‘राष्ट्रवादी’ इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल: एक स्त्रीवादी अवलोकन

रतन लाल

 एसोसिएट प्रोफेसर हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, ‘रोहित के बहाने’ सहित 5 किताबें प्रकाशित.संपर्क : 9818426159

राष्ट्रवादी आंदोलन और राष्ट्रवादी इतिहास लेखन के दौर में भारत में जब भी स्त्रियों पर चर्चा होती है, अमूमन दो बातें प्रमुखता से रखी जाती हैं: पहली, प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति अच्छी थी, वे घर की ‘मालकिन’ थीं. उन्हें अर्द्धांगिनी, गृहलक्ष्मी और धर्मपत्नी के रूप में सम्मान प्राप्त था. दूसरी, विदेशी आक्रमण, विशेष रूप से आठवीं सदी में मुसलमानों के आगमन के बाद महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आया, वे घर में कैद होने लगीं और धीरे-धीरे पुरुषों पर निर्भर हो गईं. उस दौर में और अब भी ऐसे ‘विद्वान’, राजनेता और सामाजिक संगठन हैं, जो प्राचीन काल में महिलाओं की स्थिति की पुनरावृति करना चाहते हैं. स्त्रियों के सम्बन्ध में ऐसे विचार यथा-स्थितिवादी होने के साथ-साथ इतिहास का अति-सरलीकरण भी करते है.

महिलाओं की स्थिति पर चर्चा 19 वीं सदी में अर्थात् औपनिवेशिक काल में शुरू हुई. अँगरेज़ शासकों का मानना था कि वे भारतीयों के हित में ही काम कर रहे हैं और उनका लक्ष्य भारतीयों को ‘सभ्य’ बनाना और अंततः बाल विवाह और सती प्रथा जैसे सामाजिक कुरीतियों को ख़त्म करना है. इस तरह महिलाओं की स्थिति को सभ्यता के इंडेक्स की तरह समझा जाने लगा.

इतिहास की इस औपनिवेशिक समझ की भारतीय प्रतिक्रिया अलग-अलग थी, परन्तु यह मुख्य रूप से दो बिन्दुओं पर केन्द्रित थी – एक राममोहन राय, विद्यासागर जैसे समाज-सुधारकों द्वारा सुधार आन्दोलन के रूप में और दूसरे या तो महिलाओं की स्थिति को न्यायसंगत ठहराना या महिलाओं की ख़राब अवस्था से इंकार करना. इस तरह से अतीत पर सेलेक्टिव अप्रोच पर बल दिया गया.
काशी प्रसाद जायसवाल (1881-1837) बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के बहुयायामी विद्वान थे, जिन्होंने अपने लेखन में अद्भूत बौद्धिक कौशल का परिचय दिया है. जायसवाल का जीवन एक विविध-वांग्मय की तरह रहा, कई घटनाओं से परिपूर्ण – पढ़ाई से व्यवसाय, व्यवसाय से पढ़ाई, मिर्ज़ापुर सेलन्दन, लन्दन से पटना वाया कलकत्ता. जायसवाल सिर्फ 56 वर्ष ही जीवित रहे और मुश्किलसे25 वर्ष गंभीर शोध और लेखन कर पाए. पेशे से तो वे सफल वकील थे, लेकिन बाद के इतिहासकारों ने उनपर ‘राष्ट्रवादी’ इतिहासकार का लेबल चस्पाँ किया, हालाँकि अपने लेखन में उन्होंने ऐसा कोई दावा नहीं किया. उनकी लेखनी की व्यापकता को देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि कौन-सा जायसवाल पहले है – इतिहासकार, साहित्यकार, मुद्राशास्त्री, पुरातत्त्वविद, भाषाविद, वकील या पत्रकार. जायसवाल बहु-भाषी विद्वान थे और कई भाषाओं – संस्कृत, हिंदी, इंग्लिश, चीनी, फ़्रांसीसी, जर्मन और संभवतः बंगाली जानते थे. लेकिन अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार वे दो भाषाओं मेंही लिखते थे – हिंदी और अंग्रेज़ी.  अंग्रेज़ी बाह्य जगत के पाठकों और व्यावसायिक इतिहासकारों के लिए तथा हिंदी स्थानीय पाठक और साहित्यकारों के लिए.

