हनीप्रीत की खबर नहीं सेक्स फंतासी बेच रही मीडिया

स्वरांगी साने

वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार और अनुवादक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. संपर्क : swaraangisane@gmail.com

मीडिया में हनीप्रीत की खबरें एक महीने से अलग-अलग एंगल और फंतासियों के साथ बेची जा रही है. बलात्कार और सेक्स-अपराध की घटनाओं के बाद मीडिया-कवरेज बलात्कार और सेक्स की संभावनाओं को बेचते हैं. हनीप्रीत व्यक्तिवाचक से जातिवाचक संज्ञा में बदल जाती है ऐसी खबरों के साथ और एक स्त्री सारी स्त्रियों का विशेषण बन जाती है. . हनीप्रीत से लेकर जेएनयू तक के मिसाल के साथ इसका विश्लेषण कर रही हैं, स्वरांगी साने. आजतक, एनडीटीवी से लेकर बीबीसी हिन्दी तक एक ही भूमिका में दिख रहे इस विश्लेषण में: 

हनीप्रीत की रिमांड 10 अक्टूबर को भी तीन दिन के लिए बढ़ा दी गई। यह तो हुई ताजा खबर।   कितने ही दिनों से हनीप्रीत ने क्या खाया, क्या पहना, कहाँ सोई, करवाचौथ का व्रत किसके लिए रखा जैसी कितनी ही खबरें मुख्यधारा में दिखती रहीं, स्क्रोल में चलती रहीं और मीडिया में छपती रहीं। ‘आज तक’ पर इस लेख को लिखने से 12 घंटे पहले खबर थी- (‘6 दिनों की रिमांड के दौरान हनीप्रीत द्वारा उगले और छिपाए गए राज’)
कितनी काल्पनिक कथाएँ और राम रहीम के साथ उसके संबंधों को लेकर ये खबरें दर्शकों की सेक्सुअल फंतासी को उकसाती भी हैं। मसलन – (‘क्या है मुँहबोली बेटी हनीप्रीत के साथ गुरमीत राम रहीम के रिश्ते की सच्चाई?’ / एनडीटीवी इंडिया 31 अगस्त)

कौन है यह हनीप्रीत?
गुरप्रीत राम रहीम की तीसरी मुँहबोली बेटी है, जो हरदम उसके साथ साए के साथ रही, उसे जब सज़ा सुनाई गई थी तब भी हनीप्रीत उनके साथ थी। पंचकूला में डेरा समर्थकों के आतंक फैलाने के मामले में उसे गिरफ़्तार किया गया तो हो सकता है कि उसकी ख़बर उतनी महत्वपूर्ण हो, लेकिन जब वह फरार थी तो हर दिन खबर के नाम पर सनसनी बनाती काल्पनिक कहानियाँ परोसी गयीं। हनीप्रीत फरार थी तो उसके पति को ढूँढ-ढाँढ कर हनीप्रीत पर कीचड़ उछालना जारी रखा गया… बीबीसी हिंदी (22 सितंबर) में खबर थी कि (‘हनीप्रीत और राम रहीम को मैंने सेक्स करते देखा था- हनीप्रीत के पूर्व पति विश्वास गुप्ता’) क्या यह केवल एक शीर्षक है, नहीं बल्कि यह वह हकीकत है कि पत्नी तो पति की बपौती होती है और भले ही पूर्व पति हो तब भी वह कुछ भी कह (बक) सकता है जिसे यदि बीबीसी में तवज्जो मिलती है तो पुरुषों की तो बल्ले-बल्ले ही है।
 महिलाओं को साहस से भर देते हैं बलात्कारियों के खिलाफ ऐसे निर्णय



