भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें(अंतिम किस्त)

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com



मैं मर्द नहीं, सर्जक होना चाहती हूँ


गौरतलब है कि आत्मसाक्षात्कार आयु एवं अनुभव के साथ मानव जीवन में स्वाभाविक रूप से आने वाली नैसर्गिक स्थिति नहीं है। यह एक दुर्गम-दुष्कर यात्रा है जिसके लिए पहले पात्रता हासिल करनी पड़ती है। इसके लिए जरूरी है स्व एवं अहं का विसर्जन जो सभी तामसी प्रवृत्ति का उद्गम òोत है। दूसरे, अपने भीतर संवेदन, सकारात्मक दृष्टि एवं सृजन की आकांक्षाओं से अंतर्गुम्फित व्याकुलता पैदा करना जो जड़ता को चेतना, चेतना को प्रेरणा और प्रेरणा को पुनर्निर्माण में बदलने का माद्दा रखती हो। इनके बिना आत्मसाक्षात्कार की कोशिश प्रतिशोध के लिए तैयार की गई सुविचारित रणनीति का पर्याय बन कर रह जाती है। प्रतिशोध चूंकि सृजनात्मक सम्भावनाओं को मार कर खुद को नकारना है, अतः यहाँ टारगेट के रूप में व्यक्ति प्रमुख हो जाता है, समाज, इतिहास और परम्परा में मौजूद वे रूढ़ियां और विसंगतियां नहीं जो रुग्ण व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। जाहिर है आत्मसाक्षात्कार जहाँ अंतिम परिणति में सामाजिक निवेश ;ेवबपंस पदअमेजउमदजद्धका उपक्रम बन जाता है, वहीं प्रतिशोध तात्कालिक बाध्यताओं से उपजा आत्मपरक उपभोग। इसलिए ऊर्जा का क्षय करने के बावजूद अतृप्ति एवं भूख को कायम रखना इसका स्वभाव है। आश्चर्य है कि जहाँ अधिकांश भारतीय स्त्री लेखन अपने नारी पात्रों को प्रतिशोध की व्यूहधर्मी संरचनाओं से बचा कर निर्माण की चिंताओं में संलिप्त करता है, वहीं तसलीमा नसरीन और विशेष रूप से तहमीना दुर्रानी प्रतिशोध में अपनी नायिकाओं की हीरॉइक उपलब्धि दर्ज कराती हैं। पीर साईं की हत्या में शरीक होकर ‘कुफ्र’ की हीर देर तक इस गफ़लत में रहती है कि उसने शैतान को मार कर ‘धर्म’ को आज़ाद करा लिया है। लेकिन पीर साईं द्वारा तवायफ के रूप में हीर की अन्य पुरुषों के साथ बनाई गई ब्लू फिल्मों को उन्हीं रसूख वाले पुरुषों को दिखा कर मकबरे के प्रति अनास्था व्यक्त करने का जो मार्ग उसने चुना है, वह अंततः उसे कहीं नहीं ले जाता। सवाल उठता है कि पीर साईं के पाप में भागी व्यक्ति जो स्वयं मकबरे के संरक्षण में अपनी ताकत का दुरुपयोग करते रहे है।, अब हीर का साथ क्यों देंगे? क्यों नहीं राजाजी के रूप में वे नए पीर साईं की बुतपरस्ती का समर्थन करेंगे? दूसरे, शक्ति का केन्द्रीकरण भले ही कुछेक हाथों में हो, आस्था और समर्थन के जरिए उसे अवाम ही ताकतवर बनाता है। इसलिए क्या बेहतर नहीं था कि अम्मा साईं के हजूर में आने वाली स्त्रियों को वह मकबरे के भीतर पलने वाली सच्चाइयों से वाकिफ कराती? तब उसका यह कदम पहला न होकर सखी बीवी के कुचल दिए गए प्रचार की अगली कड़ी बन कर शायद व्यापक जनाधार जुटा पाता। तहमीना मानती हैं कि मकबरे के वर्चस्व में जी रहे बंद कबीलाई समाज में औरत के लिए ”ज़िंदगी या तो ठहरी हुई है, या सब कुछ तबाह करता तूफान।” (पृ0 133) इसलिए दो अतिरेकों में निरंतर दोलायमान वह किसी दीर्घकालिक विकल्प पर विचार नहीं कर सकती। लेकिन तालिबानी शासन के दौरान अफगानिस्तान में अंडरग्राउंड ‘रावा’ संस्था के अस्तित्व और योगदान तथा हाल ही में ‘ऑनर किलिंग’ के विरोध में पाकिस्तानी महिलाओं के आंदोलन  को देखते हुए यह वक्तव्य क्या वैवाहिक अमानुषिकताओं से खौफजदा हीर उर्फ तहमीना दुर्रानी उर्फ बेगम मुस्तफा खार की संकुचित आवेगपूर्ण दृष्टि का स्वीकार नहीं? खास कर तब जब ‘कुफ्र’ में ही तहमीना जादुई यथार्थवाद का सहारा लेकर तोती के रूप में गढ़ी गई प्रेरणा और फौलादी जीवन की स्वामिनी चील के रूप में मिशन को निरंतर पुष्टतर कर स्त्री सशक्तीकरण का महाख्यान रचने का सर्जनात्मक दायित्व भी बखूबी निभती हैं?

