खुर्राट पुरुष नेताओं को मात देने वाली इंदिरा प्रियदर्शिनी

ऋचा मणि

दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाती हैं और जेएनयू से पीएचडी कर रही हैं. संपर्क :
maniricha@gmail.com

इंदिरा गांधी की जन्मशती पर विशेष

इंदिरा गाँधी (19 नवंबर 1917 – 31 अक्टूबर 1984 ) आधुनिक भारतीय इतिहास की एक ऐसी पात्र हैं,जिन्हें विस्मृत करना कठिन है. जनवरी 1966 से लेकर 31 अक्टूबर 1984, पौने तीन वर्षों के एक अंतराल (24 मार्च 1977 से 10 जनवरी 1980) तक वह भारत की प्रधानमंत्री रहीं.उनका शासनकाल उपलब्धियों और घटनाओं से खचित रहा . उनकी उपस्थिति सबको महसूस होती थी. उन्होंने अपनी पार्टी कांग्रेस को तोड़ा और पडोसी देश पाकिस्तान को भी.अपने ही देश के संविधान की खूब ऐसी-तैसी की और उसे कुछ समय केलिए तो अपना खिलौना बना लिया. उन्नीस महीने तक तानाशाह बनने का खेल भी खेला.निजी जिंदगी और राजनीति में अनेक मुश्किलों और संघर्षों से गुजरते -जूझते, प्रधानमंत्री रहते,अपने ही आवास परिसर में,अपने ही अंगरक्षकों द्वारा मारी गयीं. इसलिए कहा जाना चाहिए कि वह इतिहास भी हैं और किंवदंती भी. उनका चरित्र अंतर्विरोधों का एक जटिल पुंज है,और उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन महा -मुश्किल कार्य.

मैं उन लोगों में हूँ जिनका जन्म इंदिरा गाँधी के गुजर जाने के बाद हुआ है. लेकिन आज करोड़ों लोग हैं,जिन्होंने उन के समय को देखा है. बहुत से लोगों ने उन्हें देखा -सुना है और वे आज भी उनके बारे में एक राय रखते हैं. उन के समय में उनके राजनीतिक विरोधियों की संख्या भी कम नहीं थी. लेकिन सब यह स्वीकार करते थे कि वह असाधारण थीं. हमलोग तो उस पीढ़ी के हैं जिन्होंने उन्हें चर्चाओं और किताबों से जाना,चित्रों से झांकती उनकी शख्सियत देखी,लेकिन कह सकती हूँ कि वह केवल मुल्क की प्रधानमंत्री नहीं थीं, बल्कि उसकी धड़कन थी.हालांकि उनके समय के एक चापलूस ने उनके लिए यह बात कही थी. वह होतीं तो इन पंक्तियों के लिखे जाने तक,सौ साल की होतीं. लेकिन यह उनका पार्थिव रूप होता और तब शायद उस इंदिरा गाँधी से दूर होतीं,जिसे रखांकित करने केलिए मैंने कलम उठाई है.

दादा मोतीलाल नेहरू जब उदास हो गये


इंदिरा गाँधी का सब कुछ राजनीतिक था.जन्म, घर -परिवार से लेकर मृत्यु तक. वह उस साल और उस महीने जन्मीं,जिस वर्ष और जिस महीने बोल्शेविक क्रांति हुई. मशहूर राजनेता,लेखक और थोड़े दार्शनिक अंदाज़ के जिंदादिल इंसान जवाहरलाल नेहरू की इकलौती बेटी. जब इंदिरा दो वर्ष की ही थीं,तब नेहरू ने पहली जेलयात्रा की.उनके परिवार को एक महात्मा का साया लग चुका था. 1916 में, दक्षिण अफ्रीका से समाज,जीवन और विचारके कुछ सूत्र तलाश कर लौटे एक ‘साधु ‘-जिन्हे लोग गाँधी कहते थे, से जवाहरलाल की पहली मुलाकात हुई और नेहरू परिवार में एक बहस शुरू हो गई. युवा जवाहरलाल पर गाँधी का जादू धीरे -धीरे चढ़ने लगा. उसी वर्ष कमला से उनका विवाह हुआ.अगले ही वर्ष इंदिरा का पदार्पण हो गया .

