भूमिका :
भारत गणराज्य के महाराष्ट्र राज्य में पंचायती राज्य विधेयक 1992 के तहत ग्रामपंचायतों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है। इसमें सरपंच तथा ग्राम पंचायत समिति सदस्य दोनों पदों पर महिलाओं को आरक्षण प्राप्त है।
उक्त आरक्षण के तहत समस्त ग्राम पंचायतों के सरपंचों की कुल संख्या का आधा हिस्सा महिला सरपंच है। गत कई वर्षों से हम वर्धा जिले की कुछ तहसीलों की ग्राम पंचायतों की महिला सरपंचों का एक व्यापक प्रश्नावली के तहत अध्ययन कर रहे हैं। इस प्रश्नावली में जाति तथा वर्ग के अतिरिक्त जेंडरगत दृष्टि को सर्वेक्षणात्मक अध्ययन का आधार बनाया गया है। महिला सरपंचों की सामाजिक और राजनीतिक के साथ-साथ व्यक्तिगत जेंडरगत अस्मिता का परिप्रेक्ष्य प्रधानता के साथ लिया गया है।
प्रस्तुत आलेख में हमने वर्धा जिले की वर्धा तहसील की बोरगांव (मेघे) ग्राम पंचायत की महिला सरपंच योगिता देवढे के साथ कई बैठकों (06 जुलाई, 2017, 18 जुलाई, 2017 तथा 27 जुलाई, 2017) में पूरी हुई लंबी बातचीत में प्रमुखता के साथ उभरकर सामने आए मुद्दों को उजागर किया है। इस आलेख में पहले इस बातचीत में उभरे प्रमुख मुद्दों की चर्चा होगी तथा उसके बाद इस साक्षात्कार के संपादित अंश प्रस्तुत किए जाएंगें।
सुश्री योगिता देवढे न केवल अन्य सरपंचों (इनमें महिला सरपंच भी शामिल हैं) में अत्यधिक सक्रिय, कार्य-तत्पर तथा समर्पित महिला सरपंच हैं, बल्कि अपेक्षाकृत एक बड़ी ग्राम पंचायत (बोरगांव (मेघे) ) की महिला सरपंच हैं। इस ग्राम पंचायत में छः वार्ड हैं और कुल जनसंख्या तीस हजार से उपर है।
प्रस्तुत आलेख महाराष्ट्र राज्य की महिला सरपंचों संबंधी हमारे विस्तृत अध्ययन का एक बानगी-स्वरूप सर्वेक्षण है। योगिता देवढे से प्राप्त सूचनाएँ , आंकड़े, स्थिति-विवरण इत्यादि सामान्य रूप से इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि महाराष्ट्र राज्य में अधिकांश सक्रिय महिला सरपंच लगभग इन्हीं स्थितियों में कार्यरत हैं। योगिता देवढे के साथ लंबी बातचीत में जो तथ्य, मुद्दे, समस्याएँ, स्थितियाँ आदि उभरकर सामने आयी है, वे लगभग सर्वसामान्य स्थितियाँ हैं। (इस बातचीत में प्रो. शंभु गुप्त, डॉ. सर्वेश जैन, सुश्री अस्मिता राजुरकर शामिल थे)।
योगिता देवढे के सार्थ तीन बैठकों में हमारी आमने-सामने यह मौखिक बातचीत हुई, वह एक विस्तृत प्रश्नावली पर आधारित थी। बाद में योगिता जी से इन प्रश्नों के लिखित उत्तर भी लिए गए जो विस्तार के साथ मराठी में लिखकर उन्होंने हमें दिए।
साक्षात्कार की इस लंबी और व्यापक प्रक्रिया एवं प्रविधि के जो परिणाम हमें उपलब्ध हुए. उनका विवरण निम्नलिखित बिंदुओं के रूप में समेकित किया जा सकता है।
1. राजनीतिक सहभागिता एवं नेतृत्व का प्रश्न
हमारी साक्षात्कार अनुसूची के प्रथम नौ प्रश्न महिला नेतृत्व से संबंधित ही थे जिनमें हमने यह जानने की कोशिश की कि सरपंच बनने की इच्छा उनकी स्वयं अपनी थी या किसी और के कहने, किसी और की इच्छा के अनुसार उन्होंने सरपंच का चुनाव लड़ने का निश्चय किया था। इसी से जुड़ा हुआ दूसरा सवाल यह था कि क्या चुनाव के दौरान केवल उनका नाम चलाया गया था? क्या एक उम्मीदवार के रूप में वे स्वयं व्यक्तिगत तौर पर चुनाव प्रचार में सक्रिय थीं? चुनाव पंचार की रणनीति किसने बनायी? उसमें उनका खुद का कितना योगदान रहा? चुनाव प्रचार में इनकी उपस्थिति वास्तविक थी या प्रतीकात्मक-मात्र? चुनाव जीवने के बाद उसका श्रेय और स्वागत किसे दिया गया? इत्यादि।