पहली किस्त :- भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें

प्रतिशोध का स्वर तसलीमा नसरीन के
यहाँ भी है, लेकिन महज इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए कि प्रतिशोध के मूल में है अपने को कमतर मानने की गं्रथि जिसे ईदुल (मेरे बचपन के दिन) के असंतोष, द्वंद्व, असुरक्षा और दिशाहीनता में बेहतर समझा जा सकता है। लेकिन प्रतिशोध के साथ सु-प्रयोजन जुड़ जाए तो यह नकारात्मक न रह कर सकारात्मक विकल्पों के संधान का प्रयास बन जाता है। जाहिर है लड़कियों की खरीदफरोख्त के घृणित व्यापार को देखते हुए स्वयं लड़का खरीद कर उसका मनमाना भोग करने  तथा पुरुषों की तरह चार ब्याह रचाने की लालसा में दरअसल नियमों को उलटाने की अपेक्षा उनकी खामियां दिखा कर लोगों में चेतना पैदा करने का जज्बा है – ”नियम को जब बेहतर बातों से नहीं बदला जा सकता तो उसकी खामियां भी विपरीत नियम के सहारे ही समझनी पड़ेंगी।” (तसलीमा नसरीन, नष्ट लड़की नष्ट गद्य, पृ0 88)
‘मता-ए-दर्द’ में पाकिस्तानी लेखिका रज़िया फसीह अहमद तथा ‘कठगुलाब’ में मृदुला गर्ग प्रतिशोध को सशक्तीकरण में ढालने वाली मानसिकताओं का बखान करती हैं। तसलीमा के विश्लेषण को कथा में विन्यस्त कर रज़िया और मृदुला निष्फल प्रतिशोध के भीतर सिमटी सर्जनात्मक संभावनाओं को उघाड़ कर बेचारगी से फूट कर सशक्तीकरण की ओर बढ़ने वाली दिशाओं का संकेत करती हैं। ‘मता-ए-दर्द की निम्नवर्गीय बेसहारा अशिक्षित गुल ने संघर्ष (अर्थोपार्जन के लिए छोटी-छोटी नौकरियां करके तालीम के जरिए समाज में अपनी जगह बनाने की लालसा)  और प्रवंचना (प्रेमी द्वारा झूठी शादी का प्रपंच रचा कर गर्भावस्था के दौरान छोड़ कर सूडान चले जाना)    के परस्पर विरोधी अनुभवों को झेलने के बाद डॉ0 शहनाज की मदद से नर्स के रूप में बेशक एक नया नाम और शख्सियत पाई है, लेकिन गरीबी और सतीत्व के अपमान से पीड़ित गुंचा आज भी उसके भीतर जी रही है। फलतः अधेड़ ब्रिगेडियर शम्सी से विवाह करके अभिजात वर्ग में शामिल होना और पति की चाहतजन्य अतिशय निर्भरता का लाभ उठा कर पिकनिक और सैर सपाटे के बहाने होटल के एकांत में पुरुषों की कामवासना को भड़का कर अतृप्त छोड़ देना उसके प्रतिशोधात्मक अस्त्र हैं। यदि कुलीनता, सम्पन्नता और सामाजिक प्रतिष्ठा ही व्यक्ति जीवन की सफलता के मापदंड हैं तो गुल संतुष्ट क्यों नहीं? क्या संतुष्टि तक पहुँचने की दिशाएं और द्वार अलग हैं – लौकिक आकर्षण-विकर्षण से परे नितांत निगूढ़ और निस्सीम? प्रतिशोध की ज्वाला से अपमान के अग्निदाह को बुझाने में तल्लीन बेवकूफी को दृष्टिगत करते ही गुल जिन बुनियादी सवालों से जूझती है, दरअसल वे आत्मसाक्षात्कार के लिए अनिवार्य त्रिक् के तीसरे तत्व – सृजन की आकांक्षा – को रेखांकित करते हैं। तब पति (छद्म आवरण) को छोड़ कर कौमार्यावस्था में जन्म देने के तुरंत बाद विलगे पुत्र को अपना कर अपनी निजता को खूबियों-खामियों सहित सम्पूर्णता में पाना जितना अनिवार्य हो जाता है, उतना ही अपरिहार्य हो जाता है बेसहारा गरीब रोगियों की सहायता के लिए खोले गए अस्पताल से जुड़ना। उल्लेखनीय है कि अपने होने के मर्म को  समझे बिना खुद अपनी ज़िंदगी का नियंता बनना कठिन है। हालांकि ऐसे किसी फलसफे को सिरे से नकारते हुए असीमा हरामी मर्दों की पिटाई में ”नारीसुलभ कोमलता और करुणा” से मोक्ष प्राप्ति का कारगर नुस्खा तलाशती है और स्मिता ‘जलील, गलीज, घिनौने’ जिम जारविस के चेहरे पर पडे नकाब को तार-तार कर देने में, लेकिन शून्य और हताशा के अतिरिक्त उनकी उपलब्धियां कुछ नहीं। असीमा कराटे किक की तमाम चामत्कारिक शक्तियों के बावजूद महज ”एक जलूस, एक अभियान या विचार” (कठगुलाब, पृ0 220) बन कर रह गई है, और स्मिता बंजर धरती। मारियान को सम्बोधित स्मिता का सवाल – ‘तू मर्द होना चाहती है? -प्रतिशोध की गिरफ्त मे जकड़े विवेक को आज़ाद करने की लेखकीय कोशिश है जहाँ एक तटस्थ दर्शक की तरह अपनी स्थिति और संभावित नियति को आमने-सामने रख कर उलटने-पलटने की युक्तिसंगत तार्किकता है। स्मिता के बहाने मृदुला दो बातों की ओर विशेष ध्यान दिलाना चाहती हैं। एक, प्यार बांटे बिना दर्द नही छंटता और प्यार बांटने की उदारता प्रकृति ने सिर्फ स्त्री को दी है। दूसरे, अमूमन साइकोपैथ की तरह आत्मकेन्द्रित पुरुष ”अपने लिए जितना संवेदनशील होता है, दूसरों के लिए उतना ही संवेदनशून्य।” (पृ0 31) लेकिन नारी पक्ष प्रधान होने के कारण यदि वह संवेदनशील है तो दर्द को पीते रहने की ‘पुरुष छवि’ में कैद वह अपनी पीड़ाओं का विस्तार ही कर सकता है – विराट अकेलापन और गहन शून्य। यानी संवाद, सहयोग और सृजन -यही है सार्थक मानव जीवन का रहस्य और स्त्रीत्व की सटीक परिभाषा। ”मैं मर्द नहीं, सर्जक होना चाहती हूँ। . . .यही मेरा प्रतिशोध होगा और यही मेरी क्षमा।” (पृ0 107) अपने को भीतर तक खंगाल कर पाया गया मूलमंत्र जो मारियान को डाहभरी आत्मपीड़ा से मुक्त कर लेखन के सहारे ‘आधी दुनिया’ के प्यार का  पात्र बनाता है तो स्मिता और असीमा को ‘कुटुम्ब’ का आत्मीय संरक्षण देता है जहाँ स्मिता सहिष्णु मां है और असीमा कार्यदक्ष बड़ा भाई।