अपने जीवन काल में जायसवाल ने हिंदी प्रदीप, सरस्वती, नागरी प्रचारिणी पत्रिका जैसी लब्ध-प्रतिष्ठ पत्रिकाओं में दर्ज़नों लेख लिखे. 1905 में मिर्ज़ापुर से प्रकाशित हिंदी मासिक पत्रिका कलवार गज़ट और 1914 में पटना से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक पाटलिपुत्र और बिहार ऐन्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी से प्रकाशित होने वाले जर्नल ऑफ़ द बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी का आजीवन संपादन भी किया. लेकिन उनका मौलिक कार्य इतिहास लेखन के क्षेत्र में रहा – उन्होंने दर्ज़नों मौलिक पुस्तकें लिखीं और सम्पादित कीं और तक़रीबन दो सौ मौलिक शोध पत्र प्रकाशित किए. इसके अलावा पटना म्यूज़ियम, बिहार ऐन्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी और पटना यूनिवर्सिटी में विभिन्न रूपों में अपना योगदान भी दिया.1

यह लेख अकादमिक, व्यवसायिक, निजी, और पत्रकारी जीवन में महिला प्रश्न पर जायसवाल के विचारों की पड़ताल करने का एक छोटा-सा प्रयास है.

आरंभिक दिनों से ही स्त्री-प्रश्न पर जायसवाल के विचार उभरने लगे थे. 1906 में इंग्लैंड जाने से पूर्व जायसवाल ने अपने स्वजातीय संगठन ‘कलवार सभा’ में काम किया.इस संगठन की स्थापना जायसवाल के पिता साहू महादेव प्रसाद ने की थी और इसका उद्देश्य सामाजिक सुधार करना था. इस समय तक कलवार जाति व्यवसायिक रूप से एक बड़े समूह के रूप में उभर रही थी और अन्य समुदायों की तरह अपने समुदाय को आधुनिक बनाने का प्रयत्न कर रही थी. कलवार सभा के झंडे तले जायसवाल ने व्यसन और बाल-विवाह, दहेज़ जैसी सामाजिक बुराइयों का विरोध किया और विधवा विवाह की वकालत की. इंग्लैंड से शिक्षा प्राप्त करने (1906-10) के बाद वे भारत लौटे और पहले कलकत्ता और फिर पटना में बसे. जायसवाल के जीवन-काल में स्त्री-प्रश्न पर उनके विचारों में परिवर्तन को रेखांकित किया जा सकता है.

जायसवाल के ‘अनुज’ और मित्र राहुल संकृत्यायन ने अपने संस्मरण में लिखा है, “उस समय जायसवाल जी अपने बड़े लडके के लिए परेशानी में थे. चेतसिंह की शादी हो चुकी थी, वे बैरिस्टरी पढ़ने इंग्लैंड गए. पहिली पत्नी में शिक्षा और संस्कृति का आभाव सा था. चेतसिंह का प्रेम एक अंग्रेज़ युवती से हो गया. दोनों पति-पत्नी बनकर भारत आये. जायसवालजी ने सोचा था, विवाहित तरुण वहां जाने पर प्रेमपाश में नहीं बंधेगा, पर यह बात बहुधा गलत साबित हुई. जायसवालजी स्वयं विवाहित थे, और वह भी बैरिस्टर होकर आते समय एक अंग्रेज़ महिला के प्रणय सूत्र में बद्ध हो गये थे. हाँ, वह उसे भारत नहीं ले आये. चेतसिंह सबसे लायक पुत्र थे. उनके इस आचरण से पिता को बहुत दुःख था. उन्होंने अपने पुत्र की किसी प्रकार की सहायता करने से इंकार कर दिया था.”2 लेकिन काशी प्रसाद जायसवाल के इंग्लैंड में शादी किए जाने की पुष्टि किसी अन्य स्रोत से नहीं हुई है.

