राष्ट्रीय आंदोलन में महिलायें और गांधीजी की भूमिका पर सवाल

कुसुम त्रिपाठी

स्त्रीवादी आलोचक.  एक दर्जन से अधिक किताबें
प्रकाशित हैं , जिनमें ‘ औरत इतिहास रचा है तुमने’,’  स्त्री संघर्ष  के सौ
वर्ष ‘ आदि चर्चित हैं. संपर्क: kusumtripathi@ymail.com

कुसुम त्रिपाठी


सामंती प्रथा की जकड़न जिन प्रदेशों में आज भी अंगद के पैर की तरह जमाए हुए है। पर्दा प्रथा की दीवारों को लाँघना जिन प्रदेशों में आज भी मुश्किल है, उस उत्तर भारत में गांधीजी के आवाहन पर हजारों की संख्या में औरतें सड़कों पर उतरीं। इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली, पंजाब, बिहार, लाहौर और पेशावर की महिलाएँ सार्वजनिक प्रदर्शन, जुलूसों में शामिल होने लगीं। भले घर की औरतों को बिना घूँघट-बुर्का, पर्दा के सड़कों गलियों में इससे पहले कभी न उतरते देखने वाली जनता इस परिवर्तन और उत्साह से चकित थी।
गांधीजी के योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता, किन्तु इस तथ्य को भी ध्यान में रखना जरुरी है कि जब गांधीजी ने महिलाओं संबंधी अपने विचार रखें, तब महिलाएँ स्वयं भी अपने गुणों को पहचानने लगी थीं। ऐसा केवल उनकी व्यवसायिक जिंदगी-डॉक्टर, शिक्षिका और सामाजिक कार्यकर्ता की तरह ही नहीं वरन् सार्वजनिक, राजनीतिक जीवन में भी, राष्ट्रीय और सुधारवादी आंदोलन में, श्रमिक और किसान आंदोलन में उनकी भूमिकाको देखा जा सकता है।

राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी गांधीजी के प्रभाव से हुई। 1920 तक गांधीजी एक गाथापुरुष बन चुके थे। गांधीजी महिलाओं को इसलिए भी जूटा सके क्योंकि उन्हें पुरुषों के रवैये का भी ध्यान था। गांधीजी के व्यक्तित्व की खासियत थी कि वे न केवल महिलाओं में विश्वास जगाने में सफल थे, वरन् महिलाओं के पुरुष संरक्षकों पति, पिता, पुत्र, भाइयों का भी विश्वास उन्हें प्राप्त था। उनके नैतिक आदर्श इतने ऊँचे थे कि जब महिलाएँ बाहर आकर राजनीति के क्षेत्र में काम करती थी, तो उसके परिवार के सदस्य उनकी सुरक्षा के बारे में निश्चिंत रहते थे। इसका कारण था कि गांधीजी का ध्यान महिलाओं की जुझारू क्षमता पर पहली बार दक्षिण अफ्रीका में खिंचा था। वहाँ उन्होंने देखा कि भारी संख्या में महिलाएँ उनके राजनीतिक विचारों से प्रभावित होती है। उनके नेतृत्व में हुए कई आंदालनों में महिलाएँ जेल गई, बिना किसी शिकायत के जेल की कठोर सजा झेली और खदान श्रमिकों की हड़ताल में शामिल हुई। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह आंदोलन से उन्होंने महिलाओं में आत्मत्याग और पीड़ा सहने की अद्भुत क्षमता देखी।

महिलाओं के आत्मत्यागी एवं बलिदानी स्वभाव के हिमायती गांधीजी पहले व्यक्ति नहीं थे, इससे पहले भी समाज सुधारकों और पुनरुद्धारकों ने इस पर कम जोर नहीं दिया था। समाज सुधारकों ने महिला के आत्मत्याग को एक जबरदस्ती थोपे कर्मकाण्ड की तरह देखा।पुनरुद्धारकों की सोच थी कि इन कर्मकांडों से हिन्दू महिलाओं की गौरवमयी छवि बनती है। गांधीजी ने नारी के इन गुणों को हिन्दू कर्मकांड से अलग परिभाषित किया। गांधीजी ने कहा कि यह भारतीय नारीत्व का स्वाभाविक गुण है क्योंकि उनकी अहम भूमिका माँ की है। गांधीजी की सोच थी कि गर्भधारण और मातृत्व के अनुभवों से गुजरने के कारण महिलाएँ शांति और अहिंसा का संदेश फ़ैलाने में ज्यादा उपयुक्त है। गांधीजी के अनुसार स्त्री-पुरुष में जैविक गुणों के अंतर के कारण उनकी अलग-अलग भूमिकाएँ है और दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। पुरुष कमाकर लाता है और स्त्री घर और बच्चों की देखभाल करती है। यहाँ भी गांधीजी ने स्त्री की मातृत्व गुणों और स्त्रियों की भूमिका को अलग परिभाषित किया है। गांधीजी को लगता था कि उनकी अहिंसा की लड़ाई में महिलाएँ उनकी विचारधारा के ज्यादा नजदीक है क्योंकि उसमें काफी पीड़ा सहना शामिल है और महिलाओं से ज्यादा बेहतर कुलीन और श्रेष्ठ ढंग से पीड़ा कौन सह सकता है। गांधीजी की नज़रों में पीड़ा सहने का गुण होना बहुत जरुरी है। उनकी नजरों में “स्वैच्छिक विधवा” आदर्श एक्टिविस्ट थी क्योंकि उसमें पीड़ा में सुख का रास्ता खोज लिया। उनकी नज़रों में वह सच्ची सती थी न कि वह जो पति की चिंता में जलकर प्राणों की आहुति दे देती थी।