पितृसत्ताक व्यवस्था की संरचनात्मक जटिलताओं की तटस्थ समझ और आत्मविश्लेषण से तीनों देशों का स्त्री लेखन इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि पुरुष समाज द्वारा अपनी सुविधा के लिए गढ़े गए मिथ ‘औरत ही औरत की दुश्मन है’ को तोड़ कर स्त्री वैश्विक भगिनीवाद का प्रसार करते हुए समूची मनुष्यता को आत्मीयता के घेरे में ले आना चाहती है। ‘कुफ्र’ में हीर की सहायता के लिए तोती, चील और तारा का समय-असमय प्रस्तुत होना, ‘मता-ए-दर्द’ में डॉक्टर शहनाज द्वारा पुरुष प्रवंचिता कुंवारी मांओं की लोकलाज और मर्यादा की रक्षा हेतु अस्पताल चलाना, ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ की सदफ़ आरा द्वारा रश्के कमर और जमीलुन बी की भरसक सहायता करना, ‘चाक’ की सारंग की लड़ाई में समूची स्त्री जाति का एकजुट होना, ‘ठीकरे की मंगनी’ में महरूख के साथ पसरता सखी भाव विस्तार, ‘कठगुलाब’ में इमीग्रंट स्त्रियों की एक सी सार्वकालिक-सार्वदेशिक नियति के आख्यान के साथ संस्था के रूप में खड़ी दर्जिन बीबी के स्वावलम्बी प्रयासों को जोड़ना इसके उदाहरण हैं। कुंदनिका कापड़ीआ भगिनीवाद को स्त्री धर्म की नई व्याख्या के रूप में प्रस्तुत करती हैं -”हर एक पीड़ित स्त्री हमारी बहन है और उसके कंधे से कंध लगा कर खड़े रहना हमारा स्त्री धर्म है।” (दीवारों से पार आकाश, पृ0 253) निस्संदेह भगिनीवाद पुरुष/व्यवस्था के खिलाफ स्त्री का शक्ति प्रदर्शन नहीं, वरन् स्त्री सशक्तीकरण का सृजनात्मक आयाम है जो उसकी मिशनबद्ध ऊर्जा को समाज कल्याण के रास्ते सभ्यता के स्वस्थ विकास और पुनर्निर्माण के संकल्प के साथ जोड़ता है।


