विवाह नाबालिग लड़की से बलात्कार का लाइसेंस नहीं है

प्रमोद मीणा


एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मानविकी एवं भाषा संकाय, महात्मा  गाँधी केंद्रीय विश्वाविद्यालय, मोतिहारी. सम्पर्क: –7320920958, pramod.pu.raj@gmail.com,

जनता के द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारें भीड़ के दबाव में या वोट बैंक की राजनीति के चलते अथवा अपनी पुंसवादी धार्मिक तुष्टिकरण की नीति के चलते बहुधा कानून बनाते समय उसमें कुछ ऐसे छिद्र रख देती हैं जिनसे होकर आगे चलकर अपराधी तत्व  कानून की पेचीदगियों और अंतर्विरोधों का फायदा उठाकर कानून के शिकंजे से साफ बच निकलते हैं। इस प्रकार सरकारें प्रगतिशीलता का दिखावा करते हुए भी यथास्थितिवादी बनी रहती हैं। बलात्कार से संबंधित भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 375 में दी गई छूट संख्या् 2 इसी प्रकार का एक कानूनी अंतर्विरोध रहा है जिसके चलते 15 से 18 साल के बीच की नाबालिग लड़की के पति को अपनी पत्नी की बिना सहमति के भी उसके साथ यौन संसर्ग करने की व्यापक छूट और अधिकार प्राप्त था जबकि अनुच्छेद 375 स्वयं यह कहता है कि 18 से कम साल की लड़की के साथ दैहिक संबंध बनाना संविधिक रूप से बलात्कारर की श्रेणी में परिगणित किया जाएगा, चाहे इसप्रकार के संबंध में लड़की की सहमति हो या न हो। बाल अधिकारों और किशोरियों के यौन उत्पीाड़न के खिलाफ सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के द्वारा बार-बार कानून की इस विसंगति को उठाने के बाद भी केंद्र में बैठी सरकारें बाल विवाह के नाम पर किशोर वधुओं की देह के साथ होने वाले खिलवाड़ पर रोक लगाने के लिए कानून की इस कमी को दूर करने को तैयार न हो पाती थीं। किंतु 11 अक्टूबर को आए सर्वोच्च न्यायलय के दो न्यायधीशों मदन बी. लोकुर और दीपक गुप्ता की पीठ के एक निर्णय ने अंतत: दशकों पुरानी इस कानूनी विसंगति को दूर करके नाबालिग लड़कियों के साथ होने वाले दैहिक उत्पीड़न और बलात्कार पर रोकथाम लगाने वाले विभिन्न कानूनों के बीच एकसूत्रता भी ला दी है जिसके लिए लंबे समय से मानवाधिकार कार्यकर्ता संघर्षरत थे।कुल 127 पृष्ठों के अपने पृथक-पृथक निर्णयों में दोनों न्यायधीशों ने स्वेयंसेवी संगठन इंडिपेंडेंट थॉट द्वारा अनुच्छेद 375 में दी गई छूट को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए अपने निर्णय में स्पष्ट  किया है कि एक आदमी के द्वारा 18 वर्ष से कम आयु की अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना बलात्कार है। अदालत ने अपने निर्णय में रेखांकित किया है कि किसी बालिका के मानवाधिकारों की उपेक्षा नहीं की जा सकती चाहे वह विवाहिता हो या अविवाहिता हो। उसके मानवाधिकारों को हमें स्वीकारना ही होगा। अदालत ने अपने निर्णय में कहा है कि अनुच्छेद 375 में प्रदत्त छूट संख्या 2 का अर्थ अब यही लगाना चाहिए कि किसी पुरुष के द्वारा 18 साल से ज्यादा उम्र की अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना या यौन कृत्‍य करना बलात्कार नहीं है।