इन सभी प्रश्नों के उत्तर के रूप में जो कुछ योगिता जी ने कहा उसका निष्कर्ष लगभग यही है कि उनकी स्वयं की इच्छा भी थी और उनके पिता, भाई, मामा आदि भी चाहते थे जिनकी सामाजिक कार्यों एवं राजनीति में पहले से सक्रियता थी। विशेषतः उनके पिता चाहते थे कि उनकी बेटी सरपंच बने।
वह आईएएस की पत्नी नहीं निर्वाचित मुखिया हैं, महिला-नेतृत्व की मिसाल
कह सकते हैं कि उन्हें अपने पितृ-परिवार की ओर से पूरा-पूरा सहयोग मिला किन्तु बाद में उनमें स्वयं भी सरपंच बनने की राजनैतिक इच्छाशक्ति जागृत हुई जो उनके चुनाव प्रचार कार्यक्रम, रणनीति, कार्य-विधि इत्यादि के रूप में उजागर हुई। उनकी बातचीत से स्पष्ट होता है कि चुनाव प्रचार के दौरान नेतृत्व उनके स्वयं के हाथ में था या उसे उन्होंने अधिकांशतः अपने स्वयं के हाथ में रखने की कोशीश की थी।
हालांकि 18 जुलाई, 2017 को उनके साथ हुई एक अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने मौजूदा राजनीतिक माहौल के अपराधी प्रवृतत्ति वाले लोगों से भरे होने की शिकायत की थी और बताया था कि आज राजनीति में अपराधी प्रवृत्ति हावी है। राजनीतिक हल्कों की भाषा उद्दंडता-भरी और गंदी हो गई है। इस तरह की भाषा में दक्ष होना मुझे अप्रिय था इसलिए कई बार राजनीति में आने का मन नहीं होता था।
चूँकि योगिताजी के मन में राजनीति में सक्रिय होने और सरपंची का चुनाव लड़ने और उसकी कमान अपने हाथ में रखने की आकांक्षा और अनुभव अर्जित हो गया था इसलिए जब चुनाव जीतकर वे आईं तो उन्हें यह ठीक ही लगा कि एक महिला राजनितिकर्मी के रूप में यह उनको अपनी ही जीत हुई है। हालांकि बातचीत में उन्होंने यह भी माना था कि चूँकि उनके पितृ-परिवार, पिता, भाई इत्यादि की सामाजिक सक्रियता के कारण एक व्यक्ति के रूप में गांव के लोग पहले से उन्हें जानते थे, अतः जब वो सरपंची का चुनाव लड़ीं तो लोगों ने उन्हें अपना ही समझा।
उक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि जब तक महिलाओं को यह महसूस नहीं होगा कि एक व्यक्ति के रूप में राजनीतिक नेतृत्व की आकांक्षा वे अत्मसात कर सकती हैं तब तक रजनीति में उन्हें स्वायत्त पहचान नहीं मिल सकती। योगिता जी को यह पहचान इसलिए मिली कि उन्हें शीघ्र ही यह महसूस हो गया कि वे राजनीति में सहजसा के साथ आगे बढने की इच्छा रख सकती हैं।
2. पारिवारीक हस्तक्षेप एवं पारिवारीक दायित्व और राजनीतिक सक्रियता –
हमारी साक्षात्कार अनुसूची के अगले छः प्रश्न इस सन्दर्भ से जुड़े हुए थे कि सरपंच बनने के बाद एक स्त्री (पुत्री, पत्नी एवं माँ) के रूप में उनके दायित्वों में क्या बदलाव आया? उनके राजनैतिक कार्यक्रलापों में, निर्णयों में, उनके पारिवारिक संबंधी (पिता, पति एवं अन्य कुटुम्बीजन) कितना हस्तक्षेप करते हैं तथा उनकी राजनीतिक गतिविधियों पर अंकुश लगाने की कोशिश करते हैं।
भारतीय पितृसत्तात्मक समाज एवं राज्य-व्यवस्था का यह कटुतम सत्य है कि यहाँ स्त्रियों की पहचान एक व्यक्ति के स्थान पर उनके सामाजिक संबंधों के माध्यम से होती है। पुत्री, पत्नी और माँ इत्यादि की सीमा-रेखाएँ उसे अपनी अस्मितागत पहचान से सदैव महरूम रखती हैं। पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए किया गया आरक्षण भी इस स्थिति को तोड़ नहीं पाया है। इसीलिए जब भी कोई महिला राजनीति में सक्रिय होती है और किसी पद पर पहुँचती है तो उसके स्वयं के पारिवारिक लोग उस पर हावी होने, उसे एक रबर स्टाम्प बनाने तथा उसके कंधे पर रखकर बंदूक चलाने की हैसियत में उसे ले आने का हर संभव प्रयास करते हैं। हालाँकि यंत्र-तत्र, यदा-कदा इसके कुछ अपवाद भी मिल