उल्लेखनीय है कि तसलीमा की नायिकाएं – ‘फेरा’ की शरीफा और ‘मेरे बचपन के दिन’ की ईदुल -जहाँ उन्मुक्त उदार दृष्टि के अभाव में आत्मसाक्षात्कार नहीं कर पातीं (जिसकी क्षतिपूर्ति वे निश्चय ही अपनी कविताओं और टिप्पणियों मे करती हैं) और तहमीना की हीर एवं तारा स्वस्थ विकल्पों के अभाव में अपने विद्रोह को रचनात्मक बाना नहीं दे पातीं, वहीं भारतीय स्त्री लेखन आत्मसार्थकता की तलाश में स्त्री सशक्तीकरण की दुर्लभ मिसाल प्रस्तुत करता है। ‘कठगुलाब’ की दर्जिन बीबी अशिक्षित/अर्धशिक्षित निम्न एवं मध्यवर्गीय स्त्रियों में स्वाभिमान एवं स्वावलम्बन की चेतना का प्रसार कर रही हैं -”मेरा काम संभालेगी तो कितने ज़रूरतमंद बच्चों को काम सिखला कर, अपने पैरों पर खड़ा कर सकेगी। . . . मुझे देख, बीसियों बच्चे हैं मेरे। तभी इतने विश्वास के साथ कह सकती हूँ, एक बच्ची मेरा काम संभालेगी, एक चिता को आग देगी, बाकी सम्मानजनक जीवन जिएंगी। किसी एक की खातिर मुझे कलपने की जरूरत नहीं है।” (पृ0 186) तो ‘छिन्नमस्ता’ की प्रिया के चमड़े के निर्यात व्यवसाय में उसकी अस्मिता के साथ उस जैसी हाशिए पर फेंकी गई बहुतेरी स्त्रियों की अस्मिता जुड़ी है। ग्राम प्रधान द्वारा अपनी शक्तियों के दुरुपयोग से ग्राम समाज को दिन-ब-दिन खोखला करने वाली प्रधान पद की दावेदार ताकतों के खिलाफ सारंग से परचा भरवा कर मैत्रेयी पुष्पा न केवल राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी की वकालत करती हैं, बल्कि उसकी निष्ठा, निर्भीकता और रचनात्मकता को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर समाज द्वारा स्त्री शक्ति के अधिकाधिक उपयोग (नजपसपेंजपवद) पर बल भी देती हैं, तो कुंदनिका कापड़ीआ स्त्री की जद्दोजहद के क्षेत्र का विस्तार करते हुए बलात्कार जैसे घिनौने सामाजिक अपराध के विरोध में समूची स्त्री शक्ति को संगठित कर व्यवस्था का चक्का जाम कर देने की संभावनाओं को रेखांकित करना नहीं भूलतीं। बेशक बलात्कार से उपजे सदमे का महिमामंडन प्रकारांतर से पुरुष द्वारा स्त्री की यौन शुचिता की मांग का पुरजोर समर्थन है, लेकिन डकैती-हत्या जैसे संज्ञेय अपराधों की कोटि में रख कर प्रत्येक विकृति के खिलाफ आवाज़ उठाने का दायित्व क्या स्त्री का नहीं?


