लेखिका और एक्टिविस्ट तथा योजना आयोग की पूर्व सदस्य डॉ. सईदा हमीद की अध्यक्षता में इस कार्यक्रम में अन्य वक्ता थे वायर के एडिटर सिद्धार्थ वरदराजन, सांसद डी राजा और अली अनवर तथा वार्ता का संचालन नूर ज़हीर ने किया. सभी वक्ताओं ने पुस्तक की प्रशंसा की और ख़ास करके इस बात की सराहना की लेखक ने इतना समय आर्काइव्ज में बिताया, सामग्री जमा की, उसका सम्पादित कर, वर्ग और समय के अनुसार उसका सूचीकरण किया और तथ्यों की जांच पड़ताल और शोध करके एक पुस्तक तैयार की. सिद्धार्थ वरदराजन ने अपने वक्तव्य में कहा कि वृतान्त इतिहास के हिसाब से नहीं बल्कि विषय और प्रसंग के अनुकूल विभाजित किया गया है. यह एक तरह से पुस्तक को और रोचक बनाता है और पाठक को पूरे माहौल, समय और घटना क्रम को समझने में सहायक होता है. वरदराजन ने बताया कि असलम ख्वाजा ने अपने विश्लेषण में पूर्ण रूप से निष्पक्ष रह कर तथ्यों को रखा है, जिसमे उन्होंने नामी वामपंथी कवि फैज़ अहमद फैज़ को भी बक्शा नहीं है, और प्रमाणित किया है कि इतना बड़ा क्रांतिकारी शायर भी राष्ट्रवादिता की अंधभक्ति का शिकार हो सकता है, जैसे फैज़ हुए थे 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के भाषा आन्दोलन के समय. वरदराजन के अनुसार अपने समय और सोच के आइकॉन पर ऊँगली उठाना बहुत ही साहस का काम है .
सिद्धार्थ वरदराजन ने पूरी पुस्तक का एक ब्यौरा पेश किया और खासकरके बलोचिस्तान वाले अध्याय की बहुत प्रशंसा की. लेकिन उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि यह अध्याय राष्ट्रपति मुशर्रफ के समय पर आकर समाप्त हो जाता है जबकि बोलिचिस्तान के सन्दर्भ में बहुत कुछ उसके बाद घटित हुआ है, जिसकी जानकारी ज़रूरी है. उनका सुझाव था की इस अध्याय को अपडेट किया जाना चाहिए. उन्होंने इस बात पर भी श्रोताओं का ध्यान दिलवाया कि भारत में पाकिस्तान के बारे में रूचि तो है लेकिन उसके जानकार एक भी नहीं; मसलन बलोच भाषा का जानकार विरले ही कोई हो भारत में; उसी तरह जब वर्तमान सिन्धी जाने वालों को पीढ़ी नहीं रहेगी तब कितने लोग निजी रूचि से सिन्धी सीखेंगे. उन्होंने इस और भी ध्यान दिलाया कि पाकिस्तान में पहले भारतीय अख़बारों और भारत में पाकिस्तान के अख़बारों के तीन तीन संवादाता थे लेकिन आज दोनों देशों में एक भी नहीं है.
डॉ. सईदा हमीद ने अपनी बात महिलाओं वाले अध्याय पर रखी. महिलाओं के संघर्ष ज़्यादातर नकार दिये जाते है जबकि उनका योगदान हस आन्दोलन में होता है और अपने मुद्दे तो केवल वही उठाती हैं. सईदा ने इस बात की सराहना करते हुए कहा कि लेखक ने महला आंदोलनों को भी दर्ज किया है और जिन क्षेत्रों में महिलायें शामिल रही वहां भी उन्हें स्थान देकर उनकी मौजूदगी दर्ज की है. सईदा ने कहा कि यह एक अफसोसनाक हालात है कि पाकिस्तान में हुए अल्पसंख्यक लड़कियों के अपहरण और धर्मपरिवर्तन की बात तो भारत में मीडिया बहुत उछालता है लेकिन वहां ऐसी घटनाओं के विरोध में कितने जलूस निकले, कितना लिखा गया और न्यायपालिका को आदेश देने पर मजबूर किया गया कि उन लड़कियों की वापसी हो इसकी कोई खबर नहीं छपती. उनके शब्दों में ‘भयानक है वहां पर विद्रोही महिला होना’ क्योंकि ज़मीनी स्तर पर बहुत ख़ामोशी से काम करने वाली परवीन रहमान को भी इसलिए मार दिया जाता है क्योंकि वह ज़मीन के नाजायज़ दखल के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रही थीं. सईदा ने नूर ज़हीर की किताब में छपी भूमिका की भी तारीफ करते हुए कहा कि उसे पढने के कारण वह सो नहीं पाई और उसी से किताब कि गति निर्धारित होती है.