इसी तरह अपने जीवन के आरंभिक दिनों का स्मरण करते हुए जायसवाल की पुत्री सुशीला जायसवाल ने लिखा, “मेरे दादा जी पुराने समय के विचार के थे. अतः जब मैं आठवें में गर्ल्स हाई स्कूल बांकीपुर में पढ़ रही थी. तभी उन्होंने मुझे मिर्ज़ापुर बुला लिया. उनका कहना था, लड़की सयानी हो गई है, नौकर-चाकर घर में आता है, वहां नहीं रहेगी, उसे यहाँ भेजो. पिता जी बिना एक शब्द भी व्यय किए मेरी पढ़ाई छुड़ाकर मिर्ज़ापुर भेज दिए. यह तो बाद में शादी के बाद मेरी माँ जी की इच्छानुसार पुनः घर पर ही संस्कृत के धुरंधर विद्वान पंडित रंगनाथ जी से मैंने शिक्षा प्राप्त की.3

सुशीला जायसवाल ने एक और दिलचस्प घटना का ज़िक्र किया है, “कभी भी मेरी माँ की इच्छा के विपरीत कोई भी शब्द उन्होंने नहीं निकाला. परिवार की प्रतिष्ठा उनके लिए बहुत महत्त्व की चीज़ थी. बात मेरे सबसे छोटे चाचा के ब्याह की है. 1930 की. बारात लखनऊ गई थी. फेरे पर चुकने के बाद ज्ञात हुआ कि लड़की वालों ने धोखा दिया है. जो लड़की दिखाई गई थी, उससे शादी नहीं किए हैं. मेरे चाचा लोग बारात वापस लाने पर अमादा थे. पिता जी को पता चला, तो वे सख्त नाराज़ हुए. कहा कि “जैसी भी लड़की है, मेरे घर की बहु हो गई, अब वह घर में रहेगी”, और सम्मानपूर्वक बहु को घर लाए.”4

उपरोक्त तीन संस्मरणों से प्रतीत होता है स्त्री-प्रश्न पर जायसवाल पर तर्क और वैज्ञानिकता पर लोक-मर्यादा और परम्पराएँ ज्यादा हावी थीं.

भाषा और साहित्य काशी प्रसाद जायसवाल के लेखन का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है. जिस समय से जायसवाल ने हिंदी में लिखना शुरू किया, उसे पश्चिमोत्तर प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में ‘हिंदी नवजागरण’ के काल के रूप में जाना जाता है. इस अवधि में भारतेंदु हरिश्चंद्र और पंडित बालकृष्ण भट्ट के नेतृत्व में हिंदी भाषा और नागरी लिपि को आधिकारिक दर्ज़ा दिलाने का प्रयास चल रहा था. यह काल भाषा के ‘साम्प्रदायीकरण’ का भी काल था. नागरी प्रचारिणी सभा और हिंदी साहित्य सम्मलेन के नेतृत्व में हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाए जाने और हिंदी से फ़ारसी और उर्दू शब्दों को बाहर निकाले जाने का आन्दोलन चल रहा था. हालांकि वैसे विचारक भी थे, जो हिन्दुस्तानी ज़बान की वकालत कर रहे थे. जायसवाल भी इस विमर्श के अभिन्न अंग थे और उनके लेखों में भाषा के सम्बन्ध में उनके विचारों का रूपांतरण/विकास भी देखा जा सकता है. लेकिन भाषा के प्रश्न को जायसवाल ने महिलाओं के प्रश्न से भी जोड़ा. बिहार के प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन में भागलपुर अधिवेशन (1933) के अध्यक्षीय व्याख्यान में इस प्रश्न को गंभीरता से उठाते हुए जायसवाल ने कहा, “भाषा बहुत संस्कृतग्राही हो रही है, जिससे जनता और स्त्रियों को समझने में कठिनाई पड़ती है. निछ्क्की हिंदी का शब्द-कलाप बहुत बड़ा है. अपने खजाने को छोड़ना नहीं चाहिए.”5