नयापन नाम में भी था. कुछ ही साल पहले इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं को ‘अशोक ‘ के बारे में ढंग की कुछ जानकारी मिली थी.इतिहास के दीवाने जवाहरलाल की नज़र से यह जानकारी कैसे छुप सकती थी.तीस साल बाद 1947 में भारत की संविधान सभा में नेहरू भारत के राष्ट्रीय झंडे में जिस अशोक चक्र को रखने की वकालत करते हुए खूबसूरत और इतिहास की जानकारियों से भरपूर भाषण दे रहे थे,उस अशोक से वह इंदिरा के जन्म के पूर्व ही प्रभावित हो चुके थे. ‘Indira: the life of Indira Nehru Gandhi’की अमेरिकी लेखिका कैथरीन फ्रैंक की मानें तो मोतीलाल नेहरू का पूरा परिवार बेटे की उम्मीद लिए बैठा था. 19 नवंबर 1917 की रात के 11 बजे व्हिस्की की घूंट ले रहे अपने वकील शौहर मोतीलाल नेहरू को जब स्वरूप रानी ने पोती होने की जानकारी दी,तब वह थोड़े उदास हो गए. शायद वह जमाना ही ऐसा था. जवाहरलाल शायद उदास होने वालों में न थे.हालांकि खुश होने के भी कोई सबूत उन्होंने नहीं छोड़े हैं. अपनी आत्मकथा से भी उन्होंने इस प्रसंग को अलग ही रखा है. हालांकि अपनी संतान केलिए उन्होंने नाम शायद पहले से ही ‘प्रियदर्शी’ चुन रखा था.अशोक के साथ जुड़े रहने वाले ‘पियदस्सी’का तत्सम रूप. जब बेटी हुई तब इसका स्त्री रूप दे दिया गया होगा ‘प्रियदर्शिनी ‘. इंदिरा प्रियदर्शिनी नाम रखा गया.प्राचीनता का  नवीनता के साथ एक जुड़ाव और प्राचीन दुनिया में भी अपनी अलग परंपरा का समर्थन इस नाम में भी जुड़ा था .

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राजनीति नियति भी चुनाव भी

1921 के दिसम्बर में,जब इंदिरा के पिता और दादा जेल में थे,और वह केवल चार साल की थी,उनकी माँ और दादी ने साबरमती की यात्रा जेल के तीसरे दर्ज़े में बैठकर की. इंदिरा माँ की गोद में थी. साबरमती गाँधी जी का आश्रम था. गोद में ही सही,लेकिन इंदिरा गाँधी की यह पहली राजनीतिक यात्रा थी.उसके लिए सब कुछ अजनबी रहा होगा.साबरमती में शायद उसे तितलियों की तलाश होगी. मेरे कहने का तात्पर्य यह की इस उम्र से ही राजनीतिक उथल -पुथल से जुड़ जाना उनकी नियति बन गई थी.

पिता नेहरू ज्यादातर जेल में रहे और बाहर रहे तब राजनीतिक व्यस्तताओं और यात्राओं में. माँ कमला का अपना स्वभाव था.माता -पिता के बीच सबकुछ खुशनुमा ही नहीं था.लेकिन इन्दु की परवाह दोनों को थी. नौ -दस साल की इंदिरा को उनके पिता ने जेल से ही चिट्ठियां लिखनी शुरू की.इन चिट्ठियों की एक किताब छपी -‘फादर्स लेटर टू हिज डॉटर’.चिट्ठियों का दूसरा सिलसिला इन्दु के तेरहवें साल में शुरू हुआ.इन चिट्ठियों का तो एक एक ग्रन्थ ही बन गया –‘ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’.इस तरह इतिहास अनेक रूपों में उनके वजूद का हिस्सा बनने लगा.