डी. राजा ने कहा कि इस पुस्तक से उन्हें अपनी जवानी के दिन याद आये क्योंकि वह भी छात्र आन्दोलनों से निकले हुए कार्यकर्ता हैं और अखिल भारतीय छात्र संगठन के सदस्य रहे हैं. उन्हें इस बात की ख़ुशी थी की छात्र आन्दोलन पर एक अध्याय इस पुस्तक में शामिल है क्यों छात्र समुदाय का संघर्ष अपनी गतिशीलता के चलते कम ही दर्ज होता है; अक्सर इन संघर्षों से हासिल किये हुए बदलाव भी जल्दी ही प्रशासन मिटा देता है. इस किताब द्वारा उन्हें याद आये वे सब कामरेड जो मूलतः उस हिस्से के थे जो आज पाकिस्तान है और जिनके भारत आजाने पर उन्होंने खुद उनके साथ काम किया है जैसे कामरेड पेरिन बरुचा, कामरेड रोमेश चन्द्र और बेगम हाजरा . डी राजा ने कहा कि इस पुस्तक से भारत के लोगों के दिमाग में पनप रही पाकिस्तानियों के बारे में गलतफहमियां कम हो जाएँगी.
राज्य सभा सदस्य अली अनवर ने प्रकाशकों की सराहना करते हुए कहा की द मार्जिनलाइज्ड ने इस किताब को छापकर बड़े साहस का काम किया है और उन्हें उम्मीद थी की इससे भारत और पाकिस्तान दोनों के बीच बेहतर समझदारी बनेगी.
बातचीत की शुरुआत करते हुए नूर ज़हीर ने कहा की भारतवासियों के पास पाकिस्तान का केवल वही चेहरा है जो भारतीय सरकार पेश करना चाहती है. इसका मूल आधार उसकी अपनी सुरक्षा और शासन में बने रहने की इच्छा होती है. इसलिए गाली गलौज, सीमा पर गोलीबारी, जनता में डर उकसाया जाता है ताकि मतदानों में विजय पाई जा सके. उन्होंने यह भी कहा कि किसान और मजदूर आन्दोलन तो दर्ज किये जाते हैं लेकिन कलाकारों, लेखकों, महिलाओं, मीडिया और प्रेस, छात्रों के जलूस, आन्दोलन, और प्रशासकों से मुठभेड़ कभी दर्ज नहीं होते. उन्होंने यह भी कहा की कश्मीर और बलूचिस्तान में चल रही जद्दोजहद को तुलनात्मक दृष्टि से देखने की ज़रूरत है और बलोचिस्तान वाले अध्याय से बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है .
चर्चा के दो बहुत ही महत्वपूर्ण हासिल रहे और कुछ सुझाव भी आये; 1. किताब का हिंदी और उर्दू में अनुवाद होना चाहिए; श्रोताओं में से ही दो ने अपनी रूचि जताई इस कार्य को फ़ौरन करने में. 2.इस पुस्तक को अंग्रेजी में और फिर अनुवाद को भी इतनी बड़ी पुस्तक के रूप में छपने के बजाये, हर अध्याय को अलग पुस्तिका की शक्ल में छापा जाना चाहिए. इससे पाठक का ध्यान हर विषय पर केन्द्रित रहेगा और शोध की भी संभावना बढ़ेगी.
चर्चा के दौरान ही नूर ज़हीर के पास कन्नड़ के प्रकाशक ‘नव कर्नाटका’ का सन्देश आया कि वे महिला आन्दोलन और लेखक, कलाकारों वाले अध्यायों को पुस्तिकाओं के रूप में अनुवाद करके छापना चाहते हैं.
PEOPLE’S MOVEMENTS IN PAKISTAN
A discussion on the book PEOPLE’S MOVEMENTS IN PAKISTAN was held at the Conference Hall 1, of India International Centre. The book has been written by Aslam Khwaja, senior journalist, leftist thinker and activist based in Karachi, Pakistan and published in India by THE MARGINALISED PUBLICATION, with an introduction by Noor Zaheer.
