चैतन्य के.एम
“सोशल मीडिया पर आप जो पोस्ट करती हैं उसमें सावधानी बरतें. हम खतरनाक समय में जी रहे हैं” मैंने पिछले सप्ताह गौरी लंकेश से कहा था. उसने जवाब में कहा, “हम इतने भी मृत नहीं हो सकते. व्यक्त करना और प्रतिक्रिया देना मानवीय कृत्य है.हम जो आवेगपूर्वक महसूस करते हैं वह प्राय: हमारी सबसे ईमानदार प्रतिक्रिया होती है।”
हत्या के विरुद्ध में जुटे पत्रकार (दिल्ली) |
मंगलवार की रात को, निर्दयता से उनको गोली मारकर हत्या कर दी गई. यह हत्या आवेग/आवेश में आकर नही की गई थी. यह सुविचारित और योजनाबद्ध थी. जैसे कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में तर्कवादी और विचारक नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एम.एम. कलबुर्गी की हत्याएं थी जिनकी ख़ुद लंकेश ने निंदा की और विरोध किया था.
मैं लेखकों के एक परिवार में बड़ा हुआ हूँ. मेरे पिता के. मारुलाससिद्धप्पा और गौरी के पिता पी लंकेस, सहकर्मी और करीबी मित्र थे। लंकेश अंग्रेजी के एक व्याख्याता थे और मेरे पिता ने कन्नड़ पढ़ाई.
हम एक ही पड़ोस में रहते थे. मेरी मां अक्सर मुझे लंकेश परिवार की देखभाल में छोड़ दिया करती थीं। जब कभी मैं गौरी के साथ तर्क करता था, वह मजाक करते हुए कहती थीं, “मगन(बेटा )जब तुमको बोलना भी नहीं आता था तब से मैं तुमको गोद में खिला रही हूँ.”
बेंगलूर में विरोध प्रदर्शन |
लेकिन गौरी में सबसे अच्छी ख़ूबी यह थी कि कोई उसके साथ कभी भी बहस कर सकता था, विचार-विमर्श कर सकता था तथा बता सकता था कि वह ग़लत हैं. और हमारे तर्क कितने भी उग्र क्यों न हो, हमने जो भी कहा हो, उन्होंने हमारे बोलने के अधिकार का हमेशा सम्मान किया. हम करीबी मित्र थे क्योंकि हम एक-दूसरे से असहमत हो सकते थे. यह एक ऐसा गुण था जो कि उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला था.
गौरी के पिता एक तेजतर्रार लेखक और विचारक थे। 1980 में उन्होंने काले और सफेद रंगों में लंकेश पत्रिके , एक लघु समाचार-पत्र प्रारंभ किया था. यह विज्ञापन-रहित समाचार-पत्र था. लंकेश का मानना था कि प्रकाशन समृद्ध घरानों या शक्तिशाली सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं का पक्ष करने के अधीन हो चुके हैं क्योंकि ये विज्ञापनों को प्रायोजित करते हैं जो कि एक अख़बार के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ज़रूरी है. लंकेश का मानना था कि यह पत्रकारिता की प्रमाणिकता और सत्यनिष्ठा को ख़तम कर देगा. उन्होंने फैसला किया कि लंकेश पत्रिके पुर्णता: प्रसार और वितरण पर चलेगी।
वह भारत के मीडिया के लिए एक अलग युग था। प्रिंट माध्यम शक्तिशाली था। दूरदर्शन टेलीविजन और आकाशवाणी पर राज्य का स्वामित्व था और नीर्जिवाणुक सरकार के समाचारों संस्करणों को प्रसारित करते थे. प्रिंट ही एकमात्र स्वतंत्र अन्तराल था.
एक समाजवादी और तर्कसंगत विचारक, लंकेश उदार विचारों की एक पथप्रदर्शक बने। जहां भी उन्होंने जातिवाद और सांप्रदायिकता को देखा, उसको उन्होंने उजागर किया। उन्होंने विद्रोही और मुखर युवा विचारकों को ढूँढा और उन्हें संरक्षित किया जेसे विद्वान डी.आर. नागराज और कवि सिद्दलिंगेह जो आगे चलकर कन्नड़ संस्कृति और राजनीतिक विचारों में महत्वपूर्ण आवाज बने। लेकिन उन्होंने कभी अपने बच्चों को उनकी कार्यों का संचालन करने के लिए तैयार नहीं किया.
गौरी लंकेश ने एक बार कहा था कि वह डॉक्टर बनना चाहती हैं। जब ऐसा नहीं हुआ, तब वह पत्रकारिता की ओर मुड़ गईं। उन्होंने अंग्रेजी प्रेस में अपना करियर शुरूआत की और टाइम्स ऑफ इंडिया, सन्डे और इंडिया टुडे जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशनों के साथ काम करने के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ईनाडू टीवी के साथ उन्होंने धावा बोल दिया.
