19 नवंबर के अपने लेख में अरविंद जैनसवाल लिखते हैं:
1987 के ‘सती प्रिवेंशन एक्ट’ ने यह सुनिश्चित किया कि सती की पूजा, उसके पक्ष में माहौल बनाना, प्रचार करना, सती करना और उसका महिमामंडन करना भी क़ानूनन अपराध है. इस तरह पद्मावती पर फिल्म बनाना, उसे जौहर करते हुए दिखाना, सती का प्रचार है, सती का महिमामंडन है और इसलिए क़ानून का उल्लंघन भी. यह एक संगेय अपराध है और इसका काग्निजेंस सेंसर बोर्ड को भी लेना चाहिए. क्योंकि सेंसर बोर्ड को भी जो गाइड लाइंस हैं वह स्पष्ट करती हैं कि कोई भी फिल्म ऐसी नहीं हो सकती जो क़ानून के खिलाफ हो या संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ जाती हो. इसलिए सेंसर बोर्ड को भी देखना चाहिए कि क्या यह फिल्म सती प्रथा का महिमामंडन करती है? यदि ऐसा है तो उसे फिल्म को बिना कट प्रमाण पत्र नहीं देना चाहिए. अदालतों को भी सुमोटो एक्शन लेना चाहिए था. यह ऐसा ही है कि देश में छुआछूत बैन हो और आप छुआछूत को जस्टिफाय करने वाली फ़िल्में बना रहे हैं. रचना कर रहे हैं.
30 नवंबर को संसदीय पैनल ने पूछा:
क्या सती और जौहर दिखाया जा सकता है? इसके अलावा अन्य सवाल थे: क्या उन्होंने सेंसर बोर्ड को प्रभावित करने के मसकद से कुछ मीडिया समूहों को अपनी फिल्म दिखाई थी और क्या यह कदम उचित और नैतिक है? ‘आपने 11 नवंबर को आवेदन करने के बाद यह कैसे मान लिया कि फिल्म एक दिसंबर रिलीज हो जाएगी, जबकि सिनेमैटोग्राफी एक्ट के अनुसार किसी फिल्म के प्रमाणन में 68 दिन का समय लग सकता है?’ क्या आजकल फिल्म को चर्चा में लाने के लिए उसके आसपास विवाद खड़ा किया जाता है? ऐसे ही अन्य सवाल.
पढ़ें अरविंद जैन का पूरा लेख: फिल्म पद्मावती पर सेंसर किये जाने की स्त्रीवादी मांग
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