नहीं। घनघोर असहमति – मृदुला गर्ग, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा और कुंदनिका कापड़ीआ की। स्त्री को ‘आधी दुनिया’ कह देने का अर्थ यह नहीं कि समाज में पुरुष की इयत्ता के बरअक्स अपनी स्वतंत्र सत्ता प्रतिष्ठित कर वे ताउम्र रेल की पटरियों की तरह दौड़ते रहें – समानान्तर और साथ-साथ। ”मर्द न हमारा दुश्मन है, न हरीफ़ – वह हमारी तरह इंसान है” (ठीकरे के मंगनी, पृ0 179) . . . ”औरत की ज़िंदगी के सारे करीबी व जज़बाती रिश्ते मर्द से ही होते हैं। बाप, भाई, शौहर, महबूब, बेटा जैसी अहमियत को नकार कर औरत कहाँ जाएगी?” (वही, पृ0 126) -नासिरा शर्मा बेहद आग्रहपूर्वक इस बुनियादी सच्चाई को रेखांकित कर देना चाहती हैं। परस्पर सहयोग और पूरकता के बिना चूंकि कोई भी साझा मिशन संभव नहीं, अतः जरूरी है स्त्रीसुलभ गुणों से सम्पन्न अर्धनारीश्वर पुरुष (कठगुलाब, पृ0 205) क्योंकि आदर्श मनुष्य व आदर्श सम्बन्ध तभी संभव है जब स्वतंत्रता और दायित्व बोध दोनों हों व्यक्ति के पास। मान लो, समाज में रंजीत, पीर साईं, व्योमकेश, जिम जारविस, इर्विंग, नरेन्द्र, अनिर्वाण, डॉक्टर रजब अली जैसे पुरुषों की बजाय विपिन, फिलिप, श्रीधर, स्वरूप, आदित्य, गगनेन्द्र, विनोद जैसे नारीवादी पुरुषों की तादाद बढ़ जाए, तो? तो यकीनन पूरी सृष्टि में सत् शिव और सौन्दर्य के प्रतिरूप आनंदग्राम का विस्तार हो जाएगा – कुंदनिका कापड़ीआ का विश्वास। आनंदग्राम जो एक बृहद् परिवार है, लेकिन परिवार संस्था के बुनियादी स्वरूप के ठीक विपरीत जहाँ ”साथ रहने से आत्मीयता और बल मिलते हैं”; जहाँ ”किसी का किसी पर वर्चस्व नहीं” (पृ0 156); जहाँ ऐसे प्रेम का साम्राज्य है जो ”शक्ति दे किंतु पराश्रयी न बनाए” (पृ0 165); जहाँ पूर्वाग्रहों को छोड़ कर सत्यान्वेषण जीवन की पहली शर्त बन जाता है” (पृ0 177)। उल्लेखनीय है कि इस आनंदग्राम को बाहर नहीं, ”अपने भीतर से प्रकट करना है”। पृ0 165) -एक यूटोपियन स्थिति कि ”पूर्ण में से पूर्ण निकल भी जाए तो भी जो बाकी रहता है, वह पूर्ण ही है।” (पृ0 276) असंभव, अविश्वसनीय लेकिन बेहद काम्य! मृदुला गर्ग यूटोपिया की बात नहीं करतीं (क्या इसलिए कि उनके पास एक ही अर्धनारीश्वर पुरुष है-विपिन?) , यूटापिया की पूर्वपीठिका हेतु जिस दुर्धर्ष संघर्ष, अनंत श्रम और अपराजेय सामंजस्य की आवश्यकता होती है, उसे गुजरात के सूखाग्रस्त बंजर गोधड़ इलाके में रोप-सींच कर नई फसल का इंतजार करती हैं। लेकिन स्थिति की इस विडम्बना की ओर संकेत करना भी नहीं भूलतीं कि ”एकांत में स्मिता कठगुलाब जी रही थी और कुटुम्ब में लहसुन उगा रही थी।” (पृ0 241) स्मिता की इस विडम्बना में हर उस स्त्री की त्रासदी छिपी है जो परस्पर पूरकता और सम्पूर्णता की तलाश में सहचर पुरुष का स्नेहसिक्त सान्निध्य भर पाना चाहती है। सौन्दर्य और सुवास की निधि उसके पास है, भरपूर और अद्वितीय! जरूरत पानी के तरल स्पर्श की है, फिर वह भी खिल उठेगी कठगुलाब की तरह – झनन हुम्म! झनन हुम्म!

