इन बिटवीन द एलिमेण्ट्स ऑफ़ पेण्टिंग, द बॉडी एंड द स्पेस (जयपुर में नवीन कलात्मक आगाज)

कृष्णा महावर


सहायक प्रवक्ता, चित्रकला, राजस्थान विश्वविद्यालय संपर्क:krish_mahawer@yahoo.co.in

 पिछले दिनों  राजस्थान ललित कला अकादमी द्वारा आयोजित 20वें कला मेले में कई नवीन व मौलिक कलात्मक कार्यों का प्रदर्शन हुआ। ‘‘इन बिटवीन द एलिमेण्ट्स ऑफ पेण्टिंग, द बॉडी एण्ड द स्पेस‘‘ शीर्षक से मेर द्वारा परिकल्पित आर्ट पर्फोमेन्स भी हुआ। यह परफ़ॉर्मेंस कई विषयों व पक्षों को छूती है। यह आर्ट पर्फोमेन्स कला शिक्षा व कला दोनों के जुड़ाव के साथ नवीन कलात्मक पहलुओं का एक नवीन आगाज उजागर करती है। जिसमें कला की प्रकृति पर भी सवाल उठाया गया है, साथ ही कला की शिक्षा में किताबी पढ़ाई पर भी प्रश्न खड़े किये गये।

कला शिक्षिका होने के नाते मेरी सर्वप्रथम प्राथमिकता विद्यार्थी ही होते है और उन्हें एक खुला और स्वतंत्र माहौल देने के लिये कई बार मुझे सिस्टम से बाहर भी आना पड़ता है। मैं बहुत गहराई से सोचती हूँ कि आर्ट थ्योरि को भी विजुअल तरीके से पढ़ाया जाना चाहिये। इस आर्ट के लिये मेरी पहली पसंद विद्यार्थी ही थे ताकि उनका सीधा संबंध स्थापित हो सके। आरम्भिक रूप में यह क्लासरूम का हिस्सा था बाद में एक आर्ट वर्क के रूप में विकसित हो गया। इस परफ़ॉर्मेंस में साउण्ड व म्यूजिक ने भी बहुत असर छोड़ा है।

वास्तव में परफ़ॉर्मेंस आर्ट की उत्पत्ति ही, कला की सीमाओं को तोड़ने व कला बाजार को खत्म करके तथा कला को मात्र वस्तु मानने जैसी अवधारणाओं के विरोध स्वरूप होती है। जहाँ पारम्परिक कलाओं (चित्रकला व मूर्तिकला) में दर्शक के पास मात्र देखने के अतिरिक्त कुछ नहीं रह जाता व कलाकार बेहद एकांतिक माहौल में सृजन करता है। इसके विपरीत आज के उत्तर आधुनिक समय में जिन नवीन कलाओं ने जन्म लिया उनमें इन्स्टोलेशन आर्ट, साइट स्पेसिफिक आर्ट, डिजिटल आर्ट, लैण्ड आर्ट, पर्फोमेन्स आर्ट है। ये सभी क्षणिक प्रकृति की है अतः अन्तिम वस्तु के रूप में मात्र डाक्युमेण्टेशन ही उपस्थित रहता है। इन तमाम कलाओं में दर्शकों की भागीदारी अतिमहत्वपूर्ण होती है।

परफ़ॉर्मेंस कला की प्रकृति प्रत्ययवादी (कान्सेप्चुअल) है तथा उच्च स्तरीय दार्शनिक भी होती है। पर्फोमेन्स कला में कलाकार की सशरीर उपस्थिति व उसका दर्शक के साथ संबंध अतिआवष्यक माना जाता है। व किसी विशिष्ट स्थान व समय की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। इसी क्रम में उक्त आर्ट पर्फोमेन्स में सभी कलाकार स्नातक व स्नातकोत्तर के विद्यार्थी ही थे। और कला के तत्वों- रेखा, रूप, रंग, तान, पोत अन्तराल आदि को मूल विषय या विचार बनाकर मानवीय शरीरों द्वारा एक अमूर्त व नॉन लिनियर परफोर्मेंस की गई इसके प्रथम दृश्य में विद्यार्थी अपने दायें हाथ पर ब्रश बांधे व बांये हाथ में ‘‘फण्डामेण्टल ऑफ़ विजुअल आर्ट‘‘ नामक काल्पनिक पुस्तक पकड़े हुये दर्शकों के समक्ष उपस्थित होते हैं। वे सभी बैठ जाते है, लेट जाते है और पुस्तक में एकाग्रता तथा ब्रश वाले हाथ को कई बार ऊपर नीचे होना कई प्रश्न पैदा करते हैं। यकायक सभी पुस्तकों के पृष्ठों को खीज वाली स्थिति में आकर फाडना आरम्भ करते है और देखते ही देखते वहाँ कागजों का ढेर लग जाता है। मैंने पुस्तकीय ज्ञान की कला क्षेत्र में अपर्याप्तता पर सवाल खड़ा कया है और आज की कला शिक्षा प्रद्धति को भी निशाना बनाया है।

