाँ बनी थीं.)

सवाल और भी हैं.  शीरीन असलम रोज प्रताड़ित हो बलात सेक्स झेलते हुए भी एक छुअन, एक मीठे अहसास, प्रेम और सम्मान की भूखी है. दूसरी और लीला का मंगेतर, जो कहानी में एक सीधा-सादा पात्र है अपनी होने वाली पत्नी के साथ पहला यौन संबंध इन्ही अहसासों के साथ बनाना चाहता है. वह पारंपरिक रूप से सुहागरात को यादगार अहसास देना चाहता है और अपनी मंगेतर को पूरा सम्मान भी देता है,  उसके स्वतंत्र व्यवहार के प्रति भी सम्मान. उसके साथ सुनिश्चित जीवन के बावजूद लीला अपने उद्धत जलील करते प्रेमी के साथ सेक्स करने पहुँच जाती है.  तो सवाल यही है कि कामनाओं के विस्फोट का आख़िरी हासिल क्या हो- क्या जेंडर जस्ट आचरण, व्यवहार या……

यह यथार्थ की कहानी नहीं है यह एक स्त्रीवादी स्टेटमेंट के लिए बनी कहानी है, सपनों की रोजी को यथार्ततः घटित होने की कल्पना से बनी कहानी. निश्चित तौर पर स्त्रियों के लिए रूढ़ आचरण संहिता को चुनौती देती कहानी. ऐसी कहानियां हमने और भी पढ़ी होंगी. मैंने तो जरूर पढ़ी-सुनी है. यथार्थतः भी  इस समाज में घटित होती हैं और कहानियों में भी. मैत्रेयी पुष्पा की चाक की अधेढ़ चाची कलावती खुद को अक्षम मानते पहलवान दामाद के साथ सेक्स कर उसकी मनोवैज्ञानिक ग्रंथी तोडती है. एक कहानी पढी थी, पंजाबी की, अंग्रेजी में अनूदित. नियत 15 दिन में मरने वाले देवर की आँखों में मरने के पहले एक बार सेक्स का अनुभव की मांग देखकर भाभी  खुद को ही प्रस्तुत करती है, एक कुंठा रहित निर्णय. रोजियाँ हमारे इर्द-गिर्द भी हैं, उषा बुआ हमारे आस-पास भी.

चेतावनी: संघी उन्माद में फंसे हिन्दू इन गलियों में न फटकें, यहां बुर्के की लड़कियों के अलावा लीला भी हैं और उषा बुआ भी


फिल्म के आख़िरी दृश्य में एक ही इमारत के नीचे जीने वाली नायिकाएं एक कमरे में इकट्ठे मिलती हैं. उषा बुआ जलील हो चुकी हैं. सार्वजनिक रूप से अपमानित शीरीन को नौकरी छोड़ देने का फरमान उसके पति द्वारा दिया जा चुका है. रेहाना के अब्बू ने उसकी पढाई छुड़ा उसे घर बैठा दिया है और लीला का मंगेतर इस बात पर बिफरकर उससे अलग हुआ है कि उसके मोबाइल से वह यह भी जान गया है कि लीला सगाई के दिन भी मौक़ा मिलते ही प्रेमी के पास सेक्स के लिए पहुँच गई थी.  और आख़िरी दृश्य में सारी नायिकाएं एक साथ कमरे में सिगरेट के धुंए में हर फ़िक्र उडाये जा रही हैं. निस्संदेह सिगरेट पीना आजादी नहीं है, लेकिन हाँ यहाँ सिगरेट आजादी के अहसास को जाहिर करने का जरिया जरूर है.

पढ़ें: क्यों स्त्री विरोधी है अति नाटकीय फिल्म पिंक 
चेतावनी इसलिए कि सोशल मीडिया में शायद बिना फिल्म देखे संघी उन्माद में फंसे हिन्दू नाम ‘लिपस्टिक अंडर बुर्का’ के आधार पर यहाँ अपने शत्रुओं की स्त्रियों  के कुछ सीक्रेट जाहिर होने के अंदाज में फिल्म का स्वागत कर रहे हैं. वे सावधान हो जाएं उन्हें यहाँ उषा बुआ ‘जन्नत के लिप्स’ पर चूमे जाने के अहसास से ही आनंद-अतिरेक में दिखेंगी और लीला और उसकी विधवा मां सच्चरित्र स्त्रियों के सारे नियम-बंधन तोड़ती दिखेंगी.

लेखक स्त्रीकाल के संपादक हैं. 

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ISSN 2394-093X
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