इसी संबंध में जायसवाल के मित्रवर शिष्य मोहनलाल महतो वियोगी ने लिखा, “जब-जब भाषा के सम्बन्ध में जायसवालजी से बातें करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उन्हें सदा ‘घराऊ हिंदी’ की वकालत करते सुना. यद्धपि वे पंडित जवाहरलाल जी की तरह हिंदी में उर्दू फ़ारसी शब्द घुसेड़ने के विरोधी थे, तथापि भाषा का रूप घराऊ बनाने के ही पक्ष में थे. साफ़-सुथरी और सीधी-सादी भाषा के इतने प्रेमी थे कि ऐसी भाषा के लेखक को तहे दिल से दाद देते थे. हरिऔध अभिनन्दन ग्रन्थ में उन्होंने सीधी भाषा के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं. देवकीनंदन जी खत्री, श्री बालमुकुन्द गुप्त और पंडित पद्मसिंह जी की भाषा के बहुत ही प्रशंसक थे. इन्हें घराऊ हिंदी के आचार्य मानते थे.”6

मैथिलीशरण गुप्त ने भी जायसवाल द्वारा घराऊ हिंदी के उपयोग पर एक दिलचस्प हास्य-संस्मरण लिखा, “सन 1919 में हमलोग मसूरी में थे. श्री एस. पी. शाह, आई. सी. एस. भी अपनी धर्मपत्नी के साथ आये थे. कुछ ही दिनों में स्वर्गीय काशीप्रसाद जायसवाल भी अचानक आ पहुँचे. वातावरण विशेष मुखरित हो उठा. एक दिन वार्तालाप में शाह ने उनके एक शब्द पर कहा – “यह ऐसा नहीं, ऐसा होना चाहिए.” जायसवाल ने कहा – “क्यों होना चाहिए?” शाह अधीत पुरुष थे. बोले – “ग्रियर्सन के मत से.” जायसवाल ने कहा – “अजी, हम उस ग्रियर्सनवा को प्रमाण मानें अथवा हमारी माँ-बहनें जो नित्य बोला करती हैं उसे माने?” शाह ने मुस्कुरा कर कहा – “इस पर मैं क्या कह सकता हूँ?”7

भाषा के सम्बन्ध में जायसवाल के उपरोक्त विचारों से स्पष्ट है जायसवाल वैसी साधारण/घराऊ भाषा की वकालत कर रहे थे, जो स्त्रियों, बच्चों और आमजन को आसानी से समझ में आ सके.


उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जायसवाल 1906 में इंग्लैंड गए. इंगलैंड में अध्ययन करते समय उन्होंने हिंदी में कई महत्वपूर्ण लेख लिखे, जो लगातार सरस्वती में प्रकाशित होते रहे. इन प्रकाशित लेखों का एक महत्वपूर्ण अंग यात्रा-वृत्तांत था – कुछ इंग्लैंड की यात्राओं का और कुछ इंग्लैंड से वापसी की यात्राओं का. 8 इन यात्रा-वृत्तांतों में कई मुद्दों पर जायसवाल भारतीय इतिहास से बार-बार सामांतर तुलनाएँ खींचने का प्रयास करते रहे. भारत के प्राचीन इतिहास को याद करते हुए जायसवाल प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति का भी यदा-कदा चित्रण करते रहे. अपने लेख ‘इंग्लैंड की जातीय चित्रशाला’ में प्राचीन भारत के बौद्धिक संस्मरणों को याद करते हुए लिखा, “जब हमारी हिन्दू जाति पूर्ण रूप से सजीव थी, तब हमें चित्रण पर बहुत प्रेम था, हमारे राजकुलों में बड़ी-बड़ी चित्रशालाएँ थीं जिसका साक्ष्य हमारे संस्कृत के नाटक दे रहे हैं. थोड़े दिन हुए, मैं यहाँ एक गाँव में गया. देखा लेफ्टिनेंट की गौर-पत्नी बैठी वहाँ के स्वाभाविक दृश्य का चित्रण खिंच रही हैं. चट रत्नावली नाटिका के समय की अपनी सभ्यता का मुझे स्मरण हो गया. सागरिका ने देखते-देखते वत्सराज का चित्र उरेह दिया, उसकी सखी, महिषी और पार्श्ववर्तिनी, ने भी उसी चित्र के पास सागरिका का चित्र खींच दिया अर्थात् प्रत्येक युवती चित्रण कला जानती थी! पर अब कितने हम में हैं जो चित्रशाला के नाम से परिचित हैं – कितनी हमारी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने चित्रकारी की लेखनी देखी है! हमारी सजीवता के ह्रास के साथ परतंत्रता के स्पर्श के साथ – हमारा चित्र प्रेम मिट सा गया!”9