जाते हैं। किंतु वे अपवाद ही हैं। इसीलिए जब हमने योगिता जी से यह सवाल किया कि सरपंच बनने के बाद आपके पारिवारिक दायित्वों में क्या गुणात्मक एवं मात्रात्मक परिवर्तन आया तो उन्होंने हमें कई ऐसे तथ्यों से अवगत कराया जो राजनीति में एक महिला की अन्तहीन संघर्षशील दिनचर्या की सूचना देते हैं। इस बातचीत में उन्होंने हमें बताया कि जब वे घर पर होती हैं तो एक माँ और पत्नी के रूप में होती हैं और पंचायत में होती हैं तो एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में होती हैं। इस बातचीत में उन्होंने हमें यह भी बताया कि कभी-कभी जब बहुत अधिक राजनीतिक व्यस्तता होती है तो घर और बच्चों की जिम्मेदारी वे पति के सहारे छोड़कर अपने काम पर निकल जाती हैं; हालाँकि घर और बच्चों की चिन्ता लगातार उन्हें रही आती है. लेकिन इससे यह तो सूचना मिलती ही है कि पुरूष वर्ग ने अब इस हकीकत को स्वीकार कर लिया है कि यदि उनकी पत्नी राजनीति में है तो उन्हें घर के उसके दायित्वों में सहभागी होना पड़ेगा।
पंचायतों में महिलाओं के आरक्षण का यह असर तो हुआ है कि पुरुषों में स्त्रियों के साथ सहकारिता, सहयोग की भावना बढ़ी है। शायद यही कारण है कि योगिता जी के पति (श्री राजू देशमुख) घर की जिम्मेदारियों से लेकर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का ज़िम्मा भी स्वयं सँभालते हैं और अपनी पत्नी को यह अवसर देते हैं कि वह अपने सार्वजनिक राजनीतिक दायित्वों को बख़ूबी निभा सके। श्री राजू देखमुख ने इस हकीक़त को जल्दी पहचान लिया तो इसका एक कारण यह भी है कि वे स्वयं सुशिक्षित हैं और एक पॉलीटेक्नीक कॉलेज में व्याख्याता हैं। हालाँकि सभी सुशिक्षित पति इतने खुले दिल के और उदार नहीं होते किन्तु महिला आरक्षण व्यवस्था की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि पति लोग अपना अंकुश ढीला करें। योगिता देवढे एक मानक महिला सरपंच के बतौर इसलिए भी हमें प्रतीत होती हैं कि एक व्यक्ति के रूप में वे सुदृढ़ इच्छाशक्ति और निर्णय-क्षमता की योग्यता से सम्पन्न हैं। उनके व्यक्तित्व में ढुलमुलपन, दुविधाग्रस्तता की प्रवृत्ति नहीं है इसीलिए उनके प्रति उनका परिवार, पति एवं अन्य कुटुम्बीजन आश्वस्त रहते हैं तथा उन पर पूरा भरोसा करके चलते हैं। एक बार की बातचीत में (06/05/2017) में उन्होंने बताया था कि परिवार के लोग मुझे जिम्मेदार मानते हैं। अपने दृढ़निश्चयी और प्रबल इच्छाशक्ति के बल पर ही वे यह मनवा पायी हैं कि बौद्धिकता में महिलाएँ पुरुषों से कमतर नहीं होतीं। स्पष्टतः कहा जा सकता है कि योगिता देवढे जैसी जिम्मेदार महिलाएँ ही पंचायती राज विधेयक के इन उद्देश्यों और प्रतिज्ञाओं को वास्तविक रूप में अमली जामा पहना सकती हैं जो महिला-समानता और सशक्तीकरण हेतु निश्चित की गई हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि यहाँ हमें ‘सरपंच-पति’ जैसी उस बीभत्स और हास्यास्पद स्थिति से निज़ात मिलती दिखायी दे रही है जो आज कई राज्यों में एक भयावह रूप ले चुकी है। पत्नी कहने भर को सरपंच है किन्तु उसके सारे काम यहाँ तक कि उसके एवज़ में बैठकों में शामिल होना, उच्च अधिकारियों से मिलने जाना, आम जनता से संपर्क इत्यादि सभी कार्यों में सरपंच जी के पति महाशय मूँछों पर ताव देकर सक्रिय रहते हैं। महाराष्ट्र में अन्य राज्यों की अपेक्षा ‘सरपंच-पति’ ‘प्रधान-पति’ जैसी स्थितियाँ अपेक्षाकृत कम हैं। जब तक सरपंच-पति, प्रधान-पति जैसी स्थितियाँ पूरी तरह समाप्त नहीं होंगी; पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के आरक्षण का ठोस और सकारात्मक परिणाम आगे नहीं आ पायेगा।