The Conference Hall was full with a responsive audience that had a number of young people and scholars. Dr. Syeda Hameed chaired the discussion and the speakers were (chair), Siddharth Vardhrajan (speaker),D.Raja, MP, Rajya Sabha, Ali Anwar, MP, Rajya Sabha and Noor Zaheer moderated the discussion.
The book was appreciated by one and all, and especially admired was the way author must have spent time in the archives, gathering material and sources, cataloguing and categorizing it, sorting and editing and rechecking the facts and then finally putting it together in eight chapters. Equally well received was the fact that even though the account is not chronological, the author has made it a theme-based divisions.
SidhharthVardarajan’s observed that this makes the reading both interesting and it also helps the reader in many ways to understand and visualize the complete scenario. Mr. Vardarajan also made a pointed reference to the way Aslam Khwaja has brought out the well-known poet Faiz Ahmed Faiz’s weakness, at a couple of times in terms of his pro-Statist stance and thus taken an objective view of the most revolutionary poet Pakistan has produced. Vardhrajan appreciated the unbiased position taken by the author who had the courage to take a stand and point out the flaws in one of icons of our times.
Aslam Khwaja and Noor Zaheer |
Siddharth Vardrajan who had thoroughly read the book gave a good ‘tour’ of the whole book, almost a bird’s eye view and was especially all praise for the Balochistan chapter. However, he pointed out that this chapter ends at the President Musharraf’s period, though a lot has happened since then which has focused International attention on the Baloch movement. He also expressed anguish at the fact that even though Pakistan is an immediate neighbor, there is no serious research being conducted on any area that falls within Pakistan; he was doubtful that after the present generation of Sindhis had passed on, knowledge of Sindhi would also recede.He also pointed out that earlier there were three representative journalists of India in Pakistan and three of Pakistan in India, but now there were none.
Dr. Sayeeda Hameed concentrated on the chapter on the women’s struggles. She pointed out that this is one aspect that often gets ignored when movements or struggles are documented. She elaborated how the media ignores news from Pakistan and often sensationalizes issues like the kidnapping and forced conversions of girls from minority communities but does not highlight the protests and demonstrations undertaken by women’s organizations which often force the judiciary to recover these girls. She also mentioned the low key activists like Parveen Rehman who documented land and land reforms and legally contested the forced occupancy of land from its rightful dwelled and was killed for that. SyedaHameed was also all praise for Noor Zaheer’s Introduction to the book which she said sets the pace for the book and had kept her awake through the night.
Comrade D.Raja said that the book reminded him of his own student days and the student movements, because he was himself a product of the All India Students Federation. He was also happy that a chapter had been included on the students movements since the students are a mobile population and hence the movements they undertake are often not documented or recorded; often the changes that they bring about are also nullified by the management once a set of students passes out. The account he said made him remember and recall many comrades under whom he had worked like Perinbaricha, Ramesh Chandra and Begum Hajra. He also said that this book would help to remove the misconception in the minds of the Indians about the people of Pakistan.
Rajya Sabha MP, Ali Anwar said that he thought it was extremely brave of the Publishers to bring out this book at a time when war rhetoric was considered as a form of nationalism. He said he was sure that the book would pave the way for better understanding between the Indian and Pakistani people.
Opening the discussion Noor Zaheer said that people in India have only the Indian States version of what Pakistan is. This version is often based on the governments own need for survival; so it often indulges in war jingoism, which leads to border skirmishes, which leads to a fear in the public that tranforms itself in the ballot victory. She also introduced the book pointing out that often workers and peasant movements are documented but not the movements of writers, artistes and performers, or movements launched by the media and press or women’s movements. She elaborated that comparison can be drawn between what is happening in Balochistan in Pakistan and Kashmir in India and in the chapter on Balochistan there are lessons to be learnt for both the people and the governments.
But perhaps the best result were two suggestions – (i) the book should be translated into Hindi and Urdu – for Hindi, a couple of people volunteered immediately, publicly announcing their desire to be involved in this. (ii) The second suggestion was that these translations can be brought out not as a complete book but in parts – for example, one chapter could form one booklet. This would focus the interest on one subject at a time and open up room for even more in-depth research.
While the discussion was in process, a message was received by Noor Zaheer, from
NAVAKARNATAKA, a leading, leftist Publishing House of Kannada to publish two chapters: Women’s Movements and Art and Literature in Kannada as separate books.
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