मृदुला गर्ग स्त्री सशक्तीकरण को नारे से अलगा कर आत्म-संज्ञान की एक स्थिति मानती हैं। इसलिए एक ओर वे पुरुषवादी स्त्री संगठनों की तथाकथित कल्याणकारी भूमिका के पुनरीक्षण की मांग करती हैं, वहीं इक्कीसवीं सदी की स्वतंत्र प्रबुद्ध कैलकुलेटिंग स्त्री के रूप में उभरी नीरजा की यंत्र-मानवी मूर्ति का स्वयं अपने हाथों खंडन करती हैं। ”इस जन्म में, अगले जन्म में, पूर्व-पश्चिम में, किसी देशकाल में, हम औरत ही रहना चाहती हैं। दर्द और पीड़ा से घबरातीं तो मर्द क्यों, मशीन न होना चाहतीं?” (कठगुलाब, पृ0 107) वे अपनी इस कामना को नीरजा के मां न बन पाने की असफलता मंे खारिज नहीं कर सकतीं, क्योंकि मातृत्व अपने हाड़-मांस से अपना प्रतिरूप पैदा करना नहीं, अपनी वैचारिक विरासत को जर्रे-ज़र्रे तक फैलाना भी है। इसलिए किसी भी मानवीय उद्वेग से शून्य नीरजा को एक टुकड़ा भर ज़मीन भी नहीं देतीं। मशीन यदि कभी अपना विस्तार करना भी चाहे तो मशीन के अतिरिक्त क्या देगी?

भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें(दूसरी किस्त)

भारतीय स्त्री लेखन की तुलना में पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के स्त्री लेखन के प्रतिशोधात्मक एवं आवेशपूर्ण स्वर को देखते हुए दो बातें जेहन में कौंधती हैं। एक, धार्मिक कट्टरता का आतंक और अशिक्षा का घुप्प अंधकार बहुत देर तक चेतना की टिमटिमाती रोशनियों को नहीं लील सकता। दूसरे, दमघोंटू प्रतिबंधों एवं वर्जनाओं के खिलाफ लड़ाई में मुक्ति की कामना जिस अनुपात में जीवन का आत्यंतिक लक्ष्य बन जाती है, उसी अनुपात में गौण होता चलता है मुक्ति की दिशा और स्वरूप पर विचार। हालांकि यह बात भी उतनी ही सत्य है कि दोनों देशों की एक-एक लेखिका के लेखन के आधार पर वहाँ के समूचे स्त्री लेखन पर ऐसी कोई टिप्पणी करना अपने ही अल्प ज्ञान से उपजे निष्कर्षों का सामान्यीकरण है। अतः स्त्री सशक्तीकरण की मुकम्मल तस्वीर पेश करने के लिए बेहद ज़रूरी है भारतीय भाषाओं के प्रतिनिधि स्त्री लेखन की भाँति दोनों देशों के विभिन्न प्रान्तों, कबीलों, समाजों, संस्कृतियों की तस्वीर प्रस्तुत करने वाले स्त्री लेखन का गहन विश्लेषण।


पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के स्त्री लेखन के बरअक्स भारतीय स्त्री लेखन में कुछ न्यूनताएं साफ तौर पर दिखाई देती हैं। एक, जोखिम उठा कर भी जिस बेबाकी से दोनों देशों की लेखिकाओं ने स्त्री जीवन को पंगु कर देने वाली इस्लामी रिवायतों के खिलाफ आवाज बुलंद की है, वह भारतीय स्त्री लेखन में नहीं। पिछले कुछ वर्षों से हिंदू राष्ट्रवाद के उठान ने धर्मनिरपेक्ष भारतीय मानस में धार्मिक आडम्बरों और कर्मकांडों की प्रतिष्ठा करते हुए जिस प्रकार धीरे-धीरे सती प्रथा का महिमामंडन किया है , वह निस्संदेह स्त्री नियति को पराधीन करने की सुविचारित साजिश है जिसे लेकर भारतीय लेखिकाओं की चुप्पी न केवल चौंकाती है, बल्कि उनके सरोकारों की सघनता पर सवालिया निशान भी लगाती है, खासकर तब जब तसलीमा नसरीन ‘नष्ट लड़की नष्ट गद्य’ में इसके खिलाफ व्यापक आंदोलन छेड़ने की बात करती हैं। (पृ0 171)

भारतीय स्त्री लेखन की दूसरी दुर्बलता है अपने आसपास के खुरदरे यथार्थ को अनदेखा कर वर्चुअल रिएलिटी का निर्माण करने की प्रवृत्ति। सामाजिक संस्थाओं का सर्वेक्षण करना आत्म पड़ताल का पहला चरण है जो रणनीति बनाने हेतु आधारभूमि और दृष्टि देता है, लेकिन वह लेखन और जीवन की कुल उपलब्धि नहीं हो सकता। विडम्बना है कि भारतीय लेखिकाओं ने इसे वांछित गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया। घरेलू हिंसा समाज के प्रत्येक तबके में फैली ऐसी बुराई है जो अमूमन प्रत्येक गंभीर साहित्यिक रचना में अपनी पूरी भयावहता के साथ उपस्थित है लेकिन साथ ही यह तथ्य भी काबिले-गौर है कि घरेलू हिंसा के मुखर विरोध को केन्द्रीय विषय बना कर सोद्देश्यपूर्ण ढंग से कोई रचना नहीं रची गई। धैर्यपूर्वक कुटते-पिटते रहना या तंग आकर सम्बन्धविच्छेद करना – यकीनन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ठीक यही बात कन्या भ्रूण हत्या, परिवार में लड़कियों के दोयम दर्जे की व्यापक स्वीकृति और जातिगत विषमता के कारण प्रेमी युगल की हत्या जैसे समस्याओं को लेकर भी कही जा सकती है जो प्रखर विरोध के सकारात्मक हस्तक्षेप के अभाव में अंततः अरण्य रोदन बन कर ही रह जाती हैं। यह ठीक है कि आग उगलने के बावजूद साहित्य समाज में क्रांति नहीं ला सकता, लेकिन क्रांतिधर्मी सेच का संस्कार तो देता ही है। अतः पहले चरण पर स्थिति के प्रतिकार के लिए हीर की तरह फुंफकार जरूरी हो जाती है।