जायसवाल पटना से निकलने वाले हिंदी साप्ताहिक पाटलिपुत्र के संस्थापक-संपादक रहे (जून 1914-अप्रैल 1915). प्राप्त 40 संपादकीयों में से सिर्फ एक स्त्री-आधारित लेख है – लेडी हार्डिंग! यह लेख लेडी हार्डिंग10 के निधन का मृत्यु-संवाद है, ज़ाहिर है प्रशंसात्मक शैली में लिखा हुआ है. हालाँकि एक अन्य सम्पादकीय ‘गाहा-सत्तसइ’ 11 में जायसवाल ने उन्नीस सौ वर्ष पहले स्त्री कवियों के योगदानों का उल्लेख करते हुए लिखा, “सबसे अपूर्व बात यह है कि गाथा-सत्तसई में स्त्री-कवियों की भी कविता संगृहीत है. पोथियों में कवियों के नाम गल गए हैं पर जो बचे उनमें ये नाम हमने छाटें हैं: रेवा, प्रहता (पहई), रोद्दा, अणुलच्छी, माधवी.” इन संपादकीयों के अलावा स्त्री-विमर्श आधारित कुछ ही लेख पाटलिपुत्र में प्रकाशित हुए – सरोजवासिनी गुप्ता लिखित ‘हिन्दू जाति में नारी का सम्मान और स्वाधीनता’12 , पंडित लक्ष्मीश्वर शर्मा लिखित ‘परदे की प्रथा’13  और गोपाल राम लिखित ‘दंपत्ति कलह’.14  यह लेख सावधानीपूर्वक चुने गए हैं, जो संपादक की व्यक्तिगत रूचि को भी दर्शाता है. तीनो लेख अमूमन ‘स्त्री-मर्यादा’, ‘स्त्री-संस्कार’ इत्यादि के इर्द-गिर्द घूमते हैं. पहले लेख में जायसवाल की बेहद महत्वपूर्ण सम्पादकीय टिप्पणी है: हिन्दुस्तान में गत पच्चीस तीस वर्षों से एक प्रकार का नया युग सा आ गया है। हर तरह की उन्नति की चर्चा चारों ओर से सुनाई देती है। कहीं राजनीतिक आंदोलन है तो कहीं समाज सुधार है, कहीं धार्मिक समारोह है तो कहीं साहित्य-सेवियों का सुखद सम्मलेन है। इन सभी प्रकार के आन्दोलनों के अतिरिक्त स्त्री-जाति की वर्त्तमान दुरावस्था को दूर कर समाज में उनकी मान मर्यादा बढ़ाने के लिए भी आंदोलन जारी है। इस आंदोलन में हमारी अनेक सुशिक्षिता भगिनियों का हाथ है और हमारे कुछ उत्साही स्त्री शिक्षा प्रेमी और नारी-जाति के उन्नति-कामी भाई भी शामिल हैं। इस लक्षण को हम देश के कल्याण का कारण समझते हैं, किन्तु कुछ हमारे भाई नारी जाति को पूर्वीय आदर्श के अनुसार शिक्षित न कर उन्हें पाश्चात्य आदर्श पर ले जाना चाहते हैं जिससे हमें भय होता है कि हिन्दू स्त्रियां भी कहीं कालान्तर में वैसी ही उच्छृंखल न हो जायें जैसी इंगलैंड की मतभिलषिणी स्त्रियां हो गयी हैं।