3. राजनीति में महिलाएँ: संप्रभुता का सवाल
योगिता देवढे के साथ लम्बी बातचीत में जिस मुद्दे पर सबसे ज्यादा चर्चा हुई और जो सबसे बड़े सवाल के रूप में उभरकर आया वह था- राजनीति में महिलाओं की संप्रभु स्थिति। अन्य शब्दों में संप्रभुता को स्वायत्तता भी कहा जा सकता है। कानून अपनी जगह होता है, उसके प्रावधान, उसकी मंशाएँ अपनी जगह होती हैं किन्तु जो मनुष्य-समाज, राजनीतिक व्यवस्था, शासकीय यंत्रणा (मशीनरी) इत्यादि उसे अपनाती और क्रियान्वित करती हैं, वे अपने स्वरूप में अलग होती हैं। यानी कि क़ानून के प्रावधानों और उसे अपनाने और क्रियान्वित करने वाली इकाइयों के बीच पारस्परिकता और सहकारिता की स्थितियाँ यदि नहीं हैं तो कितना भी अच्छा कानून हो और कितने भी अच्छे उसके प्रावधान हों: वे एक ज़मीनी हकीक़त के रूप में दृष्टिगोचर नहीं हो सकते।
महिला अधिकारः वैधानिक प्रावधान
पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के आरक्षण से सम्बन्धित बहुत ही महत्वपूर्ण और ज़रूरी यह क़ानून भी भारतीय समाज के इसी गुंजलक में फँसा नज़र आता है। इस सर्वेक्षण एवं अलग-अलग महिला सरपंचों से हमारी बातचीत का ज़्यादातर सम्बन्ध इसी सन्दर्भ से था। यह कितनी विचित्र और अफ़सोसनाक स्थिति है कि राजनीति में सक्रियता के हमारे पैमाने, प्रस्तावनाएँ, प्रविधियाँ इत्यादि महिलाओं और पुरुषों के सन्दर्भ में कितने अलग-अलग और दोगले हैं। मंच पर हम स्त्री-जाति को न जाने किस-किस रूप में कितना-कितना महान बताने में कोई कसर नहीं उठा रखते लेकिन मंच से उतरते ही और फिर घर पहुँचते ही हम वही सर्वशक्तिमान बन जाते हैं जिसके अधीन सारी क़ायनात होनी चाहिए! यह कितना विचित्र है कि पुरुष जब राजनीति में सक्रिय होता है तो उसके संबंध में हम ‘संप्रभुता’ का सिद्धान्त निरूपित करते हैं लेकिन जब स्त्री की राजनीतिक सक्रियता की बात आती है तो उसे ‘स्वायत्तता‘ में रिड्यूस कर देते हैं। इस संदर्भ में स्वायत्तता (Autonomy) की उत्पत्ति के इतिहास का सन्दर्भ लिया जा सकता है। यह सन्दर्भ स्पष्ट करता है कि स्वायत्तता पूर्ण स्वतन्त्रता के स्थान पर एक सीमित स्वाधीनता है। पंचायती राज व्यवस्था में महिला सरपंचों की राजनीतिक नियति अपने उच्चतम रूप में भी इस स्थिति से आगे नहीं जा पाती। इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि राजनीति में संप्रभुता का स्वप्न देखने वाली महिलाएँ अपनी उच्चतम स्थिति में भी संप्रभुता के स्थान पर मात्र स्वायत्तता को छू पाती हैं। आखिर इसका क्या कारण है? क्या भारत सरकार, राज्य सरकारों के पंचायती राज विधेयकों में कोई इस तरह के अव्यक्त छिद्र हैं, जिनका लाभ पितृसत्तात्मक व्यवस्था उठाती है? क्या इन विधेयकों के इन हिडन लूप-होल्स की तहकीकात नहीं की जानी चाहिए जो जाने-अनजाने यहाँ रखे गए हैं ? क्योंकि असमानता, उँच-नीच, छोटा-बड़ा जैसे प्रत्यय स्त्री और पुरुष पर लागू नहीं होते। इन दोनों की भिन्न इयत्ताएँ हैं जो एक तरफ नैसर्गिक हैं तो दूसरी तरफ अपने-आप में पूर्ण अर्थात संपूर्ण हैं। अतः एक श्रेष्ठ पंचायती राज क़ानून वही हो सकता है जो स्त्री को अपनी राजनीतिक सक्रियता में संप्रभुता की स्थिति तक पहुँचा सके।
योगिता देवढे के साथ इस लम्बी बातचीत में हमने यह पाया कि बावजूद अपनी प्रबल इच्छा-शक्ति, दक्षता और कार्यशीलता की योग्यता रखने के एक स्त्री किस तरह राजनीति के क्षेत्र में हीन समझी जाती है और हतोत्साहित की जाती है! यह एक भारी विडम्बनात्मक स्थिति है.