गांधीजी की व्यक्तिगत छवि संत महात्मा की होने के कारण उनके नेतृत्व में शुरू हुए देशभक्ति आंदोलन की राजनीतिक और धार्मिक मिली-जुली छवि बनी। उसका क्षेत्र राजनीति से ऊपर उठकर धार्मिक हो गया। देशभक्ति को धर्म माना गया, देश को देवी माँ की संज्ञा दी गई, जिसके लिए बड़े से बड़ा बलिदान कम ही था। गांधीजी आंदोलन में महिला भागीदारी के पूर्ण पक्षधर थे। वे महिलाओं की सभाओं में, अपने भाषणों में, आंदोलनों में उनकी भागीदारी अनिवार्य मानते थे और साथ ही यह कहकर प्रेरित करते थे कि देवियों और वीरांगनाओं की तरह आंदोलन में उनकी अपनी अलग भूमिका है और उसमें इस भूमिका को निभाने की शक्ति और हिम्मत भी है। उन्होंने महिलाओं को विश्वास दिलाया कि आंदोलन को उनके महत्त्वपूर्ण योगदान की जरूरत है। वे कहते थे कि जब महिलाएँ सत्याग्रह आंदोलन में शामिल होगी, तभी पुरुष भी आंदोलन में पूरा सहयोग देगा। ८५ प्रतिशत भारतीय महिलाएँ निर्धनता और अज्ञान के अंधकार में डूबी हुई है। उन्होंने महिला नेताओं से कहा कि उन्हें सामाजिक सुधार, महिला शिक्षा एवं महिला अधिकार के लिए कानून बनाने के लिए काम करना चाहिए, ताकि उन्हें एक बुनियादी अधिकार मिल सके! उन्होंने कहाकि महिला नेताओं को सीता, द्रोपदी और दमयंती की तरह सात्विक दृढ़ और नियंत्रित होना चाहिए तभी वह स्त्रियों के भीतर पुरुषों के साथ बराबरी का भाव जगा सकेगी और अपने अधिकारों के प्रति सचेत तथा स्वतंत्रता के प्रति जाग्रत कर सकेगी।
गांधीजी के अनुसार बराबरी का यह अर्थ कदापि नहीं था कि महिलाएँ वे सब काम करें, जो पुरुष करते है। गांधीजी की आदर्श दुनियाँ में स्त्रियों और पुरुषों के अपने स्वभाव व क्षमतानुसार काम के अलग-अलग क्षेत्र निश्चित थे। उन्होंने महिलाओं को “स्वदेशी व्रत” लेने को कहा। वे सारी विदेशी वस्तुओं का परित्याग करे और प्रतिदिन थोड़े समय सूत कातने और खादी पहनने की प्रतिज्ञा करें।

खादी का प्रचार करते हुए उन्होंने कहाकि महिलाओं की धार्मिक और नैतिक जिम्मेदारी है कि वे देश को समृद्ध बनाए। वे कहते थे – “हमें देश को पुराने समय की तरह फिर से समृद्ध बनाना है। यह तभी संभव है जब संपन्न घरानों की महिलाएँ भी अपने वस्त्रों के लिए सूत काते।” खादी द्वारा गांधीजी महिलाओं को श्रम प्रक्रिया में लाना चाहते थे। उनका कहना था भारत इसलिए गरीब हो गया है क्योंकि उसने स्वदेशी हस्तकलाओं का परित्याग करके विदेशी वस्तुओं पर निर्भर रहना शुरू कर दिया है। महिलाएँ गृह निर्माता और पोषक हैं तथा भारत के पुनरुत्थान में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। वे घर में रहकर भी खादी उद्योग चला सकती हैं। इस तरह आंदोलन में भाग लेने के लिए घर से बाहर जाना या परिवार छोड़ना जरुरी नहीं था। सन १९२०-२२ में जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ, पहली बार महिलाएँ भारी संख्या में आंदोलन से जुड़ी। सैकड़ों महिलाएँ खादी और चरखा बेचने गली-गली गई। विदेशी कपड़ों की होली जलाई। मुंबई में महिलाओं ने ‘राष्ट्रीय स्त्री सभा” का गठन किया।यह पहला महिला संगठन था, जो कि बिना पुरुषों की मदद से चलाया जा रहा था। यह संस्था १९२१-३० तक चली। जब तिलक कोष की स्थापना हुई, इन्होंने ४४, ५१९ रु. इकट्ठा कर गांधीजी को दिया। ३०० निर्धन लड़कियाँ वस्त्रों की कटाई कर रही थी, उन्होंने स्कूल खोले और सड़कों पर खादी बेचीं।