अस्तु, दोष गुण या अपनी अभाव-आवश्यकताएं जितना हम समझ सकते हैं उतना और कोई नहीं।हिंदुस्तान के पुरुषों की वर्त्तमान अवस्था और उनके भविष्य के कल्याण के लिए जो कुछ कर्त्तव्य है उसपर जितनी अच्छी तरह से हम विचार कर सकते हैं उतना और कोई नहीं। इसी प्रकार हमारी महिलाएं स्त्री-जाति के हिताहित की बातों को जिस तरह ठीक ठिकाने के साथ कह सकती हैं उस तरह हमलोग कभी नहीं कह सकते। इसीलिए हम उपर्युक्त विषय पर स्वयं कुछ अधिक न कहकर एक पढ़ी लिखी बंग महिला के विचारों का सारांश नीचे देते हैं और आशा करते हैं कि पाठक इसे ध्यानपूर्वक देखेंगे और प्राच्य तथा पाश्चात्य भावों का मिलान करेंगे। वास्तव में जिस शिक्षा से हिन्दू नारी आदर्श हिन्दू नारी न बनकर सुशिक्षिता होते ही आधी पूरब की और आधी पश्चिम की हो जाय हम उस शिक्षा को दूर से नमस्कार करते हैं।”15

दिलचस्प है, यद्यपि जायसवाल ने अपने आरंभिक दिनों में मिर्ज़ापुर में कलवार सभा से जुड़कर दहेज़,बाल-विवाह के विरुद्ध और विधवा विवाह के पक्ष में आन्दोलन चलाया था और वे खुद भी पाश्चत्य शिक्षा में शिक्षित थे. परन्तु बाद के दिनों में हिन्दू संस्कार उनपर प्रभावी होता दिखा और वे स्त्रियों की सीमित स्वतंत्रता अर्थात् ‘मर्यादा’ के साथ स्वतंत्रता के पक्ष में दिखे!16

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के समाज-सुधारकों और हिंदी विद्वत जगत का एक महत्वपूर्ण मुद्दा स्त्री शिक्षा का प्रश्न भी था. यह मसला उसी तरह निजी था जैसे धर्म. अर्थात् किसी को भी इसमें हस्तक्षेप की इजाज़त नहीं थी. अंग्रेजों के आने के पूर्व उन्हें लोक भाषाओं में भी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था. कट्टर वैष्णव सुधारक हिंदी भाषा और नागरी लिपि के लिए आंदोलनकर्ताओं में से एक मदन मोहन मालवीय विधवा विवाह और महिलाओं के मताधिकार के विरुद्ध थे और उनके हिन्दू विश्वविद्यालय में बीसवीं सदी के कई दशक तक स्त्रियों को वैदिक शास्त्र पढ़ने का अधिकार नहीं था. वीर भारत तलवार ने दर्शाया है कि कैसे पश्चिम में शिक्षित समाज-सुधारकों का एक बड़ा वर्ग स्त्रियों को धर्म का वाहक और सभ्यता का इंडेक्स समझता था और उन्हें पश्चिमी शिक्षा से दूर रखता था.17

धर्म और सभ्यता का वाहक होने की वजह से ही स्त्रियों को आधुनिक पश्चिमी शिक्षा से दूर रखा जाता था और धार्मिक और नैतिक शिक्षा तक सीमित रखा जाता था. वैज्ञानिक शिक्षा को वे पुरुषों के लिए ज़रुरी मानते थे, स्त्रियों के लिए नहीं. अर्थात् पुरुषों के लिए पश्चिमी और स्त्रियों के लिए पूर्वी शिक्षा!

स्त्रियों को आदर्शीकृत ‘पूर्वी गुणों’ – त्याग, समर्पण, शुद्धता, मर्यादा इत्यादि – के साथ जायसवाल जेंडर संबंधों में शक्ति-सम्बन्ध की संरचना की पहचान शायद नहीं करते. यह दिलचस्प है कि बाल विवाह, दहेज़ का विरोध, विधवा विवाह का समर्थन करने वाले और स्वयं पश्चिम में शिक्षित होने के बावजूद जायसवाल स्त्रियों के सिमित शिक्षा का समर्थन करते हैं. अर्थात् स्त्रियों के लिए पश्चिमी शिक्षा का विरोध करते हैं. संभव है कि इस तरह से स्त्रीवाद का आदर्शीकरण आज के नारीवादी अतार्किक और अस्वीकृत समझें. पाटलिपुत्र में स्त्रियों से सम्बंधित जितने सन्दर्भ हैं, उनमें शास्त्रों का सन्दर्भ फिर केंद्रबिंदु है.