4. राजनीति और लैंगिकता
इस आलेख में यहाँ ‘संप्रभुता’ की जो बात की जा रही है उसका एक विशिष्ट संदर्भ है। वह संदर्भ है – लैंगिकता। जेंडर-दृष्टि। जेंडर गेज। अर्थात वह पैमाना जिसके आधार पर स्त्री और पुरुष के बीच श्रेष्ठता और हीनता का विभेद करके हम चलते हैं। लैंगिकता जैसे नैसर्गिक तत्व के आधार पर श्रेष्ठता और हीनता का विभेद करना न केवल प्रकृति बल्कि समाज की भी एक श्रेष्ठ व्यवस्था के विरुद्ध है। योगिता देवढे की बातचीत में बार-बार यह तथ्य सामने आता है कि लैंगिकता के आधार पर परिवार, समाज, सरकारी मशीनरी, साथ में काम करने वाले लोग इत्यादि सब के सब स्त्री और पुरुष को अलग-अलग निगाह से देखते हैं। अपने एक संवाद में योगिता कहती हैं, ‘‘राजनीतिज्ञ और अधिकारी वर्ग पुरुषों को अधिक महत्व देते हैं। पुरुष अधिकारीगण, सरपंच अगर महिला है तो, उसे महत्व न देकर उप-सरपंच पुरुष को महत्व देते हैं।’’ (18 जुलाई, 2017 को हुई बातचीत के आधार पर)। इसका एक पहलू यह भी है कि सरपंच यदि महिला है तो अधिकारीगण उसके साथ असहयोग करते हैं। पुरुष अधिकारियों की यह दृढ़ मान्यता होती है कि महिलाएँ सही निर्णय नहीं ले सकतीं, उनमें बौद्धिकता का अभाव होता है; आदि-आदि। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि जान-बूझकर ऐसा माहौल बनाया गया है कि महिला सरपंच स्वतन्त्र रूप से कोई निर्णय न ले सकें। वे हर स्तर पर पुरुषों से पूछ-पूछकर काम करें और यदि ऐसा न करें तो उन्हें सबक सिखाया जाए! योगिता ने एक स्थान पर कहा “सभी महिलाएँ निर्णय नहीं ले सकतीं क्योंकि वे अधिकारियों से डरती हैं। उन्हें लगता है कि यह अधिकारी जो पुरुष है वह कुछ भी कर सकता है। महिलाओं में काम करते वक्त पुरुषों को लेकर एक डर-सा पैदा हुआ रहता है।’’ (27 जुलाई, 2017)। योगिता देवढे ने अपनी बातचीत में कई बार इस तथ्य को रेखांकित किया कि राजनीति में सक्रिय महिलाओं को पुरुषों के लैंगिक अहंकार का बार-बार सामना करना पड़ता है। महिला राजनीति की यह एक सामान्य चुनौती मानी जा सकती है कि उसे सबसे पहले लैंगिकता की लड़ाई लड़नी पड़ती है, जिसके लिए वह उत्तरदायी नहीं है।
योगिता देवढे की बातचीत में यह तथ्य सामने आया कि एक महिला सरपंच चाहे कितना भी अच्छा काम कर ले उसे पुरुष अधिकारियों की ओर से कभी योग्य ‘प्रतिसाद’ (उत्साहवर्द्धन/प्रशंसा) नहीं मिलता। यह योगिता का अपना अनुभव भी है और यह लगभग अधिकांश महिला सरपंचों का अनुभव भी है। यह सचमुच घनघोर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है और पंचायती राज में महिलाओं के आरक्षण संबंधी बिल की मूल भावना के खिलाफ है।
पुरुष किस तरह से अपनी श्रेष्ठता-ग्रंथि की गिरफ्त में रहते हैं तथा एक कर्मठ व योग्य महिला सरपंच को भी ढंग से काम नहीं करने देते; इसका बहुविध उल्लेख योगिता देवढे ने अपनी बातचीत में किया है। उन्होंने कहा कि कई पुरुष यह कोशिश करते हैं कि ग्रामसभा आयोजित न हो और यदि हो भी तो पंवाड़ा शुरू कर देते हैं। यह पंवाड़ा इस रूप में होता है कि वे कुछ ऐसे मुद्दे, विषय सामने ले आते हैं जिनकी न तो कोई सामूहिक प्रासंगिकता होती है और न ही जिनका असल समस्याओं से कोई लेना-देना होता है। पंवाड़ा करने वाले ये लोग असामाजिकता की हद तक चले जाते हैं, असामाजिक तत्वों के साथ इनका उठना-बैठना होता है और ये दबंगई करते हैं। कुछ नागरिक, अन्य सदस्य तथा कुछ दूसरे पुरुष इनका सहयोग करते हैं। महिला