1920 के अंतिम दशक में गाँधी ने अपने स्वर में परिवर्तन करते हुए महिलाओं को घर से निकालकर ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’ में शामिल होने की अपील की, किन्तु उन्होंने उनकी सहभागिता को विदेशी दवाओं, शराब की दुकानों की घेराबंदी करने तक सीमित कर दिया क्योंकि गांधीजी की नज़रों में स्त्रियों का यह कार्य स्वाभाविक रूप से खबता था, इसलिए नहीं कि शराब की दुकानों की वजह से महिला अपने पतियों की नशाखोरी से त्रस्त थी बल्कि इसलिए भी कि वह निजी जीवन में नैतिकता एवं शुचिता का मुद्दा था। सविनय अवज्ञा आंदोलन से राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी का नया चरण शुरु हुआ। १९३० को इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों दृष्टियों से भिन्न था। मार्च १९३० में अहमदाबाद में दाण्डी तक २४० मील की दांडी यात्रा से शुरू हुई। इस यात्रा में किसी भी महिला को शामिल नहीं किया गया था। डब्लू.आई.ए. ने तथा मार्गरेट बहनों, दादाभाई नौरोजी की पौत्री खुर्शीद नौरोजी व कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने गांधीजी से अनुरोध किया कि उन्हें भी दांडी यात्रा में शामिल किया जायें। गांधीजी ने यह कहकर आग्रह ठुकरा दिया कि अंग्रेज उन्हें औरतों की आड़ में छिपनेवाला कायर कहेंगे, पर अन्त में गांधीजी मान गये।नमक सत्याग्रह में गिरफ्तार होने वाली पहली महिला सरोजिनी नायडू थी। इस सत्याग्रह में कुल ८०,००० लोग गिरफ्तार हुए, जिसमें १७,००० महिलाएँ थी।

इस बीच देशसेविका संघ, नारी सत्याग्रह समिति, महिला राष्ट्रीय मंच, लेडीज पिकेंटिग बोर्ड, स्त्री स्वराज्य संघ और स्वयंसेविका संघ आदि बनें। इन सबने महिलाओं की लामबंदी, जुलूस व प्रभात फेरी निकाले, धरने आदि का आयोजन करने के साथ खादी का प्रचार प्रसार, चरखा चलने का प्रशिक्षण, खादी बेचना, शराब बन्दी, देश की स्वाधीनता का प्रचार, सभाएँ करना, छुआछूत मिटाने संबंधी उपदेश देना, कांग्रेस की सदस्यता बढ़ाना।
१९२८ में लतिका ने बंगाल में महिला राष्ट्रीय संघ की स्थापना की। बंगाल का पहला महिला संगठन, जो राजनीतिक क्षेत्र में काम करता था। लतिका का महिलाओं के लिए संदेश था “उठो, जागो, अपने देश को अच्छी तरह देखो!” चूँकि महिलाएँ आंदोलन में तभी सक्रिय हो सकती थी, जब उन्हें घर के पुरुष सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो। इसके लिए जरुरी था उनके पति, पिता या भाई कांग्रेस या क्रान्तिकारी आंदोलन में हों। उनके केंद्र का नाम था – “शांति मंदिर”। उनका नेटवर्क था। यहाँ महिलाओं को पढ़ना, लिखना, घरेलु हस्त-कलाएँ, प्राथमिक चिकित्सा, स्वयं-रक्षा करने के साथ स्वाधीनता के महत्त्व को बताया जाता था।लतिका तथा अन्य महिला नेताओं को यह स्पष्ट हो गया था कि महिलाएँ देश के सभी मामले से कटी हुई है।