जायसवाल मूलतः प्राचीन भारतीय इतिहास के इतिहासकार थे. बतौर इतिहासकार जायसवाल ने दर्ज़नों मौलिक पुस्तकें और सैकड़ों लेख प्रकाशित किए. लेकिन दीगर स्थानों की तरह उनके इतिहास-लेखन में भी स्त्रियों की उपस्थिति लगभग नगण्य ही है. हालाँकि उनकी चर्चित शोध-पुस्तक मनु ऐन्ड याज्ञवल्क्य  में उन्होंने लिखा कि बुद्धिज़्म ने स्त्रियों की स्थिति को पहले बेहतर कर दिया था, याज्ञवल्क्य ने स्त्रियों की स्थिति को और अधिक समानता के स्तर तक लाया. इस सन्दर्भ में याज्ञवल्क्य ने मनु के विधान को पूरे आर्यावर्त से हटा दिया. याज्ञवल्क्य को सदैव स्त्रियों के उत्तराधिकार (right of inheritance) के लिए याद किया जायेगा.18
जायसवाल बिहार के विभिन्न आधुनिक संस्थानों – बिहार ऐन्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, पटना म्यूजियम, पटना विश्वविद्यालय – से उनके जन्म के समय से ही विभिन्न रूपों में जुड़े रहे. पटना म्यूजियम के अध्यक्ष की हैसियत से जायसवाल ने पहली बार हेल्थ म्यूजियम19 की स्थापना की. यद्यपि इस हेल्थ म्यूजियम के सभी साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु इसका उद्देश्य दर्शकों और खास तौर पर महिला दर्शकों को आकर्षित करना और महिलाओं में उनके स्वाथ्य के बारे में चेतना का प्रसार/प्रचार करना था. इसी तरह से पटना विश्वविद्यालय की विधि निर्मात्री संस्थाओं के सदस्य के रूप में जायसवाल लगातार मीटिंग में भाग लेते रहे. जब महिलाओं के लिए अलग पाठ्यक्रम का प्रस्ताव हाउस में पेश हुआ, जायसवाल एकमात्र सदस्य थे जिन्होंने इसका विरोध किया और यह प्रस्ताव 34:1 से पास हुआ.20  अर्थात् जायसवाल को छोड़कर सभी सदस्यों ने स्त्रियों के लिए अलग पाठ्यक्रम का समर्थन किया.

दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि सार्वजानिक संस्थानों में स्त्रियों के प्रतिनिधित्व के लिए विमर्श कब शुरू हुआ और कब से लागू हुआ. पटना विश्वविद्यालय के सीनेट सदस्य के हैसियत से जायसवाल ने सीनेट में स्त्रियों के लिए आरक्षण का मुद्दा उठाया. जायसवाल ने प्रस्ताव पेश किया कि सीनेट सरकार को यह प्रस्ताव भेजे कि सरकार सीनेट में जितने भी सदस्य नॉमिनेट करे उसमें कम-से-कम तीन स्त्रियाँ ऐसी हों जो प्रान्त की निवासी हों. अपने प्रस्ताव के पक्ष में उन्होंने कहा कि प्रान्त में छात्राओं के लिए स्कूल हैं और उनके उच्च शिक्षा पर भी सकारात्मक प्रतिक्रिया है, इसलिए आवश्यक है कि सीनेट में शिक्षित स्त्रियों को प्रतिनिधित्व दिया जाय. सरकार, 25 सदस्यीय सीनेट में 3 अ-आधिकारिक स्त्रियों (non-official) को प्रतिनिधित्व दे सकती है. सीनेट में इस मुद्दे पर बहस हुई. कुछ सदस्यों ने डोमिसाइल शब्द हटाने की अनुशंसा की, पर इसे स्वीकार नहीं किया गया. जायसवाल ने अपने प्रस्ताव के समर्थन में आगे कहा कि इस प्रस्ताव में वैसी महिलाओं को जो अधिकारिक (official) या जो इस प्रान्त की निवासी नहीं हैं, छोड़े जाने की बात नहीं है. आशय यह है कि प्रान्त की अ-अधिकारिक स्त्रियाँ भी इसमें हों. ज्यादा से ज्यादा स्त्रियों को प्रतिनिधित्व मिले. सीनेट के कुछ सदस्य इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थे, इसलिए अगले मुद्दे पर बहस के लिए इस विषय को टाल दिया गया.21

