शोधार्थी – जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, भारतीय भाषा केंद्र
(हिंदी विभाग) . सम्पर्क: .chaitalisinha4u@gmail.com
“मात्र वर्ग – संघर्ष के द्वारा ही
स्त्री – मुक्ति के महान लक्ष्य को
हासिल नहीं किया जा सकता…
चाहे साम्यवादी हों, माओवादी हों या ट्राटस्कीवादी,
औरत हर जगह, हर खेमे में अधीनस्थ की स्थिति में है,
सबसे निचले पायदानों पर खड़ी है l”
सिमोन द बउआर
जब भी हम पितृसत्ता के संदर्भ में बात करते हैं तो सबसे पहले हमें उस शब्द के अर्थ को जानना नितांत आवश्यक हो जाता है.अर्थात् ‘पितृसत्ता’ ! क्या है पितृसत्ता की व्याख्या ?, क्या करती है ये पितृसत्ता ?, यहाँ यह भी बताना उचित होगा कि पितृसत्ता का अर्थ किसी एक पुरुष या किसी एक व्यक्ति से लड़ाई नहीं है बल्कि पूरी व्यवस्था से है.यानि पितृसत्ता – “वह विचार है, सिद्धांत है, आदर्श है जो अपने से या अपने समूह से भिन्न प्रत्येक व्यक्ति पर नियंत्रण चाहती है l”
हालांकि पितृसत्ता शब्द की आज अपनी समस्याएं हैं और अंतर्विरोध हैं.पितृसत्ता दलन के उन वैश्विक और ऐतिहासिक तरीकों का इस्तेमाल करती रही है, जो स्त्री को उसकी जैविक, अधीनस्थ स्थिति से बार – बार परिचित कराती है.पितृसत्ता के नियमित ढाँचे और आकार हैं जिसमें किसी भी प्रकार का वैरिएशन (बदलाव) स्वीकृत नहीं और न ही इनसे अलग रहने वाला शान्ति से रहने ही दिया जाता है.पितृसत्ताक समाज स्त्री के मुद्दे पर सोचना ही नहीं चाहता.न यह स्वीकारना चाहता है कि ऐतिहासिक विकास के दौरान आधुनिक स्त्री ने अपने लिए अलग से कुछ भी हासिल किया है.वह स्त्री की चुनौती को महज एक बचकाना हरकत मानकर कभी उसे मारता है तो कभी उसे भुलाता – फुसलाता है.मगर पितृसत्ता की आंतरिक इच्छा यही है कि समर्पण एकतरफ़ा हो.
यदि क़ानून स्त्री को बराबरी का आधार दे भी तो सामाजिकता, नैतिकता और लोक-व्यवहार उसके आड़े आ जाते हैं.स्त्री की स्वतंत्र सत्ता और स्वाधीनता पुरुषों की आँखों की किरकिरी बन गई.उसको वापस घर के दायरे में लौटने के लिए कहा गया.यहाँ तक कि मज़दूर वर्ग के पुरुषों ने भी स्त्री की स्वाधीनता पर बंधन लगाने शुरू किए क्योंकि वे स्त्री को अपना एक खतरनाक प्रतियोगी समझने लगे.
अपने अस्तित्व को स्थापित करना चाहने वाला व्यक्ति अपनी दी हुई परिस्थितियों से परे जाकर स्वतंत्र परियोजनाओं में प्रतिबद्ध होकर ही अपने आपको पुनः वापस पा सकता है.औरत भी अन्य मानव प्राणियों की तरह एक स्वतंत्र और स्वायत्त जीव है, लेकिन यही जीव ऐसे जगत में रहता है जो उसकी अतिक्रमण की क्षमता को कुंद करके उसको हमेशा के लिए अंतरवर्ती-अवस्था में रख देना चाहता है.
कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय भूखंड में घटित स्त्री – केंद्रित आंदोलनों के बारे में एक बात दिलचस्प है कि वे प्रेम के से भोलेपन में घटित हो गए : कोई योजना नहीं बनी, कोई मैनिफेस्टो तैयार नहीं हुआ, यहाँ तक कि कोई प्रकट तथा सचेतन पूर्वपीठिका भी नहीं बनी….और हो गया जो होना था : बहुत सार्थक, बहुत क्रांतिकारी, पर दूरगामी प्रभावों की ओर प्रायः अचेत.हमारे देश में और हमारे आसपास घट रही घटनाओं पे यदि गौर किया जाए तो पितृसत्तात्मक औपनिवेश का प्रभाव चारों तरफ़ फैला हुआ है और इसके उदाहरण के लिए हमें बहुत अधिक प्रयास करने की ज़रूरत नहीं है.कहने को तो हमारा समाज आधुनिक है परंतु स्त्री के संदर्भ में हमारा दृष्टिकोण अभी भी रूढ़िवादी है, सामंती है और जड़ है.वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो देश के कई विश्वविद्यालय इस फेहरिस्त में शामिल नज़र आते हैं जहाँ पितृसत्ता की जड़ें बहुत गहरी धंसी हुई दिखाई देती है.जहाँ की छात्राओं को अभी भी अपने अधिकार के लिए सड़कों, चौराहों पे उतरना पड़ रहा है, स्त्री शुचिता का प्रमाण देना पड़ रहा है, अपने होने का बोध कराना पड़ रहा है.इससे ज्यादा हास्यास्पद स्थिति इस देश की छात्राओं के लिए और क्या हो सकती है कि उन्हें अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर क्रांति करने की आवश्यकता पड़ रही है.जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में घट रही घटनाएं इन रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक दृष्टिकोणों का ज्वलंत उदाहरण है, जहाँ यौन शोषण के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई में छात्राएं अपने आपको अकेली और असहाय महसूस करती दिखाई दे रही है, इस गलियारे में उनके खुद के पुरुष सहयोगी भी, प्रशासन और समाज के समान ही उनसे किनारा करते नज़र आ रहे हैं.ऐसे में क्या उनको निष्पक्ष न्याय मिलने की आशा की जा सकती है.
बीच सड़क पर कोई छात्रा निर्वस्त्र होती है तो उसे इस बात की चिंता नहीं होती कि उसके मुद्दे या उस आंदोलन का परिणाम क्या होगा ? बल्कि उसे ये चिंता और खौफ सताने लगती है कि वो कहीं सरेआम बदनाम न हो जाए शायद तभी उन्हीं में से एक ने कहा कि ‘ये वीडियो ज्यादा फैलाओ मत क्योंकि इसमें मेरी छाती दिख रही है’l कहने का तात्पर्य ये है कि उस छात्रा को इस पितृसत्ताक समाज का कितना डर है कि वह अपने हक़ की लड़ाई को छोड़कर अपनी आबरू के बेपर्दा हो जाने के डर से सहम गई, वहीं यदि किसी पुरुष के वस्त्रों को सरेआम कोई खींच-फाड़ देता तो शायद उसे उतना फर्क नहीं पड़ता जितना कि उस छात्रा को.ये जो पवित्रता और देह पर आधारित सो कॉल्ड लज्जा का परिधान स्त्री के माथे मढ़ दिया गया है उससे मुक्त होने में अभी जे.एन.यू. तो क्या देश की हर स्त्री एवं छात्राओं को और कितना वक़्त लगेगा कोई नहीं जानता.
वहीं यदि उनके अपने पुरुष सहयोगियों के तटस्थ होने और उन्हें अपनी लड़ाई लड़ने के लिए अकेला छोड़ने की नीति की बात की जाए तो कहीं यह जे.एन.यू. में एक नए अध्याय की शुरुआत भी हो सकती है, जहाँ कि छात्राओं को यह आत्मज्ञान हो कि स्त्री चाहे जे.एन.यू. जैसे किसी बड़ी संस्था से जुडी हो या दूर बहुल आदिवासी या अनपढ़ समाज से हो वह अभी भी अकेली है एवं उन्हें अपनी लड़ाई उन्हें खुद ही लड़नी है.इस पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण की छाया यहाँ या वहां समान रूप से व्याप्त है.यहाँ की छात्राओं की इस लड़ाई में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की वह कविता अनायास ही याद हो आती है कि –
“जोदि तोर डाक शुने केयो ना आशे
तबे एकला चोलो रे……….!”