तीसरे, स्त्री की ‘भोग्या’ छवि का विरोध करते हुए भी उसकी लैंगिक पहचान बनाए रखने का आग्रह जो स्त्री द्वारा अर्जित देह सम्बन्धों की स्वतंत्रता को एक उपलब्धि के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहता है। सवाल उठता है कि बाजार की नव-उपनिवेशवादी ताकतें ‘ब्यूटी विद ब्रेन’ के नाम से उत्तर आधुनिक स्त्री के रूप में जिस मिथ को गढ़ रही हैं, और साहित्य वर्षा वसिष्ठ (मुझे चांद चाहिए) तथा मीडिया नित्यप्रति होने वाली सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के जरिए जिसे पुष्टतर कर रहा है, क्या वह नखशिख वर्णन के लिए लालायित रीतिकालीन रमणी की छवि का पोषण नहीं? क्या दाम्पत्येतर सम्बन्धों में दैहिक तृप्ति के लिए उत्कंठित स्त्री अंततः पुरुष की सामंती रुचि और भोग विलास की सामग्री बन कर नहीं रह जाएगी? जो स्वाधीनता पराधीनता की प्रच्छन्न हदबंदियों का तत्परतापूर्वक निर्माण कर रही हो, उसे प्रश्नचिन्हित न करने में स्त्री लेखन की किस प्रवृत्ति को जिम्मेदार माना जाए – लापरवाही या दूरदृष्टि का अभाव? उल्लेखनीय है कि तसलीमा नसरीन ताल ठोंक कर ऐलान कर चुकी हैं कि ”स्त्री के नाम पर प्रचलित गृहिणी, रमणी, अंगना आदि अश्लील शब्दों को प्रतिबंधित करने की हिमायत करती हूँ” (नष्ट लड़की नष्ट गद्य, पृ0 97) और जर्मेन ग्रीयर ‘विद्रोही स्त्री’ में फीमेल यूनक के रूप में स्त्री की लैंगिक पहचान से मुक्ति का विकल्प भी प्रस्तत कर चुकी हैं।


फिर भी, भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देशों की स्त्री में निष्क्रिय भूमिका त्याग कर जीवन की बागडोर खुद अपने हाथ में लेने का बोध एवं साहस आया है, वह सुखद है। साथ ही इस अहम सच्चाई का रेखांकन भी कि आर्थिक स्वावलम्बन के बावजूद स्त्री तब तक स्वतंत्र नहीं जब तक परंपरागत संस्कारों से मुक्ति का नैतिक एवं मानसिक साहस अपने भीतर न जुटा ले। इसी ‘नष्ट’ लड़की के कंधे पर है इक्कीसवीं सदी के समाज के गठन का गुरु दायित्व जिसकी चारित्रिक विशेषताओं को गढ़ कर भासमान व्यक्तित्व दिया है तसलीमा नसरीन ने – ”यदि कोई स्त्री अपने दुख, दैन्य, दुर्दशा को दूर करना चाहती है, धर्म, समाज और राष्ट्र के अभद्र नियमों के खिलाफ डट कर खड़ी होना चाहती है; हेय ठहराने वाली प्रथाओं-व्यवस्थाओं का विरोध करके अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगती है तो समाज के ‘भद्र पुरुष’ उसे ‘नष्ट लड़की’ करार देते हैं। ठीक भी है, स्त्री के ‘मुक्त’ होने की पहली शर्त ही है, नष्ट होना। ‘नष्ट’ हुए बिना इस समाज के नागपाश से किसी भी स्त्री को मुक्ति नहीं मिल सकती।” हाँ, वक्तव्य में इतना क्षेपक और कि ‘नागपाश’ से मुक्ति की दरकार स्त्री और पुरुष दोनों को है – स्वस्थ मानसिकता और नई ऊर्जा के साथ नई राहों के अन्वेषण में रत एक अनुकरणीय युगल!

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