काशी प्रसाद जायसवाल एक सूक्ष्म शोधार्थी थे और खूब लिखते थे. लेकिन हिंदी साहित्य, पत्रकारी, और प्राचीन भारत में इतिहास-पर उनके स्थूल और व्यापक लेखन स्त्री विमर्श न के बराबर है. शायद यह राष्ट्रवादी विमर्श और राष्ट्रवादी आन्दोलन का प्रभाव था, जिसमें राष्ट्र और जाति के अन्दर ही स्त्रियों के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था. उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर जो भी सूचनाएं प्राप्त हैं, स्त्री-प्रश्न पर जायसवाल के निजी और व्यवसायिक जीवन में द्वन्द उभर कर आता है. यद्धपि पटना विश्वविद्यालय के सीनेट में जायसवाल ने महिला आरक्षण की बात की और सामान्य रूप से वे महिलाओं का सम्मान करते थे. लेकिन इंग्लैंड में कई विधाओं में आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद जायसवाल अमूमन ‘पूर्वी आदर्श वाली महिला’के ही पक्षधर थे.

1. . देखें, रतन लाल, काशी प्रसाद जायसवाल: द मेकिंग ऑफ़ अ ‘नैशनलिस्ट’ हिस्टोरियन, आकार बुक्स, दिल्ली 2018, काशी प्रसाद जायसवाल संचयन(तीन खण्डों में), सस्ता साहित्य मंडल दिल्ली, 2018.
2. देखें, कमला संकृत्यायन, राहुल वांग्मय, खंड 2, जिल्द 1, नई दिल्ली, 1994, पृष्ठ 673.
3.   सुशीला जायसवाल, ‘मेरे पूज्य पिता श्री काशी प्रसाद जायसवाल’, काशी प्रसाद जायसवाल कॉमोमेरेशन वॉल्यूम, काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना, 1981, पृष्ठ 57.

4.  वही, पृष्ठ 58
5. सम्पूर्ण व्याख्यान के लिए देखें, बिहार की साहित्यिक प्रगति, बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन, पटना, 1956, पृष्ठ 245-56/ रतन लाल, काशी प्रसाद जायसवाल संचयन, खंड 2, नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ 207-15.
6. मोहनलाल महतो, ‘डाक्टर जायसवाल’, सरस्वती, भाग 38, संख्या 4, अक्टूबर 1937, पृ. 337.
7. देखें, मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली, खंड 12,  पृ. 344-45.
8. देखें, काशी प्रसाद जायसवाल संचयन, खंड 1, पृष्ठ 139-98.
9.  देखें, काशी प्रसाद जायसवाल संचयन, खंड 1, पृष्ठ 151.
10. देखें, काशी प्रसाद जायसवाल संचयन, खंड 2, पृष्ठ  58-59.
11. काशी प्रसाद जायसवाल संचयन, खंड 2, पृष्ठ  79-82.

12. पाटलिपुत्र, 18.7.1914, पृष्ठ 1.
13.  पाटलिपुत्र, 5.9.1914, पृष्ठ 6.
14. वही.
15.  पाटलिपुत्र, 18.7.1914, पृष्ठ 1.

16. इस विषय पर विस्तृत चर्चा के लिए देखें, F. Orisini, see Women and the Hindi Public Sphere, in Hindi Public Sphere, pp. 241-308
17. विस्तृत चर्चा के लिए देखें, वीर भारत तलवार,रस्साकशी, 19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रांत,  Partha Chatterjee, The Nation and its Fragments, especially chapter The Nation and its women.

18. देखें, काशी प्रसाद जायसवाल, मनु एंड याज्ञवल्क्य, पृष्ठ 61-62, 233.
19. एनुअल रिपोर्ट ऑफ़ पटना म्यूजियम, 1933, पृष्ठ 2.
20. एनुअल रिपोर्ट ऑफ़ पटना यूनिवर्सिटी, पृष्ठ 24-25.
21. वही, पृष्ठ 26-27.

तस्वीरें गूगल से साभार 

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