15 साल की उम्र से ऊपर की पत्नी के साथ अनुच्छेद 375 में पति को यौन संसर्ग की जो छूट मिली हुई थी, उस 15 साल वाली जादुई संख्या के रहस्य का खुलासा करते हुए अपने निर्णय में न्यायधीश दीपक गुप्ता ने कहा है कि इसका कारण कानून के इतिहास में 1940 तक पीछे निहित है। 1940 में यौन संसर्ग में लड़की द्वारा सह‍मति व्यक्त‍ करने की न्यूनतम उम्र 16 साल और विवाह की न्यूनतम उम्र 15 साल हुआ करती थी अत: उस समय छूट विषयक धारा में विवाह अंतर्गत पत्नी  के साथ यौन संबंध बनाने की न्यूनतम उम्र भी 15 साल थी। 1975 में यौन संसर्ग पर सहमति देने की न्यूनतम उम्र 16 साल और विवाह की न्यूनतम उम्र 18 साल कर दी गई किंतु छूट विषयक उम्र 15 साल ही रह गई। आज जब सहमति और विवाह की न्यूनतम उम्र, दोनों 18 साल हैं तब भी छूट विषयक उम्र की सूई 15 साल पर ही अटकी हुई है। स्पष्ट है कि छूट की इस उम्र सीमा को भी विवाह की न्यू नतम उम्र के तुल्य करना आवश्यक था।

18 साल से कम उम्र की लड़की को भारतीय कानून में नाबालिग माना गया है अत: विवाह होने से उसकी नाबालिगीयत की संविधिक स्थिति में कोई अंतर नहीं आ जाता और इसीलिए यौन संबंधों में उसकी इच्छा और सहमति का बहाना किसी पुरुष को बलात्कार के अपराध से मुक्त नहीं कर सकता चाहे वह पुरुष उसका पति ही क्यों न हो। किंतु सर्वोच्च अदालत के इस निर्णय से पहले पति नाम के इस प्राणी को 15 साल से ज्यादा और 18 साल से कम उम्र की अपनी नाबालिग पत्नी के साथ दैहिक संसर्ग करने पर भी बलात्कार के अभियोग से बाहर रखा गया था। स्पष्ट है कि बलात्कार को अपराध ठहराने वाली भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 375 में दी गई छूट संख्या  2 के कारण 15 से 18 साल के बीच की किशोर पत्नियाँ एक व्यक्ति के रूप में वैवाहिक जीवन में अपना कोई अस्तित्व नहीं रखती थीं। पति को अपनी इस नाबालिग पत्नी को वस्तु मान अपनी काम वासना संतुष्ट करने की पूर्ण अनुमति बलात्कार विषयक कानून में प्रदत्त यह छूट दे रही थी। अत: सर्वोच्च  अदालत ने अपने निर्णय में बिल्कुल ठीक कहा है कि 18 साल से कम उम्र की बालिकाएँ उपभोक्ता वस्तुएँ नहीं हैं जिन्हें अपनी ही देह को लेकर ना कहने का अधिकार न हो। उन्हें भी यौन संसर्ग को ना कहने का अधिकार है।



 न्यायधीश लोकुर ने अनुच्छेद 375 द्वारा प्रदत्त छूट संख्या 2 की विसंगति को अन्यायपूर्ण घोषित करते हुए लिखा है कि एक अविवाहित लड़की अपने साथ बलात्कार करने वाले पुरुष के खिलाफ अदालत में बलात्कार के अपराध का अभियोग लगा सकती है जबकि 15 से 18 साल तक की विवाहिता लड़की अपने पति द्वारा किये जाने वाले बलात्कार के खिलाफ इसप्रकार का अभियोग तक नहीं लगा सकती। शेक्सपीयर की प्रसिद्ध दार्शनिक उक्ति –‘एक गुलाब को किसी भी नाम से पुकारा जाए, वह सदैव सुगंध ही देता है’ में व्यंजित शाश्वत सत्य‘ को उद्धृत करते हुए न्यायधीश लोकुर निर्णय में कहते हैं कि एक बच्चा सदैव बच्चा ही रहता है चाहे वह बच्चा गली का बच्चा हो या एक परित्यक्त‘ बच्‍चा हो या दत्तक बच्‍चा हो।इसीप्रकार एक बालिका, बालिका ही रहती है चाहे वह एक विवाहिता बालिका हो या अविवाहिता बालिका हो,चाहे तलाकशुदा बालिका हो या पति द्वारा परित्य क्त बालिका हो या विधवा बालिका हो। मतलब यह हुआ कि किसी भी प्रकार का उपसर्ग कानून की नज़र में बालक या बालिका को नाबालिग से बालिग नहीं बना सकता। स्प्ष्ट है कि भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 375 में विवाहित नाबालिग लड़की और अविवाहित नाबालिग लड़की के बीच जो विभेद किया गया था, वह गैर तार्किक था। अदालत ने भी अपने निर्णय में विवाहित लड़की और अविवाहित लड़की के इस भेद को अनावश्यक और कृत्रिम बताया है। इस अनुच्छेद में बलात्कार के मामले में नाबालिग पत्नी के पति को दी गई छूट अपनी देह पर नाबालिग विवाहिता लड़की के अधिकार को मान्येता नहीं देती थी और न ही पुनरुत्पादन के निर्णय को लेकर ऐसी अवयस्क विवाहिता लड़की की इच्छा  या अनिच्छा का कोई सम्मान करती थी। वास्तन में अनुच्छेद 375 अंतर्गत प्रदत्त छूट संख्या 2 के समर्थक विवाह के नाम पर होने वाली छोटी-छोटी बच्चियों के बलात्कार और मानव तस्करी के यथार्थ के प्रति जाने-अनजाने आँखें मूँद लेते हैं.