सरपंचों को इस स्थिति का सामना कई बार करना पड़ता है। कई बार स्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है कि पुलिस की सहायता लेनी पड़ती है। योगिता देवढे ने लैंगिकता के आधार पर महिला सरपंचों को हतोत्साहित किए जानेवाला एक तथ्य यह भी उजागर किया कि पुरुषों का एक समूह एक स्त्री के रूप में उन्हें बदनाम करने, चरित्र पर सवाल उठाने, अपशब्दों से भरी भाषा का उपयोग करने, उनके विषय में गलत और झूठा प्रचार करने जैसे कामों में लगा रहता है। इसे सामान्यीकृत भी किया जा सकता है क्योंकि स्त्रियों के प्रति पुरुषों की दृष्टि और रवैया ग्रामीण क्षेत्रों में ज़्यादातर लगभग यही है। इन सारी स्थितियों को देखते हुए कोई गरिमामय, आत्मसम्मान-युक्त महिला आखिर कितने दिन तक राजनीति में बनी रह सकती है और आगे बढ़ सकती है? या तो राजनीति से उसका मोह भंग हो जाएगा या फिर उसमें स्वयं को अनफिट मानते हुए वह उससे किनारा कर लेगी। राजनीति से महिलाओं का अलगाव और कुछ समय के बाद उससे उनका ‘ड्रॉप-आउट’ भारत में गाँव से लेकर महानगर तक की एक आम समस्या है। योगिता देवढे ने अपनी बातचीत में हमें यह महसूस कराया कि आगे राजनीति में उनकी सक्रिय रहने की इच्छा मर चुकी है। बातचीत में उन्होंने एक बार कहा ‘राजनीति के मेरे अनुभव अच्छे नहीं है इसलिए अब मेरी इच्छा नहीं है।’ उनका यह भी कहना था कि उनके बच्चों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। उनके संस्कार बिगड़ रहे हैं। महिला राजनीति के संदर्भ में भाषा का अपना एक विशेष महत्त्व है। वैसे तो हमारी भाषा अधिकांशत: पुरुष वर्चस्वकारी और स्त्री के प्रति दुराग्रही रवैया लेकर चलती है किन्तु हमारे राजनीतिक व्यवहारों में यह अपनी सारी सीमाएँ और मर्यादाएँ लाँघकर असामाजिकता और अश्लीलता की हद तक जा पहुँचती है और यदि महिलाएँ राजनीति में कुछ करना चाहें और अपनी योग्यता और दक्षता से आगे बढ़ना चाहें तो लैंगिक दुराग्रहपूर्ण भाषा का हथियार उनके स्वागत में तैयार बैठा रहता है! योगिता देवढे ने भी राजनीतिक भाषा की इस समस्या को अपनी बातचीत में उठाया है और इसे ‘टपोरीशाही’ कहा है। उनके शब्दों का विवरण इस प्रकार है – “सरपंच पद पर रहने के लिए एक विशिष्ट भाषा का प्रयोग करना पड़ता है जिस भाषा को मैं पसंद नहीं करती। राजनीति की भाषा खराब हो गई है। राजनीति में ‘टपोरीशाही’ या ‘टपोरीगिरी’ ज्यादा है। ऐसे टपोरी लोगों की निगाह में महिला सरपंच की किसी भी मेहनत का कोई मूल्य नहीं है। इस ‘टपोरीगिरी’ के पीछे लैंगिक दुराग्रह तो होते ही हैं; राजनैतिक विरोधियों की कुछ दुरभिसन्धियाँ भी होती हैं जो अपने स्वरूप में नकारात्मक होती हैं।
यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि योगिता देवढे जैसी साहसी, कर्मठ और सक्षम महिला सरपंच को भी अंतत: इस निर्णय पर पहुँचना पड़ता है कि ‘‘परिवार की सुरक्षा को देखकर अब मेरी आगे किसी भी राजनीतिक पद को लेने की इच्छा नहीं है।’’
5. राजनीति में महिलाएँ : राजनीति के लिए वरदान
यों, ‘वरदान’ एक अतिशय अध्यात्मवादी शब्द-संरचना है लेकिन आज के टपोरीशाही राजनीतिक माहौल का मुक़ाबला करने के लिए इस प्रकार के प्रत्येय आवश्यक प्रतीत होते हैं। यह बिलकुल भी आश्चर्य जनक नहीं है कि महिलाएं यदि राजनीति में अधिक से अधिक संख्या में और आगे से आगे बढ़कर सक्रिय हो जाएँ तो उनकी उपस्थिती राजनीति के मौजूदा चरित्र में मौलिक परिवर्तन ला दे!