जेएनयू की खबर भी इसी एंगल से 
आख़िर यह किस तरह की मानसिकता है जो हम महिलाओं के मामले में रखते हैं? एक खबर और बनायी गयी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर के ब्यायज  होस्टल के 13 कमरों में लड़कियों के मिलने की ख़बर जिसे अमर उजाला में इस तरह से छापा गया जैसे महापाप हो गया हो। विश्वविद्यालय में लड़कों के छात्रावास में लड़कियों का प्रवेश निषिद्ध नहीं है। नियम लड़की या लड़के के लिए नहीं है, किसी भी बाहरी व्यक्ति को होस्टल में नहीं रुकाया जा सकता है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। गुरुवार को वार्डन की जाँच टीम ने होस्टल में जब छापा मारा तो वह नियमित दौरे से अलहदा कुछ नहीं था,जिसे सनसनीखेज बनाकर पेश किया गया। कांग्रेस के गढ़ माने जाते अमेठी में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने तंज कसते हुए जो कहा वह शीर्षक बन गया कि –(‘स्मृति के बहाने ही सही राहुल अमेठी में तीन दिन तो रहे –योगी’/ अमर उजाला, 10 अक्तूबर)…हम इतने कैसे गिर सकते हैं? महिला का सम्मान हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता?

 क्या ‘महिलायें’ सिर्फ़ ‘पुरुषों’ की जरुरत की वस्तु हैं ??

आख़िर वे कौन लोग हैं जो इस तरह की ख़बरों में रुचि रखते हैं और जिनके लिए इन ख़बरों में सारा मिर्च मसाला डालकर इन्हें बनाया जाता है? उन सिरों (हैड्स) को देखा नहीं जा सकता उन चेहरों को पहचाना नहीं जा सकता लेकिन उस सोच की पड़ताल ज़रूर होनी चाहिए जो कहती है कि किसी  महिला को ‘टनाटन माल’ कह देना ख़बर बन सकती है- देखें खबर – (‘छत्तीसगढ़ की लड़कियाँ टनाटन होती हैं –बीजेपी सासंद बंसीलाल महतो’/ द डेलीग्राफ में 4 अक्तूबर को इसी शीर्षक से ख़बर थी) सासंद ने जो कहा, वह तो कहा लेकिन खबर बनकर उछालने का क्या औचित्य था..पढ़ने वाले को गुदगुदी हो यही इस तरह के शीर्षक का लक्ष्य होता है और खबर के फैलने से लक्ष्य प्राप्ति भी हो जाती है।

रामरहीम ने हनीप्रीत को अपनी तीसरी बेटी घोषित किया था पर उसने करवाचौथ का व्रत रखा या वह कभी पूरे मेकअप में होती थी, बिना कालीन ज़मीन पर कदम नहीं रखती थी और आज एक कंबल में रात बिताने को मजबूर है, वह फिल्मों में अभिनय भी कर चुकी है..आदि, आदि। क्या इन बातों को ख़बरें कहें? हनीप्रीत के बारे में इतनी ख़बरें क्यों आ रहीहैं? क्या उसके बारे में जानना इतना ज़रूरी है कि हम देश-दुनिया के अन्य सरोकारों से भी अधिक उसे तवज्जो दे रहे हैं? हनीप्रीत के जीवन की सारी कथाओं को इतना नमक-मिर्च लगाकर क्यों परोसा जा रहा है? यदि इसे टीआरपी बढ़ाने का ज़रिया माना जा रहा है तो टीआरपी कैसे बढ़ती है…टीआर पी बढ़ती है जब किसी चैनल पर कोई कार्यक्रम अधिक और अधिक और अधिक लोगों द्वारा लगातार देखा जाता है। समाचार अधिक कब देखे जाएँगे जब वे रुचिकर होंगे। समाचारों को कॉर्पोरेट ने जब हथियाया तब उन्होंने उसे केवल इंफ़ॉर्मेशन न कहते हुए समाचार चैनलों, अखबारों या कि पूरे माध्यमतंत्र को इंफोमेंट (इंफ़ॉर्मेशन प्लस इंटरटेनमेंट) कहना शुरू कर दिया। मतलब समाचार तो हो लेकिन उससे मनोरंजन भी हो और मनोरंजन के लिए स्तर तय होना ज़रूरी नहीं समझा जाता।