सर्वोच्च अदालत के वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने एक स्वर से इसे एक प्रगतिशील कदम बताया है। सर्वोच्च अदालत द्वारा भारतीय दंड संहिता में विद्यमान बलात्कार के इस कानून की दूर की गई विसंगति के परिणाम कानूनी क्षेत्र में दूर तक जाएँगे। इस निर्णय से अब बलात्कार को लेकर बनाये गये दंड संहिता के अनुच्छेद 375 के अंतर्गत भी बालक-बालिका होने को परिभाषित करने वाली उम्र बाल संरक्षण विषय अन्य कानूनों में निर्धारित उम्र के सममुल्य  हो गई है। बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 ; यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा अधिनियम, 2012 और किशोर न्याय अधिनियम, 2011 जैसे तमाम बाल संरक्षण के नियमों में 18 साल से कम उम्र के हर शख़्स को बालक-बालिका की परिभाषा में रखा गया है। इस निर्णय ने बाल विवाह के स्वत: ही अमान्य हो जाने और उसके पूर्णत: निषेध का रास्ता खोल दिया है।इस निर्णय का एक त्वरित परिणाम यह निकलेगा कि जो युग्म् पहले से बाल विवाह की परिधि में हैं, उन्हें  पत्नी  के 18 साल की उम्र प्राप्त करने तक पृथक-पृथक रहना होगा ताकि वे कानूनी झमेले से स्वयं को बचा सके। भविष्य् में यह निर्णय बाल विवाह पर रोक लगाने की दिशा में महत्पूर्ण अवरोधक साबित होगा क्योंकि यह निर्णय सीधे-सीधे पति को बलात्कार का दोषी बना देता है।

बाल विवाह निषेध अधिनियम में बाल विवाह प्रतिबंधित अवश्य  है किंतु इस कानून के अंतर्गत इसप्रकार का विवाह स्वत: अमान्य नहीं हो जाता। वर्तमान कानून में विवाह को अदालत से अमान्य साबित कराने का आधार है – बच्चे को संरक्षकों के परिक्षण से दूर करके धोखे से विवाह बंधन में बांधना अथवा मानव व्या्पार  के उद्देश्य से विवाह के नाम पर बच्चे को बेचा जाना।  इसप्रकार के विवाह को अमान्य घोषित करवाने के लिए पति-पत्नी, दोनों में से किसी एक पक्ष को अदालत में अपील करनी होती है किंतु व्यवहार्य में बालिका वधू को ही अदालत का दरवाजा खटखटाना होता है। इसके लिए उसे वयस्कसता की उम्र प्राप्ति के दो साल के अंदर इसप्रकार के विवाह की मान्यता को रद्द करवाने के लिए अदालत की शरण लेनी होती है। बाल विवाह को स्वत: अमान्य न करार दिये जाने को लेकर सर्वोच्च अदालत की पीठ ने अपने इस निर्णय में बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006की आलोचना भी की है।

