वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार और अनुवादक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. संपर्क : swaraangisane@gmail.com
अनचिन्हा कोलाज़
(1)
वह आईना देखती है
घूरता है कोई और उसे
आईने में देखते हुए
तौलता है उसकी छवि को
उसके चेहरे के भावों केसाथ।
वह हटा देती है दर्पण
भय छा जाता है उसके चेहरे पर।
(2)
हँसती है
और लगता है
कोई खड़ा है ठीक उसके पीछे लाठी लिए हुए
जिसकी मार से चीत्कार उठेगी वह।
और तुरंत वह
हँसना बंदकर देती है।
(3)
कहीं दूर बजती है कोई धुन
वह याद करती है उस गीत को
गुनगुनाने को ही होती है कि गुर्राता है कोई
गला रुँध जाता है उसका
वह होंठ सील लेती है।
(4)
वह लिखती है कविता
उसके लिखे शब्दों के
अन्वयार्थ लगाता है कोई
यह नए अर्थ
उसके लिखे को निरर्थक कर देते हैं
कतरनी चला देती है सारे कागज़ों पर।
(5)
नाचती है
और उसकी ठुमक को
बाज़ार के ठुमकों से जोड़ दिया जाता है
कुत्सित आँखें भेद देती हैं उसकी लय
बेताला न होजाए
इस डर से
उतार देती है घुँघरू
जैसे उतार देती है प्राणों को
देह से
(6)
वह आईना नहीं देखती
वह हँसती नहीं, गाती नहीं
कुछ नहीं रचती, कभी नहीं नाचती
पड़ी रहती है
जैसे पड़े रहते हैं माटी के ढेले,
खुद ही किसी दिन लुढ़क जाने या बह जाने को
(7)
वह डस्टबिन हो जाती है
सब उसमें अपना कूड़ा डाल देते हैं
वह पीकदान हो जाती है
थूक कर चल देते हैं लोग आगे
ऐश ट्रे हो जाती है
झाड़ देते हैं उसमें राख हर आते-जाते
वह डोर मैट हो जाती है
पैरों तले आती है
झटक देते हैं लोग उस पर सारी धूल-मिट्टी
(8)
वह दमकना चाहती है
वह उड़ना चाहती है
वह देदीप्यमान होना चाहती है
वह बहना चाहती है
पर
सूर्य
पवन
अग्नि
सलिल
सब पुरुष वाची हैं
और इन सब में वह स्त्री है।
वह चुप्पी ओढ़ लेती है
मौन धर लेती है
उसका रुदन भीतर ही भीतर
नदी बन बहता है
प्रतीक्षा में
प्रलय की
जो कर देगा तहस-नहस
उसे भी और उसपर लगे सारे बंधनों को भी।
वह किसी
पुरुष की प्रतीक्षा में होती है
और
उसके भीतर का सृजन विध्वंस की बाट जोहता है।
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