वरिष्ठ साहित्यकार उदय प्रकाश ने इन नये कवियों में से कई को हिन्दी कविता के भविष्य के रूप में उभरने की आशा व्यक्त की. दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू के कुछ शोधार्थियों ने भी अपनी कवितायेँ पढीं. ‘जी लेने दो’, ‘तेजाब से जलती औरत’ आदि शीर्षक से पढी गई कवितायेँ स्त्रियों के खिलाफ क्रूर हिंसा के प्रति स्वाभाविक आक्रोश की अभिव्यक्ति थीं. नीतिशा खालको ने तो ‘क्या सवाल और कलम कभी होंगे चुप’ शीर्षक कविता का पाठ कर उपस्थितों को कौटुम्बिक यौन-उत्पीड़न के खिलाफ आक्रोश से भर दिया, वह स्वयं भी भावुक हुईं और उपस्थित लोग भी. श्रोताओं ने खड़े होकर खालको का सम्मान किया. भारती संस्कृति ने अंग्रेजी में ‘द वुमन’ शीर्षक से स्त्री देह से आगे स्त्री के अस्तित्व के पक्ष में अपनी कविता पढ़ी.
कार्यक्रम की शुरुआत में उदय प्रकाश की कविता पर आधारित लघु फिल्म ‘औरतें’ दिखायी गयी. कविता स्त्रियों के दुःख, उनके उत्पीडन और समाज तथा परिवार ले लिए उनके अहर्निश समर्पण की मजबूरियों की तस्वीर पेश करती है, माइम विधा के माध्यम से इसे फिल्म के फॉर्म में व्यक्त किया गया है. इस लघु फिल्म के प्रोडूसर विकास डोगरा हैं तथा जानेमाने अभिनेता इरफ़ान खान ने इसे अपनी आवाज़ दी है. कार्यक्रम के अंत में उदय प्रकाश ने अपने संक्षिप्त संबोधन में कहा कि खड़ी-बोली कविता के पहले कवि अमीर खुसरो की कविता से ही जेंडर से मुक्ति के स्वर हिन्दी कविता की एक खासियत बन गये हैं. उन्होंने अपनी एक छोटी सी कविता भी पढी. “आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता, आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता, कुछ नहीं सोचने ओर कुछ नहीं बोलने पर आदमी मर जाता है”
जेंडर-फ्रीडम के स्वपन और एजेंडे के साथ देश भर में सायकल से घूम रहे राकेश कुमार सिंह ने बताया कि वे 42 महीने से लोगों से मिल रहे हैं और अपनी बात कह रहे हैं. वे अब तक 12 राज्यों की यात्रा कर चुके हैं, दिल्ली उनका 13वाँ राज्य है. इस यात्रा का समापन 2018 में बिहार में राकेश के अपने गाँव तरियानी छपरा में तीन दिवसीय जन-जुटान के साथ होगा.
जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्ष प्रो. हेमलता महिश्वर ने भी प्रतिभागियों कि प्रशंसा की और ‘विद्रोही’ शीर्षक से एक कविता भी सुनाई| कार्यक्रम में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन ने कहा कि यहाँ पर हुई कविता पाठ का एक संकलन जल्द ही प्रकाशित किया जायेगा| उन्होंने कहा कि लगभग 35 कवियोँ को सुनने के बाद, जिनमें 20 से अधिक कवयित्रियां हैं मैं इस निष्कर्ष पर हूँ कि यद्यपि पुरुषों की कविताएं स्त्री के प्रति संवेदना से पूरित हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश की कविताओं में स्त्री विक्टिम है। लेकिन स्त्रियों की अधिकांश कविताओं में स्त्री कर्ता है, आक्रोश और पितृसत्ता का सम्पूर्ण नकार उनका मुख्य स्वर है। स्त्री अनिवार्य पीड़ित नहीं है।
इस कविता शाम में राजनी अनुरागी, मेधा पुष्कर, मधुमिता भट्टाचार्जी नैय्यर, कमला सिंह जीनत, विपिन चौधरी, शालिनी श्रीनेट, रचना त्यागी, अनुपम सिंह, नीतिशा खाल्खो,ईश्वर शून्य, हेमलता यादव, आरती प्रजापति, पूजा प्रजापति, भारती संस्कृति आदि आमंत्रित रचनाकारों के साथ-साथ जामिया में अध्ययनरत, राय बहादुर, सुशील, द्विवेदी, अदनान कफीर, तहसीन मजहर, आजम शेख, जीनत, इरम सैफी, शिवम राय सहित कई विर्यार्थियों ने अपनी कवितायेँ पढीं. मंच संचालन किया अरूण कुमार ने. पढ़ी गई कवितायेँ कविता के क्षेत्र में नये भाव, विषय, स्वर और मुद्दों के साथ कविता की आलोचना के लिए नये विमर्श उपलब्ध कराती हैं.
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