आगे के दृश्य में स्वयं कलाकार अपने कमर पर बहुत सी रस्सियाँ बांधे हुए झुककर मुंह से ब्रश पकड़े अमूर्त आकृतियाँ उकेरती है। इसी प्रकार आगामी दृश्य में एक विद्यार्थी एक मोटी रस्सी के साथ कई-कई बार गुत्थमगुत्था होता दिखाई देता है वह रस्सी के फर्श पर ऊलट पुलट कर कुछ खोजता, कुछ सोचता, कभी उछालता, कभी लपेटता है और कुछ अमूर्त पंक्तियाँ भी बुदबुदाता है:- ‘‘वो वहाँ लटकती रेखा, क्या कहना था उसे, उसका कोई प्रेम, प्रिय रूपाकार, अटका गया उसे, वो वहाँ लटकती रही, लटकती रही, लटकती रही।‘
इसी प्रकार एक दृश्य में चार छात्राएं एक पेन्सिल को लेकर व कुर्सी पर बैठकर विभिन्न मुद्राऐं बनाती है। वे सिर पर स्केच फाइल को रखकर प्रवेश करती है व पेन्सिल को कभी कानों में फंसाती है, कभी मुंह में लेती है और सामने की ओर एकाग्र, एकटक देखती रहती है। शायद कुछ अवलोकन कर रही है या विषय की तलाश में है जिसे अपनी स्केच फाइल में उकेर सकें। इसी क्रम में आगे एकदम से बहुत सारे (सारे ही) कलाकार, विद्यार्थी, अलग-अलग दिशा में मुंह किये खड़े हो जाते हैं और कला की परिभाषाऐं ऊंचे स्वर में बोलने लगते है जैसे आर्ट इज लाइफ, सत्यम् शिवम सुन्दरम, कला मानव की सहज अभिव्यक्ति है, कला मन के भावों का प्रदर्शन है आदि और इस अन्तराल को बीच-बीच में एक प्रश्न तोड़ता है कि व्हाइट इज आर्ट? व्हेयर इज आर्ट? व्हाई इज आर्ट?। यह दृश्य तमाम कलात्मक परिभाषाओं पर आक्रामक तरीके से वार करता है कि अन्तिम रूप में कला है क्या? आखिर कला का उद्देश्य क्या है? व किसे कला माना जाये?