5.1. सामान्यत: यह देखा गया है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ ज्यादा कर्मठ, सहनशील, कार्य के प्रति समर्पित तथा निर्णयक्षम होती हैं, शायद इसका कारण हमारी समाजिकीकरण की वह विशिष्ट प्रक्रिया हो जिसमें स्त्री हमेशा खराद-सी पर चढ़ाए रखी जाती है। हमेशा उसे किसी न किसी चुनौती का सामना करना होता है । इस समाजीकरण के परिणामस्वरूप वह अत्यधिक धैर्यशील, शालीन व संघर्षशील हो जाती है। अत: यह कहा जाना गलत नहीं होगा कि यदि स्त्रियों को राजनीति में अपेक्षाकृत अधिक अवसर मिले, उनके कार्यों को प्रोत्साहन मिले, तो राजनीति का चरित्र काफी कुछ बदल सकता है। योगिता देवढे ने अपनी बातचीत में कुछ ऐसे तथ्य स्पष्ट किए जो हमारी इस बात की पुष्टि करते हैं। जैसे उन्होंने कहा कि “महिलाएं अगर राजनीति में ज्यादा रहेंगी तो भ्रष्टाचार कम होगा क्योंकि महिलाएँ नियमों से डरती हैं। इसलिए नियमों का पालन करके ही वह काम करती हैं।”
इस मामले में मायावती को वे अपने व अन्य महिलाओं के लिए आइकॉन जैसा मानती है। उनका कहना है कि मायावती राजनीति में काम करनेवाली आम महिलाओं के लिए एक आइकॉन के रूप में काम करती हैं। मायावती पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगे हैं, इस संबंध में प्रतिप्रश्न किए जाने पर योगिता देवढे ने कहा कि राजनीति में आने के बाद वे वैसी हो गईं। मीडिया भी उन्हें इस रूप में ज्यादा दिखाता है किंतु एक महिला राजनीतिज्ञ के रूप में मायावती एक मानक हैं।
5.2. दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य इस बातचीत में यह निकलकर आया कि यदि महिलाओं की भागीदारी राजनीति में बढ़ती है तो राजनीति की प्राथमिकताएँ तथा मुद्दे काफी कुछ बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए योगिता देवढे ने अपनी बातचीत में बताया कि पुरुष सरपंचों की अपेक्षा महिला सरपंच विकास कार्यों को लेकर अच्छा निर्णय ले सकती हैं। इसके अलावा महिलाएँ जब कोई काम अपने हाथ में लेती हैं तो उसे पूरा करने के बाद ही साँस लेती हैं। महिलाएँ चूँकि अधिक संवेदनशील होती हैं इसलिए वे लोकहित की दृष्टि से ज्यादा सोचती हैं। (27/07/2017 के लिखित उत्तर के आधार पर)।
5.3. तीसरा महत्वपूर्ण बिंदु इस बातचीत में यह उभरकर आया कि राजनीति में यदि महिलाएँ ज्यादा सक्रिय होंगी तो महिलाओं से संबंधित समस्याओं, महिलाओं के मुद्दों पर ज्यादा ध्यान दिया जा सकता है यानी कि विकास के लैंगिक संतुलन को बचाने और बनाए रखने की दृष्टि से महिलाओं का राजनीति में आना अत्यावश्यक है, जैसे कि योगिता देवढे ने एक बातचीत में यह कहा कि सरपंच यदि महिला होती है तो ग्राम पंचायत में ज्यादा महिलाएँ अपने काम को लेकर आती हैं जबकि सरपंच यदि पुरुष है तो उन्हें आने में संकोच होता है। ग्रामसभाओं में भी महिलाओं की संख्या अधिक होती है। स्त्रियों को ऐसा लगता है कि पुरुष की अपेक्षा एक स्त्री उनकी बात पर ज्यादा ध्यान देगी और वे भी उससे खुलकर बात कर सकेंगी। एक जगह उन्होंने कहा, ‘‘महिलाएँ खुद बोलती हैं कि हम अब तक ग्रामपंचायत की सीढ़ियाँ नहीं चढ़े थे, अब हमें लगता है कि हमारा यहाँ प्रतिनिधि है’’। (27/07/2017)। इस मत में दो राय हो सकती हैं किंतु इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि महिलाएँ महिलाओं की समस्याओं, मुद्दों को ज्यादा अच्छी तरह समझ सकती हैं। एक महिला होने के नाते महिला मुद्दों के प्रति वे संवेदनशील होती हैं इसलिए महिलाओं का यदि विकास करना है तो राजनीति में महिलाओं का अधिक से अधिक संख्या में आना जरूरी है, यह देखकर आश्चर्य होता है कि किसी दक्ष स्त्रीवादी कार्यकर्ता की भाँति योगिता देवढे ने भी कहा कि ‘‘महिलाओं का अगर विकास करना है तो महिलाओं का राजनीति में आना जरूरी है, क्योंकि महिलाओं के विकास का पक्ष महिलाएँ ही अच्छी तरह से रख सकती हैं’’। (27/07/ 2017 को दिए गए लिखित उत्तर में)।