1930 तक आते-आते भारतीय स्त्रियों ने परदा उठाकर फेंक दिया और राष्ट्र के काम के लिए भारी संख्या में बाहर आई। गांधीजी ने सार्वजनिक गतिविधियों की सहभागिता के औचित्य को सिद्ध करते हुए उसे विस्तार दिया ताकि वे वर्ग एवं सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर आगे बढ़े। १९३० के दशक में हजारों की संख्या में महिलाएँ सविनय अवज्ञा और असहयोग आंदोलन में भाग ले रही थी। ऑल इंडिया विमेंस कांफ्रेंस को भी अपने उच्चवर्गीय दायरे से बाहर आना पड़ा। उन्होंने ग्रामीण किसान और गरीब महिलाओं के बीच काम करना शुरू किया। अब यह संस्था एक एक्टिविस्ट संस्था बन गई थी, और इसकी १९३१ में अध्यक्षा सरोजनी नायडू बनी। इसके पहले तक अध्यक्षा महारानियाँ होती थी।

सन् 1940 के दशक में क्षितिज पर स्वाधीनता का इंद्रधनुष दिखाई दे रहा था और शायद यही कारण है कि स्त्रियों का आंदोलन पूरी तरह स्वाधीनता संग्राम में तब्दील हो गया और नारी मुक्ति के मुद्दे को भारत की स्वाधीनता के साथ जोड़कर देखा जाने लगा। माना जाने लगा कि स्वाधीनता के साथ ही पुरुष एवं स्त्री के मध्य मौजूदा असमानताएँ दूर हो जायेंगी तथा स्वतंत्र भारत में सबकुछ ठीक हो जाएगा। सन १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में हजारों की संख्या में महिलाओं ने भाग लिया। हजारों महिलाएँ भूमिगत हुई, समानान्तर सरकारें बनाने में सहायक रही, रेल की पटरी उखाड़ने से लेकर कचहरियों पर झण्डा फहराने में अग्रणी रही। इस दौरान लाठी-गोली, बलात्कार तक की भारी संख्या में औरतें शिकार हुई। कईयों की हत्याएँ की गई। अरुणा आसक अली ने ग्वालिया टैंक मुंबई में झण्डा फहराते हुए “अंग्रेजों भारत छोड़ो” तथा “करो या मरो’ की उद्घोषणा की, तो डॉ. उषा मेहता तथा उनके साथियों ने मुंबई में समानान्तर रेडियो स्टेशन चलाया। भारी संख्या में किसान महिलाओं ने भूमिकारों और भूस्वामियों के अधिकारों के खिलाफ आवाज उठाई। उस आंदोलन में “जेल भरो आंदोलन” भी शामिल था।’वर्धा’ सेवाग्राम में महिला आश्रम की संचालिका रमाबेन रुइया का कहना था कि – “सन् १९४२ में सेवाग्राम में गांधीजी ने उन सभी महिलाओं को जो जेल जाने वाली थी, उन्हें अपने पिता, पतिया भाई से लिखित सहमति-पत्र मंगवाया था।“जिन लोगों के पास सहमति पत्र था, वे ही जेल भरो आंदोलन में शामिल हो सकती थीं।”

इसी तरह कमला देसिकन, जो १५ वर्ष की आयु में आंध्र प्रदेश से भागकर वर्धा सेवाग्राम गांधीजी के स्वाधीनता आंदोलन में शामिल होने के लिए आई थी, जो बाद में डॉ. सुशीला नैय्यर (प्रथम स्वास्थ मंत्री) की सेक्रेटरी बनी और आजीवन कस्तूरबा हॉस्पिटल से जुड़ी रही। उनका कहना था – गांधीजी ने मुझे सेवाग्राम आश्रम में रहने के लिए मेरे पिता से अनुमति-पत्र लिखवाया था। पिता की आज्ञा के बाद ही मैं सेवाग्राम आश्रम में रह सकी।
इस तरह गांधीजी ने महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता के बारे में स्पष्ट रूप से कभी कुछ नहीं कहा। गाँधी के अनुसार स्त्री त्याग और पीड़ा की प्रतिमा है। सूत कातना और वस्त्र बिनना उसके लिए धार्मिक कार्य थे और महिलाओं के स्वभाव के अनुकूल थे। इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं को नई पितृसत्ता तले बाध्य रहने को मान्यता मिली। राष्ट्रवादियों को महिलाओं की मुक्ति तथा उत्थान से कोई सरोकार नहीं था। इसके विपरीत महिलाओं की पत्नी, पुत्री और माँ की भूमिकाओं की पुष्टि हुई। केवल राष्ट्रीय आंदोलन की आवश्यकताओं को देखते हुए उसे थोड़ा बहुत विस्तार मिल गया। इस तरह पारंपरिक इतिहास में महिलाओं की संख्या थोड़ी और बढ़ गई।’राष्ट्रीयता के इतिहास में महिलाओं का योगदानकेवल उनकी पारम्परिक भूमिका का विस्तार मात्र है। राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं का कहीं कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं दिखता।

तस्वीरें गूगल से साभार 

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