आज हम जिस संक्रमण काल में जी रहे हैं वहां स्त्री का बोलना ही जोखिम उठाने के समान है.स्त्री जब अपने को अभिव्यक्त करना आरम्भ करती है, अपने निजी अधिकारों की बात करना शुरू करती है तो उसे रोकने के हर संभव प्रयास ‘ग्रासरूट’ से आरंभ हो जाता है फिर चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या अन्य कार्य का, फ़िल्मी जगत का हो या पत्रकारिता का….! हर क्षेत्र में उस पर पितृसत्ता हावी होने की कोशिश में रहती है.इस प्रकरण में जे.एन.यू. छात्राओं द्वारा किये गए सत्याग्रहपूर्ण आंदोलन को देखा जा सकता है.अपने अधिकारों की मांगों को लेकर जिस तरह उनपर हमला बोला गया वह साफ़ तौर पर यह दिखाता है कि किस कदर ‘पेट्रीयार्की’ सबसे पहले स्त्री देह को टार्गेट करती है ताकि उसे पहले जिस्मानी तौर पर कमज़ोर कर दिया जाए.शायद इसीलिए सबसे पहले उन छात्राओं को शारीरिक रूप से क्षति पहुंचाने की चेष्टा की गई, उन्हें नीचे गिरा दिया गया फिर उनके कैमरे तोड़ दिए गए, उन्हें छेड़ा गया और न जाने क्या – क्या.स्त्री आज जो जोखिम उठा रही है, अपने अधिकार के लिए जिस तरह सड़कों पर उतर आई है उसका बोलना ही राजनीति का हिस्सा बन जा रहा है.‘पर्सनल इज़ पोलिटिकल’ हो जा रहा है, बस यही पितृसत्तात्मक समाज को चुभ रही है, उसे बर्दाश्त नहीं हो रहा है.एक तरफ़ तो हमारा भारतीय संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करता है तो वहीं दूसरी तरफ़ उस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अभिव्यक्त करने से पहले ही दबा दिया जाता है, उसके लब सिल दिए जाते हैं – ‘बोल कि तेरे लब आज़ाद हैं’…..! क्या वाकई में हैं ? यानि आवाज़ उठाओगे तो मार दिए जाओगे.
दूसरी जो सबसे बड़ी बात है वह ये कि आज जहाँ हर तरफ गांधीवादी विचारधारा को अपने जीवन में अपनाने की प्रेरणा दी जा रही है, सत्याग्रह करने की बात की जा रही है, ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’ के नारे लगाए जा रहे हैं वहीं इन सारे वादों-इरादों को ध्वस्त करने की नीति पहले से ही तैयार कर दी जाती है.आज गांधी जी का सत्याग्रह कहीं भी फलीभूत नहीं हो सकता जब तक पितृसत्ता के खम्भे मज़बूती से खड़े रहेंगे.उनके गढ़ तोड़े नहीं जायेंगे.किस बेटी को बचाने और किस बेटी को पढ़ाने की बात की जाती है इस देश में ! जहाँ आठ माह से लेकर आठ साल की बेटी और उससे भी आगे अस्सी साल की वृद्धा तक का यौन घर्षण किया जाता हो ? जिसके योनी में मोमबत्ती से लेकर बोतल तक, रॉड से लेकर लकड़ी तक ठूंस दिया जाता हो उस बेटी को बचाने की और पढ़ने की बात की जाती है ? बहुत बड़ा सवाल खड़ा करता है स्त्री जीवन में समाज का ये क्रूरतम चेहरा.