5.4. जैसा कि उल्लेख किया गया, महिलाएँ यदि राजनीतिक नेतृत्व में होती हैं तो विकास कार्यक्रमों की प्राथमिकताएँ अधिक जनहितकारी हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, योगिता देवढे ने बताया कि स्त्री में परिवार की देखभाल, बच्चों के भरण-पोषण, प्रबंधन इत्यादि का एक विशेष गुण होता है जो पुरुषों में नहीं होता। वह जैसे अपने परिवार को अपना समझती है उसी तरह समस्त पंचायत भी, उसके समस्त नागरिक भी उसके लिए एक परिवार की तरह ही होते हैं। इस भावनात्मक संबंध की परिणति काफी सकारात्मक होती है और महिलाएँ पंचायत को ही अपना घर समझने लगती हैं। इसका तात्पर्य है कि जैसे परिवार या घर का हित एक स्त्री के लिए सर्वोपरि होता है उसी तरह लोकहित भी उसके लिए सर्वोपरि होता है।
इस दृष्टि से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महिलाएँ अपनी विकास योजनाओं की प्राथमिकताओं में अपेक्षाकृत अधिक जनोन्मुख होती हैं, जैसे कि जब हमने योगिता देवढे से महिला सरपंचों के विकास मुद्दों की प्राथमिकताओं के बारे में पूछा तो यों उन्होंने वही बातें कहीं जो एक घाघ पुरुष नेता अपने बयानों में कहता है किंतु हमने देखा कि योगिता जब अपनी इन प्राथमिकताओं को गिना रही थीं तो उनके चेहरे पर गहरा आत्मविश्वास का भाव और आँखों में उत्साह था। उन्होंने महिला सरपंचों की जो विकास संबंधी प्राथमिकताएँ गिनाईं, वे इस प्रकार थीं –
1. नागरिकों को बुनियादी सेवाएँ प्रदान करना।
2. महिला सशक्तीकरण।
3. आँगनबाड़ी सेविका, स्वास्थ्य सेविका, आशा वर्कर इनको ग्राम विकास के प्रवाह में लाना।
4. महिलाओं सम्बन्धी विकास योजनाओं पर प्रभावी रूप से अमल करना।
5. महिलाओं के लिए स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन करना।
6. सरकारी योजनाओं पर प्रभावी रूप से अमल करना।
7. युवकों के लिए मार्गदर्शन शिविर लगाना।
8. ग्राम के सामाजिक संगठनों की ग्राम विकास के लिए सहभागिता को बढ़ावा देना।
स्पष्ट है कि महिलाओं का वर्चस्व अगर राजनीति में बढ़ता है तो यह लोकहित की दृष्टि से श्रेयस्कर होगा। पुरुषों को इससे भय खाने की जरूरत नहीं है क्योंकि स्त्रियाँ अधिक समावेशी और सहयोगी होती हैं।
6. अपेक्षाएँ, आवश्यकताएँ एवं सुझाव
6.1. योगिता देवढे ने अपनी बातचीत में अपनी वे अपेक्षाएँ और आवश्यकताएँ व्यक्त कीं जो वे इस व्यवस्था से चाहती हैं । सबसे पहले तो उन्होंने यह बताया कि महिला सरपंचों को सरपंच होने के बाद पर्याप्त आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। ग्राम पंचायत में कई पेचीदा रेकॉर्ड्स होते हैं, कार्य निष्पादन की प्रक्रियाएँ होती हैं अत: इस सबको समझने के लिए नवनिर्वाचित महिला सरपंचों को यथोचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। अभी मात्र तीन दिन का प्रशिक्षण नवनिर्वाचित सरपंचों के लिए होता है जिसे बढ़ाकर कम से कम एक माह का किया जाना चाहिए। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के लिए लंबी अवधि का यह प्रशिक्षण ज्यादा आवश्यक है क्योंकि वे नई-नई सत्ता में आ रही हैं। उनसे गलतियाँ न हों, पुरुष अधिकारी उनकी गैर जानकारी का गलत फायदा न उठा सकें इसलिए भी महिला सरपंचों को यह प्रशिक्षण दिया जाना लाज़िमी है।
6.2. पूर्व में ‘शासकीय यंत्रणा’ का उल्लेख किया गया। यहाँ पुनः उसका संदर्भ दिया जाना आवश्यक है क्योंकि महिला सरपंचों का यह मानना है कि ‘शासकीय यंत्रणा’ (गवर्नमेंट मशीनरी) में पुरुषों का दबदबा होने की वज़ह से महिलाओं को पूरा स्पेस नहीं मिलता। उनकी बात नहीं सुनी जाती। इसीलिए योगिता देवढे का सुझाव है कि ग्राम पंचायत स्तर पर ग्रामसेवक इत्यादि पदों पर महिलाएँ पदस्थ की जाएँ तथा उच्च अधिकारियों में भी महिलाओं की संख्या पर्याप्त हो ताकि महिला सरपंच खुलकर अपनी बात उनसे कह सकें।
शंभु गुप्त , प्रोफ़ेसर , स्त्री अध्ययन विभाग, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीयकरण हिंदी विश्वविद्यालय , वर्धा फ़ोन:- 8600552663, 9414789779
e-mail- shambhugupt@gmail.com
अस्मिता राजुरकर : स्त्री अध्ययन विभाग, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीयकरण हिंदी विश्वविद्यालय , वर्धा,में शोध-कार्य पूर्ण.
थिंक फाउन्डेशन के माध्यम से स्वतंत्र सामाजिक शोध-कार्य में संलग्न.
फ़ोन 9049723994 e-mail: striasmita@gmail.com
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