हर इंसान की निजी जिंदगी होती है,इंदिरा की भी थी.यह जाहिर बात है कि उन्होंने अपनी मर्जी से विवाह किया और जमाने की नहीं,अपने दिल की सुनी. 1946 में ही उनके पिता अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री बन गए और ऑफिस में ही उन्होंने आखिरी सांसें ली. पिता के जीवन में ही 1959में वह कांग्रेस अध्यक्ष बनीं.इसके पूर्व 1958 में वह विधवा हो गई थीं. 27 मई 1964 को पिता की मृत्यु के बाद वह बीस और अठारह साल के दो बच्चों की माँ भर थीं. 1962 में चीनी आक्रमण के बाद देश में नेहरू की लोकप्रियता को करारा झटका लगा था.देश की शर्मनाक हार केलिए नेहरू की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा था. उनके विरोधियों को जनता में जगह मिलने लगी थी. लाल बहादुर शास्त्री देश के नए प्रधानमंत्री थे. उन्हें महसूस हुआ इंदिराजी को कैबिनेट में रखा जाना चाहिए. इंदिरा गाँधी सूचनाऔर प्रसार मंत्री बनीं. लेकिन 11 जनवरी 1966 को जब शास्त्रीजी का हृदयाघात से अचानक निधन हो गया तब एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद इंदिरा गाँधी मुल्क की प्रधानमंत्री बनीं. यह एक नयी इंदिरा थीं .

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भारत असाधारण देश है.भूगोल और जनसंख्या के हिसाब से तो बड़ा है ही,सांस्कृतिक विविधताएं इसे बेहद जटिल और इसीलिए खूबसूरत बना देती हैं. ऐसे देश का शासक होना आसान नहीं होता. कवियों और दार्शनिकों ने बतलाया है इस देश का नाम भारत उस भरत के नाम पर पड़ा है,जो शकुंतला की संतान था और जिसे पिता ने अपनाने से इंकार कर दिया था. हमारे संत -दार्शनिकों ने हमेशा ही उदारता की वकालत की है. उदारचरितांतु वसुधैव कुटुंबकम.  उदार हृदय वालों केलिए पूरी दुनिया परिवार है. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में जिस भारत की खोज की है,वह ऐसा ही बड़ा और उदार भारत  है. नेहरू ने अपने प्रधानमंत्रित्व में ऐसे ही भारत को विकसित करने की कोशिश की.इंदिरा ने पिता की नीतियों पर चलने की कोशिश जरूर की,लेकिन नेहरू बनना आसान नहीं था .

वह आधुनिक रजिया


इंदिरा के साथ दूसरी कठिनाइयां भी थी. उनके मूल्यांकन कर्ताओं ने उनके इस स्वरूप पर बहुत ध्यान नहीं दिया. वह स्त्री भी तो थीं. भारत की उदार परम्पराएं है,तो रूढ़ियाँ भी हैं. एक स्त्री केलिए दुनिया भर के समाजों में कठिनाइयां है. हमारे भारतीय समाज में कुछ ज्यादा. मनु ने स्त्रियों के मामले में शूद्रों की तरह ही अनुदारता बरती है. मा भजेतस्त्रीस्वतंत्रताम. स्त्रियों को स्वतंत्रता मत दो. सार्वजानिक -राजनीतिक जीवन में स्त्रियों केलिए कोई स्थान नहीं है.  उन्नीसवीं सदी में पंडिता रमाबाई ने कितने कष्ट नहीं झेले. मध्यकाल में रजिया हिंदुस्तान की  सुल्तान (1236 -1240) तो बन गयीं,लेकिन मर्दों ने उन्हें चैन से रहने नहीं दिया. इंदिरा गाँधी की भी वही स्थिति थी. उनकी ही पार्टी में उनके खिलाफ खुर्राट नेताओं का सिंडिकेट विकसित होने लगा. कदम -कदम पर उन्हें अपमानित करने की कोशिश की गयी. 1969 में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की अचानक मौत के बाद नए राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार तय करने केलिए कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक(बंगलुर 10 -12 जुलाई 1969) हुई.इंदिरा गाँधी ने जगजीवन राम का नाम प्रस्तावित किया. सिंडिकेट ने इसके मुकाबले नीलम संजीव रेड्डी का नाम प्रस्तावित किया और उसे बहुमत की स्वीकृति मिल गई. यह इंदिरा को अपमानित करने केलिए किया गया था. लेकिन इस अपमान को उन्होंने चुनौती के रूप में लिया. उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार वी वी गिरी को समर्थन दिया और वह जीते. यह एक नई रजिया का अवतार था,जो हारने वाली नहीं थी. इंदिरा गाँधी,जिसे लोगों ने गूंगी गुड़िया कहा था,अब बोलने लगी थी और उनकी बातें सुनी जाने लगी थीं. उन्होंने बैंकों के राष्ट्रीयकरण किये,राजाओं को मिलने वाले प्रिवी पर्स को खत्म कर दिया.विपक्ष ने उन्हें चुनाव की चुनौती दी,उन्होंने 1971 में मध्यावधि चुनाव करवाए और विपक्ष को धूल चटा दी.. चुनाव से उठीं तब बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम को समर्धन दिया,नतीजतन  पाकिस्तान दो हिस्सों में विभक्त हो गया.इस अभियान में एक लाख पाकिस्तानी फ़ौज का आत्मसमर्पण करवाकर युद्ध के इतिहास में एक मिसाल कायम कर दिया. यह सब इंदिरा गाँधी का साहस था.एक स्त्री का साहस .

