“मैना का ख़ून” और ज़ूबी मंसूर की अन्य कविताएं

ज़ूबी मंसूर


पेशे से पत्रकार. वॉइस ऑफ़ इंडिया, महुआ न्यूज़ बिहार और p7 न्यूज़ में अस्सिटेंट प्रोड्यूसर रही हैं.

“मैना का ख़ून”

13 बरस का साल था
सफ़ेद पहनने की
उकताहट से भरा
कुछ टूट कर गिरा था
योनि से
लाल थक्के सा
बारीक कत्थई सा
छुपाने की होड़
ऐसी उमड़ी
अगले महीने तक
बासी महकती रही मैं
जो कुछ भी बह रहा था
उन सात दिनों में
नाखूनों के पोरों में
एक इंच की भीगी उंगली तक
मरे मूस सी महकी थी
मेरी नाक
माहवारी है या मैना का ख़ून !
तब नहीं समझी थी
अब ख़ूब समझती हूं
क्योंकि अब
उन दिनों में
जांघों के बीच
‘दो पर’ मैं ख़ूब
भलीभांति लगाती हूँ
और, मैना की तरह

लाल नदी के ऊपर
मोनो-पॉज़ तक
उड़ना चाहती हूं!

“आस्तित्व”

फिर मुझे रचना होगा
पहले प्रेम रचा था
फिर गर्भ
अब बीज रचूंगी।


“झूठा-सच्चा पुरुषार्थ”

मुझे पुरुष बनने के लिये
क्या करना होगा?
योनि की दो फांको को
जोड़ कर उसकी नाक लंबी
करनी होगी।
स्तन काटने होंगे।
और तुम…
‘शिवलिंग’ को तोड़ पाओगे!
या फिर
अल्लाह का ‘अलिफ़’!

(2)
ईश्वर भी तो
पुरुष है
ये अभिमान
से अति भी है
कुछ तुम्हारे भीतर
तुम सब छोड़ सकते हो
अपना पुरुषार्थ नहीं!

(3)
हमारे बीच
बस जिव्हा रहने दो
यह आदि है और
सत्य का औजार भी।

“ख़ुश-फ़हमी का बिस्तर”

हमें ये ख़ुशफहमी
हो चुकी है कि
हम इश्क़ के मक़ाम पर हैं
और ये मक़ाम ही
हमारा बिस्तर है!



“नज़्म नहीं लिखती”

सोचती हूं
साइंटिफ़िक सी एक नज़्म लिखूं
जिसे वो काट ना पाए…
क्लासिक सी भी एक नज़्म
जिसमे उलझ सा जाए…
फिर सोचती हूं
नज़्म की जगह
क्यों ना लिख दूं सुरंग
जिसमे वो खो जाए…
फिर सोचती हूं
कुछ भी लिख दूं
बन जाएगी ख़ुद-ब-ख़ुद नज़्म
उसका आना नज़्म से कम थोड़ी है
अपने आप कहां आता है वो
नुज़ूल होता है
हद शिकवा.., कितनी शिक़ायत
सुनकर सुनता तो
इस बार नज़्म नहीं विसाल लिखती..!

“प्रेम ढूंढने का आलस्य”

तुम्हारा…
प्रेम ढूंढने का आलस
मुझे निस्तेज
कर रहा है
निःस्वाद
कर रहा है।
शब्दों की धुरी
पर घूमता
तुम्हारा अतीत
उचित व्यवस्था के
नियम तोड़ रहा है।

तस्वीरें: साभार गूगल


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