बाल विवाह की विकरालता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य  सर्वेक्षण-Ⅲ के आंकड़ों के अनुसार 18-29 आयु वर्ग की 46 प्रतिशत महिलाओं की हमारे देश में शादी 18 साल की उम्र से पहले हो चुकी थी। इसीप्रकार 2011 की जनगणना के मुताबिक उस साल लगभग 49.5 लाख भारतीय लड़कियाँ 18 साल से कम उम्र की थीं और उनका विवाह हो चुका था। नाबालिग लड़कियों की कुल संख्या में से विवाहिता नाबालिग लड़कियों के अनुपात की दृष्टि राजस्थान का पहला स्थान था जबकि मिजोरम में यह अनुपात सबसे कम था। लड़कियों की साक्षरता और शिक्षा की दृष्टि से फिसड्डी राज्यों  में शुमार होते रहे राजस्थान में बाल विवाह का इतना ज्यादा प्रचलन अशिक्षा और बाल विवाह के बीच सीधा-सीधा संबंध व्यंजित कर देता है। इस संदर्भ में किसी धर्म विशेष को बाल विवाह के लिए जबावदेह नहीं ठहराया जा सकता। मुसलिमों से पूर्वाग्रह रखने वाली कुछ हिंदुत्ववादी ताकतें मुसलिम धर्म के ऊपर बाल विवाह की इजाजत देने के आरोप लगाती हैं किंतु यथार्थ यह है कि भारत के सभी धर्मालंबियों में एक समान रूप से बाल विवाह का प्रचलन मिलता है। श्रीनिवासन रमानी और विग्नेश राधाकृष्णन द्वारा संकलित आंकड़ों से पता चलता है कि हमारे यहाँ सभी धर्मालंबियों के यहाँ लगभग 2 प्रतिशत लड़कियों का विवाह बालिग होने की उम्र से पहले ही कर दिया जाता है।गामीण क्षेत्र में चार में से एक लड़की और शहरी इलाकों में पाँच में से एक लड़की 18 साल की होने से पहले ही बियाह दी जाती है। बालिग होने से पूर्व ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाना बाल मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन का हेतु साबित होता है। बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई के कारण लड़कियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य   पर बड़ा घातक प्रभाव पड़ता है। कम उम्र में विवाह हो जाने से शिक्षा प्राप्त् करने और अपने व्यक्तित्व का विकास करने के अवसर लड़कियों के हाथ से छिन जाते हैं।अपनी ही देह पर उनका नियंत्रण नहीं रहता और जीवन के तमाम पहलुओं में वे पति और पति के घरवालों के अधीन हो जाती हैं।


अत: अदालत द्वारा अपने निर्णय में इस बात पर चिंता जाहिर करना वाजिब है कि बाल विवाह निषेध अधिनियम अंतर्गत विवाह विलोपन को लेकर अभियोगों की संख्याा बहुत ही कम हैं।अपने निर्णय में न्या यधीश गुप्ताय लिखते हैं कि वे इस भयावह यथार्थ से अनभिज्ञ नहीं हैं कि अधिकांश बाल वधुओं की उम्र 15 साल से भी कम हैं। उन्होंने देश के विभिन्नं हिस्सों में वय:संधि की उम्र से भी पहले छोटे बच्चों के विवाह पर खेद प्रकट किया है। ऐसे मासूम बच्चे तो विवाह का मतलब तक नहीं जानते। अस्तुि, परंपरा के नाम पर प्रचलित बाल विवाह पर लगाम लगाने में यह निर्णय निश्चय ही दूरगामी साबित होगा। इस संदर्भ में विभिन्न धर्मों के निजी कानून भी कोई अड़ंगा नहीं लगा पाएँगे क्यों कि अपराधिक दंड संहिता विषयक कानून धर्म और जाति विशेष की परंपराओं के नाम पर सीमित नहीं किये जा सकते। इसीप्रकार विशेषज्ञों के अनुसार वैवाहिक संबंधों में होने वाले बलात्कार को आपराधिक कृत्या ठहराने और उस पर निषेधात्मक कानून बनाने की नारीवादी मुहिम को भी अब ज्यादा बल मिलेगा।