यौन हमलावारों से सख्ती से निपटें पीड़िताएं, तभी रुकेंगी बैंगलोर जैसी घटनाएं

बनारस विश्व विद्यालय का किस्सा याद ही होगा उसमें भी किसी ने यह नहीं पूछा कि वे लड़के कौन थे, वे कहाँ गए, उनके पिता ने उन लड़कों से नहीं कहा कि कॉलेज जाना बंद करो, घर बैठो। सारी ख़बरें ये आती रहीं कि लड़कियों के परिवार वाले क्या कह रहे हैं, लड़कियों के साथ क्या हुआ? ‘निर्भया’ नाम जितना हमें याद रहा उतना उन लड़कों का नहीं जो दोषी थे। बलात्कार के बारे में जो खबर आती है उसके साथ अमूमन जो स्कैच दिया जाता है वह भी घुटने में सिर छिपाए बैठी लड़की होती है, मतलब लड़की ही दोषी है यह अनजाने या जान-बूझकर समाज के दिमाग में फ़िट कर दिया जाता है या कि लड़की के बारे में ही हम जानना चाहते हैं।
सबसे बड़ा सवाल है मनोरंजन किसका? सदियों से हमारी मानसिकता है कि सामने जो दर्शक है वह पुरुष ही है और इसलिए कहा भी जाता है कि दर्शक/ श्रोता/ पाठक जो पसंद करता (पुल्लिंग वाचक) है, वही परोसा जाता है। यह मानकर चला जाता है कि देखने, सुनने और पढ़ने वाला पुरुष वर्ग ही है,  फ्रायड के सिद्धांत के अनुसार पुरुष को क्या पसंद आएगा तो स्त्री के बारे में जानना….बस स्त्री को परोस दिया जाता है। जैसे ‘राधे माँ’ क्या करती थी, कब मुंबई आई, किस  मिठाई वाले के बंगले में रहने लगी हमें सब पता है। क्या राधे माँ के बारे में जानना इतना ज़रूरी है?राधे माँ के चमत्कार, उसका गोदी में बैठना, उसका मस्त नाचना…मतलब वही न..उसी तरह  कि‘तू चीज़ बड़ी है मस्त-मस्त’। फिल्मों में आइटम सॉन्ग बनाकर और अब मीडिया में महज़ आइटम बनाकर, पेश किया जा रहा है स्त्री को।

सवाल है कि मीडिया के लिए कौन नियामक तय करेगा। अपनी तमाम संलिप्तताओं के बावजूद, जिसे अदालत से अभी सिद्ध होना है, हनीप्रीत एक स्त्री है। उसका निजत्व हनन क्यों हो रहा है? मीडिया दरअसल हनीप्रीत को व्यक्तिवाचक से अधिक महिलाओं के लिए एक समूहवाचक संज्ञा या विशेषण में तब्दील कर दे रही है और इस तरह स्त्रियाँ मीडिया के टार्गेट में हैं, महत्वाकांक्षी स्त्रियाँ, न कि हनीप्रीत।

जेएनयू के मामले में भी तो यही हो रहा है। अंततः उच्च शिक्षा में दाखिल होती स्त्रियों के लिए उनके घर अपने दरवाजे बंद कर देंगे। यदि ऐसा है तो यह ऐसी खाई है जिसके पार कुछ नहीं है…महिलाओं पर तंज कसता परिवार, फब्तियाँ करता समाज, भद्दे चुटकुलों से भरी सोशल साइट्स…कुछ अधिक लाइक्स मिलने की चाह में तैयार किए जाते शीर्षक…गौर से देखिए हम महिलाओं का मज़ाक बना रहे है या अपने आप का?

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