उनके भाई-बहन इंद्रजीत और कविता ने सिनेमा में कदम रखा। 24 जनवरी 2000 को, पी. लंकेश ने उस सप्ताह के लंकेश पत्रिक के लिए अपना स्तंभ लिखा और उस संस्करण को पूर्ण कर दिया। अगली सुबह, उनकी म्रत्यु हो गयी थी. यह आकस्मिक और अकल्पित था. वे हमारे बीच नहीं थे परन्तु उन्होंने पत्रकारिता में सम्मानित और श्रद्धेय छाप अपने पीछे छोड़ी थी।
भाई-बहन मणि के पास गए, संज वाणी और दिना सुदर्श के प्रकाशक, जो कि लंकेश पत्रिके भी प्रकाशित करते थे, और उनसे कहा कि वे अपने पिता के लघु समाचार-पत्र को बंद करना चाहते हैं. गौरी ने महसूस किया कि उनके पिता ने अपने बच्चों को कभी भी अख़बार का कार्यभार संभालने के लिए तैयार नहीं किया। उन्होंने यह नहीं सोचा था कि वे इसके “स्वाभाविक” उत्तराधिकारी थे. वे लोग जो उनके क़रीबी थे, उन्होंने कहा, “हम उनकी जगह कभी नहीं ले सकते”.
माना जाता है कि मणि ने उन्हें डांट लगा दी थी। उन्होंने उनसे कहा कि उन्हें अख़बार को एक ओर जुझारू मौका देना चाहिए। उसके भाई इंद्रजीत ने यह फैसला किया कि वे अपने पिता के नाम पर अख़बार को जारी रखेंगे। गौरी ने अपना स्वयं का अख़बार शुरू किया, और इसका नाम था गौरी लंकेश पत्रिके। जब तक उसने इसे शुरू किया, तब तक वे 16 साल की पत्रकारिता भी कर चुकी थीं. मीडिया का इलेक्ट्रॉनिक पक्ष तेजी से बढ़ रहा था. ज्यादातर कन्नड़ लघु समाचार-पत्रों का संचलन घट रहा था। वह एक ऐसे उद्यम पर काम कर रही थी, जो दिन-प्रतिदिन आर्थिक रूप से कमजोर होता चला जा रहा था।
गौरी अपने पिता के आदर्शों के प्रति सजग थी उनका अखबार धर्मनिरपेक्षता, दलितों के अधिकार, पीड़ितों और महिलाओं के मुद्दों पर मुखर था. और उसने अपने पिता की तेजतर्रार प्रकृति को अपने लेखन में जीवित रखा। जबकि दक्षिणपंथी और जाति आधारित राजनीति की आलोचना करते हुए लंकेश ने कभी शब्दों को नहीं भरा.
उन्होंने फेसबुक और ट्विटर पर विभिन्न राजनैतिक मुद्दों पर अपने निडर और स्पष्ट विचारों को प्रदर्शित किया है। वह लोगों या विचारों के बारे में भावुक होने पर शर्मिन्दा नहीं होती थीं। पिछले साल, कन्हैया कुमार के भाषण सुनने के बाद, उन्होंने उसे बेंगलुरु में आमंत्रित किया था। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा और उसे अपना बेटा कहा।
लंकेश को कई दफा ट्रोल किया गया और कई नामों से बुलाया जाता था. ये वही लोग थे जो उनको उनको छोटा दिखाना चाहते थे और वह सिर्फ अपने पिता की प्रतिष्ठता का आनंद उठा रही थी। उन्हें नक्सल सहानुभूति, राष्ट्र विरोधी, हिंदू-विरोधी और अन्य नामों के ना से बुलाया गया है। लेकिन इनमें से किसी भी बात ने उन्हें विक्षुब्ध नहीं कर पाया.
पिछले हफ्ते मैंने उनसे मजाक में कहा था कि “वह सोशल मीडिया और टेक्नोलॉजी नहीं समझती है”। उन्होंने कहा, “जो लोग टेक्नोलॉजी को समझते हैं वे चुप हैं। मैं जो कर सकती हूं मैं करूँगी और मैं कहूंगी जो कि मुझे कहना चाहिए। असहिष्णु आवाजें हमारी चुप्पी में कारण ताकतवर होती हैं. उनको तर्क करने में धमकियों के बजाय शब्दों का उपयोग करना सीखें। ”
साभार:द वायर
अनुवाद: कादम्बरी जैन
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