जे.एन.यू. छात्र – छात्राओं द्वारा किया गया आंदोलन पूरी तरह शांतिपूर्ण और सत्याग्रहपूर्ण था फिर ऐसा क्या हो गया जिसे बीच रास्ते में ही रोक दिया गया, उस शांतिपूर्ण आंदोलन को पूरी तरह से लहूलुहान कर दिया गया, उसे हिंसा में बदल दिया गया, छात्राओं को पीटा गया उनके कपड़े फाड़े गए, उन्हें डराने का प्रयास किया गया.ऐसे में सत्याग्रह और गांधीवादी विचारधारा एवं शांतिपूर्ण आंदोलन करने की बात करना ही बेमानी सी लगती है.हमारा समाज और प्रशासन स्त्री के प्रति कितना उदार है ये इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है.सच्चाई तो यह है कि हमारा समाज कभी बेटियों के प्रति उदार रहा ही नहीं. इतिहास इस बात की गवाह है कि जहाँ एक बेटी को इसलिए अपनी आहुति देनी पड़ी क्योंकि उसने पितृसत्ता के विरुद्ध अपना निर्णय लिया, एक स्त्री की ह्त्या इसलिए कर दी गई क्योंकि उसने शासन की बागडोर अपने हाथों में ले लिया.ऐसे में इतिहास में घटित स्त्री जीवन की घटनाएँ आज वर्तमान में भी प्रासंगिक होती दिखाई देती है.
मानव विज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी) में बालिका वध-प्रथा (female infantcide) का अध्ययन करने से भी हमें यह पता चलता है कि किस प्रकार अपनी पेट की क्षुधा को मिटाने के लिए शिशु कन्याओं का भक्षण किया जाता था.शिशु कन्या ही क्यों ? उदाहरण देखें
– “आरंभ में मानव समूह अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था और इस अस्तित्व अभिमुख अवस्था में लड़की को बोझ समझा जाने लगा क्योंकि एक समूह दूसरे समूह पर आक्रमण करके लड़कियों एवं स्त्रियों का अपहरण करता था.इस कारण बालिका वध – प्रथा (फीमेल इफेंटिसाईड) प्रकाश में आई.जब किसी प्रकार का भोजन नहीं मिल पाता था तब बालिकाओं को वध करके जठराग्नि शांत की जाती थी.इस प्रथा के कारण स्त्री – पुरुष सम्बन्ध प्रभावित हुआ.जब स्त्री की संख्या कम हो गई तब इस समस्या का समाधान बहुपति प्रथा द्वारा किया गया l” (‘सामाजिक सांस्कृतिक मानवशास्त्र’, विजय शंकर उपाध्याय, गया पाण्डेय, क्राउन पब्लिकेशन, मैकई रोड, उप्पर बाज़ार, रांची – 834001, झारखण्ड, संस्करण: 2005, पृ.सं.77)
इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है कि स्त्री तब भी बोझ समझी जाती थी स्त्री आज भी बोझ समझी जाती है. इतिहास आज भी अपने आपको दोहरा रही है, कभी ऑनर किलिंग के रूप में, तो कभी दहेज़ हत्या के रूप में और कभी बलात्कार के रूप में.
तमाम परिघटनाओं के बाद हम जिस विषय को सबसे अधिक संवेदनशीलता के दाएरे में रखते हैं वो है गुरु – शिष्य परंपरा को.हमारी परंपरा ने हमें शुरू से यही सिखाया है कि हमारे जीवन में गुरु का क्या और कितना महत्त्व है.इसी महत्त्व को ध्यान में रखते हुए यद्धपि कबीर ने कहा था कि –
“गुरु गोविन्द दौऊ खड़े, काके लागूं पाए
बलिहारी गुरु आपने जो गोविन्द दियो बताए”
आज ये संबंध ताड़ – ताड़ होती दिखाई पड़ती है.इस पवित्र संबंध की शाख को धूमिल करती नज़र आती है.गुरु से बड़ा सच्चा मार्गदर्शक कोई नहीं, इश्वर भी नहीं.अंत में…..? वैसे तो इस विषय का तब तक अंत नहीं होगा जब तक स्त्री समानता के दाएरे में नहीं आती, जब तक ‘पितृसत्ता के उलट इकुएलिटी’ स्थापित नहीं होती.अर्थात् संघर्ष जारी है और जारी रहेगा…..!
“तुम मुझे अपने तीखे और विकृत झूठों के साथ
इतिहास में शामिल कर सकते हो
अपनी चाल से मुझे गंदगी में धकेल सकते हो
लेकिन फिर भी मैं
धूल की तरह उड़ती जाउंगी l”
– (‘स्टील आई राइज़’, माया एंजेलो).
गूगल से साभार
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