स्त्रीवादी क़ानूनविद अरविन्द जैन को जन्मदिन (7 दिसंबर) की शुभकामनायें… !
पिछले दिनों वर्धा प्रवास के दौरान भारत के प्रमुख जेंडर विशेषज्ञ, महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों और उनकी कानूनी लड़ाई की मुहिम में प्रमुखता से शामिल प्रसिद्ध कानूनविद श्री अरविंद जैन से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के स्त्री अध्ययन विभाग के शोधार्थियों, प्रीतिमाला सिंह, गीतेश, मनोज गुप्ता और विभागाध्यक्ष प्रो. शंभु गुप्त ने विस्तृत बातचीत की।
जेंडर समानता, यौन हिंसा अथवा महिलाओं के पक्ष में बने कानूनों की जमीनी हकीकत, कानूनों के विधिसम्मत अनुपालन में जेंडर पक्षपात से भरी राजनीतिक, सामाजिक एवं सामुदायिक मान्यताओं के बीच न्यायपालिका की भूमिका पर बात की गई। डॉ. जैन का मानना है कि बिना कानून और संविधान की जानकारी के इंसान अधूरा है। जेंडर समानता के पक्ष में हुए कानूनी सुधारों की पारिभाषिक शब्दावलियों उसकी सामाजिक एवं विधिक स्वीकार्यताओं के बीच अंतर्विरोधों के सवाल पर श्री जैन ने बड़ी सटीकता से जवाब देते हुए कहा कि चूंकि कानून बनाने वाली, उसे व्याख्यायित करने वाली और उसे लागू करने वाली संस्थाओं में निर्णयकारी भूमिकाएँ पुरुषों की हैं। संसदीय ढांचे में 92 प्रतिशत, ऊपरी अदालतों में 98 प्रतिशत न्यायाधीश पुरुष हैं ऐसे में यदि कुछ गिनी चुनी जगहों पर महिलाए हैं भी तो उन्हें निर्णय की भूमिका में प्रभावी रूप में शामिल ही नहीं किया जाता। सत्ता पर बैठे लोग घर, परिवार और विवाह संस्था के उसी मूल ढांचे से अपने रिश्ते मजबूत करते दिख रहे हैं जो आज भी सामंती बना हुआ है। जे. एस. वर्मा और लीला सेठ की कमेटी द्वारा सौंपी गयी रिपोर्ट को जिस तरह सरकार ने अपने तरीके से पेश किया उस पर भी लंबी बात-चीत हुई। रेप को परिभाषित करने वाले 2013 के कानून में स्त्री की सहमति-असहमति की परिस्थितियों के आलोक में वैवाहिक बलात्कार को देखते हुए अरविंद जैन ने खेद प्रकट करते हुए कहा कि इसने पुरुषों को असीमित अधिकार दे दिए हैं जो आने वाले समय में अपराधियों के लिए एक ढाल के रूप में साबित होंगे। महिलाओं के लिए वैवाहिक बलात्कार कानून की महत्वपूर्ण भूमिका, संपत्ति अधिकार कानून, तीन तलाक और महिला आरक्षण बिल पर भी शोधार्थियों ने उनसे सवाल किए। किसी भी कानून को लागू करने अथवा बिल पास करने की सरकारों की राजनीतिक इच्छा पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा कि इन इच्छाओं का निर्धारण तत्कालीन सरकारें अपने हितों को ध्यान में रखते हुए करती हैं।
वर्तमान संदर्भ में उन्होंने उदाहरण स्वरूप कहा एक तरफ नोटबंदी, जी.एस.टी., या रेप लॉ आदि पर रातों रात फैसले और कमेटियाँ बना ली जाती हैं, वहीं महिला आरक्षण बिल जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दे वर्षों से ठंडे बस्ते में पड़े हैं। विश्वविद्यालयी परिवेश में जेंडर समानता से जुड़ेकानूनी और व्यवहारिक पक्षों पर बात रखते हुए स्त्री अध्ययन जैसे अनुशासन में स्त्री-पुरुष की मौजूदगी और उनके साझा प्रयासों से जेंडर समानता की बहस और आंदोलनधर्मी भूमिकाओं को आगे बढ़ाने की भी बात कही। आज के समय के पद्मावती विवाद पर अपनी बेबाक राय रखते हुए उन्होंने कहा कि इस फिल्म को बनाने वाले तथा इसका विरोध करने वाले दोनों ही पक्ष सती तथा सती-प्रथा का महिमा-मंडन कर रहे हैं, जो कि सती निरोधक कानून के हिसाब से संविधान विरोधी कार्य है।
उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को 17 साल लगे अपने यहां सेक्सुअल हैरासमेंट पर कमेटी बनाने में लग गए। जबकि 1997 ई. में सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा जजमेंट में इस आशय का निर्णय दिया था। अंततः 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने यहां यह कमिटी बनाई। इसी से देश के बाकि जगहों पर इस मसले पर के हालात को समझा जा सकता है।
डॉ. जैन ने आगे कहा कि आज भी देश-समाज-परिवार के लोकतंत्रीकरण का एजेंडा अधूरा है। दहेज हत्या, यौन हिंसा से लेकर बालिका भ्रूण हत्याएं देश में थमने का नाम नहीं ले रही है। विश्वविद्यालय और कॉलेजों में सेक्सुअल हरासमेंट से लेकर हत्या-आत्महत्याएं जारी है। उन्होंने तल्ख लहजे में कहा कि विश्वविद्यालयों में सेक्सुअल हरासमेंट पर जीरो टॉलरेंस की महज औपचारिकता पूरी की जा रही है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्र-छात्राओं को एकांगी ज्ञान दिए जा रहे हैं, उन्हें समग्र ज्ञान से मरहूम रखा गया है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों में दस बजे रात्रि के बाद छात्राओं के छात्रावास में ताला लगा दिया जाता है, जबकि छात्रों को खुली छूट रहती है। उन्होंने आगे कहा कि विश्वविद्यालयों के छात्रावास लड़कियों के लिए कैदखाने बने हुए हैं।
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