किंतु भारत सरकार सर्वोच्च अदालत द्वारा अनुच्छेद 375 में प्रदत्त छूट संख्या 2 की विसंगति को दूर किये जाने के पक्ष में नहीं रही है। और इस मामले को लेकर पिछली यूपीए और वर्तमान एनडीए सरकार में अद्भुत मतैक्य  दिखाई देता है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हर निर्णयको पलटने की जिद पर अड़ी वर्तमान मोदी सरकार ने इस मामले में मनमोहन सिंह सरकार द्वारा फरबरी, 2014 में अदालत में प्रस्तु्त पुराने शपथपत्र को ही एक बार फिर ज्यों का त्यों  प्रस्तुकत करते हुए बाल विवाह की परंपरा का हवाला देते हुए अनुच्छेद 375 में प्रदत्त छूट को न हटाने का अनुरोध किया था। सरकार का कहना था कि नाबालिग बच्चों  के विवाह की परंपरा भारत के सभी सामाजिक समूहों में प्रचलित है अत: नाबालिग पत्नी के साथ पति द्वारा बनाये दैहिक संबंध को बलात्कार पर की संज्ञा देना और इसप्रकार बाल विवाहों को पूर्णत: अमान्य   ठहराना अनुचित है। कुछ साल पहले नोबेल पुरस्कार प्राप्त कैलाश सत्यार्थी के स्वसयंसेवी संगठन ‘बचपन बचाओ’ ने जब अनुच्छेद 375 में प्रदत्त  छूट संख्या 2 की वैधानिकता पर पुनर्विचार के लिए अदालत से गुजारिश की थी तब इस मुद्दे को लेकर सरकार के दो मंत्रालय तक आमने-सामने खड़े दिखे थे। वैसे केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने अनुच्छेकद 375 में प्रदत्तर छूट का परंपरा के नाम पर समर्थन करते हुए भी महिला और बाल विकास मंत्रालय को दिये अपने जबाव में अदालत के निर्देशों का सम्मान करने की बात कही थी। अदालत में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुंत शपथपत्र में अनुच्छेद 375 में प्रदत्त् छूट को जैसे तैसे वैधानिकता देने के यथास्थितिवादी प्रयास की निंदा करते हुए न्या्यधीश लोकुर ने कहा है कि केंद्र सरकार को 15 से 18 साल की उम्र के बीच में बियाह दी जाने वाली लड़कियों की यंत्रणा को नहीं भुलाना चाहिए। अदालत के समक्ष प्रस्तु्त अपने शपथ पत्र में अनुच्छेद 375 में प्रदत्त छूट के पक्ष में केंद्र सरकार का तर्क था कि विधायिका ने बाल विवाह के व्यापक प्रचलन के मद्देनज़र बाल विवाह की पूर्णता के द्योतक यौन संसर्ग को अपराध घोषित किये जाने को युक्तियुक्ते नहीं पाया था। किंतु अदालत इस तर्क से संतुष्ट नहीं हुई और उसने अपने निर्णय में कहा कि अपने पति के साथ यौन संसर्ग से इनकार करने के नाबालिग पत्नीे के अधिकार को अनुच्छेद 375 में प्रदत्त् छूटसंविधिक रूप से अस्वीधकृत कर देती है। स्पष्ट है कि यह छूट नाबालिग पत्नी  के मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन साबित हो रही थी। और यही कारण था कि अदालत अपने निर्णय में इस निष्कर्ष पर पहुँची कि अपनी नाबालिग पत्नी के साथ यौन संसर्ग करने का अपराधी साबित होने पर पति को बलात्कार के लिए दंडित किया जाएगा। अस्तु, सर्वोच्च‍ अदालत के इस निर्णय ने गेंद केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है और अब यह सरकार के ऊपर है कि वह इस निर्णय को एक स्वर्णिम अवसर के रूप में ले और बाल विवाह के कलंक और लज्जा  से देश को मुक्त करे।

बच्चों और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष कार्यकर्ताओं ने अदालत के इस निर्णय की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है किंतु इसके क्रियान्वयन को लेकर अपनी चिंताएँ भी मीडिया के साथ साझा की हैं। और इन चिंताओं को खारिज भी नहीं किया जा सकता विशेषत: तब जब स्वयं केंद्र सरकार बाल विवाह के व्यापक यथार्थ का तर्क देकर बाल विवाह अंतर्गत दैहिक संसर्ग को वैध ठहराने और उसे बलात्का्र के दायरे से बाहर रखने का अनुरोध अदालत के समक्ष प्रस्तुत अपने हलफनामे में करती हो। बाल विवाह निषेध अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन से पीछे हटती रही केंद्र और राज्ये सरकारों से कोई ज्याुदा उम्मीद भी हम नहीं कर सकते।