यह आर्ट परफ़ॉर्मेंस उस समय चरम पर होती है जब रिक्त स्थान पर दो छात्रायें आकर रंगीन मिट्टी को फैलाने लगती हैं। माहौल में कुछ धुल सा उड़ता है दर्शकों पर भी जाता है। परन्तु तुरंत ही अन्य कलाकार वहाँ आकर आपकी अंगुलियाँ व पैरों से कुछ रेखायें खिचने से दिखाई देने लगते हैं। यह दृश्य बहुत गंभीर प्रस्तुति देता है। इसी प्रकार एक बार तो रंगीन फर्श भी आ जाता है। पूरी परफ़ॉर्मेंस में फर्श भी तीन चार बार अपना रंग बदलता है। रंगत व टेक्स्चर को प्रदर्शित करते विद्यार्थी जमीन पर लेटकर फर्श को हाथों से अनियमित अन्तराल में छूते हैं व महसूस करते है तभी एक लड़की हाथों में कांच का गिलास, एक अन्य लड़की प्लास्टिक की बोतल व तीसरी लकड़ी को हाथों में लेकर उन्हें सहलाती हुई अन्तराल पर विचरण करती रहती है। मैंने रंगो व पोत को इस तरह से दृश्यमान होते देखा है। इस परफ़ॉर्मेंस की परिकल्पना मैंने जिस भी विचार से की हो परन्तु यह दर्शकों पर नवीन आयामों को उजागर करती अभिव्यक्त होती है। एक ऐसा सैद्धान्तिक विषय जो कक्षाओं में पढ़ाने का है अधिक से अधिक विषय से संबंधित चित्रों को स्लाइड या स्क्रीन पर पढ़ाया जा सकता है। ऐसे ही विषय को कक्षा से बाहर निकाल कर एक पर्फामेन्स द्वारा अभिव्यक्त करना वाकई एक नये विचार का आगाज है। एक विचार, एक कान्सेप्ट होते हुये भी गूढ़ अर्थों में कला शिक्षा के इर्द गिर्द के कई गंभीर मुद्दों को भी परोक्ष रूप में उकेरा गया है। कलात्मकता है। परन्तु माध्यम अलग है। अभिव्यक्ति है परन्तु न कोई रंग, न रेखा, न कैनवास, फिर भी कलाकारों द्वारा अपने शारीरिक मूवमेंट्स तथा हलचलों द्वारा विचार का     एक अमूर्त संप्रेषण किया गया।

यूं तो परफार्मेंस कला, सामाजिक, राजनीतिक, लिंग भेद, समकालीन मुद्दों का संप्रेषण व अभिव्यक्ति स्पष्ट तरीकों से करती है। उसी कला को मैंने अपनी शैक्षणिक पद्धति में समाहित किया और एक कला कार्य के रूप में तैयार कर कला छात्रों व कलाकारों से एक साथ संवाद स्थापित किया। अमूर्त-मूर्त, सृजन-विध्वंस, विश्वास, पॉजिटिव-नेगेटिव के इर्द गिर्द यह पर्फोमेन्स रचित हुआ दिखाई देता है। यह  परफार्मेंस पूरी तरह से बॉडी द्वारा सेल्फ एक्सप्लोरेशन की और एक कदम है, जिसका मूल विचार तो चित्र के छः तत्व हैं, परन्तु प्रक्रिया के दौरान कई बार उस विचार से आगे व परे की यात्रा भी हो जाती है। जो किसी भी सृजन प्रक्रिया में जायज भी है। एक रेखा किस प्रकार अपनी भौतिक सत्ता रखती है। या रंगों और टेक्स्चर की मुठभेड़ जब शरीरों से होने लगे तो क्या कुछ नई संभवनाऐं निकल कर आती हैं। रिक्त स्थल की उर्जा को परोक्ष रूप में स्वयं कलाकार और साथ ही दर्शक भी एक साथ महसूस करने लगते हैं।

परफार्मेंस कला ललित कला की ही एक नवीन कला शैली है और मरीना एबोमोविक को परफार्मेंस कला की ‘ग्रैंडमदर‘ माना जाता है। इसका नाटक या थियेटर से कोई संबंध नहीं होता। बल्कि कलाकार स्वतंत्र रूप में एक विचार को ही आगे बढ़ाता है मात्र  शरीर द्वारा। वह अन्य कलाओं से प्रेरणा ले सकता है। इसमें किसी स्क्रिप्ट या कथा की आवश्यकता नहीं होती। यह पूरी तरह कलाकार स्वयं ही निर्धारित करता है कि उसे क्या चाहिये और कैसे प्रस्तुत होना है। साउण्ड, वस्तुयें, कपड़े आदि हो भी सकते हैं, नहीं भी। कुल मिलाकर इस नवीन कला का प्रदर्शन जयपुर शहर में बहुत शानदार तरीके से हुआ। यह मेरा दूसरा परफार्मेंस था। इससे पूर्व भी  मैं अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर 24×7 शीर्षक से परफॉर्म कर चुकी हूँ। मुझे चित्रकला बहुत ही अपर्याप्त माध्यम प्रतीत होता है। परफार्मेंस कला में कहने के लिए बहुत कुछ है और बात बहुत ही सीधे तरीके से दर्शकों व समाज तक तुरंत ही पहुंचती है। इस परफार्मेंस के साथ राजस्थान में मुझे बहुत सी संभावनाएँ प्रतीत हो रही हैं।

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