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लेकिन वही इंदिरा गाँधी तानाशाह भी बनी. 1975 के जून में मुल्क पर इमरजेंसी थोपकर उन्होंने जनतंत्र का गला घोंटने का प्रयास किया.संविधान से मनमानी की.1977 में उन्हें इसकी चुनावी सजा मिली. वह बुरी तरह पराजित हुईं. ऐसा लगा कि उनकी राजनीति ख़त्म  हो गयी. लेकिन उनके साहस को रेखांकित करना ही पड़ेगा कि वह उस तरह विचलित नहीं हुईं,जैसे दूसरे राजनेता हो जाते हैं. उन्होंने मुश्किलों का मुकाबला किया. उनकी गिरफ़्तारी हुई,उपचुनाव जीत जाने के बाद सदस्य्ता रद्दकी गई.लेकिन चतुराई से ऐसी चाल चली कि जनता पार्टी सरकार छिन्न -भिन्न हो गई. 1980 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपने विरोधियों को तहस -नहस कर दिया. वह पुनः प्रधानमंत्री बनीं और शानदार बहुमत के साथ .

और वे नहीं रहीं


जून 1984 में सिक्ख उग्रवादियों के खिलाफ आपरेशन ब्लूस्टार उनकी आखिरी लड़ाई थी,जिसमे वह सफल हुईं,लेकिन उन्हें अपनी आहुति देनी पड़ी. 31 अक्टूबर1984 को अपने अंगरक्षकों द्वारा ही वह मारी गईं.1948 में महात्मा गाँधी मारे गए थे और 1984 में इंदिरा गाँधी. दोनों साम्प्रदायिक वैमनस्य के कारण मारे गए.लेकिन दोनों घटनाओं में एक बड़ा फर्क था.1948 में गाँधी के मारे जाने पर सांप्रदायिक दंगे बंद हो गए थे,लेकिन 1984 में शुरू हो गए.क्यों?जवाब देना आसान नहीं है. इससे इंदिरा गाँधी और कांग्रेस का चरित्र भी परिभाषित होता है.

निसंदेह इंदिरा गाँधी नेहरू नहीं थी.हो भी नहीं सकती थी. नेहरू होना इतना आसान नहीं है. जैसा कि उन्होंने स्वयं एक बार कहा था -‘हमारे पिता संत थे ,लेकिन मैं  राजनीतिज्ञ हूँ’. सचमुच इंदिरा जी राजनीतिज्ञ ही थी.लेकिन,मर्दों के बीच काम करती एक ऐसी राजनीतिज्ञ,जिन्हे अपने स्त्री होने का थोड़ा गुमान था.
उनके जन्म-शती समापन वर्ष में यथोचित सम्मान.

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