लड़कियों की साक्षरता और स्त्री  सशक्तिकरण के माध्यम से ही अदालत के इस निर्णय के क्रियान्वंयन की सफलता सुनिश्चत की जा सकती। स्वयं लड़कियों और स्त्रियों की पहल ही अदालत के इस निर्णय की रोशनी में बाल विवाह और नाबालिग पत्नियों पर होने वाले बलात्कारों पर अंकुश लगा सकती है।अदालत के इस निर्णय की किंचित नकारात्मक परिणतियों का समाहार भी किया जाना अपेक्षित है। भारतीय दंडसंहिता के मुताबिक किसी भी अपराध की सूचना देना अनिवार्य है और अब अदालत के निर्णय के बाद 15 से 18 साल की नाबालिग पत्नीे के साथ यौन संबंध बलात्कारर की श्रेणी में आएगा अत: सुरक्षित प्रजनन और अन्यण स्वास्थ्य  सेवाओं की जरूरत पड़ने पर भी परिवार के टूटने के डर से नाबालिग पत्नी् को समुचित चिकित्सा सेवाएँ नहीं मिल पाएँगी। पति को बलात्कार के आरोप से बचाने के लिए स्वयं नाबालिग पत्नी ही वैकल्पिक चिकित्सा  पर निर्भर होने को मजबूर हो जाएगी। इसप्रकार परोक्ष रूप से अदालत का यह निर्णय नाबालिग पत्नियों के स्वास्थ्य   के साथ समझौते को बढ़ावा देने वाला साबित हो सकता है। इस समस्या  के निराकरण के लिए और नाबालिग पत्नी और उसके पति को होने वाली अनावश्यक कानूनी समस्याओं के समाधान हेतु यह प्रावधान किया जा सकता है कि पति द्वारा 15 से 18 साल की अपनी पत्नी केसाथ स्थाापित किये जाने वाले यौन संबंधों की शिकायत करने का अधिकार तृतीय पक्ष को न दिया जाए। सिर्फ पीड़ि‍त पक्ष को अर्थात नाबालिग पत्नी  को ही पति के खिलाफ अनुच्छे।द 375 के तहत बलात्कार की शिकायत का अधिकार दिया जाना चाहिए। वैसे पत्नी के नाबालिग होने के कारण तृतीय पक्ष को इसप्रकार के बलात्कार की सूचना पुलिस को दिये जाने की छूट दी जा सकती है। और हमें यह भी याद रखना चाहिए कि 15 से 18 साल की आयु वाली लड़कियों से विवाह करने वाले समस्ती पुरुषों विशेषत: नाबालिग लड़कों को बलात्कार का आरोपी ठहराकर अदालत में उन पर आपराधिक अभियोग चलाना न तो संभव है और न वांक्षित। अत: अदालत द्वारा अनुच्छेद 375 में प्रदत्त छूट रद्द कर दिए जाने के बाद भी 15 से 18 साल की विवाहित लड़कियों के पतियों के खिलाफ दायर बलात्कार के अभियोगों की सुनवाई में अदालतों को अपने विवेक से काम लेना होगा। बाल विवाह एक सामाजिक बुराई है और मात्र कानून बनाकर उसे खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए तो जन जागरण और सामाजिक आंदोलन अपेक्षित है। बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतिश कुमार द्वारा की गई पहल इस संदर्भ में प्रशंसनीय है। आज समय बदल चुका है अत: समय के साथ कदमताल मिलाते हुए बाल विवाह जैसी पिछड़ी परंपराओं का खात्मा भी जरूरी हो चुका है। मात्र कानून बनाने से कुछ नहीं होगा, कानून के समुचित क्रियान्व़न हेतु प्रशासन को अपनी मानसिकता भी बदलनी होगी। अदालत ने एक रास्ता दिखा दिया है, अब इस पर चलना तो हम सभी को है।

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